अति संक्षेप में हिन्दू धर्म ---
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आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों का भोग, पुनर्जन्म, ईश्वर के अवतारों में आस्था, व भक्ति और समर्पण के द्वारा भगवत्-प्राप्ति (आत्म-साक्षात्कार) --- ये सनातन सत्य हैं, जिन्हें हम हिन्दू-धर्म कहते हैं।
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स्वयं की अपने भौतिक, सूक्ष्म, व कारण शरीर से पृथकता का बोध कर -- कर्म, भक्ति और ज्ञानयोग के द्वारा परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही आत्म-साक्षात्कार यानि भगवत्-प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है। इसे समझने के लिए हमें ईश्वर का निरंतर स्मरण, और उनके अनुग्रह की प्रार्थना करनी चाहिये।
यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का १५वाँ, और ईशावास्योपनिषद का १७वाँ मंत्र कहता है --
"वायुरनिलममृतमथेदं भस्मान्तं शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतं स्मर क्रतो स्मर कृतं स्मर॥"
इसका भावार्थ है कि अंततः प्राणवायु तो अनिल में मिल जाती है, शरीर की परिणति भस्म हो जाना है, और शाश्वत आत्मा ही शेष रह जाती है। स्वयं को अपनी देह से भिन्न समझकर भगवान का स्मरण करते हुए भगवान को समर्पित हो जाना चाहिये।
"अथ वायुः अमृतम् अनिलम्। इदम् शरीरं भस्मान्तं भूयात्। ॐ क्रतो कृतं स्मर॥"
जीवात्मा अपने कर्मानुसार प्रकृति के नियम से बाध्य होकर एक शरीर से दूसरे शरीर को प्राप्त करती रहती है। जैसे वायु कहीं स्थिर नहीं रहती, वैसे ही यह जीव भी किसी योनि में स्थिर नहीं रहता। कब यह जीव शरीर से निकल जाये, इसका भरोसा नहीं है। अतः अपने कल्याण हेतु परमात्मा का निरंतर स्मरण करना चाहिये। तभी हम कृतकृत्य और कृतार्थ होंगे। अंत समय में यदि हम परमात्मा का स्मरण न भी कर पायेंगे तो परमात्मा ही हमारा स्मरण कर लेंगे।
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श्रीमद्भगवद्गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण निरंतर स्मरण को कहते हैं --
"अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥८:५॥"
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥८:६॥"
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- जो मनुष्य अन्तकालमें भी मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़कर जाता है, वह मेरे स्वरुप को ही प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं है॥
हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव का स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह उस (अन्तकाल के) भाव से सदा भावित होता हुआ उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनि में ही चला जाता है॥
इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो। मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
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श्रुति भगवती (वेद) भी अनेक स्थानों पर कहती है कि देह का नाश हो जाने पर भी यह जीव अविनाशी है
"अविनाशी वाऽरेऽयमात्माऽनुच्छित्तिधर्मा" (बृहदारण्यक- ४/५/१४)
भावार्थ - यह आत्मा अविनाशी और अनुच्छित्ति (अक्षय) धर्मा है।
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यह हमारा सर्वोपरि परम कर्तव्य है कि हम स्वयं यानि अपने आप को -- परमात्मा को सौंप दें। कैसे सौंपें ??? ---
"ॐ" परमात्मा का नाम है --"तस्य वाचकः प्रणवः"-- योगसूत्र- /२७॥
अतः प्रणवरूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण को चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य का प्रमादरहित होकर संधान करें --
"प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥ मुण्डक २/२/४॥"
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यही बात अनेक उपनिषदों में बीसों बार कही गयी है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी अनेक स्थानों पर, विशेषकर आठवें अध्याय में यही बात कही गयी है। जैसे बाण का एक ही लक्ष्य होता है, वैसे ही हम सब का एक ही लक्ष्य परमात्मा होना चाहिये। हमें प्रणव या किसी भी भगवन्नाम का आश्रय लेकर प्रभु का ध्यान करते हुए स्वयं को उन तक पहुंचना है।
वराह पुराण में भगवान ने प्रतिज्ञा कर रखी है -- “अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम्” यानि मृत्युकाल में कोई मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं कर पाता, तो मैं उसका स्मरण करके उसे परम गति प्रदान करता हूँ।
हम भगवान का अंत समय में स्मरण न कर सकें तो भगवान हमारा स्मरण करते हैं। पर, हम हर समय उनका स्मरण करते रहें। भगवान् से उनके अनुग्रह की प्रार्थना करना हमारा दायित्व है।
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जिसमें जैसी बुद्धि होती है वह वैसी ही बात करता है। अपनी सीमित और अल्प बुद्धि से मैंने भी वही बात कह दी है। इससे अधिक की मेरी सामर्थ्य नहीं है। मुझसे कहीं कोई भूल हुई है तो मुझ अकिंचन को क्षमा करें। ॐ तत्सत्॥ ॐ ॐ ॐ॥
कृपा शंकर
८ मार्च २०२५
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पुनश्च: --- (१) मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण दिये हैं। उन्हें धारण करना ही धर्म है। धर्म वह है जो धारण किया जाता है। इस दृष्टिकोण से सनातन धर्म ही एकमात्र धर्म है। अन्य सब रिलीजन, मजहव, पंथ, मत और फिरक़े हैं। वे धर्म नहीं है।
(२) कणाद ऋषि के वैशेषिक सूत्रों के अनुसार -- "यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः॥" अर्थात् जिससे अभ्यूदय और निःश्रेयस की सिद्धि हो वह धर्म है।
(३) महाभारत में जितनी अच्छी तरह से धर्म-तत्व को समझाया गया है, उतना तो अन्यत्र कहीं भी नहीं है।
(४) भगवान की शरणागत हो जायेंगे तो भगवान स्वयं ही हमें हमारी पात्रतानुसार सब कुछ समझा देंगे। शरणागति और समर्पण हमारे परम कर्तव्य हैं।
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