मंदिरों की संरचना ऐसी होती है जहाँ का वातावरण साधना के अनुकूल होता है, जहाँ जाते ही मन समर्पण और भक्तिभाव से भर जाता है। मंदिर में हम भगवान से कुछ मांगने नहीं, उनको समर्पित होने जाते हैं। यह समर्पण का भाव ही हमारी रक्षा करता है।
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द्वैत-अद्वैत, साकार-निराकार, और सगुण-निर्गुण --- ये सब बुद्धि-विलास की बातें हैं। इनमें कोई सार नहीं है। अपने स्वभाव और प्रकृति के अनुकूल जो भी साधना संभव है, हो, वह अधिकाधिक कीजिये। भगवान को अपना परमप्रेम पूर्ण रूप से दीजिये, यही एकमात्र सार की बात है। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
१६ फरवरी २०२५
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