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परमात्मा समभाव में सर्वत्र व्याप्त हैं। ध्यान करते करते उनमें समर्पित होकर उनसे एकाकार होना अद्वैत साधना है, जिसमें स्वयं का कोई पृथक अस्तित्व नहीं रहता। अद्वैत भाव में साधक मौन और आनंदमय हो जाता है व सारे शब्द तिरोहित हो जाते हैं। अद्वैत में प्रवेश द्वैत से ही होता है। द्वैत भाव में ही कुछ लिखा जा सकता है, अन्यथा अनिर्वचनीय मौन और आनंद ही शेष रहता है।
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"परमात्मा के महासागर में वैसे ही तैरिये, जैसे जल की एक बूंद महासागर में तैरती है। हर ओर परमात्मा है, हम परमात्मा के मध्य में हैं, उनके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है। हमारी पृथकता का बोध भी इसी तरह एक दिन स्वतः ही समाप्त हो जाएगा।" जब तक पूर्णता की प्राप्ति नहीं होगी तब तक पुनर्जन्म होते रहेंगे। यह शाश्वत सत्य है जिसे समझने के लिए ही यह वर्तमान मनुष्य जन्म हमें मिला है।
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दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूँ कि परमशिव का मुंह दक्षिण दिशा में क्यों है? इसके लिए यह समझना होगा कि परमशिव और दक्षिण दिशा से हमारा क्या तात्पर्य है। मेरी बात को वे ही समझ पाएंगे जो नित्य नियमित ध्यान साधना करते हैं। दूसरों के लिए यह एक गल्प मात्र ही होगा।
सहस्त्रारचक्र उत्तर दिशा है, मूलाधारचक्र दक्षिण दिशा है, भ्रूमध्य पूर्व दिशा है, और मेरुशीर्ष (Medulla) पश्चिम दिशा है जहाँ मेरूदण्ड की सारी नाड़ियाँ मष्तिक से मिलती हैं। भ्रूमध्य पर ध्यान पूर्व दिशा में, और सहस्त्रार पर ध्यान उत्तर दिशा में ध्यान है।
परमशिव -- एक अनुभूति है, जो बहुत गहरे ध्यान में होती है। इसे शब्दों में व्यक्त करना कम से कम मेरे लिए तो असंभव है। अपरिछिन्न प्रत्यगात्म भाव में ही हम परमशिव को समझ सकते हैं, अन्यथा यह कनक-कसौटी पर हीरे को कसने का सा प्रयास है।
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परमात्मा से कुछ लिखने की क्षमता, और आदेश मिलेगा तो ही आगे और लिख पाऊँगा। अन्यथा मैं अब और उपलब्ध नहीं हूँ। सभी को नमन। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२१ फरवरी २०२५
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