Monday, 27 February 2017

क्या "ऊपरी बाधा" नाम की कोई चीज होती है ? ....

क्या "ऊपरी बाधा" नाम की कोई चीज होती है ? ....
क्या ये हमारे जीवन पर प्रभाव डालती है ? ........
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मैंने जीवन में आज तक यही देखा है कि समस्याओं से मुक्त जीवन तो किसी का भी नहीं है| विशेषकर जो लोग आध्यात्मिक मार्ग पर चलना चाहते हैं उनको तो सांसारिक जीवन में कुछ अधिक ही कष्ट झेलने पड़ते हैं| प्रकृति की आसुरी शक्तियां उन्हें बहुत अधिक परेशान करती हैं|
यह प्रकृति का नियम ही है या निज कर्मों का फल? कुछ समझ में नहीं आया है|
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यह संसार हमें तमाम तरह की सुख सुविधाओं का आश्वासन देता है पर सारी सांसारिक अपेक्षाएँ सदा निराशा व दुःख ही देती हैं|
कुछ भले लोग जिन्होनें कभी किसी को परेशान नहीं किया, उनके परिवार का कोई न कोई सदस्य आसुरी शक्तियों का उपकरण बन कर परिवार के अन्य सदस्यों को बहुत अधिक कष्ट देता है| ऐसे लोग दुखी होकर परेशानी से बचने के लिए तांत्रिकों, मौलवियों और ज्योतिषियों के पास जाते हैं, जहाँ ठगे जाते हैं पर उनकी परेशानी फिर भी कम नहीं होती|
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मुझे तो लगता है कि आसुरी शक्तियाँ प्रकृति में सर्वत्र हैं, विशेष रूप से अपवित्र स्थानों पर, जहाँ से जब कोई गुजरता है तब वह इनसे अवश्य प्रभावित होता है| पर हमारा मन भी एक अपवित्र स्थान बन गया है जहाँ कोई न कोई असुर आकर बैठ गया है और हमारे ऊपर राज्य कर रहा है| आजकल आसुरी भाव समाज में कुछ अधिक ही व्याप्त है| लगता है अधिकांश समाज ही प्रेतबाधा से ग्रस्त है|
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भगवान की विशेष कृपा ही हमें इन आसुरी शक्तियों से बचा सकती हैं|
कई बार हम ऐसी भयानक भूलें कर बैठते हैं फिर स्वयं को विश्वास नहीं होता कि ऐसा तो हम कर ही नहीं सकते थे, फिर यह कैसे हुआ?
कई बार प्राकृतिक आपदाओं में या ऐसे अपने आप ही हम लोग उन्मादग्रस्त होकर एक दूसरे को लूटने व मारने लगते हैं, जैसा कि अभी हरियाणा में हुआ, जहाँ लगभग अधिकाँश समाज ही आसुरी शक्तियों का शिकार हो गया था| दुनियाँ में इतने युद्ध, लड़ाई-झगड़ें और लूटपाट ये सब इन आसुरी शक्तियों के ही खेल हैं|
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शराब पीने, मांस खाने, जूआ खेलने वाले, पराये धन और परस्त्री/पुरुष कि अभिलाषा करने वाले तामसिक विचारों के लोग शीघ्र ही सूक्ष्म जगत के असुरों के शिकार बन जाते हैं| आजकल उन्हीं का शासन विश्व पर चल रहा है|
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फिर इनसे बचा कैसे जाए? एकमात्र उपाय है .... हम निरंतर परमात्मा का स्मरण करें, वे ही हमारी रक्षा कर सकते हैं| अन्य कोई उपाय नहीं है|

ॐ शिव शिव शिव शिव शिव !
कृपाशंकर
फाल्गुन कृष्ण ६, वि..स.२०७२, 28फरवरी2016

मुझे बदलो, परिस्थितियों को नहीं .....

हे परात्पर गुरु रूप परमब्रह्म,

यदि कुछ बदलना ही है तो मुझे ही बदलो, न कि मेरी इन अति विकट परिस्थितियों को| मेरे अब तक के सारे प्रयास इन विकट परिस्थितियों को ही बदलने के थे, न कि स्वयं को| यह मेरे इस जीवन की सबसे बड़ी भूल थी|
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अब आप ही जब इस नौका के कर्णधार हो तब अच्छा-बुरा सब आपको समर्पित है| अब आप ही साध्य, साधक और साधना हो, आप ही उपास्य, उपासक और उपासना हो, और आप ही दृष्य, दृष्टा और दृष्टी हो|
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यदि मैं इन पीड़ा और यंत्रणाओं से नहीं निकलता तो हो सकता है मेरा आध्यात्मिक विकास ही नहीं होता| स्वयं के लिए जीना छोड़ कर ही संभवतः मैं आप में जी सकता हूँ|
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ॐ परमेष्ठी गुरवे नमः | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

सफल ध्यान-साधना का रहस्य ....... ... शाम्भवी मुद्रा .....

सफल ध्यान-साधना का रहस्य ....... ... शाम्भवी मुद्रा .....
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औम् नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च !! ॐ नमः शिवाय !!

इस संक्षिप्त, सरल व अति लघु लेख को पढने वाले मंचस्थ सभी महान आत्माओं को मेरा नमन! आप सब मेरी निजात्मा हो और मेरे ही प्राण हो| यह लघु लेख मैं आपको नहीं बल्कि आप के माध्यम से स्वयं को लिख रहा हूँ
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ध्यान साधना में सफलता का रहस्य है ..... भ्रूमध्य में दृष्टी को स्थिर रखते हुए कूटस्थ में ज्योतिर्मय ब्रह्म के निरंतर दर्शन और नाद का श्रवण|
मेरुदंड सदा उन्नत रहे, ठुड्डी भूमि के समानांतर, और जीभ ऊपर की ओर पीछे मुड़ कर तालू से सटी हुई|
यह शांभवी मुद्रा है ....... भगवान शिव की मुद्रा जो सब मुद्राओं से श्रेष्ठ है|
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शिवनेत्र होकर ध्यान करते करते विद्युत् की आभा के समान प्रकट हुई सुनहरी ज्योति से भी परे एक नीले रंग के प्रकाशपुंज के दर्शन होते हैं जो एक नीले नक्षत्र सी प्रतीत होती है| यह विज्ञानमय कोष है| उसी के मध्य से, उससे भी परे एक विराट श्वेत ज्योति के दर्शन होते हैं जो आनंदमय कोष है| यह क्षीर-सागर है| उस पर ध्यान करते करते एक विराट पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र के दर्शन होते हैं, जिस पर निरंतर ध्यान .... शाम्भवी मुद्रा की सिद्धि है| चेतना उससे भी परे जाकर शिवमय हो जाती है|
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यह वो लोक है जहाँ से कोई लौट कर नहीं आता, और जिस की आभा से समस्त सृष्टि प्रकाशित है| उस अति शीतल दिव्य ज्योति के समक्ष सूर्य का प्रकाश भी अन्धकार है|उस का आनंद उसकी उपलब्धी में ही है, उसके वर्णन में नहीं| यह लेख तो प्रभुप्रेरणा और उनकी कृपा से एक परिचय मात्र है|

आप सब के ह्रदय में परमात्मा के प्रति प्रेम जागृत हो, और उनकी कृपा आप सब पर हो|
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ॐ नमः शिवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ ॐ ॐ ||

आजकल दूसरों पर दोषारोपण करने के लिए दो बहाने बहुत सामान्य हैं >>>

आजकल दूसरों पर दोषारोपण करने के लिए दो बहाने बहुत सामान्य हैं >>>
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(१) परमात्मा पर दोषारोपण .....
अपनी हर विफलता के लिए हम दोष भगवान को देते हैं, अपने प्रारब्ध कर्मों को नहीं| हर दुःख, कष्ट और विफलता के लिए कहते हैं कि जैसी भगवान की इच्छा, या फिर हमने तो किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा था, पर हमारे साथ भगवान ने यह अन्याय और बुरा क्यों किया? हम कभी स्वयं के कर्मों को दोष नहीं देते| हमारी गलती तो यही है कि हमने पिछले जन्मों में मोक्ष के या मुक्ति के कोई उपाय नहीं किये थे इसलिए बापस इस संसार में जन्म लेना पड़ा| हम सुखी या दुखी हैं तो सिर्फ अपने ही कर्मों के कारण, अन्य किसी का कोई दोष नहीं है| इस दुःख भरे संसार से अपनी मुक्ति के लिए अच्छे कर्म करें और आध्यात्मिक उपासना करें| यह संसार जहाँ भोगभूमि है, वहीं कर्मभूमि भी है| हमारी एकमात्र गलती यही है कि हमने इस संसार में अपने कर्मों के फल भोगने के लिए जन्म लिया है, और कोई गलती नहीं है|
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(२) नरेन्द्र मोदी पर दोषारोपण ...
हर बात के लिए आजकल नरेन्द्र मोदी पर दोष डाल दिया जाता है, जैसे पिछले ७० वर्षों से भारत पर उनका ही शासन रहा है| भारत के समाचार माध्यम बहुत अधिक घटिया और बिके हुए हैं| सैंकड़ों में से बस एक या दो ही अपवाद हैं| अधिकाँश राजनेता भी अत्यधिक कुटिल और असत्यवादी हैं| यही हाल सामाजिक व धार्मिक नेताओं का है| वे सब भारत की हर बुराई के लिए आँख मीचकर सारा दोष नरेन्द्र मोदी पर ही डालते हैं| गत वर्ष वाराणसी में एक मठ के एक अति प्रसिद्ध स्वामीजी अपने अनुयायियों के साथ गंगा में मूर्ति विसर्जित करने के लिए धरने पर बैठे थे| आधी रात को पुलिस ने उन पर लाठी चार्ज कर दिया और उनके अनुयायी साधुओं, बटुकों और भक्तों को बहुत बुरी तरह लाठियों से पीटा| यह राज्य की क़ानून-व्यवस्था का मामला था, पुलिस भी राज्य की थी और आदेश देने वाला मजिस्ट्रेट भी राज्य सरकार का था| इतनी मार खाकर भी उन स्वामीजी ने सारा दोष नरेन्द्र मोदी को दिया कि नरेन्द्र मोदी के राज्य में साधुओं पर इतना अत्याचार होता है| राज्य का शासक नरेन्द्र मोदी नहीं बल्कि अखिलेश यादव था जिसके विरूद्ध बोलने का साहस स्वामीजी में नहीं हुआ| आजकल उत्तर प्रदेश के चुनावों में भी सारे नेता अपनी विफलताओं के लिए नरेन्द्र मोदी पर दोषारोपण कर रहे हैं, जैसे अब तक इतने वर्षों से नरेन्द्र मोदी का ही राज्य रहा हो|
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दुःख-सुख, हानि-लाभ, यश-अपयश, जन्म-मृत्यु आदि सब अपने ही कर्मों के कारण है, किसी अन्य के कारण नहीं| अतः भूल से भी दूसरों पर दोषारोपण ना करें|
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आप सब को मेरा सादर प्रणाम, आशीर्वाद और शुभ कामनाएँ|
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

Sunday, 26 February 2017

मेरा परिचय .....

