Saturday, 31 March 2018

यज्ञ का अवशिष्ट भोजन क्या है ? उसका आहार कैसे करें ? .....

यज्ञ का अवशिष्ट भोजन क्या है ? उसका आहार कैसे करें ? .....
.
यह समझने में थोड़ा जटिल विषय है पर इसे समझना अति आवश्यक है| गीता में भगवान कहते हैं ... "यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः| भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् || ३:१३||" अर्थात् "यज्ञ के अवशिष्ट अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापों से मुक्त हो जाते हैं किन्तु जो लोग केवल स्वयं के लिये ही पकाते हैं वे तो पापों को ही खाते हैं|" अब इस विषय को ठीक से समझा जाए ताकि हम पाप के भागी न बनें|
.
विस्तार में न जाकर संक्षेप में कहना चाहूँगा कि हमारे शास्त्रों के अनुसार रसोईघर में भोजन बनाने की प्रक्रिया में प्रमादवश अनायास ही कुछ अशुद्धियाँ और पाँच प्रकार के पाप सब से ही होते हैं| उन के परिमार्जन के लिए पञ्च महायज्ञ करते हैं, जिन से वे दोष दूर हो जाते हैं| ये पञ्च महायज्ञ वेदोक्त है जिनको करने का आदेश यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में है, और मनु महाराज ने भी मनुस्मृति में इनको करने का आदेश दिया है|
.
भोजन बनाकर देवताओं को भी उनका भाग दें, गाय, कुत्ते व पक्षियों को भी दें, अतिथि को भी भोजन कराएँ, माता-पिता जीवित हैं तो पहले उनको भोजन कराएँ|
फिर गीता के चौथे अध्याय के चौबीसवें मन्त्र ....
"ॐ ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना" द्वारा भगवान को निवेदित करने के पश्चात् गीता के पन्द्रहवें अध्याय के चौदहवें मन्त्र ....
"ॐ अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्" के अर्थ को मानसिक रूप से समझते हुए ही भोजन करें| भोजन से पूर्व आचमन करें और पहले ग्रास के साथ "ॐ प्राणाय स्वाहा" मन्त्र अवश्य मानसिक रूप से बोलें|
उपरोक्त तो कम से कम अनिवार्य से अनिवार्य आवश्यकता है| विस्तार करने के लिए अन्नपूर्णा के मन्त्र का भी पाठ कर सकते हैं, पञ्च प्राणों का कवल भी प्रथम पांच ग्रासों के साथ कर सकते हैं|
.
जहाँ तक मैं समझता हूँ उपरोक्त विधि से भोजन करने से कोई दोष नहीं लगता| उपरोक्त विधि ही वह यज्ञ है जिसको करने का आदेश भगवान दे रहे हैं| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३१ मार्च २०१८

हिन्दू स्वयं को बहुसंख्यक मानने के झूठे भ्रम में न रहें, वास्तव में वे अल्पसंख्यक ही हैं .....

हिन्दू स्वयं को बहुसंख्यक मानने के झूठे भ्रम में न रहें, वास्तव में वे अल्पसंख्यक ही हैं .....
.
वर्त्तमान सांविधानिक व्यवस्था में बहुसंख्यक होने से हानि ही हानि है और अल्पसंख्यक होने से लाभ ही लाभ| जो घोषित अल्पसंख्यक हैं वे अपनी शिक्षण संस्थाओं में अपनी धार्मिक शिक्षा दे सकते हैं, और अपने ही वर्ग के शत प्रतिशत विद्यार्थियों को प्रवेश दे सकते हैं, उन्हें मान्यता भी प्राप्त है|

गुरुकुलों की शिक्षा को मान्यता प्राप्त नहीं है जब कि मदरसों की शिक्षा को मान्यता प्राप्त है| ईसाई शिक्षण संस्थानों में सब को ईसाई धर्म की शिक्षा दी जा सकती है पर हिन्दू अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते|

वर्षों पूर्व रामकृष्ण मिशन और आर्यसमाज ने स्वयं को इसीलिये अल्पसंख्यक घोषित कर के सरकारी मान्यता की माँग की थी जो उन्हें नहीं दी गयी|

यह अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की अवधारणा किसी शातिर और धूर्त दिमाग की उपज थी जिस का उद्देश्य शनैः शनैः हिन्दू धर्म को नष्ट करना था| हिन्दू मुर्ख बना ही दिए गए| हिन्दू इसी झूठी भ्रान्ति में जीते रहे कि वे बहुसंख्यक हैं| वास्तव में हिन्दू अल्पसंख्यक ही हैं|

अल्पसंख्यक कहलाने से हिन्दुओं को कोई हानि नहीं है| मेरे विचार से हिन्दू धर्म के हर सम्प्रदाय को स्वयं को अल्पसंख्यक घोषित करवाने की माँग करनी चाहिए ताकि कम से कम वे अपनी शिक्षण संस्थाओं में हिन्दू धर्म की शिक्षा तो दे सकें|

वर्षों पूर्व भारत में जब "हम दो हमारे दो" का नारा लगाया गया और सरकारी नौकरों पर दो बच्चे ही पैदा करने की पाबंदी लागू की गयी थी तो यह सिर्फ हिन्दुओं पर ही थी| बाकी सब को चाहे जितने बच्चे पैदा करने की छूट थी|

अतः हिन्दू अल्पसंख्यक ही हैं, यह वास्तविकता उन्हें स्वीकार कर लेनी चाहिए और स्वयं को अल्पसंख्यकों को दी जाने वाली सारी सुविधाओं की माँग करनी चाहिए| धन्यवाद !

३० मार्च २०१८

घृणा व द्वेष क्यों ? घृणा व द्वेष फैलाने वाले सारे मत और विचार ..... असत्य और अन्धकार फैलाते हैं .....

घृणा व द्वेष क्यों ? घृणा व द्वेष फैलाने वाले सारे मत और विचार ..... असत्य और अन्धकार फैलाते हैं .....
.
क्या हमें दूसरों से घृणा सिर्फ इसीलिए करनी चाहिए कि दूसरे हमारे विचारों को नहीं मानते, या दूसरे हमारे मत, पंथ या मज़हब के नहीं है? यदि हमारे मन में किसी के भी प्रति ज़रा सी भी घृणा या द्वेष है तो हम स्वयं के लिए अंधकारमय लोकों की यानि घोर नर्क की सृष्टि कर रहे हैं|
.
जब भगवान सर्वत्र हैं और सब में हैं, तो किसी से भी घृणा क्यों? क्या हम भगवान से घृणा कर सकते हैं? गीता में भगवान कहते हैं .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति| तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति|| ६:३०||"
अर्थात जो सब में मुझ को देखता है और सबको मुझमें देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता|
कितना बड़ा आश्वासन दिया है भगवान ने !
.
घृणा और द्वेष अत्यंत दुर्बल भाव है जो स्वयं की शांति तो भंग करते ही हैं, चारों ओर एक भयावह विनाश भी लाते हैं| भारत में ऐसा विनाश बहुत अधिक हुआ है| विश्व की अनेक संस्कृतियाँ इस घृणा और द्वेष के कारण नष्ट कर दी गईं, सैंकड़ों करोड़ मनुष्यों की हत्या इसी घृणा व द्वेष के कारण की गयी हैं| कुछ लोग तो दूसरों को पीड़ा पहुँचाने की ही प्रार्थना करते हैं, धिक्कार है ऐसे लोगों पर|
.
जिनकी बात उन के अनुयायियों ने ही प्रायः नहीं मानी उन ईसा मसीह ने बाइबिल में कहा है ... “Love your enemies and pray for those who persecute you” (Matthew 5:44). उन्होंने यह भी कहा .... “Do good to those who hate you, bless those who curse you, pray for those who abuse you” (Luke 6:27–28).
महान तमिल संत तिरुवल्लुवर ने अपने साहित्य में घृणा के विरुद्ध बहुत अधिक लिखा है| गीता में भी भगवान कहते हैं ....
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् | आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||६:५||"
इसका भावार्थ है कि हम स्वयं ही अपने शत्रु, मित्र और बन्धु हैं, कोई अन्य नहीं|
.
घृणा करने वाले द्वेषी और क्रूर लोगों की गति बहुत बुरी होती है| भगवान कहते हैं ....
"तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् | क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु ||१६:१९||"
अर्थात् ऐसे उन द्वेष करने वाले क्रूरकर्मी और नराधमों को मैं संसार में बारम्बार आसुरी योनियों में ही गिराता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ|
.
आसुरी योनी में जन्म लेकर क्या होता है ? भगवान कहते हैं ....
"असुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि| मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्||१६:२०||"
अर्थात अविवेकीजन प्रत्येक जन्म में आसुरी योनि को पाते हुए जिनमें तमोगुणकी बहुलता है ऐसी योनियों में जन्मते हुए नीचे गिरते गिरते मुझ ईश्वरको न पाकर उन पूर्वप्राप्त योनियोंकी अपेक्षा और भी अधिक अधम गति को प्राप्त होते हैं|
.
अतः किसी से घृणा व द्वेष न करें और क्रूरता पर विजय पायें| भगवान से खूब प्रेम करें|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० मार्च २०१८

Thursday, 29 March 2018

महावीर जयंती की शुभ कामनाएँ .....

जैन धर्म के २४ वें तीर्थंकर भगवान महावीर की जयंती पर मैं उनके सभी अनुयायियों का और जैन मतावलम्बी अपने सभी मित्रों का अभिनन्दन करता हूँ|
.
जहाँ तक मैं समझा हूँ, "जैन" शब्द का अर्थ है .... जीतने वाला .... यानि जिसने अपने मन को, इन्द्रियों को, वाणी को और काया को जीत लिया है, वह जैन है|
जैन धर्म का उद्देश्य है ... "वीतरागता", यानि एक ऐसी अवस्था को प्राप्त करना जो राग, द्वेष और अहंकार से परे हो|
.
भगवान महावीर के अनेकान्तवाद और स्यादवाद के दर्शन ने वर्षों पूर्व मुझे अपनी ओर आकर्षित किया था इस लिए मैंने उनका अध्ययन भी किया| भगवान महावीर ने "कैवल्य" शब्द का भी प्रयोग किया है| उन की "कैवल्य" की क्या अवधारणा थी, यह तो वे ही बता सकते हैं| जहाँ तक मैं समझता हूँ, "कैवल्य" .... निर्लिप्त, असम्बद्ध और निःसंग होने की अवस्था का नाम है| इसका अर्थ कई लोग मोक्ष या मुक्ति भी लगाते हैं, जिस से मैं सहमत नहीं हूँ| कैवल्य का अर्थ निःसंग, असम्बद्ध और निर्लिप्त ही हो सकता है| शायद "कैवल्य" और "वीतरागता" एक ही अवस्था का नाम हो, कुछ कह नहीं सकता|
.
यह एक नास्तिक धर्म है जो वेदों को अपौरुषेय नहीं मानता| इसमें ईश्वर की परिकल्पना नहीं है, सिर्फ तीर्थंकर, मुनि, आचार्य और उपाध्याय ही हैं| भारत की नास्तिक परम्परा में दो मुख्य धर्म हैं ..... जैन धर्म और बौद्ध धर्म, जो दोनों ही नास्तिक हैं, जिन्होंने जीवन में ईश्वर की आवश्यकता नहीं मानी| आत्मा की शाश्वतता, पुनर्जन्म और कर्मफलों का सिद्धांत .... ये तो भारत में जन्में सभी आस्तिक व नास्तिक धर्मों में है|
.
इस धर्म में अनेक बड़े बड़े विद्वान् और दार्शनिक हुए हैं| आधुनिक युग में भी हमारे ही झुंझुनू जिले के टमकोर गाँव में जन्में आचार्य महाप्रज्ञ थे, जो अत्यंत प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी, परम विद्वान् और बहुत प्रसिद्ध तपस्वी संत थे| उन्हीं के उत्तराधिकारी चुरू जिले के सरदारशहर गाँव में जन्में विद्वान् आचार्य महाश्रमण हैं जो वर्तमान में जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय के आचार्य हैं|
.
पुनश्चः सभी को शुभ कामनाएँ और नमन !
कृपा शंकर
२९ मार्च २०१८

२९ मार्च १९१४ को श्रीमाँ और श्रीअरविंद की भेंट .....

२९ मार्च १९१४ को श्रीमाँ ने पोंडिचेरी आकर श्री अरविन्द से भेंट की| यह एक महान ऐतिहासिक घटना थी जिसका पूरे विश्व की आध्यात्मिक चेतना पर प्रभाव पड़ा| भारत की स्वतंत्रता पर भी इसका प्रभाव पडा और भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हुई|

श्री अरविन्द ने आश्रम का व सम्बन्धित सारा कार्य श्रीमाँ को सौंप दिया व स्वयं गहन साधना में चले गए| बाहर की दुनियाँ से उनका संपर्क सिर्फ श्रीमाँ के माध्यम से ही रहा| उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण का साक्षात्कार किया और भारत की स्वतंत्रता का वरदान माँगा| भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें वरदान दिया कि तुम्हारे जन्मदिवस (15 अगस्त) को ही भारत स्वतंत्र होगा| उनका उत्तरपाड़ा में दिया भाषण एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ है जिसे प्रत्येक भारतीय को पढना चाहिए|

भारत के भविष्य की रूपरेखा भी वे बना कर चले गए| यह कब होगा इसका समय तो उन्होंने नहीं बताया पर यह सुनिश्चित कर के चले गए कि एक अतिमानुषी चेतना का अवतरण होगा जो भारत का रूपान्तरण कर देगी| भारत की अखण्डता की भी भविष्यवाणी उन्होंने की है|

वे इतनी गहन साधना कर सके और इतना महान साहित्य रचा जिसमें अंग्रेजी भाषा का सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य -- सावित्री -- भी है, श्रीमाँ के सक्रिय सहयोग के बिना सम्भव नहीं हो सकता था|

श्रीमाँ की उससे अगले दिन की डायरी का यह लेखन है ----
“It matters little that there are thousands of beings plunged in the densest ignorance, He whom we saw yesterday is on earth; his presence is enough to prove that a day will come when darkness shall be transformed into light, and Thy reign shall be indeed established upon earth.”
- The Mother
30 March 1914.

धर्म उसी की रक्षा करेगा जो धर्म की रक्षा करेंगे .....

धर्म उसी की रक्षा करेगा जो धर्म की रक्षा करेंगे .....
.
"आध्यात्मिक साधना" और "धर्माचरण" से ही हमारे धर्म की रक्षा हुई है और भविष्य में भी इन्हीं से होगी| जो धर्मरक्षा की बाते करते हैं वे सर्वप्रथम तो अपने निज जीवन में अपने नित्य कर्मों का पालन करें जो उनका धर्म है, फिर धर्मरक्षा की बातें करें| धर्म ही हमारी रक्षा करेगा|
 .
मनु महाराज का कथन है ....
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः| तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्|| (म.स्म.८:१५)
 .
गीता में भी भगवान ने कहा है ....
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते| स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्|| (२:४०)
.
कणाद ऋषि ने वैशेषिक सूत्रों में धर्म को इस प्रकार परिभाषित किया है .... "यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धि: स धर्म:|" (वै.सू.१:१:२)
.
मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण बताएँ हैं .....
धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:| धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌|| (म.स्‍म.६:९२)
.
पद्मपुराण में कहा गया है .....
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्| आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्|| (पद्म.पु.शृष्टि.१९:३५७-३५८)
पद्मपुराण में ही धर्म की रक्षा के उपाय बताये गए हैं ....
ब्रह्मचर्येण सत्येन तपसा च प्रवर्तते| दानेन नियमेनापि क्षमा शौचेन वल्लभ||
अहिंसया सुशांत्या च अस्तेयेनापि वर्तते| एतैर्दशभिरगैस्तु धर्ममेव सुसूचयेत||
.
याज्ञवल्क्य ऋषि ने धर्म के नौ साधन बताये है .....
अहिंसा सत्‍यमस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:| दानं दमो दया शान्‍ति: सर्वेषां धर्मसाधनम्‌||
महाभारत में महात्मा विदुर ने इज्या (यज्ञ-याग, पूजा आदि), अध्ययन, दान, तप, सत्य, दया, क्षमा और अलोभ को धर्म बताया है|
.
श्रीमद्भागवत के सप्तम स्कन्ध में धर्म के तीस लक्षण बतलाये हैं और वे बड़े ही महत्त्व के हैं|
.
रामचरितमानस के लंका काण्ड में भी संत तुलसीदास जी ने धर्म क्या है इसको स्पष्ट किया है|
.
धर्म सदा हम सब भारतीयों के जीवन का केंद्र बिंदु रहा है और धर्म ही भारत का प्राण है| अतः हमारा आचरण धर्ममय हो, यह धर्म ही हमारी रक्षा करेगा| भगवान से हमारी प्रार्थना है कि हमारा आचरण धर्ममय हो और धर्म सदा हमारी सदा रक्षा करे| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
२९ मार्च २०१८

Wednesday, 28 March 2018

क्या हम अपनी इस सृष्टि का रूपांतरण कर सकते हैं ? .....

