(राष्ट्र और धर्म के लिए की गयी "रणभूमि की हिंसा" - अहिंसा से भी श्रेष्ठ धर्म है)
क्या अहिंसा सदा ही परम धर्म है ? -- (लेखक: आचार्य सियारामदास नैयायिक)
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"अहिंसा परमो धर्मः" यह वाक्य अति प्रसिद्ध है । जिसके द्वारा अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ धर्म कहा गया है । हम यहां यह विचार करते हैं कि यह वाक्य कहां और किस प्रकरण में आया है । महाभारत में कई स्थलों पर यह वाक्य दृष्टिगोचर होता है । जैसे --
"अहिंसा परमो धर्मः स च सत्ये प्रतिष्ठितः" ।
अहिंसा परम धर्म है और वह सत्य में प्रतिष्ठित है ।
अहिंसा के विषय में और भी देखें--
अहिंसा परमो धर्म इत्युक्तं बहुशस्त्वया । --वनपर्व-115/1,
अहिंसा परम धर्म है --यह आपने कई बार कहा है ।
"अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः ।
अहिंसा परमं सत्यं यतो धर्मः प्रवर्तते । ।
----- अनुशासनपर्व-115/23,
अहिंसा परम धर्म है उसी प्रकार अहिंसा परम तपश्चर्या है । अहिंसा परम सत्य है जिससे धर्म की प्रवृत्ति होती है ।
"अहिंसा परमो धर्मो हिंसा चाऽधर्मलक्षणा"।
--आश्वमेधिकपर्व-43/21,
अहिंसा परम--सर्वश्रेष्ठ धर्म है । और हिंसा अधर्मस्वरूपा है ।
पूर्वोक्त वचनों में अहिंसा को सर्वश्रेष्ठ धर्म तथा हिंसा को अधर्म का स्वरूप बतलाया गया है ।
अब हम आपके समक्ष सप्रमाण यह तथ्य प्रस्तुत करेंगे कि--
"अहिंसा सर्वश्रेष्ठ धर्म अवश्य है पर सर्वत्र नहीं । इसी प्रकार हिंसा अधर्म तो है पर सर्वत्र नहीं" ।
देखें --
शरशय्या पर पड़े पितामह भीष्म से धर्मराज युधिष्ठिर ने प्रश्न किया कि---
"ऋषि, ब्राह्मण और देवता "अहिंसा रूपी धर्म की बड़ी प्रशंसा करते हैं;क्योंकि उसके विषय में वेदरूपी प्रमाण दृष्टिगोचर होता है--
"ऋषयो ब्राह्मणा देवा प्रशंसन्ति महामते ।
अहिंसालक्षणं धर्मं वेदप्रामाण्यदर्शनात् ।।
--अनुशासनपर्व-114/2,
अहिंसा में वेद प्रमाण --
"न हिंस्यात् सर्वा भूतानि"
किसी भी प्राणी की हिंसा न करे--यही "वेदप्रामाण्यदर्शनात्" से कहा गया है ।
इसी प्रमाण के आश्रय से "अहिंसा परमो धर्मः " पूर्वोक्त वाक्यों में कहा गया है ।
अब इस सर्वश्रेष्ठ धर्म अहिंसा को सामने रखकर धर्मराज युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म से पूछा कि आप अहिंसा को परम धर्म भी कह रहे हैं और श्राद्ध कर्म में पितरों को मांस का अभिलाषी भी बतला रहे हैं ----
" अहिंसा परमो धर्म इत्युक्तं बहुशस्त्वया।
श्राद्धेषु च भवानाह पितृनामिषकांक्षिणः" । ।
---अनुशासनपर्व-115/1,
ध्यातव्य है कि गीता प्रेस के महानुभावों ने इस अध्याय के 9 श्लोकों को निकाल दिया है । जबकि इस पर प्रसिद्ध विद्वान् "श्रीनीलकण्ठ" की प्राचीन "भारतभावदीप" नामक संस्कृत टीका आज भी उपलब्ध है ।
जिसके अनुसार पाठ रखने की बात इसके प्रकाशक ने "महाभारत, प्रथम खण्ड के नम्र निवेदन" में कही है ।। अस्तु ।।
अब श्राद्ध में पितरों की तृप्ति हेतु अभीष्ट मांस जीवों की हिंसा किये विना तो मिल नहीं सकता और इस स्थिति में अहिंसा रूपी परम धर्म का पालन करना ?
