Saturday, 22 February 2025

मनुष्य जाति का एक ही धर्म है ---

 मनुष्य जाति का एक ही धर्म है ---

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हम शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का धर्म एक ही होता है , और वह है -- परमात्मा को पूर्ण समर्पण। इसके लिये निरंतर परमात्मा का स्मरण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, और उन्हीं में रमण करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त आत्मा का कोई धर्म नहीं होता। यही सनातन धर्म है। इससे अतिरिक्त बाकी सब धर्म के नाम पर अधर्म है। गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
अर्थात् - जो पुरुष मुझे सर्वत्र देखता है और सबको मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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इस स्वधर्म का पालन इस संसार के महाभय से सदा हमारी रक्षा करेगा। भगवान का गीता में वचन है ---
"नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥२:४०॥"
अर्थात् इसमें क्रमनाश और प्रत्यवाय दोष नहीं है| इस धर्म (योग) का अल्प अभ्यास भी महान् भय से रक्षण करता है॥
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इस स्वधर्म में मरना ही श्रेयस्कर है| भगवान कहते हैं ---
"श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥३:३५॥"
अर्थात् सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है; स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है॥
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रात्री को सोने से पूर्व परमात्मा का ध्यान कर के सोयें, और प्रातःकाल उठते ही पुनश्च उनका ध्यान करें। पूरे दिन उन्हें अपनी स्मृति में रखें। साकार और निराकार -- सारे रूप उन्हीं के हैं। प्रयासपूर्वक अपनी चेतना को परासुषुम्ना (आज्ञाचक्र व सहस्त्रारचक्र के मध्य) में रखें। इसे अपनी साधना बनाएँ। जो उन्नत साधक हैं वे अपनी चेतना को ब्रह्मरंध्र से भी बाहर परमात्मा की अनंतता से भी परे परमशिव में रखें। अनंतता का बोध और और उसमें स्थिति होने पर आगे का मार्गदर्शन भगवान स्वयं करेंगे।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अप्रेल २०२३

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