परमात्मा को समर्पण किस विधि से करें ? .....
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श्रुति भगवती कहती है ... प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते |
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत् || --मुण्डक,2/2/4,
अर्थात प्रणवरूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण चढाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य को प्रमादरहित होकर भेदना चाहिए |
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हे प्रभु, मैं स्वयं को बिना किसी शर्त के आप को सौंप रहा हूँ| तीर से जब बाण छूटता है तब उसका एक ही लक्ष्य होता है| वैसे ही मेरा एकमात्र लक्ष्य आप हैं, अन्य कुछ भी नहीं|
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आप भी मुझ अकिंचन पर अपनी परम कृपा कर के मुझे सदा याद रखें| आपकी यह प्रतिज्ञा है ... "मैं अपने भक्त का मृत्युकाल के समय यदि वे मेरा स्मरण न कर सकें तो मैं स्वयं उनका स्मरण करता हूँ और उन्हे परम गति प्राप्त करा देता हूँ|"
"अहं स्मरामि मद्भक्तं नयामि परमां गतिम् |"
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हे प्रभु, मुझे अब और कुछ भी नहीं कहना है| आप सब जानते हो|
मैं आपका पूर्ण पुत्र हूँ, आपके साथ एक हूँ| ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः :--- जब साधक को अपनी चेतना में प्रणव ध्वनि जिसे अनाहत नाद भी कहते हैं, सुननी आरम्भ हो जाए, और ईश्वर लाभ के अतिरिक्त अन्य कोई कामना भी नहीं रहे तो अन्य बीज मन्त्रों के जाप की आवश्यकता नहीं है| फिर साधक इस ध्वनि को ही सुनता रहे और ॐ ॐ ॐ ॐ .... का ही मानसिक जाप करता रहे| इस ध्वनी को सम्पूर्ण सृष्टि में और उससे भी परे विस्तृत कर दे और अपने स्वयं के अस्तित्व को भी उसी में समर्पित कर दे|
एक बार आँख खोलकर अपनी देह को देखो और यह भाव दृढ़ करो कि मैं यह शरीर नहीं हूँ, बल्कि मैं सम्पूर्ण अस्तित्व और उससे भी परे जो है वह सब मैं ही हूँ| अपने आप को उस पूर्णता में समर्पित कर दें| परमात्मा का परम प्रेम यह ओंकार की ध्वनि ही है और वह परम प्रेम जिससे यह सम्पूर्ण सृष्टि बनी है वह परम प्रेम मैं ही हूँ|
ॐ ॐ ॐ ||
८ मार्च २०१७
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