संशोधित व पुनर्प्रस्तुत. (26 फरवरी, 2012 को प्रस्तुत किया हुआ लेख)
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मेरा परिचय .....
I am the polestar of my shipwrecked thoughts .....
मैं ध्रुव तारा हूँ मेरे ही विखंडित विचारों का,
मैं पथ-प्रदर्शक हूँ स्वयं के भूले हुए मार्ग का.
मैं अनंत, मेरे विचार अनंत,
मेरी चेतना अनंत और मेरा अस्तित्व अनंत.
मेरा केंद्र है सर्वत्र,
परिधि कहीं भी नहीं.
मेरे उस केंद्र में ही मैं स्वयं को खोजता हूँ,
बस यही मेरा परिचय है.
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शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि .

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आत्मज्ञान, ज्ञान, अज्ञान, मोह, मोक्ष, सत्य, आत्मा, परमात्मा, माया, जीव, ब्रह्म, साधक, साधना, योग और वियोग आदि अनेक ------- अत्यधिक भारी भरकम शब्दों से मैं आज स्वयं को मुक्त कर रहा हूँ|
मैं इनका भार और नहीं ढो सकता|
ये सब अहं, प्राण, मन और बुद्धि की सीमाएँ हैं| इनसे परे भी कुछ ना कुछ अवश्य है| मेरी अभीप्सा अनंत है| वह अनन्त परम चैतन्य जो मैं स्वयं हूँ | ॐ ॐ ॐ ||

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ........

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या ........
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'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मेव नापरः' ........ भगवत्पाद जगद्गुरू शंकराचार्य का यह कथन उनका अपना अनुभव है| उन्होंने समाधी की उच्चतम अवस्था में इस सत्य को अनुभूत किया| जिसने इसे अनुभूत किया उसके लिए तो यह सत्य है, और जो सिर्फ बुद्धि से या पूर्वाग्रह से कह रहा है उसके लिए असत्य है|
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आज के भौतिक विज्ञानी कह रहे हैं कि पदार्थ का कोई अस्तित्व नहीं है, यह घनीभुत उर्जा ही है जो अपनी आवृतियों द्वारा पदार्थ के रूप में व्यक्त हो रही है| किस अणु में कितने इलेक्ट्रोन हैं वे तय करते हैं कि पदार्थ का बाह्य रूप क्या हो| अंततः ऊर्जा भी एक विचार मात्र है ---- सृष्टिकर्ता के मन का एक विचार या संकल्प|
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यह बात वैज्ञानिक दृष्टी से तो सत्य है पर जो इसे नहीं समझता उसके लिए असत्य| आज के वैज्ञानिक तो सत्य अपनी प्रयोगशालाओं में सिद्ध कर रहे हैं उसी सत्य को भारतीय ऋषियों ने समाधी की अवस्था में समझा| इस सत्य को आचार्य शंकर ने चेतना के जिस स्तर को उपलब्ध होकर कहा उसे हम चेतना के उस स्तर पर जाकर ही समझ सकते हैं| बुद्धि द्वारा किसी निर्णय पर नहीं पहुँच सकते| धन्यवाद|
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ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||

साधकों के लिए रात्रि को सोने से पहिले का समय सर्वश्रेष्ठ होता है ......

साधकों के लिए रात्रि को सोने से पहिले का समय सर्वश्रेष्ठ होता है .......
इसके लिए तैयारी करनी पडती है .....

(1) सायंकालीन आहार शीघ्र लें |
(2) पूर्व या उत्तर की और मुंह करके बिस्तर पर ही कम्बल के आसन पर बैठकर सद्गुरु, परमात्मा और सब संतों को प्रणाम करें|
(3) सद्गुरु प्रदत्त या इष्ट देव के मन्त्र का तब तक जाप करें जब तक आपका ह्रदय प्रेम से नहीं भर उठे| इतना जाप करें कि आप प्रेममय हो जाएँ| जीवन में एकमात्र महत्व उस प्रेम का ही है जो परमात्मा के प्रति आपके अंतर में है|
(4) मूलाधार से आज्ञाचक्र तक (कुछ दिनों बाद सहस्त्रार तक) और बापस क्रमशः हरेक चक्र पर ओम का मानसिक जाप खूब देर तक करें जब तक आप को संतुष्टि न मिले| समापन आज्ञाचक्र पर ही करें|
(5) अपनी सब चिंताएं और समस्याएँ जगन्माता को सौंपकर निश्चिन्त होकर वैसे ही सो जाएँ जैसे एक बालक माँ की गोद में सोता है| ध्यान रहे आप बिस्तर पर नहीं, माँ की गोद में सो रहे हैं| पूरी रात सोते जागते कैसे भी हो, जगन्माता की प्रेममय चेतना में ही रहें| संसार में जगन्माता को छोड़कर अन्य कोई भी आपका नहीं है| उनका साथ शाश्वत है जो जन्म से पूर्व, मृत्यु के बाद और निरंतर अनवरत आपके साथ है|
(6) प्रातःकाल उठते ही आज्ञाचक्र पर सद्गुरु को प्रणाम कर (गुरु पादुका स्तोत्र में दिये) वाग्भव बीजमंत्र का जाप करें| अनाहत चक्र पर जगन्माता या इष्टदेव का मोहिनी बीजमंत्र या गुरु प्रदत्त मन्त्र के साथ ध्यान करे| साथ साथ आज्ञाचक्र यानि कूटस्थ पर गुरु की चेतना भी बनी रहे|
(7) शौचादि से निवृत होकर कुछ देर व्यायाम करें जैसे टहलना, दौड़ना, सूर्यनमस्कार व महामुद्रा आदि| फिर प्राणायाम जैसे अनुलोम-विलोम आदि कर अपने साधना कक्ष में पूर्व या उत्तर की और मुंह कर कम्बल के आसन पर बैठ जाओ| मेरुदंड सदा उन्नत रहे इसका ध्यान रहे| ध्यान खेचरी मुद्रा में ही करें| यदि खेचरी मुद्रा नहीं भी कर सकते हो तो प्रयासपूर्वक जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर तालू से सटाकर रखें| धीरे धीरे अभ्यास हो जयेगा और खेचरी भी होने लगेगी| सद्गुरु, इष्टदेव और सब संतों को प्रणाम कर प्रार्थना करें और क्रमशः सब चक्रों पर खूब देर तक ओम का जाप करें| समापन आज्ञाचक्र पर कर वहां खूब देर तक ओम का ध्यान करें| अजपाजाप का अभ्यास करें और गुरु प्रदत्त साधना करें| ध्यान के बाद योनीमुद्रा का अभ्यास करें| चक्रों पर ध्यान के लिए और वैसे भी साधना के लिए भागवत मन्त्र सर्वश्रेष्ठ है| ध्यान के बाद तुरंत आसन ना छोड़ें, कुछ देर बैठे रहें फिर सद्गुरु को प्रणाम करते हुए सर्वस्व के कल्याण की प्रार्थना के साथ समापन करें|
(8) पूरे दिन भगवान का स्मरण रखें| यदि भूल जाएँ तो याद आते ही फिर स्मरण शुरू कर दें| मेरुदंड यानि कमर सदा सीधी रखें| याद आते ही कमर सीधी कर लें| दोपहर को यदि समय मिले तो फिर कुछ देर चक्रों में ओम का जाप कर लें| भागवत मन्त्र का यथासंभव खूब जाप करें|
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धीरे धीरे आप की चेतना भगवान से युक्त हो जायेगी| भगवान से उनके प्रेम के अतिरिक्त और कुछ भी न मांगे| उन्हें पता है कि आपको क्या चाहिए| भगवान के पास सब कुछ है पर आपका प्रेम नहीं है जिसके लिए वे भी तरसते हैं| आप भगवान से इतना कुछ माँगते हो, भगवान ने ही आपको सब कुछ दिया है तो क्या आप अपना पूर्ण प्रेम भगवान को नहीं दे सकते?
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ॐ नमः शिवाय| ॐ नमो भगवते वासुदेवाय| ॐ ॐ ॐ ||

जीवन एक अनसुलझा रहस्य ..

जीवन एक अनसुलझा रहस्य .......
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जीवन में हम अनेक ऐसे स्वप्न देखते हैं, जो उस समय वास्तविक लगते है| पर समय बीतने पर वे सब बातें स्वप्नवत हो जाती हैं| जीवन में पता नहीं कितने और किस किस तरह के लोगों से मिला, कहाँ कहाँ गया, कहाँ कहाँ रहा, कितने आश्चर्य देखे, कितने विचार आये, कितने संकल्प किये, कितना अभिमान किया, कितनी पीड़ाएँ भोगीं, कितनी खुशियाँ मनाईं, कितनी उपलब्धियाँ मनाईं .......... वे सब अब स्वप्न सी लगती हैं|
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जीवन का रहस्य अभी तक अनसुलझा है| यह यात्रा यों ही चलती रहेगी| वाहन (देह) बदल जाते हैं पर यात्री (प्राणी) वो ही रहता है| सारी खुशियाँ, सारे दुःख, सारी उपलब्धियाँ ... सब स्वप्न हैं| कितनी भी लम्बी यात्रा कर लो पर अंततः यही पाते हैं कि ..... वो ही घोड़ा है और वो ही मैदान है|
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आप सब दिव्यात्माओं को नमन !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप और आत्मतत्व को भूलना आत्महत्या है ...