क्या हम अपनी इस सृष्टि का रूपांतरण कर सकते हैं ? .....
.
चारों ओर की सृष्टि जो हमें जैसी भी दिखाई दे रही है वह हम सब के विचारों का ही घनीभूत रूप है| हम सब परमात्मा के अंश हैं, अतः हम जैसी भी कल्पना करते हैं, जैसी भी कामना करते हैं, व जैसे भी विचार रखते हैं, वे ही धीरे धीरे घनीभूत होते हैं, और वैसी ही सृष्टि का निर्माण होने लगता है| किसी के विचार अधिक शक्तिशाली होते हैं, किसी के कम| जिस के विचार अधिक शक्तिशाली होते हैं, वे इस सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया में अपना अधिक योगदान देते हैं|
.
हम अपने चारों ओर के घटनाक्रमों, वातावरण और परिस्थितियों से प्रसन्न नहीं हैं और उनका रूपांतरण करना चाहते हैं तो निश्चित रूप से अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देने का प्रयास करें| आध्यात्मिक रूप से यह सृष्टि प्रकाश और अन्धकार का खेल है, वैसे ही जैसे सिनेमा के पर्दे पर जो दृश्य दिखाई देते हैं वे प्रकाश और अन्धकार के खेल हैं| अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान हम उस प्रकाश में वृद्धि द्वारा ही कर सकते हैं|
.
जब भी जैसा भी समय मिले, एकांत में परमात्मा के सर्वाधिक कल्याणकारी, मंगलमय और प्रियतम रूप का खूब लम्बे समय तक गहनतम ध्यान करें| परमात्मा सर्वव्यापी और अनंत हैं, अतः हम उनकी सर्वव्यापी अनंतता पर ध्यान करें| हम यह नश्वर भौतिक देह नहीं हैं, हम परमात्मा की सर्वव्यापकता और अनंतता हैं| अपनी चेतना का विस्तार करें और उसे परमात्मा की चेतना के साथ संयुक्त कर दें| परमात्मा स्वयं अनिर्वचनीय नित्यनवीन, नित्यासजग, और शाश्वत आनंद हैं| आनंद का मार्ग प्रेम है| हम स्वयं परमप्रेममय बन जाएँ व हमारी चेतना सर्वव्यापी और अनंत हो जाए| यह सबसे बड़ा योगदान है जो हम इस सृष्टि के रूपांतरण के लिए कर सकते हैं|
.
फिर समष्टि के कल्याण की प्रार्थना भी करें| समष्टि के कल्याण की कामना स्वयं के कल्याण की ही कामना है| सम्पूर्ण समष्टि ही हमारी देह है, यह नश्वर भौतिक देह नहीं|
.
अनेक व्यक्ति एक निश्चित समय पर, अपने दोनों हाथ ऊपर कर के, भ्रूमध्य को अपने दृष्टिपथ में रखते हुए, यदि लोक-कल्याण के लिए प्रार्थना करते हैं तो वह प्रार्थना निश्चित रूप से फलीभूत होती है|
.
इस भौतिक देह के अनाहत-चक्र और आज्ञा-चक्र के मध्य में विशुद्धि-चक्र के सामने का स्थान एक अति सूक्ष्म दैवीय गहन चुम्बकीय क्षेत्र है| अपने दोनों हाथ जोड़कर, भ्रूमध्य को दृष्टिपथ में रखते हुए, उस चुम्बकीय क्षेत्र में अपनी हथेलियों का तीव्र घर्षण करने से हमारी अँगुलियों में एक दैवीय ऊर्जा उत्पन्न होती है| उस दैवीय ऊर्जा को अपनी अँगुलियों में एकत्र कर, अपने दोनों हाथ ऊपर की ओर उठाकर, ॐ का उच्चारण करते हुए उस ऊर्जा को सम्पूर्ण ब्रह्मांड में विस्तृत करते हुए छोड़ दें| वह ऊर्जा समष्टि का निश्चित रूप से कल्याण करती है| समष्टि का कल्याण ही हमारा कल्याण है क्योंकि यह समष्टि ही हमारी वास्तविक देह है|
.
अपने विचारों को पवित्र और शुद्ध रखें| हमारे सारे संकल्प शिव-संकल्प हों| किसी के अनिष्ट की कामना न करें| किसी के अनिष्ट की कामना से हमारा स्वयं का ही अनिष्ट होता है|
.
अपनी चेतना को निरंतर आज्ञा-चक्र और सहस्त्रार के मध्य में रखने की साधना करें| रात्री को सोने से पूर्व परमात्मा का गहनतम ध्यान कर के सोयें, और दिन का प्रारम्भ भी परमात्मा के ध्यान से करें| सारे दिन परमात्मा की स्मृति बनाए रखें| कोई क्या कहता है और क्या सोचता है इसकी चिंता न करें क्योंकि महत्त्व इसी का है कि परमात्मा की दृष्टि में हम क्या हैं|
.
इस संसार में हम एक देवता की तरह रहें, नश्वर मनुष्य की तरह नहीं| हम जहाँ भी जाएँ, वहीं हमारे माध्यम से परमात्मा भी प्रत्यक्ष रूप से जायेंगे| हमारा अस्तित्व परमात्मा का अस्तित्व हो, हम परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति बनें| निश्चित रूप से हम स्वयं परमात्मा के साथ एक होकर उनकी इस सृष्टि के रूपांतरण में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सकते हैं| सब कुछ संभव है| हम अपने संकल्प से समय की धारा को भी बदल सकते हैं| हमारा संकल्प परमात्मा का संकल्प है| हमारे विचारों के पीछे परमात्मा की अनंत अथाह शक्ति है|
.
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ मार्च २०१८

Tuesday, 27 March 2018

भारत की वर्त्तमान शिक्षा पद्धति का पुनरुत्थान होना चाहिए .....

भारत की वर्तमान शिक्षा-पद्धति नपुंसक तोता-रटंत पद्धति है, इसमें कोई गहन अध्ययन नहीं है| यह शिक्षा पद्धति कोई गहन विचारक नहीं उत्पन्न कर सकती| लगभग सारी पाठ्य पुस्तकें षडयंत्रकारी वामपंथियों द्वारा लिखी जाती हैं जिनमें ब्रिटिश और जिहादी हितों का ध्यान रखा जाता है| यह शिक्षा पद्धति सिर्फ कुछ बाबू और नौकरी करने योग्य निष्क्रिय व्यक्ति ही पैदा कर सकती है, कोई वास्तविक विद्वान् नहीं| हमे सही इतिहास भी नहीं पढ़ाया जाता|
.
भारत को आवश्यकता है दूर दृष्टी वाले चिन्तक, विचारक, और मौलिक विद्वानों की| वर्तमान शिक्षा पद्धति काले अँगरेज़ पैदा कर रही है जिन्हें भारतवर्ष और उसकी संस्कृति पर अभिमान नहीं है| ये तथाकथित शिक्षित लोग भारतीय भाषा बोलने वालों को नीची दृष्टी से देखते हैं|
.
भारतीय शिक्षा पद्धति का पुनरुत्थान होना चाहिए| शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषा हो| पाणिनी की व्याकरण आज तक के मानव इतिहास में लिखी गयी विश्व की सर्वश्रेष्ठ व्याकरण है| वैदिक गणित बुद्धि का विकास करती है|
.
पढाई ऐसी हो जो उत्तम चरित्र, विचारशीलता और ज्ञान प्राप्ति की जिज्ञासा को जागृत करे| सिर्फ रट कर या टीप कर अच्छे नम्बर लाने वाले विद्यार्थी राष्ट्र का कल्याण नहीं कर सकते|

Monday, 26 March 2018

एक छोटी सी अनुभूति .....

हे प्रियतम परमशिव, इस हृदय की अभीप्सा, अतृप्त प्यास, परम वेदना और तीव्रतम तड़प जो मात्र तुम्हारे लिए है, परम आनंददायी है| वह कभी शांत न हो| उसकी प्रचंड अग्नि सदा प्रज्ज्वलित रहे|

इस हृदय मंदिर के सारे दीप अपने आप जल उठे हैं, सारे द्वार अपने आप खुल गए हैं, और उस के सिंहासन पर तुम स्वयं बिराजमान हो| तुम्हारे प्रकाश से "मैं" यानि यह समष्टि आलोकित है| चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है, कहीं कोई अन्धकार नहीं है|

यह तुम ही हो जो यह "मैं" बन गया है| अब पाने को या होने को बचा ही क्या है? सब कुछ तो तुम्हारा ही संकल्प है| यह देह भी तुम्हारी ही है जो तुम्हारे ही प्राणों से जीवंत है| तुम्हारे सिवा अन्य कोई नहीं है| जो कुछ भी है वह अनिर्वचनीय स्वयं तुम हो| मैं नहीं, सिर्फ तुम हो, हे परमशिव !

|| शिवोSहं शिवोSहं शिवोSहं || ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२७ मार्च २०१८

भारत का कल्याण सिर्फ "धर्म" से ही हो सकता है .....

भारत का कल्याण सिर्फ "धर्म" से ही हो सकता है .....
.
भारत एक आध्यात्मिक देश है जिसका प्राण ...'धर्म' ... है| भारत सदा धर्मसापेक्ष रहा है, वह कभी धर्मनिरपेक्ष नहीं हो सकता| भारत की आत्मा 'धर्म' है| 'धर्म' सनातन है, और इसकी सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारतवर्ष में हुई है| श्रीअरविन्द के शब्दों में 'सनातन धर्म' भारत है और भारत 'सनातन धर्म' है| भारत का भविष्य 'सनातन धर्म' पर निर्भर है, इस पृथ्वी का भविष्य भारत के भविष्य पर निर्भर है, और इस सृष्टि का भविष्य इस पृथ्वी के भविष्य पर निर्भर है| भारत की राजनीति भी सनातन धर्म ही हो सकती है| भारत में 'धर्म' को नष्ट करने हेतु किये जा रहे मर्मान्तक प्रहार इस सभ्यता और सृष्टि का नाश कर देंगे| 'धर्म' को तो भगवान कभी नष्ट नहीं होने देंगे|
.
धर्म को नष्ट करने के प्रयासों का जन्म मनुष्य की वासनाओं से होता है| ये वासनाएँ हैं -- लोभ, अहंकार, कामुकता, विलासिता, मोह व ईर्ष्या आदि| ये जन्म जन्मान्तरों में एकत्र होकर मनुष्य के चित्त में गहराई से बैठ जाती हैं और अवसर मिलते ही प्रकट हो जाती हैं| ये ही चित्त की वृत्तियाँ हैं जिनके निरोध को 'योग' कहा गया है| इन वासनाओं पर संकल्प शक्ति द्वारा नियन्त्रण नहीं किया जा सकता| ये दूर होती है ब्रह्मज्ञान से| ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है अहैतुकी परमप्रेमरूपा भक्ति, अष्टांगयोग साधना, शरणागति, समर्पण, स्वाध्याय और हरिकृपा से| गीता ब्रह्मज्ञान का ग्रन्थ है|
.
हम सब की समष्टि दृष्टि होनी चाहिए, न कि व्यक्तिगत दृष्टी| ईश्वर की सर्वव्यापकता और पूर्णता पर ही ध्यान और समर्पण होना चाहिए| अपनी दूष्टि को व्यक्तिगत रखेंगे तो उन्नति कभी नहीं होगी| जब समाज की उन्नति का आधार व्यक्ति नहीं ब्रह्म ज्ञान बनेगा तभी समाज की उन्नति होगी| समाज और देश का कल्याण केवल ब्रह्म ज्ञान से ही हो सकता है| हम सब ब्रह्म-चिन्तन के अनुगामी बनें| सबके मंगल में ही अपना मंगल है|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मार्च २०१६

आध्यात्मिक होली पंचमुखी महादेव के साथ .......

आध्यात्मिक होली पंचमुखी महादेव के साथ .......
.
गहन ध्यान में अपनी प्राण चेतना को मेरुदंड में सुषुम्ना के माध्यम से मेंरुशीर्ष तक ले आयें| अपना ध्यान कूटस्थ केंद्र पर रखें| साधना में प्रगति के अनुसार कूटस्थ केंद्र भ्रूमध्य में भी हो सकता है, या सहस्त्रार में या सहस्त्रार से ऊपर भी हो सकता है| कुछ देर में अनेक प्रकार के आध्यात्मिक रंग और ध्वनियाँ सुनने लगेंगी| सबसे तीब्र ध्वनी को सुनिए और मानसिक रूप से ॐ ॐ ॐ का जप करते रहें| "चारूस्थितं सोमकलावतंशं वीणाधरं व्यक्तजटाकलापं| उपासते केचन योगिनस्तन् उपात्तनादानुभव प्रमोदं|| (दक्षिणामूर्ति स्तोत्र) यही नादानुसंधान है|
.
उन आध्यात्मिक रंगों के साथ होली खेलिए| धीरे धीरे एक स्वर्णिम और तत्पश्चात नीली आभा को भेदकर हमें एक विराट श्वेत ज्योति के दर्शन होंगे जो एक श्वेत पञ्चकोणीय नक्षत्र में परिवर्तित हो जायेगी| ये ही पंचमुखी महादेव हैं| अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को उनमें समर्पित कर दो| हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| आध्यात्मिक ध्वनियाँ प्रणव नाद में परिवर्तित हो जायेंगी| उनका आनंद लीजिये| यही वास्तविक आनंद है|
.
जहाँ अहंकार जागृत हो जाए वह हिरण्यकशिपू की चेतना है| अपनी परम प्रेम रूपा भक्ति यानि प्रहलाद को उस अहंकार रुपी हिरण्यकशिपू से बचाइये और अपने परम शिव चैतन्य में रहिये|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ मार्च २०१३

Sunday, 25 March 2018

भगवान शिव की मानस कन्या ..... नर्मदा नदी .....

भगवान शिव की मानस कन्या ..... नर्मदा नदी .....
.
सभी पवित्र नदियों के दो रूप होते हैं .... एक तो उनका स्थूल जल रूप है, और दूसरा उनकी एक सूक्ष्म दैवीय सत्ता का रूप है, जिसकी अनुभूति केवल ध्यान में ही की जा सकती है| वैसे तो भारत कि सभी नदियाँ पवित्र हैं पर नर्मदा का एक विशेष महत्व है| "नर्मदा सरितां श्रेष्ठा रुद्रतेजात् विनि:सृता| तार्येत् सर्वभूतानि स्थावरानि चरानी च||" समस्त नदियों में श्रेष्ठ नदी नर्मदा रूद्र के तेज से उत्पन्न हुई है और स्थावर, अस्थावर आदि सब किसी का परित्राण करती है| "सर्वसिद्धिमेवाप्नोति तस्या तट परिक्र्मात्" उसके तट की परिक्रमा से सर्वसिद्धियों की प्राप्ति होती है|
.
नर्मदा शिव जी की मानस कन्या है| नर्मदा जी के बारे में लोकनाथ ब्रह्मचारी जो महातप:सिद्ध शिवदेहधारी महातपस्वी महात्मा थे, ने अपने शिष्यों को बताया था कि वे एक बार नर्मदा परिक्रमा के समय एक विशिष्ट घाट पर बैठे थे कि एक काले रंग की गाय नदी में उतरी और जब वह नहा कर बाहर निकली तो उसका रंग गोरा हो गया| ध्यानस्थ होकर उन्होंने इसका रहस्य जानना चाहा तो उन्होंने देखा कि वह कृष्णा गाय और कोई नहीं स्वयं गंगा माता थीं|
.
विद्युत् प्रभा के रंग जैसी हाथ में त्रिशूल लिए कन्या रूप में माँ नर्मदा ने अपने तट पर तपस्यारत महात्माओं की सदा रक्षा की है| इसी लिए पूरा नर्मदा तट एक तपोभूमि रहा है|
.
अमरकंटक के शिखर पर भगवान शिव एक बार गहरे ध्यान में थे कि सहसा उनके नीले कंठ से एक कन्या का आविर्भाव हुआ जिसके दाहिने हाथ में एक कमंडल था और बाएँ हाथ में जपमाला| वह कन्या उनके दाहिने पांव पर खड़ी हुई और घोर तपस्या में लीन हो गयी| जब शिवजी का ध्यान भंग हुआ तो उन्होंने उस कन्या का ध्यान तुडाकर पूछा कि हे भद्रे तुम कौन हो? मैं तुम्हारी तपस्या से अत्यंत प्रसन्न हुआ हूँ| तब उस कन्या ने उत्तर दिया --- समुद्र मंथन के समय जो हलाहल निकला था और जिसका पान करने से आप नीलकंठ कहलाये, मेरा जन्म उसी नीलकंठ से हुआ है| मेरी आपसे विनती है कि मैं इसी प्रकार आपसे सदा जुडी रहूँ|
.
भगवान शिव ने कहा -- तथास्तु! पुत्री तुम मेरे तेज से जन्मी हो, इसलिए तुम न केवल मेरे संग सदा के लिए जुडी रहोगी बल्कि तुम महामोक्षप्रदा नित्य सिद्धि प्रदायक रहोगी|
.
वरदान देने के बाद भगवान शिव तुरंत अंतर्ध्यान हो गए और वह कन्या पुनश्चः तपस्या में लीन हो गयी| भगवान शिव पुन: कुछ समय पश्चात उस कन्या के समक्ष प्रकट हुए और कहा कि तुम मेरा जलस्वरूप बनोगी, मैं तुम्हे 'नर्मदा' नाम देता हूँ और तुम्हारे पुत्र के रूप में सदा तुम्हारी गोद में बिराजूंगा| हे महातेजस्वी कन्ये! मैं अभी से तुम्हारी गोद में चिन्मयशक्ति संपन्न होकर शिवलिंग के रूप में बहना आरम्भ करूंगा|

तभी से जल रूप में नर्मदा ने विन्ध्याचल और सतपूड़ा की पर्वतमालाओ के मध्य से पश्चिम दिशा की ओर बहना आरम्भ किया|
.
हर नर्मदे हर ! ॐ तत्सत् !
कृपा शंकर
२६ मार्च २०१३

साधक के लिए आत्म निरीक्षण :---

साधक के लिए आत्म निरीक्षण :---
.
यहाँ ये नौ प्रश्न हैं, जिनके निष्ठापूर्वक दिए हुए उत्तर बता देंगे कि आध्यात्मिक रूप से हम कितने पानी में हैं| सायंकाल की उपासना के पश्चात दिन भर के कार्यों का अवलोकन करें और स्वयं के ह्रदय से ये नौ प्रश्न पूछें| इनके उत्तर भी अपने ह्रदय की पुस्तक में ही नित्य लिख लें| इन प्रश्नों को प्रिंट कर लें या कागज़ पर लिख लें और अपने पास रखें|
.
(१) क्या मैं अपनी जीवन शैली से यानी जैसा जीवन मैं जी रहा हूँ, उस से संतुष्ट हूँ ? यदि नहीं तो उसे बदलने के लिए क्या कर रहा हूँ, मुझे और क्या करना चाहिए ?
.
(२) क्या मेरा आज का दिन बीते हुए कल से अधिक अच्छा था ? क्या मैं नित्य नियमित उपासना करता हूँ ? क्या मुझे ध्यान में शान्ति, आनंद और परमात्मा की अनुभूति होती है ? क्या मेरी साधना बीते हुए कल से अधिक अच्छी और गहरी थी ? यदि नहीं तो मुझे इसी समय से क्या करना चाहिए ?
.
(३) मेरा अहं, चेतना के किस स्तर पर है ?
.
(४) क्या मुझ में ये अच्छे गुण विकसित हो रहे हैं, जैसे ..... धैर्य, दयालुता, आत्मसंयम, इच्छाशक्ति, भक्ति, एकाग्रता, उत्साह, मन की पवित्रता, निष्ठा, और परमात्मा के प्रति श्रद्धा व विश्वास | यदि नहीं तो मुझे अब और क्या करना चाहिए ?
.
(५) सब तरह के उकसावे और उत्तेजनाओं के पश्चात् भी क्या मेरी वाणी कटु थी ? क्या मुझे क्रोध आया ? क्या मेरा व्यवहार निर्दयतापूर्ण और अनैतिक था ? यदि हाँ, तो मुझे अब इसी समय से आगे और क्या करना चाहिए ?
.
(६) क्या मुझे अपने जीवन का उद्देश्य याद है ? क्या मैं अपने मार्ग पर सही रूप से अग्रसर हो रहा हूँ ? मेरा स्वाध्याय और समर्पण का भाव कैसा है ? क्या मैं कर्ताभाव से मुक्त हूँ ?
.
(७) क्या मैं अपने भीतर उठने वाली भावनाओं और विचारों के प्रवाह के प्रति सजग हूँ ?
.
(८) क्या मैं अपनी विफलताओं के लिए दूसरों को दोष देता हूँ ? यदि हाँ, तो मुझे तुरंत सुधरने की आवश्यकता है|
.
(९) क्या मैं पर्याप्त मात्रा में स्वच्छ वायु, सूर्य के प्रकाश व उचित आहार का ग्रहण, पर्याप्त व्यायाम और विश्राम करता हूँ ? क्या मेरा जीवन संतुलित है ?
.
इन प्रश्नों पर नित्य विचार करने से हम साधना के मार्ग पर कोई धोखा नहीं खायेंगे | सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
२४ मार्च २०१८


वीर सावरकर पर लगाए जाने वाले आक्षेप गलत हैं .....

