Saturday, 22 February 2025

परमात्मा हमें प्राप्त नहीं होते, बल्कि समर्पण के द्वारा हम स्वयं ही परमात्मा को प्राप्त होते हैं ---

 (१) आध्यात्म में प्राप्त करने को कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी तुम्हारे पास है, वह तुमसे छीन लिया जाएगा।

(२) अप्राप्त को प्राप्त करने का लोभ नर्क का द्वार है।
(३ ) भगवान कोई प्राप्त करने का विषय नहीं है। जैसे सिनेमा में देखते हैं वैसे भगवान ऊपर आसमान से उतर कर नहीं आते। हमें स्वयं को भगवान बनना पड़ता है। यही आत्म-साक्षात्कार है, यही ईश्वर को उपलब्ध होना है। अपने अंतःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, व अहंकार) को शरणागति द्वारा पूर्णतः समर्पित करना पड़ता है।
(४) भगवान की कृपा हम पर उसी अनुपात में होती है जिस अनुपात में हमारे हृदय में उनके प्रति परमप्रेम होता है।
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जिसका हम ध्यान करते हैं, वही हम बन जाते हैं। परमात्मा हमें प्राप्त नहीं होते, बल्कि समर्पण के द्वारा हम स्वयं ही परमात्मा को प्राप्त होते हैं। कुछ पाने का लालच -- माया का एक बहुत बड़ा अस्त्र है। जीवन का सार कुछ होने में है, न कि कुछ पाने में। जब सब कुछ परमात्मा ही हैं, तो प्राप्त करने को बचा ही क्या है? आत्मा की एक अभीप्सा होती है, उसे परमात्मा का विरह एक क्षण के लिए भी स्वीकार्य नहीं है। इसी को परमप्रेम या भक्ति कहते हैं। जीवन का सार कुछ होने में है, न कि कुछ प्राप्त करने में। हम यह देह नहीं, परमात्मा की सर्वव्यापकता हैं।
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ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ अप्रेल २०२३

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