Tuesday 14 September 2021

ब्रह्ममय होकर ब्रह्म का ध्यान करो ---

 

ब्रह्ममय होकर ब्रह्म का ध्यान करो ---
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ध्यान की गहराई में ही अनुभव होगा कि भगवान ही अक्षर-ब्रह्म हैं। उन्हीं के शासन में सारी सृष्टि चल रही है। चाहे देवता हों या मनुष्य, सब उन्हीं से शासित हैं। भगवान को ही ब्रह्म कहते हैं, वे कूटस्थ हैं। हमें निरंतर उनका स्मरण करते रहना चाहिए। जिस पर भी भगवान की कृपा है, उस का आचरण और जीवन ही ब्रह्ममय हो जाता है। वह कभी भी यह दिखावा नहीं करता कि उसे ब्रह्म का ज्ञान है। जिसे ब्रह्म का ज्ञान नहीं है, वह ही ब्रह्म की जिज्ञासा करता है, लेकिन ब्रह्मज्ञ कभी भूल से भी अपने मुंह से नहीं कहता कि वह ब्रह्मज्ञ है।
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भगवान के ध्यान के लिए हर पल एक शुभ मुहूर्त होता है। जब भी भगवान की याद आए वह पल एक शुभ मुहूर्त है, जो अनेक जन्मों के सद्कर्मों का फल है। भगवान की भक्ति के लिए कोई देश-काल या शौच-अशौच का बंधन नहीं है। निरंतर भगवान का स्मरण रहे। जब भूल जाएँ तब याद आते ही फिर स्मरण आरंभ कर दें।
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हर साँस के आने-जाने व जाने-आने के मध्य का क्षण एक संधि-क्षण होता है जो सर्वाधिक शुभ समय होता है। उस समय भगवान का स्मरण रहना चाहिए। जब दोनों नासिका छिद्रों से साँस चल रही हो वह समय सर्वश्रेष्ठ है। उस समय भगवान का ध्यान सिद्ध होता है। उस समय का उपयोग भगवान के ध्यान के लिए करना चाहिए।
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यथार्थ में भगवान ही हमारे माध्यम से सांसें ले रहे हैं, और हर जीव को जीवंत रखे हुए हैं। उनके स्मरण और प्रेम में व्यतीत किया हुआ जीवन ही सार्थक है। जो भी क्षण परमात्मा की स्मृति में, उनके स्मरण में लिकल जाए वह ही शुभ और सर्वश्रेष्ठ है, बाकी समय विराट मरुभूमि की रेत में गिरे जल की कुछ बूंदों की तरह निरर्थक है।
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निरंतर अपने ब्रह्मत्व का ध्यान करो। ब्रह्ममय होकर ब्रह्म का ध्यान करो। पवित्र देह और पवित्र मन के साथ, एक ऊनी कम्बल पर कमर सीधी रखते हुए पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर के बैठ जाओ। भ्रूमध्य में भगवान के अपने प्रियतम रूप का ध्यान करो। मान लो यदि आप भगवान शिव का ध्यान करते हो तो देखिये कि वे पद्मासन में शाम्भवी मुद्रा में बैठे हुए हैं, उनके सिर से ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है, और दसों दिशाएँ उनके वस्त्र हैं। धीरे धीरे उनके रूप का विस्तार करो। आपकी देह, आपका कमरा, आपका घर, आपका नगर, आपका देश, यह पृथ्वी, यह सौर मंडल, यह आकाश गंगा, सारी आकाश गंगाएँ, और सारी सृष्टि व उससे परे भी जो कुछ है वह सब शिवमय है। उस शिव रूप का ध्यान करो। वह शिव आप स्वयं हो। आप यह देह नहीं बल्कि साक्षात शिव हो। बीच में एक-दो बार आँख खोलकर अपनी देह को देख लो और बोध करो कि आप यह देह नहीं हो बल्कि शिव हो। उस शिव रूप में यथासंभव अधिकाधिक समय रहो। सारे ब्रह्मांड में एक ध्वनी गूँज रही है, उस ध्वनी को ही निरंतर सुनो। वह ध्वनि ही अक्षर-ब्रह्म है। हर आती-जाती साँस के साथ यह भाव रहे कि मैं "वह" हूँ -- "हँ सः" या "सोsहं"। यही अजपा-जप है, यही प्रत्याहार, धारणा और ध्यान है। यही है शिव बनकर शिव का ध्यान, यही है सर्वोच्च साधना।
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यह साधना उन्हीं को सिद्ध होती है जो निर्मल, निष्कपट है, जिन में कोई कुटिलता नहीं है और जो सत्यनिष्ठ और परम प्रेममय हैं। उपरोक्त का अधिकतम स्वाध्याय करो। भगवान की परम कृपा से आप सब समझ जायेंगे। भगवान सबका कल्याण करेंगे। अपने अहंकार, अस्तित्व और पृथकता का बोध उनमें समर्पित कर दो।
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० सितंबर २०२१

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