वीर सावरकर पर लगाए जाने वाले आक्षेप गलत हैं .....
.
विनायक दामोदर सावरकर पर कुछ दिनों पूर्व घटिया मानसिकता के लोगों ने एक आक्षेप किया है जिसकी मैं भर्त्सना करता हूँ| भारत की अंग्रेजों से आज़ादी में सबसे बड़ा योगदान अगर किसी व्यक्ति का था तो वह थे वीर सावरकर| उन्होंने व उनके परिवार ने जितने अमानवीय कष्ट सहे उतने अन्य किसी ने भी नहीं सहे|
.
तीर्थयात्रा की तरह सभी को अंडमान की सेल्युलर जेल में वह कोठरी देखने जाना चाहिए जहाँ उन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा देकर रखा गया था| अन्य सब कोठरियों के सिर्फ एक ही दरवाज़ा है, पर उनकी कोठरी के दोहरे दरवाज़े हैं| जेल में जो अति अमानवीय यंत्रणा उन्होंने सही उसका अनुमान वह जेल अपनी आँखों से देखने के बाद ही आप लगा सकते हैं| जेल में ही उनको पता चला कि उनके भाई भी वहीं बन्दी थे| सारी यातनाएँ उन्होंने एक परम तपस्वी की तरह भारत माता की स्वतंत्रता हेतु एक तपस्या के रूप में सहन कीं| उनका पूरा जीवन ही एक कठोर तपस्या थी| पता नहीं हम में से कितने लोगों के कर्म उन्होंने अपने ऊपर लेकर काटे|
.
उनकी भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर लिखी पुस्तक भारत के क्रांतिकारियों की प्रेरणा स्त्रोत थी| नेताजी सुभाष बोस को विदेश जाकर स्वतंत्रता हेतु संघर्ष करने की प्रेरणा उन्होंने ही दी थी|
उनका मानना था कि भारतीयों के पास न तो अस्त्र-शस्त्र हैं और न उन्हें चलाना आता है| अतः उन्होंने पूरे भारत में घूमकर हज़ारों युवकों को सेना में भर्ती कराया ताकि वे अंग्रेजों से उनके ही अस्त्र चलाना सीखें और समय आने पर उनका मुँह अंग्रेजों की ओर कर दें| इसका प्रभाव पड़ा और द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात भारतीय सैनिकों ने अँगरेज़ अधिकारियों को सलाम करना और उनके आदेश मानने से मना कर दिया| मुंबई में नौसेना का विद्रोह हुआ| इन सब घटनाओं से डर कर अँगरेज़ भारत छोड़ने को बाध्य हुए|
.
कुटिल अँगरेज़ भारत की सता अपने मानस पुत्रों को देकर चले गए| भारत को आज़ादी चरखा चलाने से नहीं अपितु भारतीय सैनिकों द्वारा अंग्रेज अधिकारियों के विरुद्ध विद्रोह के कारण मिली| जाते जाते अँगरेज़ भारत का जितना अधिक अहित कर सकते थे उतना कर के चले गए|
.
वीर सावरकर के अति मानवीय गुण स्पष्ट बताते हैं कि वे एक जीवन्मुक्त महापुरुष थे जिन्होनें भारत को अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए ही स्वेच्छा से जन्म लिया था| उनकी तपस्या का सबसे बड़ा योगदान था भारत की स्वतन्त्रता में| अब अंग्रेजों के मानस पुत्र ही उन पर आक्षेप लगा रहे हैं जो निंदनीय है| वीर सावरकर अमर रहें|
कृपा शंकर 

२५ मार्च २०१६

Friday, 23 March 2018

अंग्रेजों ने भारतीय सभ्यता को नष्ट करने के लिये .... (१) भारतीय शिक्षा पद्धति यानि गुरुकुल प्रणाली और (२) भारतीय कृषि व्यवस्था को समाप्त कर दिया ....

अंग्रेजों ने भारतीय सभ्यता को नष्ट करने के लिये ....
(१) भारतीय शिक्षा पद्धति यानि गुरुकुल प्रणाली और
(२) भारतीय कृषि व्यवस्था को समाप्त कर दिया|
.
Indian Education Act बनाकर सारे गुरुकुलों पर प्रतिबन्ध लगा दिया, ब्राह्मणों के सारे ग्रन्थ छीन कर जला दिए, गुरुकुलों को आग लगा कर नष्ट कर दिया, और ब्राहमणों को इतना दरिद्र बना दिया गया कि वे अपनी संतानों को पढ़ाने में भी असमर्थ हो गये| सिर्फ वे ही ग्रन्थ मूल रूप से सुरक्षित रहे जिनको ब्राह्मणों ने रट कर याद कर रखा था| ग्रंथों को प्रक्षिप्त यानी इस तरह विकृत कर दिया गया जिस से भारतीयों में ब्राह्मण विरोध की भावना और हीनता व्याप्त हो जाए| ब्राह्मणों के अत्याचार की झूठी कहानियाँ गढ़ी गयी और ब्राह्मणों की संस्था को नष्ट प्राय कर दिया| भारत पर आर्य आक्रमण का झूठा और कपोल-कल्पित इतिहास थोपा गया| भारत के हर गाँव में एक न एक गुरुकुल होता था जहाँ ब्राह्मण वर्ग अपना धर्म मान कर निःशुल्क विद्यादान करता था| उसका खर्च समाज चलाता था| वे सारे गुरुकुल बंद कर दिए गए|
भारत से जाते हुए भी अँगरेज़ भारत की सत्ता अपने मानसपुत्रों को सौंप गए जिन्होनें भारत को नष्ट करने की रही सही कसर भी पूरी कर दी|
.
भारत में गायों की संख्या पुरुषों की संख्या से अधिक थी| हर गाँव में गोचर भूमियाँ थीं| सर्वप्रथम तो एक विशाल पैमाने पर गौ हत्या शुरू की गई| सबसे पहला क़साईख़ाना सन १७६० ई.में आरम्भ किया गया| फिर हज़ारों कसाईखाने खोले गए| अंग्रेजी राज में प्रतिवर्ष लगभग एक करोड़ गायों की ह्त्या होने लगी थी| खाद के रूप में प्रयुक्त होने वाले गोबर के अभाव में भूमि बंजर होने लगी|
फिर जहाँ जहाँ उपजाऊ भूमि थी वहां के किसानों को बन्दूक की नोक पर नील की खेती करने को बाध्य किया जाने लगा जिस से भूमि की उर्वरता बिलकुल ही समाप्त हो गयी|
लगान वसूली के लिए इंग्लैंड के सारे गुंडों-बदमाशों को भारत में कलेक्टर नियुक्त कर दिया जो घोड़े पर बैठकर हर गाँव में हर खेत में जाते और बड़ी निर्दयता से लगान बसूलते| किसानों पर तरह तरह के कर लगा कर उन्हें निर्धन बना दिया गया| अपने खाश खाश लोगों को जमींदार बना कर जमींदारी प्रथा आरम्भ कर अंग्रेजों ने भारत के किसानों पर बहुत अधिक अत्याचार करवाए|
सबसे अधिक अत्याचार बंगाल में हुए जहाँ कृत्रिम अकाल उत्पन्न कर के करोड़ों लोगों को भूख से मरने के लिए बाध्य कर दिया गया| नेपाल की तराई के के क्षेत्रों में भूमि बहुत अधिक उपजाऊ थी जिस पर नील की खेती करा कर भूमि को बंजर बना दिया गया| भारत अभी तक कृषि के क्षेत्र में उबर नहीं पाया है|
.
देखिये अब आगे और क्या होता है| भगवान से प्रार्थना करते हैं की जो भी हो वह अच्छा ही हो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ मार्च २०१३

परमात्मा की माया परमात्मा की एक मुस्कान मात्र है ....

(1) परमात्मा की माया परमात्मा की एक मुस्कान मात्र है,
उससे अधिक कुछ नहीं ......
(2) भारत में एक भक्ति-क्रांति का प्रारम्भ हो चुका है ...
.
यह जो मैं लिख रहा हूँ, वह पूरे दावे के साथ निज अनुभव से लिख रहा हूँ कि भगवान की माया, भगवान की एक मुस्कान मात्र है, उससे अधिक कुछ नहीं| उससे कुछ भी घबराने की आवश्यकता नहीं है| वह माया जो आवरण और विक्षेप के रूप में सारी सृष्टि को नाच नचा रही है, परमात्मा कि सिर्फ एक मुस्कराहट है| यह मुस्कराहट आपको तभी लगेगी जब आप परमात्मा से प्रेम करेंगे| जितना प्रेम पूर्णता की ओर बढ़ता है, माया भी उतनी ही सहायक होती जाती है| माया का प्रभाव वहीँ है जहां लोभ, और कामनाएँ हैं|
.
पाप-पुण्य .... ये सब भगवान की पीठ हैं| इन सब पाप और पुण्य की गठरी को छोड़कर इन से ऊपर उठना पडेगा| सब तरह के वाद-विवादों, सिद्धांतों, मतभेदों, विचारधाराओं, संगठनों और बंधनों से ऊपर उठकर सिर्फ परमात्मा से जुड़ना होगा| जहाँ भगवान हैं, वहाँ सब कुछ है, और जहाँ भगवान नहीं है, वहाँ सिर्फ माया है|
.
एक भक्ति-क्रान्ति का प्रारम्भ भारत में हो चुका है| विशेष रूप से भारत की मातृशक्ति में| जिस मोटर साइकिल (यह भौतिक देह) पर मैं यह लोकयात्रा कर रहा हूँ वह बाइसिकल ६८ वर्ष पुरानी हो चुकी है| पिछले साठ वर्षों की तो स्पष्ट स्मृति है| पिछले साथ वर्षों में भारत में इतना भक्तिभाव नहीं था जो अब है| और यह निरंतर बढ़ता जाएगा| आध्यात्मिकता भी निरंतर बढ़ रही है| जो भी हो रहा है वह अच्छे के लिए हो रहा है| भारत में एक नया युग आने को है|

आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ मार्च २०१६

महान संतान कैसे उत्पन्न होती है? ......

महान संतान कैसे उत्पन्न होती है? ......
-------------------------------------
जब स्त्री का अंडाणु और पुरुष का शुक्राणु मिलते हैं तब सूक्ष्म जगत में एक विस्फोट होता है| उस समय पुरुष और स्त्री (विशेष कर के स्त्री) जैसी चेतना में होते हैं, वैसी ही चेतना की आत्मा आकर गर्भस्थ हो जाती है|
.
प्राचीन भारत में गर्भाधान संस्कार होता था| संतान उत्पन्न करने से पूर्व पति और पत्नी दोनों छः माह तक ब्रह्मचर्य का पालन करते थे और ध्यान साधना द्वारा एक उच्चतर चेतना में चले जाते थे| इसके पश्चात गर्भाधान संस्कार द्वारा वे चाहे जैसी संतान उत्पन्न करते थे| भारत के मनीषियों को यह विधि ज्ञात थी इसीलिए भारत ने प्राचीन काल में महापुरुष ही महापुरुष उत्पन्न किये|
.
गर्भाधान के पश्चात भी अनेक संस्कार होते थे| गर्भवती स्त्री को एक पवित्र वातावरण में रखा जाता, जहाँ नित्य वेदपाठ और स्वाध्याय होता था| शिशु के जन्म के पश्चात भी अनेक संस्कार होते थे|
.
वे सारे संस्कार अब लुप्त हो गए हैं| इसीलिए भारत में महान आत्माएं जन्म नहीं ले पा रही हैं| अनेक महान आत्माएं भारत में जन्म लेना चाहती हैं पर उन्हें इसका अवसर नहीं मिल रहा|
.
आप चाहे जैसी संतान उत्पन्न कर सकते हैं| महान से महान आत्मा को जन्म दे सकते हैं|
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन|

ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ मार्च २०१६

समाज में भक्ति के जागरण से जाति-भेद, सम्प्रदाय-भेद और ईर्ष्या-द्वेष समाप्त हो रहे हैं ......

समाज में भक्ति के जागरण से जाति-भेद, सम्प्रदाय-भेद
और ईर्ष्या-द्वेष समाप्त हो रहे हैं ......
.
एक समय था जब होली पर महिलाऐं घर से बाहर नहीं निकलती थीं| बाहर का वातावरण भी बड़ा कलुषित ... गाली-गलौच, अश्लीलता और फूहड़पन से भरा होता था| अब जब से कुछ संतों के माध्यम से परमात्मा कि कृपा हुई है, सब कुछ बदल रहा है|
.
आज धुलंडी के दिन प्रातःकाल भोर में साढ़े पाँच बजे हमारे नगर में तीन स्थानों से हरि-संकीर्तन करते हुए विशाल प्रभात फेरियाँ निकलीं जिनमें मातृशक्ति की संख्या पुरुषों से चौगुनी थी|
आवासन मंडल और इंदिरानगर से निकली प्रभातफेरियाँ नगर नरेश बालाजी मंदिर के सामने एकत्र हुईं| सबके बैठने की व्यवस्था थी| सैंकड़ों महिलाएँ, कन्याएँ और अनेक पुरुष एकत्र हुए| खूब भजन-कीर्तन हुए और फिर सबने फूलों कि होली खेली| कोई रंग नहीं, सिर्फ फूल और गुलाबजल का प्रयोग| स्वामी श्री हरिशरण जी महाराज की उपस्थिति ने वातावरण को बहुत दिव्य बना दिया|
.
अनेक लोग जो ईर्ष्या-द्वेषवश आपस में एक-दूसरे से बात भी नहीं करते थे, प्रेम से गले मिले| कोई जाति या सम्प्रदाय का भेदभाव नहीं| पुराने नगर से निकलने वाली प्रभातफेरी वालों ने पुराने नगर में ही फूलों की होली खेली| दस बजे खेमी शक्ति मंदिर में फूलों कि होली थी जहाँ सिर्फ चन्दन और फूलों का प्रयोग, अन्य कुछ नहीं| कल बिहारी जी के मंदिर में भी फूलों कि होली थी|
.
सार कि बात यह है कि जैसे जैसे समाज में भक्तिभाव बढेगा, ईर्ष्या-द्वेष, व जातिगत भेदभाव मिटने लगेंगे| फूहड़पन, अश्लीलता और गाली-गलौच अब भूतकाल की बातें हो जाएँगी|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ मार्च २०१६

शुभ वेलेंटाइन दिवस .....

१४ फरवरी को वेलेंटाइन दिवस मनाने वाले इसे अवश्य पढ़ें ------
.
वेलेंटाइन दिवस शुभ हो !!!!! सर्व प्रथम तो यह दिवस मनाने वालों के लिए शुभ कामना प्रकट करता हूँ कि भगवान आपको सद्बुद्धि दे|


यहाँ मैं वेलेंटाइन की जीवन गाथा बताता हूँ -------
ईसा की चौथी शताब्दी में वैलेंटाइन नाम के एक आदमी का जन्म हुआ जो बाद में एक पादरी बना| उस समय यूरोप के लोग कुत्तों आदि जानवरों की तरह यौन सम्बन्ध रखते थे| कहीं कोई नैतिकता नहीं थी| इन महाशय ने लोगों को सिखाना शुरू किया कि यह अच्छी बात नहीं है, और एक प्रेमी या प्रेमिका चुन कर सिर्फ उसी से प्यार को और उसी से शारीरिक संबंध बनाओ, विवाह करो आदि| रोम में घूम घूम कर वे लोगों को प्रेमी/प्रेमिका चुनने और विवाह करने का उपदेश देते थे| उन्होंने प्रेमी प्रेमिकाओं का विवाह कराना शुरू कर दिया जिससे वहाँ के लोग नाराज़ हो गए क्योंकि वहाँ के समाज में बिना विवाह के रखैलें रखना शान समझी जाती थीं और स्त्री का स्थान मात्र एक भोग की वस्तु था|

रोम के राजा क्लोडियस ने उन सब जोड़ों को एकत्र किया जिनका विवाह वेलेंटाइन ने कराया था और १४ फरवरी ४९८ ई. को उसे सबके सामने खुले मैदान में फाँसी दे दी| उसका अपराध था कि वे बच्चों के विवाह करवाते हैं| उस वैलेंटाइन की दुखद याद में 14 फ़रवरी को वहाँ के प्रेमी प्रेमिकाओं ने वैलेंटाइन डे मनाना शुरू किया तो उस दिन से यूरोप में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है|
.
भारत में लड़के-लड़िकयां बिना सोचे-समझे एक दुसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं | और जो कार्ड होता है उसमे लिखा होता है " Would You Be My Valentine" जिसका मतलब होता है "क्या आप मुझसे शादी करेंगे"|
मतलब तो किसी को मालूम होता नहीं है, वो समझते हैं कि जिससे हम प्यार करते हैं उन्हें ये कार्ड देना चाहिए तो वो इसी कार्ड को अपने माँ-बाप और दादा-दादी को भी दे देते हैं| एक दो नहीं दस-बीस लोगों को ये ही कार्ड वो दे देते हैं|
.
इस धंधे में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ लग गयी हैं जिनको कार्ड बेचना है, जिनको गिफ्ट बेचना है, जिनको चाकलेट बेचनी हैं और टेलीविजन चैनल वालों ने इसका धुआधार प्रचार कर दिया है|
अरे प्यारे बच्चो कुछ नकल में भी अकल रखो|

इससे अच्छा तो है कि इस दिन को मातृ-पितृ पूजा दिवस के रूप में ही मनाओ|
प्रेम ही करना ही तो भगवान से करो| भारत में बड़े बड़े प्रभुप्रेमी हुए हैं, उन्हें याद करो| धन्यवाद|

पुनश्चः: शुभ वेलेंटाइन दिवस !!!!!
कृपा शंकर
१४ फरवरी २०१४

समर्पण .....

