एकमात्र अभीप्सा है कि अवशिष्ट जीवन परमात्मा के स्मरण, चिंतन, मनन, निदिध्यासन, और ध्यान में ही व्यतीत हो जाये। एक पल के लिए भी उनकी विस्मृति न हो। किसी भी तरह की आकांक्षा/कामना का जन्म ही न हो। यही मेरा स्वधर्म है।
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परमात्मा हमें प्राप्त नहीं होते, बल्कि शरणागति व समर्पण द्वारा हम स्वयं ही परमात्मा को प्राप्त होते हैं। कुछ पाने का लोभ/लालच -- माया का सबसे बड़ा अस्त्र है, जो हमें अंधकारमय लोकों में डालता है। जीवन का सार कुछ होने में है, न कि कुछ पाने में। जब सब कुछ परमात्मा ही है तो प्राप्त करने को बचा ही क्या है? हम परमात्मा को प्राप्त हों, यह आत्मा की अभीप्सा होती है। जब परमात्मा से परमप्रेम हो, और कुछ भी आकांक्षा न हो, तब अनन्य-अव्यभिचारिणी भक्ति का जन्म होता है।
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वर्षों पहले की बात है, एक बार रात्रि में भावावस्था में ध्यान करते करते मुझे वासुदेव भगवान श्रीकृष्ण की अनुभूति हुई जिसमें वे मुझे कह रहे थे कि -- "तुम्हारे जीवन में कुछ भी अच्छा नहीं है, लाखों कमियाँ ही कमियाँ हैं; तुम्हें मुझसे प्रेम है, इस प्रेम ने ही तुम्हारी हर कमी को ढक रखा है।" जब भगवान स्वयं ही यह बात कह रहे हैं तो वह माननी ही पड़ेगी। अब और तो कर भी क्या सकता हूँ? अपनी हर बुराई और अच्छाई -- सब कुछ उन्हें बापस लौटा रहा हूँ। इस पाप की गठरी को कब तक ढोता रहूँगा? अवशिष्ट जीवन उन्हीं के चिंतन, मनन, स्मरण और ध्यान में ही बीत जाये, और कुछ भी नहीं चाहिये।
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ॐ तत्सत् ॥ ॐ स्वस्ति ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
कृपा शंकर
२४ फरवरी २०२५
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