ये दोनों परस्पर विरुद्ध बाते हैं । अतः मुझे धर्म में संशय हो गया है । --
"अहत्वा च कुतो मांसमेवमेतद्विरुध्यते"--115/2,
"जातो नः संशयो धर्मे मांसस्य परिवर्जने" । --115/3
यहां पर पितामह ने मांस के भक्षण का निषेध करते हुए बतलाया है कि --
सुन्दर रूप,पूर्ण अंग, आयु ,सत्त्व, बल और सुदृढ स्मृति की प्राप्ति के इच्छुकों को मांसभक्षण का निषेध महर्षियों ने किया है ।
----115/6,
पितामह ने ऋषियों के बीच निर्णीत सिद्धान्त का वर्णन प्रस्तुत करते हुए कहा कि "अहिंसा ही परम धर्म है " ।--115/7,
जो मद्य और मांस का त्याग कर देता है । वह प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है ।--115/8,
बृहस्पति जी का कथन है कि मद्य मांस का त्याग करने वाले को दान
यज्ञ और तपस्या का फल मिलता है ।--115/12,
100 वर्षों तक अश्वमेध करने का फल मांस का भक्षण न करने वाला प्राप्त करता है ।---115/14,
मद्य,मांस को त्यागने वाला व्यक्ति सदा सत्र (अनेक यजमानों से किये जाने वाले यज्ञ को सत्र कहते हैं- बहुयजमानकर्तृको यागः सत्रम् )तथा तपश्चर्या का फल प्राप्त करता है ।--115/15,
इस प्रकार "अहिंसारूपी परम धर्म की प्रशंसा महापुरुषों ने की है"--
"एवं वै परमं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः "--अनुशासनपर्व-115/21,
यहां पर यह भी कहा गया है कि पूर्व कल्प में धार्मिक लोग जो यज्ञ करते थे उसमें चावल का पशु बनाया जाता था --115/49,
अर्थात् जीवहिंसा से वर्जित वे यज्ञ होते थे ।
पुनः पितामह कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! अहिंसा और हिंसा के विषय में जैसे तुम्हे संशय हुआ है ।
ऐसा ही संशय होने पर ऋषियों ने आकाश में विचरण करने वाले चेदिनरेश महाराज वसु से पूछा तो उन्होने अभक्ष्य मांस को भक्ष्य है --ऐसा निर्णय दिया । --115/50,
इस गलत निर्णय के कारण उनका ऐसा अधःपतन हुआ कि आकाश से पृथ्वी पर गिर पड़े । और भूलोक में भी वैसा ही निर्णय देने के कारण धरती में समा गये ।---115/51,
»»»»»»»» निष्कर्ष««««««««
इस विवेचन से यही सिद्ध हुआ कि "अहिंसा को परम धर्म " मांसभक्षण और अभक्षण के प्रसंग में ही कहा गया है ।
धर्मरक्षा या देशरक्षा के लिए "रणभूमि" के प्रसंग में यही अहिंसा अधर्म का रूप ले लेती है ;क्योंकि कृपा जैसे एक महान् गुण है पर वही रणभूमि में शत्रुदल पर हो जाय तो वह एक महान् दुर्गुण हो जाता है ।
इसीलिए भगवान् ने कृपा से आविष्ट अर्जुन को देखकर उन्हे कोसते हुए रणभूमि मे होने वाली कृपा को अनार्यसेवित अकीर्तिकर आदि शब्दों से कहा । --गीता-2/2,
यदि युद्ध में अहिंसा का कोई महत्त्व होता तो शत्रुसैन्य पर विजय प्राप्त करके धर्मपूर्वक पृथिवी का पालन करे --यह आज्ञा शास्त्र कभी भी नही देते ----
" निर्जित्य परसैन्यानि क्षितिं धर्मेण पालयेत् "--
»»»राष्ट्र या धर्म की रक्षाहेतु की गयी हिंसा परम धर्म है«««
महाभारत भीष्म पर्व में भगवान् व्यास से प्राप्त दिव्यदृष्टि वाले सञ्जय स्वयं धृतराष्ट्र से कहते हैं कि
" पुण्यात्माओं के लोकों को प्राप्त करने की इच्छा वाले नृपगण शत्रुसैन्य में घुसकर युद्ध करते हैं"--
"युद्धे सुकृतिनां लोकानिच्छन्तो वसुधाधिपाः ।
चमूं विगाह्य युध्यन्ते नित्यं स्वर्गपरायणाः ।।
---- 83/10,
यदि रणांगण की हिन्सा अधर्म होती तो सञ्जय ऐसा नही कहते ।
और न ही भगवान् कृष्ण वीरवर पार्थ को शत्रुओं से संग्राम करने का आदेश ही देते---
"मामनुस्मर युध्य च"--गीता--8/7,
»»»»»»युद्ध में वीरगतिप्राप्त योद्धा को स्वर्ग से भी उच्चलोक की प्राप्ति«««««