सूर्य, चन्द्र और तारों को चमकने के लिए क्या साधना करनी पडती है?
पुष्प को महकने के लिए कौन सी तपस्या करनी पडती है?
महासागर को गीला होने के लिए कौन सा तप करना पड़ता है?

पुष्प को महकने के लिए कौन सी तपस्या करनी पडती है?
महासागर को गीला होने के लिए कौन सा तप करना पड़ता है?

शांत होकर प्रभु को अपने भीतर बहने दो|
उन की उपस्थिति के सूर्य को अपने भीतर चमकने दो|
 ..
जब उन की उपस्थिति के प्रकाश से ह्रदय पुष्प की भक्ति रूपी पंखुड़ियाँ खिलेंगी तो उन की महक अपने ह्रदय से सर्वत्र फ़ैल जायेगी|
हे प्रभु, ना मैं रहूँ, ना मेरी कोई वासना रहे, बस तूँ रहे और एकमात्र तेरा ही अस्तित्व रहे|
जल की यह बूँद तेरे महासागर में समर्पित है जो तेरे साथ एक है, अब फिर कोई भेद ना रहे|
.
दादू धरती क्या साधन किया, अंबर कौन अभ्यास ?
रवि शशि किस आरंभ तैं ? अमर भये निज दास  ||
.
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०१४

एक श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही गुरु हो सकता है .....

एक श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही गुरु हो सकता है .....
.
हब सब सांसारिक मोह से ग्रस्त हैं, यही हमारे बंधनों का कारण है| इस मोह से कितना भी संघर्ष करो पर पराजय ही हाथ लगेगी| इस मोह से मुक्ति हमें परमात्मा की कृपा ही बचा सकती है| परमात्मा एक सदगुरु के रूप में हमारा मार्गदर्शन करते हैं|

श्रुति भगवती कहती है कि गुरु वही हो सकता है जो श्रौत्रीय हो यानि जिसे श्रुतियों का ज्ञान हो, और जो ब्रह्मनिष्ठ हो|
परीक्ष्य लोकान्‌ कर्मचितान्‌ ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन |
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्‌ समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्‌ ||
(मुण्डक. १:२:१२)

ऐसे गुरु ही हमारा मार्गदर्शन कर सकते हैं| ऐसे गुरु किसी न किसी परम्परा से जुड़े होते हैं| हमें मार्गदर्शन उन्हीं से लेना चाहिए|

Thursday, 22 March 2018

मगन भया मन मेरा .....

मगन भया मन मेरा .....
.
भगवान श्री कृष्ण की बांसुरी की ध्वनी से मधुर और कुछ भी नहीं है| यह निरंतर हर मनुष्य में बज रही है| बस सुनने वाला प्रेमी चाहिए| जिस धरातल पर यह ध्वनी बजती है वह मनुष्य के भौतिक, प्राणिक और मानसिक चैतन्य से परे है| यह एक वास्तविकता है जिसकी महिमा में हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं| सूक्ष्म देहस्थ मेरुदंड व मस्तिष्क में स्थित सुषुम्ना नाड़ी वह बांसुरी है जिसमें प्रभुजी निरंतर प्राण फूँक रहे हैं, जिसकी प्रतिक्रिया से साँसें चल रही हैं और ह्रदय धडक रहा है| सातों चक्र ही उस बांसुरी के छिद्र हैं| सहस्रार से तो साक्षात प्रभुजी स्वयं इस बांसुरी को बजाकर पूरी सृष्टि में प्राण भर रहे हैं| मानव देह में त्रिभंग मुद्रा में उन बिहारी जी की छवि अनुपम है| जीवन और मृत्यु का वहाँ कोई महत्व नहीं है| जहाँ वे हैं वहाँ अन्य कुछ भी नहीं हो सकता| वे ही सब कुछ हैं और सब कुछ उन्हीं में है|
.
प्रणव ध्वनी उनकी बांसुरी की आवाज है| एक मधुमक्खी मधु चखने के पश्चात पुष्पों की गंध से और आकर्षित नहीं होती वैसे ही उस बांसुरी की ध्वनी सुनने के पश्चात वासनओं का आकर्षण क्षीण होने लगता है| उस ध्वनी को निरंतर सुनने का प्रयास हम करते रहें| प्रयास छोड़ने पर पतन ही पतन है|
.
आगे का मार्ग प्रभुजी स्वयं दिखाते हैं, शर्त यही है कि हम उन से प्रेम करें| भगवान के पास सब कुछ है पर एक चीज का उनके पास भी निरंतर अभाव है जिसके लिए वे भी तरसते हैं, और वह है हमारा प्रेम| जिसने हमें सब कुछ दिया, क्या हम उन्हें अपना प्रेम नहीं दे सकते?

.
सब का कल्याण हो| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०१४

जीवन में हम आनंदमय रहें, प्रेम ही आनंद का द्वार है .....

जीवन में हम आनंदमय रहें, प्रेम ही आनंद का द्वार है .....
.
हम प्रसन्न रहें, प्रेममय रहें, प्रेम सब में बाँटें, यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| जब हम जीवन की संपूर्णता व विराटता को त्याग कर लघुता को अपनाते हैं तो निश्चित रूप से विफल होते हैं| दूसरों का जीवन हम क्यों जीते हैं ? दूसरों के शब्दों के सहारे हम क्यों जीते हैं ? पुस्तकों और दूसरों के शब्दों में वह कभी नहीं मिलेगा जो हम ढूँढ रहे हैं क्योंकि अपने ह्रदय की पुस्तक में वह सब लिखा है| कुछ बनने की कामना से कुछ नहीं बनेंगे क्योंकि जो हम बनना चाहते हैं, वह तो हम पहले से ही हैं| कुछ पाने की खोज में भटकते रहेंगे, कुछ नहीं मिलेगा क्योंकि जो हम पाना चाहते हैं वह तो हम स्वयं ही हैं|
.
भाई रे घर ही में घर पाया ।
सहज समाइ रह्यो ता मांही, सतगुरु खोज बताया ॥ टेक ॥
ता घर काज सबै फिर आया, आपै आप लखाया ।
खोल कपाट महल के दीन्हें, स्थिर सुस्थान दिखाया ॥ १ ॥
भय औ भेद भरम सब भागा, साच सोई मन लाया ।
पिंड परे जहाँ जिव जावै, ता में सहज समाया ॥ २ ॥
निश्चल सदा चलै नहिं कबहूँ , देख्या सब में सोई ।
ताही सौं मेरा मन लागा, और न दूजा कोई ॥ ३ ॥
आदि अनन्त सोई घर पाया, अब मन अनत न जाई ।
दादू एक रंगै रंग लागा, तामें रह्या समाई ॥ ४ ॥
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०१४

संसार में सुख की खोज मनुष्य के सब दुःखों का कारण है .....

संसार में सुख की खोज मनुष्य के सब दुःखों का कारण है .....
.
मनुष्य संसार में सुख ढूंढ़ता है पर निराशा ही हाथ लगती है| यह निराशा और सुख की अपेक्षा सदा दुःखदायी है| परमात्मा से बिना किसी शर्त से किये गए प्रेम में ही आनंद है| परमात्मा से प्रेम ही आनंददायी है| उस आनंद की एक झलक पाने के पश्चात ही संसार की असारता का बोध होता है| हमारी सबसे बड़ी सम्पत्ति भगवान के श्री-चरणों में आश्रय पाना है|
.
जो योग-मार्ग के पथिक हैं उनके लिए सहस्त्रार ही गुरुचरण है| आज्ञाचक्र का भेदन और सहस्त्रार में स्थिति बिना गुरुकृपा के नहीं होती| जब चेतना उत्तर-सुषुम्ना यानि आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य विचरण करने लगे तब समझ लेना चाहिए कि गुरु महाराज की परम कृपा हो रही है| जब स्वाभाविक और सहज रूप से सहस्त्रार में व उससे ऊपर की ज्योतिर्मय विराटता में ध्यान होने लगे तब समझ लेना चाहिए कि श्रीगुरुचरणों में अर्थात प्रभुचरणों में आश्रय प्राप्त हो गया है| तब भूल से भी पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए| एक योगी की चेतना वैसे भी अनाहत चक्र से ऊपर ही रहती है| एकमात्र मार्ग है .... परम प्रेम, परम प्रेम और परम प्रेम | इसके अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है| भगवान से खूब प्रेम करो, प्रेम करो और खूब प्रेम करो|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मार्च २०१४

इस राष्ट्र के और भी अच्छे दिन अवश्य ही आयेंगे ......

इस राष्ट्र के और भी अच्छे दिन अवश्य ही आयेंगे ......
.
इस राष्ट्र के और भी अच्छे दिन तभी आयेंगे जब इस राष्ट्र में सब चरित्रवान होंगे, कोई चोर, डाकू, ठग और नशेड़ी नहीं होगा व यह राष्ट्र इतना सशक्त होगा कि किसी का साहस ही नहीं होगा इसकी ओर आँख उठाकर देखने का| जब यहाँ कोई डरपोक, दब्बू और कायर नहीं होगा, कहीं भी असत्य और अन्धकार नहीं होगा वे ही भारतवर्ष के अच्छे दिन होंगे| जब सब के ह्रदय में परम प्रेम होगा, जीवन में तपश्चर्या और चेतना में पूर्ण समर्पण होगा, तभी मानूंगा कि अच्छे दिन आ रहे हैं| वे दिन भी कभी न कभी अवश्य आयेंगे जब ह्रदय में न कोई वासना होगी, न कोई कामना और न कोई अपेक्षा|
.
कहते हैं कि जीवन शाश्वत है जहाँ कोई मृत्यु नहीं है, आत्मा सिर्फ अपना आवरण बदलती है|
सभी अभीप्साएँ, कामनाएँ व वासनाएँ पूर्ण अवश्य होती हैं और सभी संकल्प व विचार निश्चित रूप से घनीभूत होकर फलीभूत होते हैं| जीवन के वे ही क्षण सार्थक होते हैं जो परमात्मा के चिंतन में व्यतीत होते हैं, बाकी तो सारा समय मरुभूमि में गिरे हुए जल की बूंदों की तरह निरर्थक होता है| व्यक्ति अपनी भूलों से बहुत कुछ सीखता है, पर जब तक वे समझ में आती है तब तक बहुत देरी हो चुकी होती है| जीवन अति अल्प है|
.
सांसारिक उपलब्धियों से और इन्द्रीय सुखों से जीवन में सिर्फ अहंकार ही तृप्त होता है| इनमें कोई स्थायित्व नहीं है, ना ही इनसे कोई संतुष्टि मिलती है| यह संसार जीव को आनंद की लालसा देता है पर मात्र दुःख और पीड़ा ही देता है| लगता है इस संसार में मनुष्य यही पाठ सीखने बार बार जन्म लेता है| यही पाठ निरंतर सिखाया जा रहा है| कोई इसे शीघ्र सीख लेता है, कोई देरी से| जो इसे नहीं सीखता वह सीखने के लिए बाध्य कर दिया जाता है|
.
सुख की खोज में पता नहीं मैंने भी कितने हाथ पैर मारे, कितना संघर्ष किया, कहाँ कहाँ देश विदेशों में भटका, कैसे कैसे लोगों के मध्य रहा, कितने सारे म्लेच्छ देशों में गया, विश्व भ्रमण किया, विश्व की परिक्रमा की, पता नहीं कैसे कैसे लोगों के हाथ का बनाया आहार ग्रहण किया, और कितनी हिमालय जितनी बड़ी अक्षम्य भूलें की? प्रकृति का सौम्य से सौम्य और विकराल से विकराल रूप भी देखा पर ह्रदय नहीं भरा, अभी भी अतृप्त है|
.
ह्रदय में गहनतम अभीप्सा के साथ एक प्रचंड अग्नि जल रही है उस अवस्था को प्राप्त करने की जिसके बारे में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ----
"यं लब्ध्या चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः |
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ||"
.
सब का जीवन सार्थक हो, धन्य हो, सब के ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम भक्ति जागृत हो| सबके अच्छे दिन आयें| यही मेरी कामना है| आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम !

ॐ तत्सत् || ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२३ मार्च २०१६

Wednesday, 21 March 2018

किसी भी परिस्थिति में अपना सर्वश्रेष्ठ हम क्या कर सकते हैं ? .....

किसी भी परिस्थिति में अपना सर्वश्रेष्ठ हम क्या कर सकते हैं ? .....
.
विश्व में किसी को भी विचलित कर देने वाली अनेक घटनाएँ हो रही हैं जिनसे पहले मैं विचलित हो जाया करता था| अनेक राष्ट्रविरोधी कार्य हो रहे हैं जिनसे पीड़ा होती है| पर अंततः निज विवेक ने यह सोचने को बाध्य किया कि इस तरह विचलित होने से कुछ लाभ नहीं है| किसी भी परिस्थिति में हम सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं, वही करना चाहिए|
.
मेरा विवेक तो यही कहता है कि निज जीवन में हमें अन्याय का प्रतिकार करना चाहिए पर सर्वश्रेष्ठ कार्य जो हम कर सकते हैं वह है ..... "परमात्मा का ध्यान" और "परमात्मा से समष्टि के कल्याण की प्रार्थना"| यह सर्वाधिक सकारात्मक कार्य है| परमात्मा हमारे जीवन में बहे| अपना जीवन हम उसे समर्पित कर दें| यह सृष्टि सृष्टिकर्ता परमात्मा की है| वे अपनी सृष्टि को चलाने में सक्षम हैं| उन्हें हमारी सलाह की आवश्यकता नहीं है|
.
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०१६

हम परमात्मा की परम चैतन्यमय सर्वव्यापकता हैं ....

हम परमात्मा की परम चैतन्यमय सर्वव्यापकता हैं ....
.
प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त में उठकर हाथ-पाँव व मुंह धोकर पद्मासन या सिद्धासन या स्थिर सुखासन में अपने आसन पर बैठिये| मुंह पूर्व या उत्तर दिशा की ओर हो| मेरुदंड उन्नत रहे| शिवनेत्र होकर यानि बिना तनाव के भ्रूमध्य में दृष्टि स्थिर रखते हुए अपनी चेतना को आज्ञाचक्र (जहाँ मेरुशीर्ष यानि Medulla है) पर स्थिर करें| आज्ञाचक्र से अपनी चेतना को सर्वत्र समस्त ब्रह्मांड में विस्तृत कर दें|
.
उपास्य के गुण उपासक में आये बिना नहीं रहते| हम परमात्मा के अंश हैं, उनके अमृतपुत्र हैं, हमारा हृदय वैराग्य, भक्ति, विनम्रता और देवत्व से परिपूर्ण है| हम प्रभु के साथ एक हैं| अपनी बुराई-अच्छाई, अवगुण-गुण, पुण्य-पाप, सारे कर्मफल, यहाँ तक कि अपना सम्पूर्ण अस्तित्व परमात्मा को समर्पित कर दें| किसी भी तरह की कोई कामना न रहे|
.
अपनी अपनी गुरु परम्परा के अनुसार अजपा-जप और ध्यान करें| कोई भी संदेह हो तो उसका निवारण दिन में कभी भी अपनी गुरु परम्परा के आचार्यों से कर लें| जो योगमार्ग के साधक हैं वे शिवभाव स्थित होकर शिव का ध्यान करें| भगवान की कृपा होगी तब विक्षेप और आवरण की मायावी शक्तियों का प्रभाव नहीं रहेगा| आवरण हटेगा तो हम स्वयं को सृष्टिकर्ता के साथ ही पायेंगे|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२२ मार्च २०१६

Tuesday, 20 March 2018

भारत की विकट स्थिति और भविष्य .....

