भगवान की मेरी अवधारणा क्या है?
परम प्रेम और समष्टि के ज्योतिर्मय विस्तार, और उस से भी परे की निरंतर अनुभूति ही मेरे लिए परमात्मा है| उसी में आनंद और तृप्ति है| अब तो कूटस्थ के परम ज्योतिर्मय आलोक में मुझे एक पुराण-पुरुष के दर्शन होते हैं| उन्हीं का ध्यान होता है| वे ही भगवान वासुदेव है, और वे ही परमशिव और नारायण हैं| इस से अधिक मुझे कुछ नहीं पता| धर्म-अधर्म, अच्छे-बुरे, पुण्य-पाप, और शुभ-अशुभ, --- इन सब द्वैतों से परे ... भगवान को समर्पित हो जाना --- ही सबसे बड़ा सार्थक निष्काम कर्म है| किसी भी तरह की आकांक्षा या अपेक्षा नहीं होनी चाहिए| ॐ ॐ ॐ !! २४ नवंबर २०२०
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