इस संसार में मात्र 2 ही प्राणी ऐसे हैं जो सूर्यमण्डल का भेदन करके भगवद्धाम जाते हैं ।
1--सम्पूर्ण जगत् से अनासक्त योगी
2--शत्रु के सम्मुख रणभूमि में वीरगति प्राप्त करने वाला ।
"द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्यमण्डलभेदिनौ ।
परिव्राड् योगयुक्तश्च रणे चाभिमुखो हतः ।।
------------ शार्ड़ंगधरपद्धति
ब्रह्मवेत्ता सूर्य की रश्मियों के सहारे सूर्यलोक पहुंचकर वहीं से ऊपर हरिधाम जाता है --
"अथ यत्रैतस्माच्छरीरादुत्क्रामत्यथैततैरेव रश्मिभिरूर्ध्वमाक्रमते "---छान्दोग्य-8/6/5,
"तयोर्ध्वमायन्नमृतत्त्वमेति"--8/6/6, --इस वाक्य से भगवद्धामरूपी मोक्ष प्राप्त करना बतलाया गया है ।
"रश्म्यनुसारी"--ब्रह्मसूत्र-4/2/17,
में सभी भाष्यकारों ने इस तथ्य का निरूपण किया है । इसे वेदान्त में "अर्चिरादि मार्ग"कहा गया है । इससे ऊर्ध्वगमन करने वाला प्राणी पुनः संसार में नही लौटता ।
जबकि यज्ञ,दान,तपश्चर्या करने वाले स्वर्ग सुख भोगकर पुण्यक्षय के पश्चात् संसार में लौटते हैं । यही यज्ञ,दान आदि तो अहिंसा के फल बतलाये गये हैं ।
पर रणभूमि में जाकर शत्रुओं पर काल बनकर टूट पड़ने वाला योद्धा यदि वीरगति को प्राप्त हो जाय तो वह उस स्थान को प्राप्त करता है जो "अहिंसा परमो धर्मः" वाले को परम दुर्लभ है ।
अतः निष्कर्ष निकला कि राष्ट्र और धर्म के लिए की गयी "रणभूमि की हिंसा" अहिंसा से भी श्रेष्ठ धर्म है।
इसलिए हे भगवान् परशुराम, श्रीराम,श्रीकृष्ण,छत्रपति वीर शिवा और प्रचण्डपराक्रमी महाराणा की सन्तानों !
देशद्रोहियों और धर्मविध्वंसकों पर काल बनकर टूट पड़ो ।
"अहिंसातः परो धर्मः युद्धे हिंसा हि मुक्तिदा ।
इति स्वान्ते विनिश्चित्य शत्रुसैन्यं विमर्द्यताम्। ।
»»»»»»»»जय श्रीराम«««««««
»»»»»»»»» आचार्य सियारामदास नैयायिक««««««««««
४ मार्च २०१३
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उपरोक्त पोस्ट पर माननीय श्री अरुण कुमार उपाध्याय की टिप्पणी ---
Arun Kumar Upadhyay
मैंने इस श्लोक का स्रोत बहुत दिनों तक खोजा था-
द्वाविमौ पुरुषौ लोके सूर्य मण्डल भेदिनौ।
परिव्राड् योगयुक्तो वा रहे चाभिमुखं हतम्॥
एक प्राध्यापक ने बताया कि विदुर गीता में है। उसके बाद शुक्र नीति में मिला। आज शार्ङ्गधर पद्धति में देखा।
भोजन में मांस खाने के लिए भी लोग किसी बहाने से हिंसा करते हैं। सिद्धार्थ बुद्ध यज्ञ में पशुबलि से द्रवित थे, पर स्वयं मांस खाना नहीं छोड़ा। देवदत्त ने मांग की कि संघ तथा विचारों में भिक्षुओं को दैनिक मांस भोजन बन्द किया जाए तथा कम से कम एक बार वे भिक्षा मांगे। इस प्रस्ताव के कारण उनको निकाला गया तथा बुद्ध ने कहा कि मुफ्त मांस नहीं मिलने पर संघ की लोकप्रियता कम हो जायेगी। लोकप्रियता के लिए ८४,००० विचारों में इतना मुफ्त भोजन मिला कि समाज उनका बोझ नहीं सह सका। स्वयं बुद्ध द्वारा अधिक मांस भोजन के कारण पाटलिपुत्र के जीवन वैद्य ने दो बार उनके पेट की शल्य चिकित्सा की थी तथा कहा कि तीसरी बार पेट नहीं चीर सकते (जैसा सीजरियन में होता है)। किन्तु बुद्ध मांस लोभ नहीं रोक पाये तथा मांस भोजन के कारण उनकी सारनाथ में मृत्यु हुई।
बौद्ध मत में 'अहिंसक' मांस खाने के लिए बकरे या भेड़ का नाक-मुंह बान्ध देते हैं जिससे वह श्वास बन्द होने से मर जाता है। इसी प्रकार इस्लाम में 'अहिंसक' (हलाल) मांस के लिए पशु का गला थोड़ा रेत देते हैं जिससे वह रक्तस्राव से मर जाता है। दोनों हत्या बहुत पीड़ादायक हैं किन्तु यह अहिंसक होने का बहाना है।
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