भारत की विकट स्थिति और भविष्य .....
.
अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय परिस्थितियाँ बड़ी विकट होती हैं, जिनमें भारत जैसा देश अब तक सिर्फ परमात्मा की कृपा से ही बचा रहा है और भविष्य में भी परमात्मा की कृपा ही बचाएगी| एक अत्यधिक सशक्त आध्यात्मिक राष्ट्रवादी सत्ता की भारत में आवश्यकता है| विदेशों से आयातित कोई भी व्यवस्था भारत में सफल नहीं हो सकती|
.
अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में कोई किसी का शत्रु या मित्र नहीं होता| सब अपना अपना आर्थिक और वैचारिक हित देखते हैं| विदेशी शक्तियाँ अपने मोहरे यहाँ की सत्ता में बिठाने का निरंतर प्रयास करती रही हैं जो भारत का नहीं बल्कि उन का ही हित साधते रहें| पश्चिमी देशों में भारत के बारे में जो अध्ययन किया जाता है वह भारत के कल्याण के लिए नहीं, बल्कि भारत का शोषण कैसे कैसे किया जा सकता है, इसी पर विचार करने के लिए किया जाता है|
.
अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था को नष्ट कर के अपनी व्यवस्था लागू की ताकि वैचारिक रूप से वे भारत पर राज्य करते रहें| वर्तमान में भी भारत के उच्चतम पदों पर आसीन प्रशासनिक और न्यायिक अधिकारी स्वयं को अँगरेज़ से कम नहीं समझते, उनकी सोच व कार्यप्रणाली अभी भी अंग्रेजों की तरह है| एक सामान्य भारतीय तो उनके लिए कीड़े-मकोड़े से अधिक नहीं है| राजनेताओं को चोरी करना वे ही सिखाते हैं| वे स्वयं तो सुरक्षित रहते हैं, पर सारा दोष राजनेताओं पर लग जाता है| किसी भी राजनेता में साहस नहीं है कि उनकी व्यवस्था को बदल सके|
.
वेटिकन, लन्दन और वाशिंगटन कभी भी नहीं चाहेंगे कि भारत में कोई राष्ट्रवादी सरकार रहे| वे अपनी पूरी शक्ति यह सुनिश्चित करने में लगा देंगे कि उनके भक्त ही भारत की सत्ता में रहें| भारत पर कोई हिन्दू राष्ट्रवादी शासन करे यह उन्हें स्वीकार्य नहीं है| वे किसी ईसाई और विचारों से अँगरेज़ के हाथों में ही भारत की सत्ता देखना चाहेंगे| कांग्रेस का राज उन्हीं का राज था| ऐसे ही मास्को और बीजिंग भी यही चाहेंगे कि उनके भक्त भारत पर राज्य करें| मुस्लिम देश भी यही चाहते हैं कि भारत पर इस्लामी शासन हो| भारत के अधिकांश लोग प्रायः बहुत भोले, भावुक और अदूरदर्शी होते हैं जिन का आसानी से भावनात्मक रूप से शोषण किया जा सकता है|
.
अँगरेज़ जाति बड़ी धूर्त होती है (स्कॉटिश, आयरिश और वेल्श इतने धूर्त नहीं होते जितने इंग्लिश होते हैं)| भारत पर राज्य स्थापित करने से पूर्व उन्होंने भारत पर और भारत की कमजोरियों का पूरा अध्ययन किया| इंग्लैंड में जितने भी जेबकतरे, चोर और गुंडे बदमाश थे उनको भारत में कलेक्टर और बड़े बड़े अधिकारी बना कर भेज दिया जिन्होंने भारत को खूब लूटा| उनका हम अभी भी महिमामंडन और गुणगान कर रहे हैं| मेक्समूलर जैसे वेतनभोगी पादरियों को हिन्दू धर्मग्रंथों का अध्ययन करने में लगा दिया, सिर्फ यह पता करने के लिए कि हिन्दू धर्मग्रंथों में कहाँ कहाँ क्या क्या मिलावट और बदलाव किया जाए ताकि हिन्दुओं में फूट पड़ा जाए और वे आपस में लड़ते तो रहें ही, साथ साथ उनमें हीन भावना भी आ जाए|
.
ऐसे ही अरब, तुर्क और मध्य एशिया से आये हमलावर थे जिन्होंने अपने जासूसों को साधू संतों के वेश में भारत में प्रवेश करा दिया जिनको हम साधू संत समझ कर सम्मान देते रहे पर उन्होंने भारत की पूरी कमजोरियों का अध्ययन किया, विदेशी आक्रमण की भूमिका बनाई और आक्रमणकारी सेनाओं का मार्गदर्शन किया| अभी भी भारत में जितने विदेशी साधू हैं उनमें से आधे तो विदेशी जासूस निकलेंगे|
.
भारत की इलेक्ट्रॉनिक समाचार मिडिया और अंग्रेजी के अखबार विदेशियों के हाथ में बिके हुए ही हैं, वे भारत का नहीं बल्कि अपने विदेशी मालिकों का हित देखते हैं| अतः भारत की स्थिति बहुत नाजुक है और भगवान की कृपा से ही भारत जीवित है| भारत के जीवित रहने का उद्देश्य दैवीय है, लौकिक नहीं|
.
भारत जीवित ही नहीं रहे बल्कि एक आध्यात्मिक राष्ट्र बनकर अपने द्वीगुणित परम वैभव को प्राप्त होकर पूरे विश्व का मार्गदर्शन करे, यह हमारी भगवान से प्रार्थना है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०१८

पृथक अस्तित्व का बोध एक मायावी भ्रम है .....

पृथक अस्तित्व का बोध एक मायावी भ्रम है .....
.
अपनी आध्यात्मिक यात्रा में हमारे में जब तक कर्ताभाव, यानि ..... साधक, गुरु, शिष्य, अनुयायी, किसी धार्मिक या आध्यात्मिक संगठन का सदस्य, या कुछ भी पृथक होने का बोध है ..... तब तक हम वहीं पर हैं जहाँ से हम ने यात्रा आरम्भ की थी| एक कदम भी आगे नहीं बढे हैं| परमात्मा ही एकमात्र सत्य है| हमारा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है| पृथक अस्तित्व का बोध ही माया है|
.
सबसे पहले परमात्मा को निज जीवन में अवतरित करो, फिर अन्य सब कुछ अपने आप प्राप्त हो जाएगा| जिहोनें भी परमात्मा के अतिरिक्त अन्य उपलब्धियों को प्राथमिकता दी है वे सब जीवन में निराश हुए हैं| हम यह नश्वर देह नहीं, शाश्वत आत्मा, भगवान के साथ एक हैं और सदा रहेंगे|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२१ मार्च २०१८

Monday, 19 March 2018

धर्म क्या है ? क्या धर्म परिवर्तनशील है? .....

धर्म क्या है ? क्या धर्म परिवर्तनशील है? .....
.
मेरी अति अल्प और सीमित बुद्धि से मुझे तो यही समझ में आया है कि .... "एकमात्र सत्य परमात्मा है| इस सत्य का जीवन में अवतरण ही धर्म है| जीवन में परमात्मा का न होना ही अधर्म है|" धर्म सिर्फ एक ही है| धर्म अनेक नहीं हो सकते| सबके जीवन में एक ही धर्म है| धर्म सनातन है| उसका निज जीवन में ह्रास हो सकता है पर वह कभी परिवर्तित नहीं हो सकता| धर्म परिवर्तन का विषय नहीं है| पूरी सृष्टि जिन सनातन अपरिवर्तनीय नियमों के अंतर्गत चल रही है, वह धर्म ही है| मनुष्य का स्वभाव परिवर्तित होकर दैवीय या आसुरी हो सकता है, मनुष्य अधर्मी हो सकता है, धर्म-विरुद्ध होकर विधर्मी हो सकता है, पर धर्म परिवर्तित नहीं हो सकता| धर्म की विभिन्न अवस्थाएं हो सकती हैं पर धर्म .... धर्म ही है| वह कभी बदल नहीं सकता|
.
परमात्मा ही सत्य है, जिसका अंश होने से आत्मा भी सत्य है जिसका नाश नहीं हो सकता| आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती, जल गीला नहीं कर सकता, वायु उड़ा नहीं सकती, आकाश अपने में विलय नहीं कर सकता| कोई भी पंचभूत इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते| अतः कोई आत्मा कभी धर्मभ्रष्ट नहीं हो सकती| हो सकता है उस पर अज्ञान का आवरण छा जाए| पर धर्म कभी भ्रष्ट नहीं हो सकता|
.
इस विषय का अधिक ज्ञान तो ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय महात्मा आचार्य ही दे सकते हैं या परमात्मा की प्रत्यक्ष कृपा से ही यह विषय समझा जा सकता है| मैं कोई आचार्य नहीं हूँ, पर जैसा मेरी अल्प व सीमित बुद्धि से समझ में आया वैसा मैंने प्रभु की प्रेरणा से लिख दिया है|
.
जीवन का लक्ष्य कोई इन्द्रीय सुखों कि प्राप्ति नहीं है| इन्द्रीय सुख उस मधु की तरह हैं जिसमें विष घुला हुआ है| जीवन का लक्ष्य कोई स्वर्ग की प्राप्ति भी नहीं है| इन सब में पतन ही पतन है| ये कभी पूर्णता और तृप्ति नहीं दे सकतीं| आत्म-तत्व में स्थित होना ही हमारा एकमात्र परम धर्म है| इसके लिए धर्माचरण करना होगा| धर्माचरण है ... शरणागति द्वारा परमात्मा को पूर्ण समर्पण का निरंतर प्रयास| यही जीवन कि सार्थकता है|
.
मत- मतान्तरों को "धर्म" से न जोड़िये| धर्म इतना व्यापक है कि उसे मत-मतान्तरों में सीमित नहीं किया जा सकता| हम मत को धर्म मान लेते हैं, यहीं से सब समस्याओं का आरम्भ होता है| धर्म एक ही है, अनेक नहीं| कणाद ऋषि ने धर्म को "यथोअभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिसधर्मः" परिभाषित किया है| हम मत-मतान्तरों को ही धर्म मान लेते हैं जो गलत है| हम मनुष्य नहीं बल्कि शाश्वत आत्मा हैं| मनुष्य देह एक वाहन मात्र है लोकयात्रा के लिए| यह एक मोटर साइकिल की तरह है जिस पर कुछ काल के लिए यात्रा कर रहे हैं| मानवतावाद नाम का कोई शब्द हमारे शास्त्रों में नहीं है| समष्टि के कल्याण की बात की गयी है, न कि मनुष्य मात्र के कल्याण की|
.
जीवन में 'धर्म' तभी साकार हो सकता है जब हमारे ह्रदय में परमात्मा हो| मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:--
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः| धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ||
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ;
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०१६


आध्यात्मिक रंगों से होली .....
.
बचपन से आज तक हमारे परिवार में हम लोग तो होली के दिन भगवान नृसिंह की पूजा और भक्त प्रहलाद कि जय जयकार करते आये हैं| पर एक आध्यात्मिक रंगों की होली भी है जिसका आनंद हमें लेना चाहिए|
फागुन के दिन चार रे
होली खेलो मना रे
बिन करताल पखावज बाजे
रोम रोम रमिकार रे
बिन सुरताल छतिसौं गाँवे
अनहद की झंकार रे
होली खेलो मना रे
.
होली का त्योहार वास्तव में भक्ति का पर्व है| यह भक्त प्रहलाद की आस्था के विजय का दिन है| होलिका ... अभक्ति की, और प्रहलाद ... भक्ति के प्रतीक हैं|
होलिका- दहन .... काम-दहन (काम वासनाओं का दहन) है| अपने अंतर में होली की अग्नि जलाकर उसमें क्षुद्र सांसारिक वासनाओं का दमन, आध्यत्मिक उन्नति के पथ पर बढ़ना है| बाहर का होलिका दहन तो मात्र प्रतीकात्मक है|
.
भगवान शिव ने अपने तीसरे नेत्र से जिस तरह से कामदेव को भस्म कर दिया था, उसी तरह से अपने अंतर की वासनाओं को नष्ट कर, झूठे अहंकार और शत्रुता को भुलाकर हमें एक-दुसरे को गले लगाना चाहिए| यह प्रेम कि अभिव्यक्ति है|
.
होली के बारे में एक किंवदन्ती है कि होलिका नाम की राक्षसी किसी गाँव में घुसकर मासूम बच्चों को आतंकित करती थी अतः सब ने अग्नि जलाकर उसे गाँव से बाहर खदेड़ दिया| धूलपूजन (धुलंडी) देवताओं की मारक शक्ति का आवाहन है|
.
हमें (जीव को) अपने आध्यात्मिक रंगों से (यानि पूर्ण भक्ति से) ठाकुर जी (परमात्मा) के साथ ही होली खेनी चाहिए|

आप सब को आने वाले होली के पर्व की अभी से शुभ कामनाएँ|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०१६

भगवान किसी की जागीर नहीं है .....

भगवान किसी की जागीर नहीं है .....
.
कोई भी मत, सिद्धांत, मजहब, Religion या विचारधारा हो, वह खुदा, God यानि परमात्मा को अपनी जागीर नहीं बना सकती| परमात्मा सर्वव्यापी और सर्वस्व है| मनुष्य की अल्प और सीमित बुद्धि उस असीम को नहीं समझ सकती| हम परमात्मा के बारे में भी अपनी कल्पनाएँ कर बैठते हैं और सब पर अपने विचार थोपने की भरपूर चेष्टा करते हैं, और कहते हैं कि फलाँ फलाँ महापुरुष ने ऐसा कहा अतः उसकी बात ही सत्य है| अपनी बात मनवाने के लिए ही यानि मज़हब के नाम पर ही आज तक के प्रायः सभी युद्ध हुए हैं, करोड़ों लोगों की निर्मम हत्याएँ हुई है, और अनेक राष्ट्र और सभ्यताएँ नष्ट कर दी गयी हैं|
.
मुझे बहुत ही अल्प ज्ञान जो सूफी विचारधारा पर है उस पर कुछ चर्चा कर रहा हूँ| मैंने मौलाना रूमी को पढ़ा है| उनके विचार अद्वैत वेदान्त से मिलते हैं| शम्स तवरेज़, हसन, अबू हाशिम, बायजीद बिस्तामी आदि मनीषी विचारकों को भी मैं पढना चाहता था पर अवसर नहीं मिला| अब इस आयु में उतना अध्ययन संभव भी नहीं है| पर इतना पता है कि इन विचारकों को इस्लाम की मुख्य धारा ने कभी स्वीकार नहीं किया और ऐसे स्वतंत्र विचारकों की हत्याएँ कर दी गईं| अब उनके जैसे महान विचारों के लोग मिलते ही नहीं हैं| अनेक लोग स्वयं को सूफी कहते हैं पर उनके विचारों में एकेश्वरवाद है ही नहीं| सूफ़ी विचारकों ने तौहीद (Monotheism/एकेश्वरवाद) को एक क्रांतिकारी रूप दिया| उनके सिद्धांत में प्रेमी और प्रेमिका यानि भक्त और भगवान दोनों एक हो गए| उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि .... जो भी ईश्वर के प्रेम में डूब कर फना (मिट) हो गया वही ईश्वर है|
.
ईरान में एक बहुत प्रसिद्ध मनीषी विचारक .... हुसैन बिन मंसूर अल-हल्लाज हुए, जिन्हें मंसूर के नाम से ही जाना जाता है| उन्होंने उन शब्दों का प्रयोग किया जो उनकी मौत के कारण बन गए| उन्होंने केवल ..... "अन-हल-हक" .... बस सिर्फ इतना ही कहा जिसका अर्थ है .... "मैं परम सत्य हूँ", यानि वेदान्त वाक्य ... अहं ब्रह्मास्मि| उनको कारागृह में डालकर यातनाएँ दी गईं, तौबा करने को भी कहा गया| वे तो शरीर को मिथ्या मान चुके अतः सूली पर चढना स्वीकार किया पर अपने विचारों पर दृढ़ रहे| उन्होंने पूर्ण मानव का विचार प्रस्तुत किया जिसे भारत के योगी मानते थे| उन्होंने ..... "मैं खुदा हूँ" यानि "मैं ईश्वर हूँ" कहने का साहस किया| इब्न अरबी नाम के एक विचारक ने तो यहाँ तक कह दिया कि कोई भी मज़हब खुदा को अपनी जागीर नहीं बना सकता| इब्न अरबी ने कहा कि लोग खुदा के बारे में भिन्न-भिन्न मत रखते हैं, लेकिन मैं सबको ठीक समझता हूँ, जिस पर उनका विश्वास है|
.
आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम !
ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०१६

सिंजारे और गणगौर पर्व पर समस्त मातृशक्ति मेरा अभिनन्दन स्वीकार करे ...

सिंजारे और गणगौर पर्व पर समस्त मातृशक्ति मेरा अभिनन्दन स्वीकार करे ...
.
आज पूरे राजस्थान में महिलाओं का एक विशेष पर्व था जिसे गणगौर पूर्व का सिंजारा कहते हैं| कल गणगौर है| सिंजारे पर नवविवाहिताओं और सगाई हो चुकी युवतियों के घर ससुराल पक्ष की ओर से सिंजारा (सुहाग से जुड़ा सामान और मिठाई) पहुंचाया जाता है| विवाहित महिलाओं को भी ससुराल में उनकी मनपसंद के व्यंजन और उपहार दिए जाते हैं| इस दिन महिलाऐं मेंहदी रचाती हैं|
 .
कल मंगलवार को प्रदेशभर में गणगौर की सवारी निकलेगी और मेले के आयोजन होंगे| गणगौर का पर्व वास्तव में शिव और पार्वती की आराधना का पर्व है| कुंआरी कन्याएँ यह पर्व अपने मनपसंद वर की प्राप्ति के लिए और विवाहित महिलाऐं अपने सौभाग्य के लिए मनाती हैं| होली के दूसरे दिन से यह आराधना आरम्भ हो जाती है जो सौलह दिन ...चैत्र कृष्ण प्रतिपदा से चैत्र शुक्ल तृतीया तक ... चलती है|
.
पुनश्चः सभी माताओं, बहिनों और बेटियों को मेरा अभिनन्दन और मंगल कामनाएँ |
 .
ॐ तत्सत् !ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१९ मार्च २०१८

माता पिता को प्रणाम करने का सिद्ध बीज मंत्र .....