भगवान को भूलना ब्रह्महत्या का पाप और आत्मतत्व को भूलना आत्महत्या है ...
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ब्रह्महत्या को सबसे बड़ा पाप माना गया है| मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से ब्रह्महत्या के दो अर्थ हैं ..... एक तो अपने स्वयं में अन्तस्थ परमात्मा को विस्मृत कर देना, और दूसरा है किसी ब्रह्मनिष्ठ महात्मा की ह्त्या कर देना| श्रुति भगवती कहती है कि अपने आत्मस्वरूप को विस्मृत कर देना उसका हनन यानि ह्त्या है| सांसारिक उपलब्धियों को हम अपनी महत्वाकांक्षा, लक्ष्य और दायित्व बना लेते हैं| पारिवारिक, सामाजिक व सामुदायिक सेवा कार्य भी हमें करने चाहियें क्योंकि इनसे पुण्य मिलता है, पर इनसे आत्म-साक्षात्कार नहीं होता|
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हमारे कूटस्थ ह्रदय में सच्चिदानन्द ब्रह्म यानि स्वयं परमात्मा बैठे हुए हैं| हम संसार की हर वस्तु की ओर ध्यान देते हैं पर परमात्मा की ओर नहीं| हम कहते हैं कि हमारा यह कर्तव्य बाकी है और वह कर्तव्य बाकी है पर सबसे बड़े कर्तव्य को भूल जाते हैं कि हमें ब्रह्मज्ञान प्राप्त करना है| बच्चों की शिक्षा, बच्चों को काम पर लगाना, व्यापार की सँभाल करना आदि आदि में ही जीवन व्यतीत हो जाता है| जो लोग कहते हैं कि हमारा समय अभी तक नहीं आया है, उनका समय कभी आयेगा भी नहीं|
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भगवान को भूलना ब्रह्म-ह्त्या का पाप है| आजकल गुरु बनने और गुरु बनाने का भी खूब प्रचलन हो रहा है| गुरु पद पर हर कोई आसीन नहीं हो सकता| एक ब्रह्मनिष्ठ, श्रौत्रीय और परमात्मा को उपलब्ध हुआ महात्मा ही गुरु हो सकता है जिसे अपने गुरु द्वारा अधिकार मिला हुआ हो| सार कि बात यह कि भगवान को भूलना ब्रह्महत्या है, और भगवान को भूलने वाले ब्रह्महत्या के दोषी हैं जो सबसे बड़ा पाप है|
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मनुष्य योनी में जीव का जन्म होता ही है पूर्ण समर्पण का पाठ सीखने के लिए| अन्य सब बातें इसी का विस्तार हैं| यह एक ही पाठ प्रकृति द्वारा निरंतर सिखाया जा रहा है| कोई इसे देरी से सीखता है, कोई शीघ्र| जो नहीं सीखता है वह इसे सीखने को बाध्य कर दिया जाता है| लोकयात्रा के लिए हमें जो देह रूपी वाहन दिया गया है वह नश्वर और अति अल्प क्षमता से संपन्न है| बुद्धि भी अति अल्प और सिमित है, जो कुबुद्धि ही है| चित्त नित-नूतन वासनाओं से भरा है| अहंकार महाभ्रमजाल में उलझाए हुए है| मन अति चंचल और लालची है| ये सब मिलकर इस मायाजाल में फँसाए हुए है जिसे तोड़ने का पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग ही नहीं है| हमें आता जाता कुछ नहीं है पर सब कुछ जानने का झूठा भ्रम पाल रखा है|
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इस लेख के अंत में कुछ विचार प्रस्तुत करता हूँ .......
माता पिता परमात्मा के अवतार हैं, उनका पूर्ण सम्मान करें|
प्रातः और सायं विधिवत साधना करनी चाहिए| निरंतर प्रभु का स्मरण रहे|
गीता के कम से कम पाँच श्लोकों का नित्य पाठ करना चाह्हिए|
कुसंग का सर्वदा त्याग|
कर्ताभाव से मुक्ति|
किसी भी प्रकार के नशे का त्याग|
सात्विक भोजन|
एकाग्रता से अनन्य भक्ति|
वैराग्य और एकांत का अभ्यास|
भगवान का अनन्य भक्त ही ब्राह्मण है| हर श्रद्धालु क्षत्रिय है|
सिर्फ नाम या वस्त्र बदलने से कोई विरक्त नहीं होता|
वैराग्य प्रभु कि कृपा से ही प्राप्त होता है|
गुरुलाभ भी भगवान की कृपा से ही प्राप्त होता है|
संन्यास मन की अवस्था है|
तामसिक साधनाओं से बचें|
साधना के फल का भगवान को अर्पण|
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आप सब को नमन ! ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||


समस्त सृष्टि ही भगवान शिव का नटराज के रूप में नृत्य है .....

समस्त सृष्टि ही भगवान शिव का नटराज के रूप में नृत्य है .....
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निरंतर हो रहे ऊर्जा खण्डों का प्रवाह, परमाणुओं का सृजन और विसर्जन, भगवान नटराज का नृत्य है| मूल रूप से कोई पदार्थ है ही नहीं, सब कुछ ऊर्जा है| उस ऊर्जा के पीछे भी एक विचार है, और उस विचार के पीछे भी एक परम चेतना है| वह परम चेतना और उससे भी परे जो है वह परम शिव है|
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मनुष्य की अति अल्प और सीमित बुद्धि द्वारा परमात्मा अचिन्त्य और अगम्य है| समय समय पर महापुरुषों ने मार्गदर्शन किया है कि परमात्मा के किस रूप का और कैसे ध्यान करना चाहिए|
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ह्रदय में जब परमात्मा के लिए परम प्रेम उत्पन्न होता है तब एक जिज्ञासु साधक को स्वतः ही भगवान से मार्गदर्शन प्राप्त होने लगता है| उसी का हमें अनुशरण करना चाहिए|
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लौकिक रूप से यही कहना उचित है कि अपनी अपनी गुरु-परम्परानुसार ही उपासना करनी चाहिए|
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भगवान् शिव की उपासना सबसे सरल और स्वाभाविक है| हम सब पर भगवान परम शिव की कृपा बनी रहे| शुभ कामनाएँ और नमन !
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

इस सृष्टि में देवासुर संग्राम सदा से चलता आया है .....

इस सृष्टि में देवासुर संग्राम सदा से चलता आया है और निरंतर सदा ही चलता रहेगा| जब तक यह सृष्टि है तब तक हमारे भीतर और बाहर ऐसे ही रहेगा| इस से मुक्त होने के लिए हमें स्वयं की चेतना को ऊपर उठाकर आध्यात्मिक साधना द्वारा इस द्वन्द्व और त्रिगुणात्मक सृष्टि की चेतना से परे जाना होगा| जीव जब तक स्वयं को शिवत्व में स्थापित नहीं कर लेता तब तक इसी द्वंद्व में फँसा रहेगा| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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यह सृष्टि हमारे विचारों का ही घनीभूत रूप है| हम सब के विचार मिल कर ही इस सृष्टि के रूप में व्यक्त हो रहे हैं| इसी लिए हमारे शास्त्र कहते हैं कि हमारा हर संकल्प शिव संकल्प होना चाहिए, क्योंकि हर संकल्प पूरा अवश्य होता है| हमारे विचार, कामनाएँ, इच्छाएँ आदि पूर्ण अवश्य होती हैं| ये ही हमारे कर्म हैं जिनका फल अवश्य मिलता है| इनसे मुक्त हुए बिना काम नहीं चलेगा| हमारी हरेक समस्याओं के कारण भी हमारे भीतर है और समाधान भी हमारे भीतर ही है|
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शुभ कामनाएँ| हमारा हर संकल्प शिव संकल्प हो| हम जीव से शिव बनें, हम सब को पूर्णता की प्राप्ति हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सम्पूर्ण विश्व में आसुरी शक्तियाँ घृणा और द्वेष उत्पन्न कर रही हैं .....

सम्पूर्ण विश्व में आसुरी शक्तियाँ घृणा और द्वेष उत्पन्न कर समाज व राष्ट्रों को नष्ट करते रहने का कार्य करती रही हैं| विश्व में सारा आतंक और सारे युद्ध इसी कारण हुए हैं| पूरे विश्व का इतिहास ऐसे ही आतताइयों के कारनामों से भरा पडा है|
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जिन्होनें भी अहिंसा, शांति, प्रेम, भाईचारे आदि की बातें की वे सब लोग, समाज और राष्ट्र आतताइयों द्वारा नष्ट कर दिए गए| बड़ी बड़ी बातें कुछ धूर्त असुर लोग दूसरों को ठगने या मूर्ख बनाने के लिए ही करते हैं, जबकि उनका स्वयं का जीवन कुटिलता और असत्य से भरा होता है|
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क्या कहीं कोई ऐसी व्यवस्था भी है जहाँ किसी भी प्रकार का कोई दैविक, देहिक व भौतिक ताप यानि कष्ट न हो, जहाँ कोई अत्याचार और अन्याय न हो?
क्या राम राज्य की परिकल्पना यथार्थ के धरातल पर सत्य हो सकती है?
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मैं तो इस बाहरी संसार में सत तत्त्व का अभाव पाता हूँ| इतनी विशाल सृष्टि में क्या हमारा सिर्फ भौतिक अस्तिव ही है? इससे परे भी कुछ ना कुछ तो होगा ही? क्या हम घृणा, ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार से मुक्त हो सकते हैं?
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सत्य क्या है और कैसे हम उसे उपलब्ध हो सकते हैं? इस पर हमें विचार करना चाहिए| अपने कल्पित दृढ़ विश्वासों और अथाह लोभ-लालच ने मनुष्य के हृदयों को बाँट रखा है| अधिकाँश मनुष्य अपनी स्वनिर्मित मिथ्या धारणाओं की दीवारों की कैद के पीछे रहते हुए परमात्मा की सर्वव्यापकता को विस्मृत कर चुके हैं| इस संसार में जहाँ हम रहते हैं, वह चाहे कैसा भी हो, कितनी भी विषमताएँ उसमें हों, पर हमें तो उसमें अपना सर्वश्रेष्ठ ही करना है जहाँ तक हमारी क्षमता है| बाकी सब सृष्टिकर्ता की इच्छा है| राग-द्वेष, घृणा और अहंकार से भरे हुए इस विश्व में हमारी भूमिका यही हो सकती है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

ॐ ॐ ॐ ||

हमें पानीपत के तृतीय युद्ध वाली मानसिकता से बाहर आना ही होगा .....

