अपने चारों ओर का संसार बहुत अच्छी तरह से देख लिया है। और कुछ भी देखना बाकी नहीं है। जो सार की बात है उसे स्वीकार कर, असार को त्याग देना ही उचित है।
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बंद आँखों के अंधकार के पीछे कूटस्थ परम ज्योतिर्मय रूप में सर्वव्यापी परमात्मा स्वयं बिराजमान हैं। उनकी ओर दृष्टि स्थिर हो गई है। और कुछ भी देखने की इच्छा नहीं है। यह देह, यह अन्तःकरण, ये कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ, और उनकी तन्मात्राएँ सब साथ छोड़ रही हैं। अब आत्मा का स्वधर्म ही मेरा स्वधर्म है। आत्मा का स्वधर्म है परमात्मा को समर्पण। भगवान की आज्ञा है --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः॥९:३४॥"
अर्थात् -- सदैव मेरा चिन्तन करो, मेरे भक्त बनो, मेरी पूजा करो। अपने मन और शरीर को मुझे समर्पित करने से तुम निश्चित रूप से मुझको प्राप्त करोगे।
"मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥१८:६५॥"
अर्थात् -- तुम मच्चित, मद्भक्त और मेरे पूजक (मद्याजी) बनो और मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार) तुम मुझे ही प्राप्त होगे; यह मैं तुम्हे सत्य वचन देता हूँ,(क्योंकि) तुम मेरे प्रिय हो॥
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जब भगवान स्वयं इतनी बड़ी बात कह रहे हैं तो उनकी बात सुनें या संसार की? यहाँ इस संसार में अहंकार, लोभ और छल-कपट ही भरा पड़ा है। एकमात्र रक्षक स्वयं भगवान हैं। अब इस समय तो करुणा और प्रेमवश उन्होने मुझे अपने हृदय में स्थान दे रखा है। अगर यह छोड़ दिया तो और कोई ठिकाना भी नहीं है। जब अपना डेरा भगवान के हृदय में डाल ही दिया है, तो और कुछ देखने की इच्छा भी नहीं है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२० जून २०२४
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