माता पिता को प्रणाम करने का सिद्ध बीज मंत्र .....
.
यह एक सिद्ध संत का दिया हुआ प्रसाद है| अपने माता पिता के सामने नित्य नियमित रूप से भूमि पर घुटने टेक कर उनके चरणों पर इस मन्त्र के साथ सिर झुका कर प्रणाम करने से, और इस मन्त्र के साथ उनकी वन्दना करने से आपके पितृ प्रसन्न होते हैं और आपको आशीर्वाद देते हैं| यदि आपके माता-पिता दिवंगत हो गए हैं तो मानसिक रूप से इस विधि को करें|
.
श्रुति कहती है ---- मातृदेवो भव, पितृदेवो भव|
माता पिता के समान गुरु नहीं होते| माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं| यदि आप उनकी उपेक्षा करके अन्य किसी भी देवी देवता की उपासना करते हैं तो आपकी साधना सफल नहीं हो सकती|
यदि आपके माता-पिता सन्मार्ग में आपके बाधक है तो भी वे आपके लिए पूजनीय है| आप उनका भूल से भी अपमान नहीं करोगे|
.
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम, महातेजस्वी श्रीपरशुराम, महाराज पुरु, महारथी भीष्म पितामह आदि सब महान पितृभक्त थे| विनता-नंदन गरुड़, बालक लव-कुश, वभ्रूवाहन, दुर्योधन और सत्यकाम आदि महान मातृभक्त थे| कोई भी ऐसा महान व्यक्ति आज तक नहीं हुआ जिसने अपने माता-पिता की सेवा नहीं की हो| "पितरी प्रीतिमापन्ने प्रीयन्ते सर्व देवता|" श्री और श्रीपति, शिव और शक्ति ------- वे ही इस स्थूल जगत में माता-पिता के रूप में प्रकट होते हैं| उन प्रत्यक्ष देवी-देवता के श्री चरणों में प्रणाम करने का महा मन्त्र है ---

"ॐ ऐं ह्रीं"|
------------
यह मन्त्र स्वतः चिन्मय है| इस प्रयोजन हेतु अन्य किसी विधि को अपनाने की आवश्यकता नहीं है|
- "ॐ" तो प्रत्यक्ष परमात्मा का वाचक है|
- "ऐं" पूर्ण ब्रह्मविद्या स्वरुप है| यह वाग्भव बीज मन्त्र है महासरस्वती और गुरु को प्रणाम करने का| गुरु रूप में पिता को प्रणाम करने से इसका अर्थ होता है -- हे पितृदेव मुझे हर प्रकार के दु:खों से बचाइये, मेरी रक्षा कीजिये|
- "ह्रीं" यह माया, महालक्ष्मी और माँ भुवनेश्वरी का बीज मन्त्र है जिनका पूर्ण
प्रकाश स्नेहमयी माता के चरणों में प्रकट होता है|
.
अब और आगे इसकी महिमा नहीं लिख सकता क्योंकि अब मेरी वाणी और भाव माँ के परम प्रेम से अवरुद्ध हो गए है| अब आगे जो भी है वह आप स्वयं ही समझ लीजिये| वह मेरी क्षमता से परे है| ॐ मातृपितृ चरण कमलेभ्यो नम:|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२० मार्च २०१३

Sunday, 18 March 2018

चतुर गधा ---

चतुर गधा ---
-----------
एक बार एक कुम्हार का गधा कुएँ में गिर गया| गधा दर्द और पीड़ा के कारण बहुत जोर से चिल्लाया| उसकी पीड़ा से दुखी होकर कुम्हार बहुत विचलित हुआ और सोचने लगा कि गधे को कैसे बचाया जाए| खूब सोच विचार कर वह इस निर्णय पर पहुँचा कि गधा बूढा हो गया है अतः उसे दफना देना ही उचित है|
उसने अपने पड़ोसियों को बुलाया और सबने फावड़ों में मिटटी भरकर कुएँ को भरना आरम्भ कर दिया| पहले तो गधा खूब रोया फिर आश्चर्यजनक रूप से शांत हो गया|
कुछ समय पश्चात लोगों ने विस्मित होकर देखा कि गधे पर जब मिटटी पडती है तब वह अपनी कमर को हिला कर मिट्टी नीचे गिरा देता है और एक कदम ऊपर चढ़ जाता है|
कुम्हार के पडोसी कुएँ में मिट्टी डालते रहे और सबने देखा कि गधा ऊपर आ गया और छलाँग लगाकर कुएँ से बाहर निकल गया|
यह संसार है| जीवन में लोग ऐसे ही आप पर कूड़ा कचरा और मिट्टी डालते रहेंगे| उसे स्वीकार मत कीजिये और ऊपर उठते रहिये| कैसे भी हमें हमारे कष्टों के कुएँ से बाहर निकलना है|
हमारे साथ क्या होता है इसका महत्व नहीं है| महत्व इस बात का है हम इन अनुभवों से क्या बनते हैं| हमारी हर पीड़ा और हर कटु अनुभव जीवन में ऊपर उठने की एक सीढ़ी है| गहरे से गहरे कुएँ से हम बाहर निकल सकते हैं| बुराइयों को स्वीकार मत करो और ऊपर उठते रहो|
अपने ह्रदय में घृणा को जागृत ना होने दो ------ प्रतिकार करो या क्षमा कर दो|
दिमाग से सब चिंताओं को मिटा दो --------------तनावमुक्त रहो|
सादा जीवन और उच्च विचार रखो --------------- वासनाओं के पीछे मत भागो|
किसी से कुछ अपेक्षा मत रखो ------------------- स्वावलंबी बनो|
कर्मों का फल था जिससे अनहोनी होनी ही थी -----
कुछ समय बाद चतुर गधा  बापस आया और कुम्हार को काट लिया| कुम्हार सेप्टिक और इस अनहोनी से त्रस्त होकर मर गया|
इस कहानी से सीख यही है कि यदि आप किसी का बुरा करते हो तो उस बुरे कर्म का फल आपको कभी छोड़ता नहीं है|
लेखक : अज्ञात
१९ मार्च २०१५

दूसरों के घर के दीपक बुझाकर कोई स्वयं के घर में प्रकाश नहीं कर सकता .....

दूसरों के घर के दीपक बुझाकर कोई स्वयं के घर में प्रकाश नहीं कर सकता .....
.
शान्ति का एक मार्ग भगवान ने इस तरह भी दिखाया है .....
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति | तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||"
श्रुति भगवती भी कहती है ..... "एकम् सत् विप्राः बहुधा वदन्ति |"
.
मैं आज के शुभ दिन ये पंक्तियाँ लिखने को बाध्य हूँ, क्योंकि विश्व में जो घटित हो रहा है उसका प्रभाव मुझ पर पड़े बिना नहीं रह सकता| विश्व के अनेक लोग जो स्वयं तो शान्ति से रहना नहीं जानते, पर अपनी शान्ति की खोज धर्म के नाम पर दूसरों के प्रति घृणा, दूसरों की सभ्यताओं के विनाश, और दूसरों के नरसंहार में ही ढूँढते रहे हैं| ऐसे ही नरसंहारों का शिकार भारत बहुत लम्बे समय तक रहा है; अब मध्यपूर्व और पश्चिम एशिया के देश हैं जहाँ के लोग अपनी अपनी विचारधाराओं की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए आपस में ही एक-दूसरे का गला काट रहे हैं| वह विनाश की विभीषिका धीरे धीरे सारे विश्व पर छाती जा रही है| उसका प्रभाव हम सब पर इसलिए भी पड़ता है क्योंकि सभी जीवात्माएँ अंततः परमात्मा में एक ही हैं|
.
अपने स्वयं के विचारों को बलात् दूसरों पर थोपने का दुष्परिणाम और उससे होने वाला विनाश अब स्पष्ट दिखाई दे रहा है जिसे छिपाने के भी पूरे प्रयास हो रहे हैं| हमारे मन में दूसरों के प्रति छिपी घृणा को हम झूठे प्रेम और मित्रता का दिखावा कर के छिपा रहे हैं| हम सोचते हैं कि यदि सभी हमारे ही विचार मानने लगेंगे तो हम सुखी हो जायेंगे| यह बहुत बड़ा छलावा रहा है|
.
दूसरों के घर के दीपक बुझाकर हम स्वयं के घर में प्रकाश नहीं कर सकते| क्या भेड़- बकरी की तरह ही हम अपने स्वतंत्र विवेक का प्रयोग किये बिना दूसरों का अन्धानुकरण ही करते रहेंगे? सभी में परमात्मा व्यक्त है| दूसरों से घृणा कर के या दूसरों का गला काट कर हम परमात्मा को प्रसन्न नहीं कर सकते| सभी में हम परमात्मा का दर्शन करें| साथ साथ आतताइयों से स्वयं की रक्षा और राष्ट्ररक्षा के लिए एकजुट होकर प्रतिरोध और युद्ध करने के धर्म का पालन भी करें|
.
अपना हर कार्य और अपनी हर सोच निज विवेक के प्रकाश में हो| जिस भी परिस्थिति में हम हैं, उस परिस्थिति में सर्वश्रेष्ठ कार्य हम क्या कर सकते हैं, वह हम ईश्वर प्रदत्त निज विवेक से निर्णय लेकर ही करें| जहाँ संशय हो वहाँ भगवान से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करें|
.
पुनश्चः सभी को नवसंवत्सर की शुभ कामनाएँ और नमन| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ मार्च २०१८
.
पुनश्चः :-- हम मिल जुल कर प्रेम से रहेंगे तो सुखी रहेंगे | श्रुति भगवती कहती है ....

"संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम् | देवा भागं यथा पूर्वे सञ्जानाना उपासते ||"
अर्थात् हम सब एक साथ चलें, एक साथ बोले , हमारे मन एक हो |
प्रााचीन समय में देवताओं का ऐसा आचरण रहा इसी कारण वे वंदनीय हैं |

हमारे जीवन का लक्ष्य .....

हमारे जीवन का लक्ष्य .....
.
परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति, उसे जानने व पाने की अभीप्सा, उसके प्रति समर्पण और सद् आचरण हो| हम सब ने यह जन्म इसीलिए लिया है कि हम इस जगत को प्रभु के शाश्वत प्रेम और प्रकाश से भर दें व प्रभु को इस धरा पर ले आएँ| हम सब अपने निज जीवन में प्रभु को अवतरित कर इसे दिव्य जीवन में रुपान्तरित करें, यही हमारा धर्म है|
.
"जहाँ है श्रद्धा और विश्वास वहाँ है प्रेम, जहाँ है प्रेम वहीं विराजते हैं परमात्मा; और जहाँ विराजते हैं परमात्मा, वहाँ किसी अन्य की आवश्यकता ही नहीं है|"
.
जय जननी ! जय भारत ! जय श्री राम ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
१८ मार्च २०१८

Saturday, 17 March 2018

नवसम्वत्सर पर हमारा संकल्प :--

नवसम्वत्सर पर हमारा संकल्प :--
.
एक नया आलोक, नयी चेतना जागृत होकर राष्ट्र का अभ्युत्थान करे| सम्पूर्ण भारत से असत्य और अन्धकार की शक्तियों का उन्मूलन हो| भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र बने| सनातन धर्म की सर्वत्र पुनर्प्रतिष्ठा हो| शीघ्रातिशीघ्र अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ भारत अखंड हो|
.
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ! सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिभाग्भवेत् !!
धर्म की जय हो!
अधर्म का नाश हो!!
प्राणियों में सद्भावना हो!
विश्व का कल्याण हो!!
गौ माता की जय हो!
भारत माता की जय हो!!
हर हर महादेव !

.
१८ मार्च २०१८

 

हमारे जीवन का लक्ष्य .....

हमारे जीवन का लक्ष्य ..... परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति, उसे जानने व पाने की अभीप्सा, उसके प्रति समर्पण और सद् आचरण हो| हम सब ने यह जन्म इसीलिए लिया है कि हम इस जगत को प्रभु के शाश्वत प्रेम और प्रकाश से भर दें व प्रभु को इस धरा पर ले आएँ| हम सब अपने निज जीवन में प्रभु को अवतरित कर इसे दिव्य जीवन में रुपान्तरित करें, यही हमारा धर्म है|
.
"जहाँ है श्रद्धा वहाँ है प्रेम, जहाँ है प्रेम वहीं विराजते हैं परमात्मा; और जहाँ विराजते हैं परमात्मा, वहाँ किसी अन्य की आवश्यकता ही नहीं है|
.
जय जननी ! जय भारत ! जय श्री राम ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
१८ मार्च २०१८

भारत का पुनरोत्थान .....

भारत का पुनरोत्थान .....
.
भारत का पुनरोत्थान, एक महान आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा एक दिव्य चेतना के अवतरण से होगा| भारत की प्राचीन कृषि व्यवस्था, और प्राचीन शिक्षा व्यवस्था की भी पुनर्स्थापना होगी| भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर भी पुनश्चः बैठेगी| आसुरी शक्तियों का उन्मूलन होगा और सत्य का प्रकाश भारत में छाये असत्य और अन्धकार को मिटा देगा|
.
सनातन धर्म ही भारत का भविष्य है| सनातन धर्म ही भारत की राजनीति है| भारत का भविष्य ही सम्पूर्ण सृष्टि का भविष्य है| सनातन धर्म का आधार है ..... परमात्मा के प्रति परम प्रेम की अभिव्यक्ति, उसे जानने व पाने की अभीप्सा, उसके प्रति समर्पण और 'धर्म' का आचरण| यही भारतवर्ष का प्राण है|
.
श्रीअरविन्द के शब्दों में -----
"उस कार्य को करने के लिए ही हमने जन्म किया ग्रहण,
कि जगत को उठा प्रभु तक ले जाएँ, उस शाश्वत प्रकाश में पहुँचाएँ,
और प्रभु को उतार जगत पर ले आएँ, इसलिए हम भू पर आये
कि इस पार्थिव जीवन को दिव्य जीवन में कर दें रुपान्तरित |"

"जहाँ है श्रद्धा वहाँ है प्रेम, जहाँ है प्रेम वहीं है शांति|
जहाँ होती है शांति, वहीँ विराजते हैं ईश्वर|
और
जहाँ विराजते हैं ईश्वर, वहाँ किसी की आवश्यकता ही नहीं|"
.
जय जननी जय भारत ! जय श्री राम ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१८ मार्च २०१४

धर्म की रक्षा के लिए धर्म का पालन करें ..... .

धर्म की रक्षा के लिए धर्म का पालन करें .....
.
प्रत्येक दिन का प्रारम्भ भगवान के ध्यान से करें| दिन में हर समय भगवान को अपनी चेतना में रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही पुनश्चः उन्हें अपनी चेतना में जीवन का केंद्रबिंदु बनाएँ| उनके उपकरण मात्र बनें| समर्पण का निरंतर प्रयास हो| रात्रि को सोने से पहिले यथासंभव गहनतम ध्यान करके ही सोयें| रात्रि का ध्यान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है|
.
जो द्विज हैं यानि जिन्होंने यज्ञोपवीत धारण कर रखा है उन्हें नित्य संध्या (संधि क्षणों में की गई साधना) और ब्रह्मगायत्री का यथासंभव अधिकाधिक जाप करना चाहिए| मानसिक रूप से तो किसी भी परिस्थिति में कर ही सकते हैं| वे हर कार्य का आरम्भ ब्रह्मगायत्री के मानसिक जाप से ही करें|
.
संध्या तो सब का कर्तव्य है| सामान्यतः रात्री और दिवस का सन्धिक्षण, मध्याह्न, दिवस और रात्री का सन्धिक्षण और मध्यरात्रि का समय संध्याकाल होता है| इन संधिक्षणों में की गयी साधना को संध्या कहते हैं| अपनी गुरु परम्परानुसार सभी को संध्या करनी चाहिए| योगियों के लिए हर श्वास प्रश्वास और हर क्षण सन्धिक्षण है| वे अपने कूटस्थ में निरंतर ओंकार का ध्यान करते हैं|
.
जैसा हम सोचते हैं वैसे ही हम बन जाते हैं| निरंतर भगवान का ध्यान करेंगे तो स्वतः ही सारे सद्गुण खिंचे चले आयेंगे और सारी विकृतियाँ स्वतः दूर हो जायेंगी|
.
भगवान के प्रति अहैतुकी परम प्रेम ही हमारा सबसे बड़ा धर्म है| उनके प्रति समर्पित होकर जीवन का हर कार्य करना हमारा परम धर्म है| हम धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी हमारी रक्षा करेगा| बिना धर्म का पालन किये हम निराश्रय और असहाय हैं|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१८ मार्च २०१५

राजस्थान में शेखावाटी मारवाड़ का अति प्रसिद्ध होली नृत्य 'गींदड़' .....

राजस्थान में शेखावाटी मारवाड़ का अति प्रसिद्ध होली नृत्य 'गींदड़' .....
.
होली के त्यौहार पर कई दिनों पहिले से ही खम्बा रोप कर उसके चारों ओर नगाड़े की एक विशेष ताल पर पूरी रात सिर्फ लड़कों द्वारा ही किया जाने वाला प्रसिद्ध गीन्दड़ नृत्य अब भूतकाल कि स्मृति बनता जा रहा है| इस नृत्य में लडके गोल घेरे में घूमते हुए नृत्य करते हैं| यह बहुत कुछ गुजरात के डांडिया से मिलता है, पर इसमें सिर्फ पुरुष ही नाचते हैं, महिलाएँ नहीं|
.
इस नृत्य के मुख्य वाद्य यंत्र नगाड़ा, डफ व चंग हैं| नगाड़े की चोट पर पुरुष अपने दोनों हाथों के डंडों को परस्पर टकराते हुए नृत्य करते हैं| साथ साथ डफ और चंग कि लयबद्ध ताल के साथ होली के गीत गाये जाते हैं| कई तरह के स्वांग भी रचे जाते हैं| यह नृत्य समाज की एकता का सूत्रधार है|
.
मंडावा, बिसाऊ, लक्ष्मणगढ़ और रामगढ़ कस्बों के उत्साही युवाओं ने इस नृत्य को जीवित रखने के लिए अपनी टोलियाँ बना रखी हैं जिनको पूरे भारत में बसे हुए मारवाड़ी सेठों से भी प्रोत्साहन मिलता रहता है| रामगढ़ शेखावाटी के पं.किशोरीलाल पंचलंगिया जी शेखावाटी मारवाड़ की नृत्य व संगीत कला के सबसे प्रसिद्ध लोक कलाकार और विशेषज्ञ हैं| मारवाड़ी/राजस्थानी गीतों की सबसे प्रसिद्ध गायिका सुश्री सीमा मिश्रा उन्हीं की शिष्या है| रामगढ की 'गींदड़' नृत्य मंडली भी सबसे अधिक प्रसिद्ध है|
.
पूरे भारत में शेखावाटी का मारवाड़ी समाज फैला हुआ है जिन्होंने अपनी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज़ व् परम्पराओं को जीवित रखा है| शेखावाटी मारवाड़ की भूमि वीरभूमि है| उद्द्यमशीलता, भक्ति और वीरता यहाँ के कण कण में है| जय जननी, जय भारत ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१८ मार्च २०१६

Friday, 16 March 2018

हम सब जीव से शिव बनें, आत्म-तत्व यानि परमात्मा में हमारी स्थिति हो .....