हमें पानीपत के तृतीय युद्ध वाली मानसिकता से बाहर आना ही होगा .....
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पानीपत का तृतीय युद्ध अति शक्तिशाली मराठा सेना अपने सेनापति की अदूरदर्शिता और गलत निर्णय के कारण हारी थी| वह हिन्दुओं की एक अत्यंत भयावह पराजय थी| पर उससे हमने कोई सबक नहीं लिया, और वे ही भूलें हम अब तक करते आये हैं| चीन से युद्ध भी हम उसी भूल से हारे| कारगिल के युद्ध में भी वही भूल हमने नियंत्रण रेखा को पार नहीं कर के की, पर सौभाग्य से हम विजयी रहे| कश्मीर की समस्या का हल भी हम अपनी यथास्थितिवादी मानसिकता के कारण नहीं कर पाए हैं| अब पहली बार सर्जिकल स्ट्राइक कर के हमने अपनी भूल सुधारी है, और यथास्थितिवादी मानसिकता से बाहर निकलने का प्रयास किया है|
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पानीपत के तृतीय युद्ध में अगर मराठा सेना आगे बढकर पहले आक्रमण करती तो निश्चित रूप से विजयी होतीं और पूरे भारत पर उनका राज्य होता| युद्धभूमि में जो पहले आगे बढकर आक्रमण करता है पलड़ा उसी का भारी रहता है| उनको पता था कि आतताई अहमदशाह अब्दाली कुछ अन्य नवाबों की फौजों के साथ सिर्फ विध्वंश और लूटने के उद्देश्य से आ रहा है| उन्हें आगे बढ़कर मौक़ा मिलते ही उसे नष्ट कर देना चाहिए था| अन्य हिन्दू राजाओं से भी सहायता माँगनी चाहिए थी| पर मराठा सेना उसके यमुना के इस पार आने की प्रतीक्षा करती रहीं| अब्दाली निश्चिन्त था कि जब तक मैं नदी के उस पार नहीं जाऊंगा मराठा सेना आक्रमण नहीं करेगी| उसने कब और कैसे नदी पार की मराठों को पता ही नहीं चला और ऐसे अवसर पर आक्रमण किया जब मराठा सेना असावधान और निश्चिन्त थीं| मराठों को सँभलने का अवसर भी नहीं मिला|

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कारगिल के युद्ध में भी वाजपेयी जी ने पहले ही घोषणा कर दी थी कि हम काल्पनिक नियंत्रण रेखा को किसी भी स्थिति में पार नहीं करेंगे| पकिस्तान तो निश्चिन्त हो गया था कि भारत किसी भी परिस्थिति में नियंत्रण रेखा को पार नहीं करेगा| यह हमारी मुर्खता थी| यदि हमारी सेना नियंत्रण रेखा को पार कर के आक्रमण करती तो न तो हमारे इतने सैनिक मरते और न युद्ध इतना लंबा चलता|
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कश्मीर की समस्या का स्थायी समाधान करने का प्रयास भी हमने कभी किया ही नहीं| बस यथास्थिति बनाए रखी| अब कश्मीर की समस्या का स्थायी समाधान करने का ईमानदारी और कठोरता से प्रयास आरम्भ हुआ है|
मुझे पूरी आशा है कि अब जो भी होगा वह अच्छा ही होगा, क्योंकि कालचक्र की गति भारत के पक्ष में है|
ॐ ॐ ॐ ||

१८ फरवरी १९४६ का नौसैनिक विद्रोह .....

१८ फरवरी १९४६ के दिन एक अति महत्वपूर्ण घटना भारत के इतिहास में हुई थी, जिसने भारत से अंग्रेजों को भागने को बाध्य कर दिया था| यह भारतीयों के जनसंहारकारी अंग्रेजी राज के कफन में आख़िरी कील थी| इस घटना के इतिहास को स्वतंत्र भारत में छिपा दिया गया और विद्यालयों में कभी पढ़ाया नहीं गया|
अगस्त १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन पूर्ण रूपेण विफल हो गया था| अंग्रेजों ने उसे हिंसात्मक रूप से कुचल दिया था| गांधी जी की नीतियों ने पूरे भारत में एक भ्रम उत्पन्न कर दिया था और उनके द्वारा तुर्की के खलीफा को बापस गद्दी पर बैठाए जाने के लिए किये गए खिलाफत आन्दोलन ने भारत में विनाश ही विनाश किया| उसकी प्रतिक्रियास्वरूप केरल में मोपला विद्रोह हुआ और लाखों हिन्दुओं की हत्याएँ हुई| गाँधी ने उन हत्यारों को स्वतंत्रता सेनानी कहा| पकिस्तान की मांग भी भयावह रूप से तीब्र हो उठी|
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भारत स्वतंत्र हुआ इसका कारण था कि ..... द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अंग्रेजी सेना की कमर टूट गयी थी और वह भारत पर नियंत्रण करने में असमर्थ थी| भारतीय सिपाहियों ने अन्ग्रेज़ अधिकारियों के आदेश मानने से मना कर दिया था और नौसेना ने विद्रोह कर दिया जिससे अँगरेज़ बहुत बुरी तरह डर गए और उन्होंने भारत छोड़ने में ही अपनी भलाई समझी|
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यहाँ मैं माननीय श्री विश्वजीत सिंह जी के द्वारा लिखे इस लेख को यों का यों उद्धृत कर रहा हूँ ......
इंडियन नेवी का मुक्ति संग्राम और भारत की स्वतंत्रता .....
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नेताजी सुभाष चन्द्र बोस व आजाद हिन्द फौज द्वारा भारत की स्वतंत्रता के लिए शुरू किये गये सशस्त्र संघर्ष से प्रेरित होकर रॉयल इंडियन नेवी के भारतीय सैनिकों ने 18 फरवरी 1946 को एचआईएमएस तलवार नाम के जहाज से मुम्बई में अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध मुक्ति संग्राम का उद्घोष कर दिया था । उनके क्रान्तिकारी मुक्ति संग्राम ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की|
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नौसैनिकों का यह मुक्ति संग्राम इतना तीव्र था कि शीघ्र ही यह मुम्बई से चेन्नई , कोलकात्ता , रंगून और कराँची तक फैल गया । महानगर , नगर और गाँवों में अंग्रेज अधिकारियों पर आक्रमण किये जाने लगे तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया गया । उनके घरों पर धावा बोला गया तथा धर्मान्तरण व राष्ट्रीय एकता विखण्डित करने के केन्द्र बने उनके पूजा स्थलों को नष्ट किये जाने लगा । स्थान - स्थान पर मुक्ति सैनिकों की अंग्रेज सैनिकों के साथ मुठभेड होने लगी । ऐसे समय में भारतीय नेताओं ने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए लड रहे उन वीर सैनिकों का कोई साथ नहीं दिया , जबकि देश की आम जनता ने उन सैनिकों को पूरा सहयोग दिया । क्रान्तिकारी नौसैनिकों के नेतृत्वकर्ता ' श्री बी. सी. दत्त ' ने खेद प्रकट किया कि उनकों प्रोत्साहन और समर्थन देने के लिए कोई राष्ट्रीय नेता उनके पास नहीं आया , राष्ट्रीय नेता केवल अंग्रेजों के साथ लम्बी वार्ता करने में तथा सत्रों व बैठकों के आयोजन में विश्वास रखते है । उनसे क्रान्तिकारी कार्यवाही की कोई भी आशा नहीं की जा सकती ।
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नौसैनिकों के मुक्ति संग्राम की मौहम्मद अली जिन्ना ने निन्दा की थी व जवाहरलाल नेहरू ने अपने को नौसैनिक मुक्ति संग्राम से अलग कर लिया था । मोहनदास जी गांधी जो उस समय पुणे में थे तथा जिन्हें इंडियन नेवी के मुक्ति संग्राम से हिंसा की गंध आती थी , उन्होंने नेवी के सैनिकों के समर्थन में एक शब्द भी नहीं बोला , अपितु इसके विपरीत उन्होंने वक्तव्य दे डाला कि -
" यदि नेवी के सैनिक असन्तुष्ठ थे तो वे त्यागपत्र दे सकते थे । "
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क्या अपने देश की स्वतंत्रता के लिए उनका मुक्ति संग्राम करना बुरा था ? जो लोग देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों पर खेलते थे , जो लोग कोल्हू में बैल की तरह जोते गये , नंगी पीठ पर कोडे खाए , भारत माता की जय का उद्घोष करते हुए फाँसी के फंदे पर झुल गये क्या इसमें उनका अपना कोई निजी स्वार्थ था ?
इंडियन नेवी के क्षुब्ध सैनिकों ने राष्ट्रीय नेताओं के प्रति अपना क्रोध प्रकट करते हुए कहा कि -
" हमने रॉयल इंडियन नेवी को राष्ट्रीय नेवी में परिवर्तित पर दिया है , किन्तु हमारे राष्ट्रीय नेता इसे स्वीकार करने को तैयार नही है । इसलिए हम स्वयं को कुण्ठित और अपमानित अनुभव कर रहे है । हमारे राष्ट्रीय नेताओं की नकारात्मक प्रतिक्रिया ने हमको अंग्रेज नेवी अधिकारियों से अधिक धक्का पहुँचाया है । "
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भारतीय राष्ट्रीय नेताओं के विश्वासघात के कारण नौसैनिको का मुक्ति संग्राम हालाँकि कुचल दिया गया , लेकिन इसने ब्रिटिस साम्राज्य की जडे हिला दी और अंग्रेजों के दिलों को भय से भर दिया । अंग्रेजों को ज्ञात हो गया कि केवल गोरे सैनिको के भरोसे भारत पर राज नहीं किया किया जा सकता , भारतीय सैनिक कभी भी क्रान्ति का शंखनाद कर 1857 का स्वतंत्रता समर दोहरा सकते है और इस बार सशस्त्र क्रान्ति हुई तो उनमें से एक भी जिन्दा नहीं बचेगा , अतः अब भारत को छोडकर वापिस जाने में ही उनकी भलाई है ।
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तत्कालीन ब्रिटिस हाई कमिश्नर जॉन फ्रोमैन का मत था कि 1946 में रॉयल इंडियन नेवी के विद्रोह ( मुक्ति संग्राम ) के पश्चात भारत की स्वतंत्रता सुनिश्चित हो गई थी । 1947 में ब्रिटिस प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने भारत की स्वतंत्रता विधेयक पर चर्चा के दौरान टोरी दल के आलोचकों को उत्तर देते हुए हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा था कि -
" हमने भारत को इसलिए छोडा , क्योंकि हम भारत में ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे थे । "
( दि महात्मा एण्ड नेता जी , पृष्ठ - 125 , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा )
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नेताजी सुभाष से प्रेरणाप्राप्त इंडियन नेवी के वे क्रान्तिकारी सैनिक ही थे जिन्होंने भारत में अंग्रजों के विनाश के लिए ज्वालामुखी का निर्माण किया था । इसका स्पष्ट प्रमाण ब्रिटिस प्रधानमंत्री ' लार्ड ' एटली और कोलकात्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ' पी. बी. चक्रवर्ती ' जो उस समय पश्चिम बंगाल के कार्यवाहक राज्यपाल भी थे के वार्तालाप से मिलता है ।
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जब चक्रवर्ती ने एटली से सीधे - सीधे पूछा कि " गांधी का अंग्रेजों भारत छोडो आन्दोलन तो 1947 से बहुत पहले ही मुरझा चुका था तथा उस समय भारतीय स्थिति में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे अंग्रेजों को भारत छोडना आवश्यक हो जाए , तब आपने ऐसा क्यों किया ? "
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तब एटली ने उत्तर देते हुए कई कारणों का उल्लेख किया , जिनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण कारण " इंडियन नेवी का विद्रोह ( मुक्ति संग्राम ) व नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के कार्यकलाप थे जिसने भारत की जल सेना , थल सेना और वायु सेना के अंग्रेजों के प्रति लगाव को लगभग समाप्त करके उनकों अंग्रेजों के ही विरूद्ध लडने के लिए प्रेरित कर दिया था । "
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अन्त में जब चक्रवर्ती ने एटली से अंग्रेजों के भारत छोडने के निर्णय पर गांधी जी के कार्यकलाप से पडने वाले प्रभाव के बारे मेँ पूछा तो इस प्रश्न को सुनकर एटली हंसने लगा और हंसते हुए कहा कि " गांधी जी का प्रभाव तो न्यूनतम् ही रहा । "
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एटली और चक्रवर्ती का वार्तालाप निम्नलिखित तीन पुस्तकों में मिलता है -
1. हिस्ट्री ऑफ इंडियन इन्डिपेन्डेन्ट्स वाल्यूम - 3 , लेखक - डॉ. आर. सी. मजूमदार ।
2. हिस्ट्री ऑफ इंडियन नेशनल कांग्रेस , लेखिका - गिरिजा के. मुखर्जी ।
3. दि महात्मा एण्ड नेता जी , लेखक - प्रोफेसर समर गुहा ।
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- विश्वजीतसिंह
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पुनश्चः :- आज़ादी हमें कोई चरखा चलाकर या अहिंसा से नहीं मिली| इस आज़ादी के पीछे लाखों लोगों का बलिदान था| नेहरु और जिन्ना दोनों ही अंग्रेजों के हितचिन्तक थे जिन्हें गांधी की मूक स्वीकृति थी| भारत से अँगरेज़ गए और जाते जाते अपने ही मानस पुत्रों .... नेहरु और जिन्ना को सत्ता सौंप गए| जितना अधिकतम भारत का विनाश वे कर सकते थे उतना विनाश जाते जाते भी कर गए|
वन्दे मातरं | भारत माता की जय |