हम सब जीव से शिव बनें, आत्म-तत्व यानि परमात्मा में हमारी स्थिति हो .....
.
इस सृष्टि में जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह हमारे सब के विचारों का घनीभूत रूप है| हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल भोगने के लिए हमारा बारम्बार जन्म हो रहा है| परमात्मा के अंश होने के कारण हम सब के विचार ही घनीभूत होकर चारों ओर व्यक्त हो रहे हैं| हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, यही कर्मफलों का सिद्धांत है| यह तभी तक प्रभावी है जब तक हम आत्म-तत्व में स्थिर नहीं हो जाते| सब तरह कि प्रतिक्रियाओं यानि कर्मफलों से मुक्त होने का एकमात्र मार्ग है .... आत्म-तत्व में स्थिति| यही ईश्वर कि प्राप्ति है और यही आत्म-साक्षात्कार है|
.
हमारे में जो भी कमी है या जो भी गुण-अवगुण हैं वे हमारे विचारों के कारण ही हैं| हमारे विचार ही हमारे मित्र और शत्रु हैं| अपनी कमियों के लिए हम किसी अन्य को दोष नहीं दे सकते| कमी हमारे अपने विचारों में ही है| हमारी मुमुक्षा में कमी भी हमारे विचारों से है| सत्संग, अभ्यास और वैराग्य से ही हमारे में शिव-संकल्प यानि गहनतम मुमुक्षुत्व के विचार जागृत और स्थिर हो सकते है| मुमुक्षुत्व कि परिणिति ही जीव का शिव बनना है| हम सब जीव से शिव बनें, आत्म-तत्व यानि परमात्मा में हमारी स्थिति हो| शुभ कामनाएँ !
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१७ मार्च २०१६

जीवन के मेरे अनुभवों का निचोड़ .....

जीवन के मेरे अनुभवों का निचोड़ .....
.
जीवन के मेरे सारे अनुभवों का निचोड़ है कि जीवन का एक एक पल, जीवन के एक एक वर्ष से अधिक महत्वपूर्ण है| जीवन के हर एक पल में भगवान की गहन स्मृति बनाए रखेंगे, तो हम पायेंगे कि हमारा जीवन स्वतः ही परमात्मा से परिपूर्ण था| मैंने अपने जीवन में जिस किसी भी कार्य को आने वाले कल पर टाला, वह कार्य कभी पूरा नहीं हुआ|
.
वर्तमान क्षण, वर्तमान क्षण और वर्तमान क्षण ही महत्वपूर्ण है, आगे आने वाला समय नहीं| जिस भी क्षण भगवान की याद आये और अन्तःप्रेरणा मिले, उसी क्षण भगवान का ध्यान करो| बाद में फिर कभी नहीं होगा|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१५ मार्च २०१८

Thursday, 15 March 2018

हमें भी इन भव बंधनों से मुक्त करो .....

पतंग उड़ता है, उड़ते ही रहना चाहता है, पर उसके पीछे एक डोर बंधी रहती है जो उसे खींच कर बापस ले आती है| वैसे ही हर आध्यात्मिक साधक साधनाकाल की अनुभूतियों में ही रहते हुए और भी आगे की अनंतता में जाना चाहता है, पर उसके प्रारब्ध कर्मफलों की डोर उसे खींच कर बापस ले आती है| वह असहाय हो जाता है| इन प्रारब्ध कर्मफलों से मुक्त तो भगवान की परम कृपा ही कर सकती है| भगवान का अनुग्रह ही हमें मुक्त कर सकता है, अन्य कुछ नहीं| वे भक्तवत्सल भगवान करुणावश हमें भी इन बंधनों से मुक्त करें|

उन्हें प्रेम डोरी से हम बाँध लेंगे, तो फिर वो कंहाँ भाग जाया करेंगे |
उन्होंने छुड़ाए थे गज के वो बंधन, वही मेरे संकट मिटाया करेंगे ||
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१५ मार्च २०१८

वैराग्य का मार्ग वीर पुरुषों का मार्ग है, हर कोई उस पर नहीं चल सकता .....

वैराग्य का मार्ग वीर पुरुषों का मार्ग है, हर कोई उस पर नहीं चल सकता .....
.
गत जीवन का सिंहावलोकन करने पर पाता हूँ कि मेरी मुमुक्षा "मध्यम मुमुक्षा" ही थी| जीवन का परम ध्येय स्थिर हो जाने पर भी विरक्त होने का कभी साहस नहीं जुटा पाया, यह एक बहुत बड़ी कमी थी| परमात्मा को कभी पूर्णतः समर्पित हो ही नहीं पाया| वास्तव में वैराग्य का मार्ग वीर पुरुषों का मार्ग है, जिस पर हर कोई नहीं चल सकता| यह वैराग्य का मार्ग ही सब बंधनों से मुक्त कर सकता है| बंधनों से मुक्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है| अपनी कमी को ढकने के लिए हम तरह तरह के बहाने बनाते हैं, जो गलत हैं|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
१६ मार्च २०१८

अहंभाव से मुक्त ब्रह्मज्ञ की महिमा ......

अहंभाव से मुक्त ब्रह्मज्ञ की महिमा ......
.
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अपने प्रिय शिष्य अर्जुन को कहते हैं ....
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते| हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते" ||१८:१७||
अर्थात् जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न (पाप से) बँधता है|
.
ऐसा ही उपदेश ऋषि याज्ञवल्क्य ने राजा जनक को दिया था, जिसकी दक्षिणा स्वरुप राजा जनक ने अपना सारा राज्य और यहाँ तक कि स्वयं को भी अपने गुरु ऋषि याज्ञवल्क्य के श्रीचरणों में अर्पित कर दिया था|
श्रुति भगवती कहती हैं .....


(बृहदारण्यक उपनिषद, अध्याय ४, ब्राह्मण ४, श्लोक संख्या २३) .... "तदेतदृचाभ्युक्तम् | एष नित्यो महिमा ब्राह्मणस्य न वर्धते कर्मणा नो कनीयान् | तस्यैव स्यात्पदवित्तं विदित्वा न लिप्यते कर्मणा पापकेनेति | तस्मादेवंविच्छान्तो दान्त उपरतस्तितिक्षुः समाहितो भूत्वात्मन्येवात्मानं पश्यति सर्वमात्मानं पश्यति नैनं पाप्मा तरति सर्वं पाप्मानं तरति नैनं पाप्मा तपति सर्वं पाप्मानं तपति विपापो विरजोऽविचिकित्सो ब्राह्मणो भवत्येष ब्रह्मलोकः सम्राडेनं प्रापितोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः सोऽहं भगवते विदेहान्ददामि मां चापि सह दास्यायेति || २३ ||

भावार्थ :-- ब्रह्मज्ञ उस ब्रह्म को जानने के पश्चात किसी भी पाप से लिप्त नहीं होता है| वह शान्त, तपस्वी, विरक्त, सहिष्णु और एकाग्र चित्त होकर आत्मा में ही परमात्मा को देखता है| सब को आत्मवत् देखता है| उस को कोई पाप नहीं छू सकता| वह सब पापों से परे तर जाता है| वह पाप रहित निर्मल संशय रहित ब्राह्मण बन जाता है|
यह ब्रह्मलोक है, सम्राट् ! इस तक आप पहुंच गये हैं|
इस उपदेश को याज्ञवल्क्य से ग्रहण कर राजा जनक ने कहा कि मैं भगवान् के लिए आपको यह समस्त विदेह राज्य देता हूँ, और अपने को भी साथ में देता हूँ|
.
यहाँ श्रुति भगवती के वाक्य का सार यह है कि .....
जो ब्रह्म को जान कर प्राप्त कर लेता है कर्म का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता| न उस पर अच्छे कर्म अपना प्रभाव डाल सकते हैं और न बुरे| उस की अवस्था निर्दोष बालक की जैसी हो जाती है| ब्रह्मज्ञ विद्वान् शान्तिमय अन्तर्मुख हो जाता है और अपने आत्मरूप में प्रविष्ट होकर परमात्मा के दर्शन करता है| ऐसा व्यक्ति संसार के समस्त प्राणियों को आत्मवत् ही देखा करता है| इस अवस्था में पहुँचकर आत्मा ब्रह्मलोक को प्राप्त करके जीवन मुक्त और शरीर छोड़ने पर मुक्त हो जाता है|
.
इतना उदधृत करने के पश्चात और कुछ भी लिखने योग्य इस समय नहीं है| मनुष्य का प्रथम, अंतिम और एकमात्र ध्येय, सर्वप्रथम उस परब्रह्म परमात्मा को ही प्राप्त करना है| अन्य कुछ नहीं| अन्य सब बाद में स्वतः ही जुड़ जाता है| इसी सत्य को जीसस क्राइस्ट ने भी कहा है ... "But seek ye first the kingdom of God, and his righteousness; and all these things shall be added unto you." {Matthew 6:33 (KJV)}
.
हे गुरुरूप ब्रह्म, मैं जो भी हूँ, जैसा भी हूँ, पूर्णरूपेण आप को समर्पित हूँ| यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार रूपी अंतःकरण और सारे पाप-पुण्य, बुरे-अच्छे सारे कर्मफल, और सम्पूर्ण अस्तित्व आपको समर्पित हैं| ॐ ॐ ॐ !!
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०१८
.
पुनश्चः :-- तदाकार वृत्ति और नाद श्रवण का उपासना में बड़ा महत्त्व है. इनके बिना कोई भी आध्यात्मिक साधना सफल नहीं होती. ॐ ॐ ॐ !!

"हिंसा" और "अहिंसा" के मध्य की विभाजन रेखा क्या है? .....

"हिंसा" और "अहिंसा" के मध्य की विभाजन रेखा क्या है? .....
.
इसे समझने के लिए एक स्वतंत्र चेतना का होना अनिवार्य है| शब्दों की सीमा में रहते हुए इसे समझा नहीं जा सकता| सामने खड़ा जो किसी को देना चाहे वह उसको यानि देने वाले को स्वतः ही प्राप्त हो जाए, यही हिंसा और अहिंसा के मध्य की विभाजन रेखा है|
.
अतिथि देवो भवः | अतिथि जिस कामना से आया है उस कामना को वह स्वयं प्राप्त हो, यही हिंसा और अहिंसा के मध्य का अंतर है| हिंसा और अहिंसा का भाव अतिथि का है, हमारा नहीं| उसकी माँग के अनुसार उसकी आपूर्ति करना हमारा धर्म है| वह हिंसा या अहिंसा जो भी चाहता है उसकी आपूर्ति करने में कोई अधर्म नहीं है|
.
यदि कोई मुझे मृत्यु देने आ रहा है, यानि उसने मेरी मृत्यु चाही है, तो उसे मृत्यु देना अहिंसा ही है, क्योंकि उसने मेरी मृत्यु चाही है| जो उसने चाहा है वह ही उसको मिल रहा है| यह कोई हिंसा नहीं, अहिंसा ही है| सीमित परम्पराओं को ढोते हुए हम कब तक उन के दास बने रहेंगे? गुलामी का जीवन हमें स्वीकार्य नहीं होना चाहिए|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०१८

.
पुनश्चः :---- यहाँ बात हो रही है हिंसा और अहिंसा के मध्य की विभाजन रेखा की | मेरी एक बहुत पुरानी पोस्ट में मैनें लिखा था कि .... "आत्मका अज्ञान ही सबसे बड़ी हिंसा है" | "कर्ताभाव का अभाव अहिंसा है और कर्ताभाव हिंसा है" |

हमारा वर्तमान जीवन ..... अनंत कालखंड में एक छोटा सा पड़ाव मात्र है .....

हमारा वर्तमान जीवन ..... अनंत कालखंड में एक छोटा सा पड़ाव मात्र है .....
.
हे प्रभु, इतनी सामर्थ्य दो कि मैं इस अल्पकाल की तुच्छ चेतना से ऊपर उठकर तुम्हारी अनंतता, प्रेम और सर्वव्यापकता बनूँ| देश काल का कोई बंधन न रहे| मेरी हर कमी आपकी प्रत्यक्ष उपस्थिति से ही दूर होगी| आप का ध्यान ही वास्तविक और एकमात्र सत्संग है| बुरे और नकारात्मक विचार मेंरे सबसे बड़े शत्रु हैं| आप की परम चेतना ही मेरा घर है| मैं सदा आपकी चेतना में ही रहूँ| एक क्षण के लिए भी न भटकूँ|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ मार्च २०१६

अपनी मनोभूमि में कचरा न डालें .....

अपनी मनोभूमि में कचरा न डालें .....
.
जब हम कोई सुन्दर फूलों और मनोहारी पौधों का बगीचा लगाते हैं तो उसमें कंकर पत्थर नहीं डालते| बगीचे में जो कंकर पत्थर हैं उनको भी बाहर ही फेंकते हैं| जब कोई अति अति विशिष्ठ अतिथि आता है तब तो उस बगीचे को विशेष रूप से स्वच्छ रखते हैं| हमारी मनोभूमि भी एक बगीचा है जिसमें हम सुन्दर दिव्य विचारों और भावों के पुष्प लगाते हैं| अति अति विशिष्ठ अतिथि परमात्मा को वहाँ निमंत्रित करते हैं तो स्वच्छता पर विशेष ध्यान रखना पड़ता है|
हम क्या पढ़ते हैं, क्या देखते हैं और कैसे लोगों से मिलते हैं इसका प्रभाव हमारे मानस पर पड़े बिना नहीं रहता| आजकल टीवी पर आने वाले अधिकाँश कार्यक्रम और समाचार चैनलों से जो दिखाया और सुनाया जाता है वह एक बौद्धिक कचरे से अधिक नहीं है| कुछ अपवादों को छोड़कर टीवी के समाचार चैनलों पर दिखाए जा रहे उस कचरे से अपने आप को दूर रखो|
आपका बगीचा बहुत सुन्दर है उसमें कचरा डाल कर उसे प्रदूषित ना करें|
धन्यवाद!
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१६ मार्च २०१६

स्वयं कि आहुति .....

स्वयं कि आहुति .....
.
हो सकता है हमारे सारे पाप और सारे बुरे कर्म हिमालय से भी बड़े हों और प्रशांत महासागर से भी अधिक गहरे हों| पर प्रभु, हम तुम्हारे हैं और निरंतर तुम्हारे ही रहेंगे| अज्ञानतावश कुछ जन्मों से हम मनुष्य योनी में बार बार भटक रहे हैं| पर वास्तव में हम तुम्हारे साथ एक हैं| अब और भटकाव नहीं चाहिए| हमें न तो इन कर्मों से कोई प्रयोजन है और न ही उनके फलों से| इनका होना एक अज्ञानता थी जिसे अब तुम हर रहे हो| वे सब अब तुम्हारे हैं| तुम्हारे साथ एकात्मता से कम कुछ भी नहीं चाहिए| हम नहीं, अब सिर्फ तुम और तुम ही हो| तुम और हम सदा एक हैं और पूरी शाश्वतता में एक ही रहेंगे| स्वयं की आहुति तुम्हारी उपस्थिति की प्रचंड विवेकाग्नि में दे रहे हैं जिसे स्वीकार करो|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१६ मार्च २०१६

Wednesday, 14 March 2018

अपने विचारों के प्रति सजग रहें .....

अपने विचारों के प्रति सजग रहें .....
.
अपने विचारों के प्रति सजग रहें, क्योंकि हमारे विचार ही हमारे कर्म हैं जो अवश्य फलीभूत होते हैं| यह संसार हमारे विचारों का ही घनीभूत रूप है| मन में यदि बुरे विचार आते हैं तो उनके विपरीत चिंतन करो| परमात्मा का निरंतर चिंतन सबसे अधिक सकारात्मक कार्य है जो हम कर सकते हैं| उपासक में उपास्य के गुण अवश्य आते हैं|
.
संसार में सकारात्मक कार्य भी बहुत हो रहे हैं| सारे कार्य यदि नकारात्मक ही होते तो यह संसार अब तक नष्ट हो गया होता| प्रभु की कृपा से मेरा ऐसे अनेक लोगों से मिलना हुआ है जिन्होंने वह सर्वश्रेष्ठ शिक्षा पाई है जो यह वर्तमान सभ्यता दे सकती है, सारे अनुकूल अवसर उनके पास थे, और सारी भौतिक सुविधाएँ वे जुटा सकते थे, पर वे आध्यात्मिक साधना द्वारा बिना किसी अपेक्षा के धर्म का प्रचार प्रसार कर रहे हैं| भारत का भविष्य ऐसे ही साधक हैं|
.
भारत का भविष्य उज्जवल है| असत्य और अन्धकार कि शक्तियाँ पराभूत होंगी और भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र बनेगा| अनेक लोग इसके लिए आध्यात्मिक साधना कर रहे हैं जिनकी साधना अवश्य सफल होगी|
.
परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ आप सब को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ मार्च २०१६

नित्य साधना विधि क्या हो ? ...

नित्य साधना विधि क्या हो ? ...........
.
आकाश में इतने पक्षी उड़ते हैं, सभी का अपना अपना मार्ग होता है| सभी साधकों का एक ही मार्ग नहीं हो सकता| हम जहाँ पर भी स्थित हैं वहीं से लक्ष्य की ओर बढ़ना होगा| हमारे पूर्व जन्मों के कर्मानुसार हमारी आध्यात्मिक स्थिति, हमारी वर्तमान मानसिकता, व्यक्तित्व दोष, क्षमता और नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव आदि का आंकलन कर कोई सदगुरु ही बता सकता है कि कौन सी साधना हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है|
.
जब तक कोई मार्ग नहीं मिलता तब तक भगवान से मार्गदर्शन के लिए प्रार्थना करें, सत्संग करें और सत्साहित्य का अध्ययन करें| भगवान निश्चित रूप से किसी संत महापुरुष के रूप में या सत्साहित्य के माध्यम से मार्गदर्शन करेंगे| सबसे बड़ी आवश्यकता एक ही है कि हमारे ह्रदय में प्रभु के प्रति प्रेम हो और उन्हें पाने की अभीप्सा हो| जीवन का वास्तविक उद्देश्य ... व्यक्तिगत मुक्ति नहीं हो सकता| जीवन का वास्तविक उद्देश्य .. प्रभु के चरणों में सम्पूर्ण समर्पण है|
.
"गगन दमामा बाजिया पड्या निशानै घाव" ..... कबीर जी कहते हैं कि साधना-मार्ग में प्रवेश करते ही आकाश में दमामा यानि युद्ध का बाजा बजने लगता है, युद्ध छिड़ जाता है, और युद्ध रुपी नगाड़े के ताल पर अपनी जान पर खेलना पड़ता है, तब कहीं ईश्वर की साधना की जा सकती है|
"सीस उतारि पग तलि धरे,तब निकटि प्रेम का स्वाद" ..... अपना सिर काट कर पैरों के नीचे रखने यानि अपने अहंकार को मिटा देने से ही प्रभु प्रेम का स्वाद मिलता है|
.
परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ आप सब को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१५ मार्च २०१६

स्वर्ग में जाने की कामना .... एक धोखा और महा विनाश कारक कल्पना मात्र है .....

स्वर्ग में जाने की कामना .... एक धोखा और महा विनाश कारक कल्पना मात्र है .....
.
हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है| हमारा हर विचार और हर भाव हमारा कर्म है जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप उसका परिणाम भी हमें भुगतना ही पड़ता है| यही कर्मफलों का स्वयंसिद्ध सिद्धांत है| स्वर्ग और नर्क हमारे मन की कल्पनाएँ मात्र हैं जिनका निर्माण अपने लिए हम स्वयं करते हैं| ये हमारे स्वयं के द्वारा निर्मित मनोलोक हैं|
.
मनुष्य जाति के इतिहास में सबसे बड़ा अनर्थ, शोषण, अत्याचार, विनाश और क्रूरतम नरसंहार यदि किसी ने किया है तो वह है ..... स्वर्ग में जाने की कामना ने| इस कामना ने इस पृथ्वी पर अनगिनत सभ्यताओं को नष्ट किया है, एक-दो करोड़ नहीं बल्कि सैंकड़ों करोड़ मनुष्यों की निर्मम हत्याएँ की हैं, और करोड़ों महिलाओं पर बलात्कार कर के उन्हें अपना गुलाम बनाया है| यह स्वर्ग और नर्क की अवधारणा और स्वर्ग को पाने का लोभ सबसे बड़ा झूठ और धोखा है|
.
आरम्भ में तो स्वर्ग और नर्क की परिकल्पना इसलिए एक भय और लालच देकर की गयी थी कि मनुष्य का आचरण सही हो| पर कुछ अति चतुर लोगों ने अपने सामाजिक/राजनीतिक साम्राज्य और अपनी विचारधारा के विस्तार के लिए स्वर्ग/नर्क की झूठी और भ्रमित करने वाली कल्पनाओं को धर्म का रूप दे दिया|
.
जहाँ तक मैं समझता हूँ, हमारे जीवन का लक्ष्य नर्क से बचकर स्वर्ग में जाना नहीं, बल्कि परमात्मा को प्राप्त करना है| परमात्मा की चेतना में रहना ही स्वर्ग, और परमात्मा को विस्मृत करना ही नर्क है|
.
उर्दू भाषा के शायरों (कवियों) ने जन्नत (स्वर्ग) के तसव्वुर (कल्पना) के ऊपर बहुत कुछ लिखा है| मनुष्य की कल्पना की उड़ान जो कुछ भी अच्छा देख सकती है और अपने दामन में समेटना चाहती है वह सब जन्नत में मौजूद, और जो नहीं चाहिए वह सब ज़हन्नुम (नर्क) में मौजूद है| अब ज़न्नत के नज़ारे प्रस्तुत हैं ...


अपनी जन्नत मुझे दिखला न सका तू वाइज़
कूचा-ए-यार में चल देख ले जन्नत मेरी (फ़ानी बदायुनी)

गुनाहगार के दिल से न बच के चल ज़ाहिद
यहीं कहीं तेरी जन्नत भी पाई जाती है (जिगर मुरादाबादी)

हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है (मिर्ज़ा ग़ालिब)

जन्नत मिली झूटों को अगर झूट के बदले
सच्चों को सज़ा में है जहन्नम भी गवारा (अहमद नदीम क़ासमी)

जिस में लाखों बरस की हूरें हों
ऐसी जन्नत को क्या करे कोई (दाग़ देहलवी)

कहते हैं जिस को जन्नत वो इक झलक है तेरी
सब वाइज़ों की बाक़ी रंगीं-बयानियाँ हैं (अल्ताफ़ हुसैन हाली)

मैं समझता हूँ कि है जन्नत ओ दोज़ख़ क्या चीज़
एक है वस्ल तेरा एक है फ़ुर्क़त तेरी (जलील मानिकपूरी)

ये जन्नत मुबारक रहे ज़ाहिदों को
कि मैं आप का सामना चाहता हूँ (अल्लामा इक़बाल)

हम सोते ही न रह जाएँ ऐ शोरे-क़यामत !
इस राह से निकले तो हमको भी जगा देना (मीर तकी मीर)
.
सभी को शुभ कामनाएँ और नमन ! यदि मेरी किसी बात से आप आहत हुए हैं तो मुझे क्षमा कर देना| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ मार्च २०१८

स्वर्ग और नर्क .....

स्वर्ग और नर्क .....
.
आजकल जन्नत यानि स्वर्ग में बहुत अधिक भीड़-भाड़ और धक्का-मुक्की चल रही है| लगता है वहाँ House Full है| जिसको देखो वो ही वहाँ जाने की व्यवस्था कर रहा है| वहाँ की हालत निश्चित रूप से जहन्नुम यानि नर्क से भी बुरी है| लोग उस काल्पनिक स्वर्ग में जाने के लिए एक-दूसरे की गर्दन काट रहे हैं, और खून-खराबा कर के अपने व दूसरों के वर्तमान को नर्क से भी बुरा बना रहे हैं|
.
स्वर्ग और नर्क दोनों ही हमारी मानसिक कल्पनाएँ हैं| हमारा मन ही इनका निर्माण करता है| ये मनोलोक हैं जिन की सृष्टि हमारे मन से होती हैं| आज तक कोई वहाँ से सचेतन रूप से बापस भी आया है क्या? मन को बहलाने के लिए ही हम इनकी कल्पनाएँ करते हैं जो हमारा एक नकारात्मक मनोरंजन मात्र है|
.
मेरी यह बात पढ़कर बहुत सारे लोग मेरे से लड़ने भी आ सकते हैं जैसे कि उन्होंने स्वर्ग और नर्क का ठेका ले रखा है| भगवान उन स्वर्ग के ठेकेदारों से बचाए|
.
जीव, ईश्वर का अंश है, उस का लक्ष्य ईश्वर को प्राप्त करना होना चाहिए, न कि स्वर्ग या इससे मिलता-जुलता कुछ और| स्वर्ग प्राप्ति की कामना सबसे बड़ा धोखा और समय की बर्बादी है| जो भी समय मिले उसमें परमात्मा का ध्यान करना चाहिए| परमात्मा की चेतना में जो भी समय निकल जाए वो ही सार्थक है, बाकी सब मरुभूमि में गिरी हुई जल की कुछ बूंदों की तरह निरर्थक है| किसी भी तरह की कोई कामना का अवशेष नहीं रहना चाहिए| आत्मा नित्य मुक्त है, सारे बंधन अपने स्वयं के ही अपने स्वयं पर थोपे हुए हैं| इनसे मुक्त होना ही सार्थकता है|
.
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ मार्च २०१८

चीन के जनमानस पर अभी भी सर्वाधिक प्रभाव कन्फ्यूशियस (कुंग फूत्से) का है .....

चीन के जनमानस पर अभी भी सर्वाधिक प्रभाव कन्फ्यूशियस (कुंग फूत्से) का है .....
.
चीन में चाहे कितनी भी उथल-पुथल रही हो .... अंग्रेजों का शासन, जापानियों का अधिकार और नरसंहार, मार्क्सवादी शासन, माओवाद, आदि आदि आदि| पर चीन के जनमानस पर अभी भी कन्फ्यूशियस का प्रभाव सबसे अधिक गहरा है| कन्फ्यूशियस का जन्म ईसा से ५५० वर्ष पूर्व हुआ था| जिस जमाने में भारत में बुद्ध और महावीर अपने विचारों का प्रचार कर रहे थे, उस समय चीन में एक मसीहा के रूप में महात्मा कन्फ्यूशियस का जन्म हुआ|
.
कन्फ्यूशियस के जन्म से पूर्व ही चीन में बहुत से राज्य स्थापित हो गए थे जो सदा आपस में लड़ते रहते थे| प्रजा बहुत अधिक कष्ट झेल रही थी| ऐसे विकट समय में अपनी युवावस्था में महात्मा कन्फ्यूशियस ने पहले तो कुछ समय के लिए एक राजा की नौकरी की और फिर नौकरी छोड़कर घर पर ही एक विद्यालय खोल कर बच्चों को पढ़ाने लगे| जन्मजात प्रतिभा और प्रज्ञा उन में थी अतः काव्य, इतिहास , संगीत, और नीतिशास्त्र पर अनेक ग्रंथों की रचना की| ५३ वर्ष की आयु में वे एक राज्य में मंत्री पद पर नियुक्त हुए| मंत्री होने के नाते इन्होंने दंड के बदले मनुष्य के चरित्र सुधार पर बल दिया| अपने शिष्यों को वे सत्य, प्रेम, न्याय और अच्छा आचरण सिखाते थे| उनके दिव्य प्रभाव से लोग विनयी, परोपकारी, गुणी और चरित्रवान बनने लगे| वे लोगों को अपनों से बड़ों एवं पूर्वजों को आदर-सम्मान देने के लिए कहते थे| वे कहते थे कि दूसरों के साथ वैसा वर्ताव न करो जैसा तुम स्वयं अपने साथ नहीं चाहते हो|
.
कन्फ्यूशियस एक सुधारक थे, धर्म प्रचारक नहीं| उन्होने ईश्वर के बारे में कोई उपदेश नहीं दिया| उन के उपदेशों के कारण चीनी समाज में एक स्थिरता आई| कन्फ्यूशियस का दर्शन शास्त्र आज भी चीनी समाज के लिए एक पथ प्रदर्शक है| उनके जीवन काल में ही उनके विद्यार्थियों की संख्या तीन हज़ार के लगभग थी जिनमें से कई तो अति उच्च प्रतिभाशाली विद्वान् हुए| उनके उपदेश मुख्यतः शासन व्यवस्था और कर्त्तव्य पालन पर होते थे|
.
मेरे विचार से चीनी जनमानस अभी भी एक कोरे पन्ने की तरह है जिस पर सिर्फ कन्फ्यूशियस की ही शिक्षाएँ लिखी जा सकती हैं| आगे का भविष्य तो परमात्मा के हाथ में है| देखिये क्या होता है|
.
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१३ मार्च २०१८

Monday, 12 March 2018

सत्संग, गुरु-सेवा व गुरु-शिष्य कौन .....

सत्संग, गुरु-सेवा व गुरु-शिष्य कौन .....
.
गुरु की प्रशंसा में हमारे शास्त्र भरे पड़े हैं, पर गुरु हैं कौन?
कौन गुरु की पात्रता रखता है?
कैसे गुरु को पहिचानें और गुरु की आवश्यकता क्या है?
शिष्य की पात्रता क्या है? आदि आदि|
इन सब पर विचार करना आवश्यक है क्योंकि गुरुवाद के नाम पर आजकल गोरखधंधा भी खूब चल रहा है| दिखावटी गुरु बनकर चेले मूँड कर उनका शोषण करना आजकल खूब सामान्य व्यवसाय हो चला है|
वैसे ही फर्जी चेला बनना भी एक व्यवसाय हो गया है|
.
'शिष्यत्व' एक पात्रता है| जब वह पात्रता होती है तब सद्गुरु स्वयं चले आते हैं| सद्गुरु को कहीं ढूँढना नहीं पड़ता| सबसे महत्वपूर्ण है शिष्यत्व की पात्रता|
वह पात्रता है ..... परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम और उसे पाने की तड़प, और एक अदम्य अभीप्सा| जब वह अभीप्सा होती है तब प्रभु एक सद्गुरु के रूप में निश्चित तौर से आते हैं|
वे शिष्य के ह्रदय में यह बोध भी करा देते हैं की मैं आ गया हूँ| एक निष्ठावान शिष्य कभी धोखा नहीं खाता|
.
जब आप प्रभु को ठगना चाहते हैं तो प्रभु भी एक ठग गुरु बन कर आते हैं, और आपका सब कुछ हर कर ले जाते हैं|
प्रभु किसी महापुरुष या महात्मा (जो आत्मा महत् तत्व से जुडी हो) के रूप में आते हैं और साधक मुमुक्षु को दिव्य पथ पर अग्रसर कर देते हैं| यही दीक्षा है|
.
गुरु शिष्य का मंगल और कल्याण ही चाहते हैं|
" मीङ्गतौ " धातु से " मङ्गल " शब्द बनता है , जिसका अर्थ होता है "आगे बढ़ना"| आगे तो शिष्य को ही बढना पड़ता है| जब आगे बढने की कामना और प्रयास ही नहीं होता तब शिष्य भी अपनी पात्रता खो देता है और गुरु का वरदहस्त उस पर और नहीं रहता|
"कल्याण" शब्द का भी यही अर्थ है संस्कृत में "कल्य" का अर्थ होता है "प्रातःकाल" | इसलिए कल्याण का तात्पर्य यह है कि जीवन में " नवप्रभात " आये|
.
गुरु तो एक निश्चित भावभूमि पर अग्रसर कर शिष्य को छोड़ देता है, फिर आगे की यात्रा तो शिष्य को स्वयं ही करनी पडती है| वहाँ प्रभु 'कूटस्थ' रूप में हमारे गुरु होते हैं| 'कूटस्थ' का अर्थ है -- जो सर्वत्र है पर कहीं भी नहीं प्रतीत होता है, छिपा हुआ है|
.
योग साधक ---- ध्यान में भ्रूमध्य और उससे ऊपर दिखाई देने वाली सर्वव्यापक ज्योति और ध्यान में ही सुनाई देने वाली अनहद नाद रूपी प्रणव ध्वनी पर ध्यान करते हैं, और जब उनकी चेतना विस्तृत होकर सर्वव्यापकता को निरंतर अनुभूत करती है उसे कूटस्थ चैतन्य कहते हैं| उस सर्वव्यापकता को कूटस्थ ब्रह्म मानते हैं| कूटस्थ ही वास्तविक गुरु है जो दिव्य ज्योति और प्रणव रूप में निरंतर प्रेरणा और मार्गदर्शन देता रहता है| मेरे विचार से और मेरी अल्प व सीमित बुद्धि से गुरु वही बन सकता है जिसे ईश्वर द्वारा गुरु बनने की प्रेरणा प्राप्त हो, जो निरंतर ब्राह्मी स्थिति कूटस्थ चैतन्य में हो|
.
गुरु सेवा का अर्थ है ----- ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु के द्वारा बताए हुए मार्ग पर सतत चलना| आपकी साधना में कोई कमी रह जाती है तब गुरु उस कमी का शोधन कर उसे दूर कर देते हैं|
.
गुरु आध्यात्मिक मार्गदर्शक होता है वह किसी के निजी जीवन में दखल नहीं देता| जिस के संग में हमारे मन की चंचलता समाप्त हो, मन शांत हो, और जिसके संग से परमात्मा की चेतना निरंतर जागृत रहे वही गुरु पद का अधिकारी हो सकता है| गुरु जिस देह रूपी वाहन से अपनी लोक यात्रा कर रहे हों उसका ध्यान रखना भी गुरु सेवा का एक भाग है पर मुख्य बात है कि उनके संग से आपकी परमात्मा में स्थिति हो रही है या नहीं|
.
यदि गुरु की सेवा भी परमार्थ के ज्ञान में, अपने अद्वैत - अखण्ड की अनुभूति में बाधक होती हो तो उनको भी छोड़ देना चाहिए --- न गुरुः और न शिष्यः।
जब परमार्थ में स्थिति हो जाये तब गुरु - शिष्य का शारीरिक सम्बन्ध भी नहीं रहना चाहिये। यह बहुत विलक्षण बात है| गुरु साधनरूप हैं साध्य नहीं| उनकी हाड-मांस की देह गुरु नहीं हो सकती|
गुरु तो उनकी चेतना है|
.
"कूटस्थ" शब्द का प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में किया है| यह भगवान श्रीकृष्ण द्वारा प्रयुक्त बड़ा सुन्दर और गहन अर्थों वाला शब्द है|
सुनार सोने को आकृति देने के लिए जिस पर रख कर छोटी हथौड़ी से पीटता है उसे भी 'कूट' कहते हैं, और इस प्रक्रिया को 'कूटना' कहते हैं|
'कूट' का अर्थ छिपा हुआ भी है| जो सर्वत्र व्याप्त है और कहीं दिखाई नहीं देता उसे 'कूटस्थ' कहते हैं| भगवान 'कूटस्थ' हैं अतः गुरु भी 'कूटस्थ' है|
योगियों के लिए भ्रूमध्य में अवधान 'कूटस्थ' है|
.
निरंतर ज्योतिर्मयब्रह्म के आज्ञाचक्र और सहस्त्रार में दर्शन, और नादब्रह्म का निरंतर श्रवण --- 'कूटस्थ चैतन्य' है|
ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन एक पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के रूप में होते हैं, वह पंचमुखी महादेव हैं| उस श्वेत नक्षत्र के चारों ओर का नीला आवरण 'कृष्णचैतन्य' है| उस नीले आवरण के चारों ओर की स्वर्णिम आभा 'ओंकार' यानि प्रणव है जिससे समस्त सृष्टि का निर्माण हुआ है| \
.
उस श्वेत नक्षत्र का भेदन कर योगी परमात्मा से एकाकार हो जाता है| तब वह कह सकता है ------ 'शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि'| यही परमात्मा की प्राप्ति है|
.
कूटस्थ ही हमारा घर है, कूटस्थ ही हमारा आश्रम है और कूटस्थ ही हमारा अस्तित्व है|
दरिया साहेब का एक बड़ा सुन्दर पद्य है ---
"जाति हमारी ब्रह्म है, माता पिता हैं राम| गृह हमारा शुन्य में, अनहद में विश्राम||"
कौन तो गुरु है और कौन शिष्य ? सब कुछ तो परमात्मा है जो हम स्वयं हैं|
.
गुरु बनना महापुरुषों का काम है, साधकों का नहीं| किसी साधक का गुरु बनना उसके पतन का हेतु है|
.
आज के युग की स्थिति बड़ी विचित्र है| चेले सोचते हैं की कब गुरु मरे और उसकी सम्पत्ति हाथ लगे| कई बार तो चेले ही गुरु को मरवा देते हैं| गुरु के मरने पर कई बार तो चेलों में खूनी संघर्ष भी हो जाता है| व्यवहारिक रूप से इस तरह की अनेक घटनाओं को सुना व देखा है| अतः इन पचड़ों में न पड़कर भगवान की निरंतर भक्ति में लगे रहना ही अच्छा है|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
१३ मार्च 2014