हे जगन्माता, हे भगवती, मैं पूर्ण रूप से तुम्हारी कृपा पर आश्रित हूँ ....

हे जगन्माता, हे भगवती, मैं पूर्ण रूप से तुम्हारी कृपा पर आश्रित हूँ| धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष कुछ भी मेरी क्षमता में नहीं है| मेरे में न तो कोई विवेक है और न शक्ति| अब मेरे वश में कुछ भी नहीं है| जो करना है वह तुम ही करो, मैं तुम्हारी शरणागत हूँ| सत्य-असत्य, नित्य-अनित्य आदि का मुझे कुछ भी ज्ञान नहीं है| अपनी सृष्टि के लिए इस देह का जो भी उपयोग करना चाहो वह तुम ही करो| मेरी कोई इच्छा नहीं है| तुम चाहो तो इस देह को इसी क्षण नष्ट कर सकती हो| मेरी करुण पुकार तुम्हें सुननी ही होगी|
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हे भगवती, तुम्ही एकमात्र कर्ता हो| तुम्हीं इन पैरों से चल रही हो, इन हाथों से तुम्हीं कार्य कर रही हो, इस ह्रदय में तुम्हीं धड़क रही हो, ये साँसें भी तुम्ही ले रही हो, इन विचारों से जगत की सृष्टि संरक्षण और संहार भी तुम्ही कर रही हो| हे जगन्माता, तुम ही यह 'मैं' बन गयी हो| यह पानी का बुलबुला तुम्हारे ही अनंत महासागर में तैर रहा है| इसे अपने साथ एक करो| इस बुलबुले में कोई स्वतंत्र क्षमता नहीं है|
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हे भगवती, इस जीवन में मैं जितने भी लोगों से मिला हूँ और जहाँ कहीं भी गया हूँ, तुम्हारे ही विभिन रूपों से मिला हूँ, तुम्हारे में ही विचरण करता आया हूँ, अन्य कोई है ही नहीं| यह 'मैं' होना एक भ्रम है, इस पृथकता के बोध को समाप्त करो| हे भगवती, तुम ही यह 'मैं' बन गयी हो, अब तुम्हारा ही आश्रय है, तुम ही मेरी गति हो|
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ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ || ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||

हम स्वयं इतने ज्योतिर्मय बनें कि हमारे समक्ष कोई असत्य और अंधकार टिक ही नहीं सके .....

हम स्वयं इतने ज्योतिर्मय बनें कि
हमारे समक्ष कोई असत्य और अंधकार टिक ही नहीं सके .....
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भगवान भुवन भास्कर जब अपने पथ पर अग्रसर होते हैं तब मार्ग में कहीं भी कैसे भी तिमिर का कोई अवशेष मात्र भी नहीं मिलता| हम भी ब्रह्मतेज से युक्त होकर इतने ज्योतिर्मय बनें कि हमारे मार्ग में हमारे समक्ष भी कहीं कोई अन्धकार और असत्य की शक्ति टिक ही न सके| हमारे जीवन का केंद्र बिंदु परमात्मा बने, और परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्ति हम में हो|
ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||

भारत को किसी भी परिस्थिति में वर्गसंघर्ष से बचना होगा ...

भारत को किसी भी परिस्थिति में वर्गसंघर्ष से बचना होगा .....
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वर्गसंघर्ष का अर्थ है समाज के एक वर्ग को दूसरे वर्ग से लड़ा देना| वर्गसंघर्ष की परिणिति ही गृहयुद्ध होता है जिसका लाभ विदेशी आक्रान्ताओं को मिलता है| भारतवर्ष में एक लम्बे समय से बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक, अगड़ा-पिछड़ा-अतिपिछड़ा, मनुवाद-ब्राह्मणवाद, साम्प्रदायिक-धर्मनिरपेक्ष, गुलाम-आज़ाद, शोषक-दलित, आदि नामों से नए वर्गों की रचना कर उन्हें आपस में लड़ाने व गृहयुद्ध का षड्यंत्र रचा जाता रहा है|
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गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं की वर्ण-व्यवस्था स्वयं उनकी यानि परमात्मा की रचना है| मनुष्य के स्वाभाविक रूप से चार ही वर्ण हैं, अर्थात चार ही तरह के लोग हैं| मनु ने यह भी लिखा है कि जन्म से प्रत्येक व्यक्ति शुद्र होता है और संस्कारों व कर्मों से ऊपर उठता है| ब्राह्मण भी यदि तीन दिन तक संध्या न करे तो वह शुद्र बन जाता है|
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भगवान हमारी रक्षा करें........ कहीं भारत में गृहयुद्ध करवाने का आसुरी षड्यंत्र सफल न हो जाए| जय श्रीराम ! जयश्रीराम ! जय श्री राम !
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||

यह "मनुवाद" क्या है ? ......

यह "मनुवाद" क्या है ? ......
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एक समय था जब साम्यवादी (मार्क्सवादी) लोग किसी को गाली देते तो उसको "प्रतिक्रियावादी", "पूंजीवादी", "फासिस्ट" और "बुर्जुआ" आदि शब्दों से विभूषित करते| ये उनकी बड़ी से बड़ी गालियाँ थीं| किसी की प्रशंसा करते तो उसको "प्रगतिवादी"और 'मानवतावादी" कहते|

फिर समय आया जब कोंग्रेसी लोग किसी को गाली देते तो उसको "साम्प्रदायिक" कहते| किसी की प्रशंसा में उनका सबसे बड़ा शब्द था ... "धर्मनिरपेक्ष"|

भारतीय जनसंघ (वर्तमान भाजपा) वाले जब साम्यवादियों को गाली देते तो "पंचमांगी" कहते, जो उनकी बड़ी से बड़ी गाली थी|

फिर एक शब्द चला ..... "समाजवादी" जिसको कभी कोई परिभाषित नहीं कर पाया| जहाँ तक मुझे याद है इस शब्द को लोकप्रिय डा.राममनोहर लोहिया ने किया था, फिर श्रीमती इंदिरा गाँधी को भी यह अत्यंत प्रिय था, जिन्होंने संविधान संशोधित कर भारत को समाजवादी धर्मनिरपेक्ष देश घोषित कर दिया| आजकल समाजवादी बोलते ही श्री मुलायम सिंह यादव की छवि सामने आती है| फिर और भी कई वाद चले जैसे "राष्ट्रवाद", "बहुजन समाजवाद" आदि|

पर आजकल एक नई गाली और एक नया वाद चला है और वह है ..... "मनुवाद"|
आजकल चाहे "बहुजन समाजवादी" हों या कांग्रेसी हों, किसी की भी बुराई करते हैं तो उसे "मनुवादी" कहते हैं|
मैं मनुस्मृति को पिछले पचास वर्षों से पढ़ता आया हूँ| उस पर लिखे अनेक विद्वानों के भाष्य भी पढ़े हैं| मनुस्मृति भारत में हज़ारों वर्षों तक एक संविधान की तरह रही है| मुझे तो उसमें कहीं कोई बुराई नहीं दिखी| वह तो सृष्टि के आदि से है| हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए अंग्रेजों ने उसमें कई बातें प्रक्षिप्त कर दी थीं| पर उन प्रक्षिप्त अंशों को निकाला जा रहा है| मनु महाराज तो एक क्षत्रिय राजा थे जिन्होंने एक नई सर्वमान्य व्यवस्था दी जो हज़ारों वर्षों से हैं| उसमें कहीं भी कोई जातिवाद या भेदभाव वाली बात नहीं है|

पता नहीं आजकल के इन तथाकथित राजनयिकों को मनुस्मृति का अध्ययन किये बिना ही उसमें क्या "जातिवाद" या "सम्प्रदायवाद" दिखाई दे रहा है जो किसी की निंदा करने के लिए "जातिवादी" "साम्प्रदायिक" और "मनुवादी" कहते हैं|

सादर धन्यवाद|
जय श्रीराम जय श्रीराम जय श्रीराम!

सनातन वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना के लिए ही भारत का अस्तित्व है .....

सनातन वैदिक धर्म की सम्पूर्ण विश्व में पुनर्प्रतिष्ठा यानि पुनर्स्थापना के लिए ही भारतवर्ष का अस्तित्व अब तक बचा हुआ है| यह एक ऐसा कार्य है जिसे पूरा करना भारतवर्ष की ही नियती में है|
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परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम, शरणागति, समर्पण, आत्मसाक्षात्कार और समष्टि के कल्याण की भावना सिर्फ सनातन धर्म में ही है| आध्यात्म और विविध दर्शन शास्त्रों का प्राकट्य जितना यहाँ हुआ है उतना अन्यत्र कहीं भी नहीं हुआ है|
बुरे से बुरा समय बीत चुका है| आने वाला समय अब अच्छे से अच्छा ही होगा|
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जब तक भारतवर्ष में आध्यात्म, भक्ति, परमात्मा के प्रति समर्पण और स्वधर्म की चेतना है तब तक भारत भारत ही रहेगा| हमें आवश्यकता है एक ब्रह्मतेज की जो अनेक साधकों की साधना से ही प्रकट होगा|
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मैं पूर्ण ह्रदय से प्रार्थना करता हूँ कि भगवान हम सब का कल्याण करें, हमारी अज्ञानता की ग्रंथियों का नाश करें, उनके स्वरुप का हमें बोध हो, और उनकी पूर्ण कृपा हम पर हो| हम सब के हृदय का सम्पूर्ण प्रेम उन्हें समर्पित हो|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !

Friday, 17 February 2017

मृत संजीवनी मन्त्र .....

मृत संजीवनी मन्त्र .....
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ॐ हौं ॐ जूँ ॐ सः ॐ भू: ॐ भुवः ॐ स्व: ॐ मह: ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम्
ॐ तत्सवितुर्वरेण्यम्
त्र्यंबकम् यजामहे सुगन्धिम् पुष्टिवर्धनम्
भर्गो देवस्य धीमहि
उर्वा रूकमीव बन्धनान्
धियोयोनः प्रचोदयात्
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्
ॐ सत्यम ॐ तप: ॐ जन: ॐ मह: ॐ स्वः ॐ भुव: ॐ भू: ॐ स: ॐ जूँ ॐ हौं ॐ ||

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ॐ नमः पार्वतीपतये हर हर महादेव । ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||

भगवान शिव की साधना का परम सिद्ध स्तवराज ---- महर्षि तंडी द्वारा अवतरित सहस्रनाम :- ---

भगवान शिव की साधना का परम सिद्ध स्तवराज ----
महर्षि तंडी द्वारा अवतरित सहस्रनाम :-
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एक बार सत्ययुग में तंडी नामक ऋषि ने बहुत कठोर शिव तपस्या की और भगवान शिव को प्रसन्न किया| आशुतोष भगवन शिव की कृपा से तंडी ऋषि की ज्योतिष्मती और मधुमती प्रज्ञा जागृत हो गयी| उनमें शिव तत्व का ज्ञानोदय हुआ|
उन्होंने जिस रूप में शिव ज्ञान की व्याख्या की है उसे भगवन वेदव्यास ने महाभारत के अनुशासनपर्व के पन्द्रहवें अध्याय में बर्णित किया है|
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जिस समय महर्षि तंडी को महादेव के दर्शन प्राप्त हुए उस समय उनके ह्रदय में महादेव के एक हज़ार सिद्ध नाम स्वयं जागृत हो गए| महर्षि ने उन नामों को ब्रह्मा को बताया| ब्रह्मा ने स्वर्गलोक में उन नामों का प्रचार किया| महर्षि तंडी ने पृथ्वी पर उन नामों को सिर्फ महर्षि उपमन्यु को बताया| महर्षि उपमन्यु भगवान श्री कृष्ण के गुरु थे| उन्होंने अपने शिष्य श्री कृष्ण को वे नाम बताये| श्री कृष्ण ने वे नाम युधिष्ठिर को बताये| इसका विषद बर्णन महाभारत के अनुशासन पर्व में भगवन वेदव्यास ने किया है|
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एक बार भगवान श्री कृष्ण तपस्या करने हिमालय गए जहाँ उन्हें ब्रह्मर्षि उपमन्यु के दर्शन हुए| ब्रह्मर्षि उपमन्यु ने श्री कृष्ण को लगातार आठ दिनों तक शिव रहस्य का बर्णन सुनाया| इसके बाद श्री कृष्ण ने उन से गुरुमंत्र और दीक्षा ली| स्वयं श्री कृष्ण का कहना है ---
"दिनेSष्टमे तु विप्रेण दीक्षितोSहं यथाविधि|
दंडी मुंडी कुशी चीरी घृताक्तो मेखलीकृतः||"
अर्थात, हे युधिष्ठिर, अष्टम तिथि पर ब्राह्मण उपमन्यु ने मुझे यथाविधि दीक्षा प्रदान की| उन्होंने मुझे दंड धारण करवाया, मेरा मुंडन करवाया, कुशासन पर बैठाया, घृत से स्नान कराया, कोपीन धारण कराया तथा मेखलाबंधन भी करवाया|
तत्पश्चात मैंने एक महीने भोजन में केवल फल लिये, दुसरे महीने केवल जल लिया, तीसरे महीने केवल वायु ग्रहण की, चतुर्थ एवम् पंचम माह एक पाँव पर ऊर्ध्ववाहू हो कर व्यतीत किये| फिर मुझे आकाश में सहस्त्र सूर्यों की ब्रह्म ज्योति दिखाई दी जिसमें मैंने शिव और पार्वती को बिराजमान देखा|
ब्रह्मर्षि उपमन्यु की कृपा से मुझे शिवजी के जो एक सहस्त्र नाम मिले हैं, आज युधिष्ठिर मैं उन्हें तुम्हे सुनाता हूँ| ध्यान से सुनो| महादेव के ये सहस्त्र नाम समस्त पापों का नाश करते हैं और ये चारों वेदों के समान पवित्र हैं तथा उन्हीं के समान दैवीय शक्ति रखते हैं|
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(पूरा स्तोत्र 180 श्लोकों में है| बहुत बड़ा है जिसे यहाँ टंकण करना असंभव है| जिज्ञासु साधक इसे सीधे महाभारत से उतार लें| गीताप्रेस गोरखपुर से भी एक लघु पुस्तिका के रूप में उपलब्ध है| यहाँ मैं प्रथम व अंतिम श्लोक प्रस्तुत कर रहा हूँ, और महर्षि तंडी ने जो शिव महिमा लिखी है उसके दो तीन श्लोक लिख रहा हूँ| महाभारत में भगवान वेदव्यास ने इसे बहुत ही सुन्दर रूप में वर्णित किया है|)
वासुदेव उवाच|
ततः स प्रयतो भूत्वा मम तात! युधिष्ठिर!!
प्रांजलिः प्राह विप्रषिर्नामसंग्रहमादितः|| 1
श्रीकृष्ण ने कहा -- हे धर्मराज! उसके बाद ब्रह्मर्षि उपमन्यु ने संयमित चित्त होकर तथा दोनों करों को जोड़कर मेरे समक्ष, प्रारंभ से महादेव के सकल संगृहीत नामों का वर्णन करना शुरू किया| 1|
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य: पठेत् शुचि:पार्थ! ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय:|
अभग्रयोगो वर्षं तुं सोSश्वमेधफलं लभेत्|| 180
इति ......|
(श्रीकृष्ण बोले) --- पृथानन्दन! जो व्यक्ति पवित्र, ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय और योगनिष्ठ होकर एक वर्षकाल तक इस स्तव का पाठ करता है, वह व्यक्ति अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त करता है| 180||
इति .......|
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तंडि उवाच|
ये चैनं प्रतिपद्यन्ते भक्तियोगेन भाविता:| तेषामेवात्मनात्मानं दर्शयत्येष हृच्छय:||
यं ज्ञात्वा न पुनर्जन्म मरणं चापि विद्यते| यं विदित्वा परं वेद्यं वेदितव्यं न विद्यते||
यं लब्धा परमं लाभं नाधिकं मन्यते बुध:| यां सूक्ष्माम् परमां प्रप्तिम् गच्छन्नव्ययमक्षयम्||
यं सांख्या गुणतत्वज्ञा: सांख्यशास्त्र विशारदा:| सूक्ष्मज्ञानतरा सूक्ष्मं ज्ञात्वा मुच्यन्ति बंधने:||
यंच वेदविदो वेद्यं वेदान्ते च प्रतिष्ठितं| प्राणायाम परा नित्यं यं विशन्ति जपन्ति च||
ॐकार रथमारुह्य ते विशन्ति महेश्वरं| अयं स देवयानामादित्यो द्वारमुच्यते||
अर्थात जो लोग भक्तिभाव का अवलम्बन करके महादेव के शरणापन्न होते हैं, जीवरूपधारी ह्रुदयासन पर आधीन महादेव उनके सामने स्वयं अपने आप को प्रकट कर देते हैं|
जिन्हें जान लेने से जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है, और अधिक कुछ जान लेने की इच्छा नहीं रहती| ................................... ||
ॐ शिव|

हम सदा परमात्मा की गोद में हैं .....

हम सदा परमात्मा की गोद में हैं| वास्तव में हम हैं ही नहीं| सर्वत्र वे ही हैं|
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रात्रि में परमात्मा का ध्यान कर निश्चिन्त होकर जगन्माता की गोद में सो जाएँ| सिर के नीचे तकिया नहीं जगन्माता का वरद हस्त ही हो| प्रातःकाल जगन्माता की गोद में ही उठें और वहीं बैठकर प्रभुप्रेम में ध्यानस्थ हो जाएँ|
उससे अधिक प्रिय और सुन्दर अनुभूति और क्या हो सकती है जब हम पाते हैं कि सृष्टिकर्ता परमात्मा स्वयं जगन्माता के रूप में हमें प्यार कर रहे हैं, ठाकुर जी ही हमें प्रेम करने लगे हैं| जब चारों ओर हम परमात्मा को पाते हैं, और परमात्मा ही हमारे प्रेम में पड़ गए हैं तो हमें और क्या चाहिए ?

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

दोनों आँखों के बीच ही स्वर्ग का द्वार है .....

दोनों आँखों के बीच ही स्वर्ग का द्वार है .....
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(१) आज्ञा चक्र का भेदन ही स्वर्ग में प्रवेश है| मेरु दंड को सीधा रख कर अपनी चेतना को सदैव भ्रूमध्य में स्थिर रखने का प्रयास करो और भ्रूमध्य से विपरीत दिशा में मेरुशीर्ष से थोड़ा ऊपर खोपड़ी के पीछे की ओर के भाग में नाद को सुनते रहो और ॐ का मानसिक जप करते रहो| दोनों कानों को बंद कर लो तो और भी अच्छा है| बैठ कर दोनों कोहनियों को एक लकड़ी की सही माप की T का सहारा दे दो| यह ओंकार की ध्वनी ही प्रकाश रूप में भ्रूमध्य से थोड़ी ऊपर दिखाई देगी जिसका समस्त सृष्टि में विस्तार कर दो और यह भाव रखो की परमात्मा की यह सर्वव्यापकता रूपी प्रकाश आप स्वयं ही हैं| आप यह देह नहीं हैं| सांस को स्वाभाविक रूप से चलने दो| जब सांस भीतर जाए तो मानसिक रूप से हंsss और बाहर जाए तो सोsss का सूक्ष्म मानसिक जाप करते रहो| यह भाव निरंतर रखो की आप परमात्मा के एक उपकरण ही नहीं, दिव्य पुत्र हैं, आप और आपके परम पिता एक हैं|
ह्रदय को एक अहैतुकी परम प्रेम से भर दो| इस प्रेम को सबके हृदयों में जागृत करने की प्रार्थना करो| यह भाव रखो की परमात्मा के सभी गुण आप में हैं और आपके माध्यम से परमात्मा समस्त सृष्टि में व्यक्त हो रहे हैं|
जितना हो सके उतना भगवान का ध्यान करो| यह सर्वश्रेष्ठ सेवा है है जो आप समष्टि की कर सकते हैं| ॐ ॐ ॐ ||
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(2) भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं --
"प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैतिदिव्यं ||
अर्थात भक्तियुक्त पुरुष अंतकाल में योगबल से भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित कर के, फिर निश्छल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य रूप परम पुरुष को ही प्राप्त होता है|

आगे भगवान कहते हैं ---
"सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च |
मूधर्नायाधायात्मन: प्राणमास्थितो योगधारणाम् ||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् |
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ||"
अर्थात सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर तथा मन को हृद्देश में स्थिर कर के फिर उस जीते हुए मन के द्वारा प्राण को मस्तक में स्थापित कर के, परमात्म सम्बन्धी योग धारणा में स्थित होकर जो पुरुष 'ॐ' एक अक्षर रूप ब्रह्म को उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मुझ निर्गुण ब्रह्म का चिंतन करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह पुरुष परम गति को प्राप्त होता है|

पढने में तो यह सौदा बहुत सस्ता और सरल लगता है की जीवन भर मौज मस्ती करेंगे, फिर मरते समय भ्रूमध्य में ध्यान कर के ॐ का जाप कर लेंगे तो भगवान बच कर कहाँ जायेंगे? उनका तो मिलना निश्चित है ही| पर यह सौदा इतना सरल नहीं है| देखने में जितना सरल लगता है उससे हज़ारों गुणा कठिन है| इसके लिए अनेक जन्म जन्मान्तरों तक अभ्यास करना पड़ता है, तब जाकर यह सौदा सफल होता है|

यहाँ पर महत्वपूर्ण बात है निश्छल मन से स्मरण करते हुए भृकुटी के मध्य में प्राण को स्थापित करना और ॐकार का निरंतर जाप करना| यह एक दिन का काम नहीं है| इसके लिए आपको आज से इसी समय से अभ्यास करना होगा|
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(3) जिस स्थान को मेरुशीर्ष या मस्तक ग्रन्थि (Medulla) कहते हैं वह मनुष्य देह का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है| यहाँ मेरुदंड की समस्त नाड़ियाँ मस्तिष्क से मिलती हैं| यह शिखा के स्थान से थोड़ा नीचे है| यहाँ कोई शल्य क्रिया भी नहीं हो सकती| यहीं से ब्रह्मांडीय ऊर्जा प्रवेश कर विभिन्न चक्रों को ऊर्जा देकर देह को जीवंत रखती है|
मेरुदंड से आ रही अति सूक्ष्म सुषुम्ना नाड़ी यहाँ आकर दो भागों में बंट जाती है|
एक तो सीधी सहस्त्रार को चली जाती है और दूसरी भ्रू मध्य तक उल्टे अर्धचंद्राकार रूप में चली जाती है| सुषुम्ना का जो भाग मूलाधार से भ्रू मध्य तक गया है वह परा सुषुम्ना है| कुण्डलिनी इसी मार्ग में जागृत होकर विचरण करती है|

पर जो मार्ग मस्तक ग्रंथि से सीधा सहस्त्रार में गया है वह उत्तरा पथ, उत्तरायण का पथ या साक्षात् ब्रह्म मार्ग है| जीवात्मा का यहीं निवास है| यह मार्ग गुरु कृपा से ही खुलता है| सामान्य व्यक्ति में यह मार्ग मृत्यु के समय खुलता है| मृत्यु के समय जीवात्मा यहीं से ब्रह्मरंध्र को पार कर बाहर निकल जाती है| योगियों के लिए यही ह्रदय है, यही उनकी साधना की भूमि है| यहीं पर ज्योतिर्मय ब्रह्म के दर्शन होते हैं जिसका प्रतिबिम्ब भ्रू मध्य में दिखाई देता है| यही पर प्रणव (अनहद नाद) की ध्वनी सुनाई देती है| यहाँ जो शक्ति जागृत होती है वह परम कुण्डलिनी है|
उसके बारे में भगवान शिव कहते हैं .....


"भकारम् श्रुणु चार्वंगी स्वयं परमकुंडली |
महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभं ||
त्रिशक्तिसहितं वर्ण विविन्दुं सहितं प्रिये |
आत्मादि तत्त्वसंयुक्तं भकारं प्रणमाम्यह्म् ||"

महादेवी को संबोधित करते हुए महादेव कहते हैं कि हे (चारू+अंगी) सुन्दर देह धारिणी, 'भ'कार 'परमकुंडली' है| यह महामोक्षदायी है जो सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त है| इसमें तीनों देवों की शक्तियां निहित हैं ....

महादेव 'भ'कार द्वारा उस महामोक्षदायी परमकुण्डली की ओर संकेत करते हुए ज्ञानी साधकों की दृष्टि आकर्षित करते हुए उन्हें कुंडली जागृत कर के उत्तरा सुषुम्ना की ओर बढने की प्रेरणा देते हैं कि वे शिवमय हो जाएँ|
गुरु की आज्ञा से ध्यान तो भ्रू मध्य में किया जाता है पर उसकी अनुभूतियाँ खोपड़ी के पीछे की और होती हैं|
यह ज्योति ही वास्तव में चैतन्य जगत में प्रवेश का अनुमति पत्र है| अतः भ्रूमध्य में उस ज्योति पर और अनाहत नाद पर निरंतर ध्यान करें| यही स्वर्ग का द्वार है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
फरवरी १६, २०१३.

सारे दुखों और कष्टों का कारण .....

दूसरों की तो मैं क्या कह सकता हूँ, सिर्फ स्वयं की ही बात कह सकता हूँ|
सारे दुखों और कष्टों का कारण है ......
>>> "गुण गोविन्द गायो नहीं कियो न हरि को ध्यान" <<< ....
यदि अब तक के जन्मों में हरि का ध्यान किया होता और गोविन्द के गुण गाये होते तो यह जन्म भी क्यों होता? अब भी समय है| हे मन, संभल जा| इस देह को क्या चाहिए? दो रोटी जो कहीं से भी मिल सकती है| वृक्षों के फल और नदियों के जल पर तो किसी का एकाधिकार नहीं है| तुझे चाहिए दिन रात निरंतर हरि का ध्यान कर| उसी में सार है, बाकी सब निःसार है|
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गुण गोविन्द गायो नहीं, जनम अकारथ कीन |
कहे नानक हरी भज मना, जा विध जल की मीन ||
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ॐ ॐ ॐ |

मैं अपनी कमियों के लिए किसी अन्य पर दोषारोपण नहीं कर सकता .....

मैं अपनी कमियों के लिए किसी अन्य पर दोषारोपण नहीं कर सकता .....
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अपनी कमियों के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ| पिछले जन्मों में आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं की, परमात्मा का साक्षात्कार नहीं किया, यही मेरा सबसे बड़ा दोष है| मैनें अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए ही यह जन्म लिया है| आत्मज्ञान की प्राप्ति नहीं की, इसी महा दोष के कारण बाकी कई दोष भी अपने आप ही जुड़ गए हैं|

मैंने जन्म लिया है यही मेरा सबसे बड़ा अपराध है| पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण यदि मेरा जन्म नहीं होता तो मुझे इस जन्म में कष्ट नहीं उठाने पड़ते| परमात्मा से वियोग ही सबसे बड़ा कष्ट है, जो अन्य कष्टों को जन्म देता है| सभी प्रकार के संचित कर्मों से मुक्त होना ही है, परमात्मा को पूर्ण समर्पण करना ही है|
मार्ग प्रशस्त है| कोई संदेह या शंका नहीं है| भगवान परम शिव की परम कृपा है|
 

 "परमात्मा के लिए असीम प्रेम" ही एकमात्र सार है, बाकी सब इसी का विस्तार है| जैसे मछली जल के बिना नहीं रह सकती वैसे ही मानव का जीवन परमात्मा के बिना मृत्यु है|

ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

भक्ति का उदय एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ......

भक्ति का उदय एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ......
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मनुष्य के हृदय में भगवान की भक्ति का उदय एक स्वाभाविक प्रक्रिया है| यह जितनी शीघ्र घटित हो जाए उतना ही अच्छा है| यह कई जन्मों में जाकर धीरे धीरे घटित होती है| मनुष्य संसार में सुखों की खोज करता है पर उसे निराशा ही मिलती है| सब सुखों को अंततः वह विष मिले हुए मधु की तरह ही पाता है| सब ओर से निराश होकर अंततः वह भगवान की ओर उन्मुख होता है|

जिस तरह शिक्षा में क्रम होते हैं वैसे ही भक्ति में भी क्रम होते हैं| एक बालक चौथी में है, एक दसवीं में है, एक स्नातक है, सबकी समझ का अंतर अलग अलग होता है, वैसे ही साधना और भक्ति में भी क्रम हैं|
एक सद्गुरु ही बता सकता है किस साधक के लिए कौन सी साधना उपयुक्त है| भगवान भी हर निष्ठावान को सही मार्ग दिखाते हैं|

मैं सनातन धर्म के सभी सम्प्रदायों का सम्मान करता हूँ| हर सम्प्रदाय के दर्शन में गहराई है और हर सम्प्रदाय में एक से बढकर एक अच्छे अच्छे संत और विद्वान् हैं| सभी का सम्मान हमें करना चाहिए| जो बलात् अपना मत औरों पर थोपते हैं वे धार्मिक नहीं, अपितु असुर राक्षस हैं|

आध्यात्मिक प्रगति का एकमात्र मापदंड यही है कि यदि हम बीते हुए कल की अपेक्षा आज अधिक आनंदमय हैं तो प्रगति कर रहे हैं, अन्यथा नहीं|

परमात्मा के प्रति अहैतुकी (Unconditional) परम प्रेम का उदय मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धी है| आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन | ॐ ॐ ॐ ||

Thursday, 16 February 2017

मैं कौन हूँ ? ..... दिव्यतम परम चैतन्य .....

मैं कौन हूँ ? ..... दिव्यतम परम चैतन्य .....
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कल्पना कीजिये अधिकतम तापमान जहाँ सब कुछ भस्म हो जाए, कोई भौतिक अवशेष भी न बचे, उससे भी परे जहाँ सारे अणु-परमाणु भी विखंडित हो जाएँ, उस दिव्यतम ऊर्जा, चेतना और विचार से भी परे जो अचिन्त्य है, जो सूक्ष्मतम से विराटतम समस्त अस्तित्व का स्त्रोत है ..... वह परमात्मा है|
वह ही हमारी गति है और वह ही हमारा साध्य, उपास्य और सर्वस्व है|
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उसने स्वयं को ओंकार रूप में व्यक्त किया है जिससे समस्त अस्तित्व की सृष्टि हुई है| ओंकार ही जिसको उपलब्ध होने का मार्ग है ........ वह अन्य कोई नहीं, अंतरतम में हम स्वयं हैं| हम यह देह या कोई विचार नहीं, उससे भी परे का जो अचिन्त्य रूप है वह ही हैं|
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उस चैतन्य की एक झलक मिलते ही, उसका आभास होते ही, निरंतर उसकी चेतना में बने रहना भी स्वाभाविक सहज ध्यान साधना है|
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हम स्वयं ही सम्पूर्ण सृष्टि हैं| जो भी सृष्ट हुआ है और जो नहीं भी हुआ है वह स्वयं हम ही हैं| जो भी सुख, आनंद, प्रेम और समृद्धि हम ढूँढ रहे हैं वह तो हम स्वयं ही हैं| हम स्वयं सच्चिदानंद परम ब्रह्म और परम शिव हैं| हम यह देह नहीं, बल्कि सम्पूर्ण अस्तित्व हैं|
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त्यागी कौन ????? .....
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वास्तव में असली त्यागी तो संसारी लोग हैं, जिन्होनें नश्वर सांसारिक सुखों के लिए और अपने अहंकार की तृप्ति के लिए परमात्मा को त्याग रखा है|
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कर्म प्रधान विश्व की रचना ......
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“कर्म प्रधान विस्व रचि राखा, जो जस करहिं तो तस फल चाखा”
ईश्वर ने संसार को कर्म प्रधान बना रखा है, इसमें जो मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसको वैसा ही फल प्राप्त होता है| हम जो सोचते हैं, जैसा विचार करते हैं वह ही हमारा कर्म है| हर सोच, हर विचार फलीभूत होता है| हर क्रिया की प्रतिक्रया होती है| अतः अपने विचारों और अपनी सोच का निरंतर ध्यान रखें| हमारी हर सोच, हर विचार और हर भाव ही हमारी सृष्टि है| ॐ ॐ ॐ ||
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सार .....
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इस सृष्टि में सब कुछ परमात्मा का है| कोई हमारा नहीं है और हम किसी के नहीं हैं| एक दिन अचानक ही सब कुछ छूट जाएगा और सिर्फ परमात्मा ही हमारे साथ रहेंगे| अतः जब तक उसका दिया समय है उसमें उसको उपलब्ध हो जाना ही सार है|
उस अनंत यात्रा के लिए अभी से स्वयं को तैयार करना ही सार्थकता है|
हे प्रभु, तुम कितने सुन्दर हो! कृपा करो| ॐ ॐ ॐ ||
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आप सब परमात्म रुपी निज आत्माओं को नमन !
ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||
16फरवरी2016

Monday, 13 February 2017

परमात्मा के प्रेम में हम स्वयं प्रेममय हो जाएँ .....

परमात्मा के प्रेम में हम स्वयं प्रेममय हो जाएँ .....
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वे लोग बहुत भाग्यशाली हैं जो भगवान से प्रेम करते करते स्वयं प्रेममय हो जाते हैं| इस परमप्रेम की परिणिति ही आनंद है| सबसे बड़ा, सर्वश्रेष्ठ, महानतम, दिव्य प्रेम और रोमांस ..... परमात्मा के साथ किया गयां प्रेम है|
कितना सुन्दर और प्रिय लगेगा जब हम परमात्मा को सर्वत्र पाएंगे, जब भगवान स्वयं हमसे बातचीत करेंगे और हमारा मार्गदर्शन करेंगे| यहाँ किसी दार्शनिकता और वाद-विवाद में पड़ने की आवश्यकता नहीं है| किसी से किसी मार्गदर्शन की आवश्यकता भी नहीं है| बस प्रभु को प्रेम करो जो सर्वत्र व्याप्त है, जो सब के ह्रदय में धड़क रहा है, कण कण में व्याप्त है और पूरे जीवन का स्त्रोत है|
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यही भारत की परम्परा है जहाँ एक से बढ़ कर एक प्रभुप्रेमी हुए हैं| हमारे आदर्श भारतवर्ष के असंख्य भक्त ही हो सकते हैं, कोई वेलेंटाइन पादरी नहीं|
जैसे जैसे हम भगवान को प्रेम करेंगे वैसे वैसे ही वे हमारी रक्षा और मार्गदर्शन भी करेंगे, हमारा सारा भार भी वे ही ले लेंगे| बस सिर्फ भगवान् से प्रेम करो| प्रेम की उच्चतम आदर्श अभिव्यक्ति श्रीराधा जी और हनुमान जी द्वारा हुई है| उनके ह्रदय में जो प्रेम था उसका एक कणमात्र भी हमें धन्य कर देगा| भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण साक्षात प्रेम हैं| उन्हें अपने ह्रदय में स्थान दो और दिन रात उनका निरंतर चिंतन करो और प्रेममय हो जाओ| यही हमारा परम धर्म है|
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मैं जो बात कह रहा हूँ अपने अनुभव से कह रहा हूँ कोई निरी कल्पना नहीं है| खूब दुनिया देखी है| जीवन का सार भगवान की भक्ति में ही है, अन्य किसी विषय में नहीं|
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आप सब मेरी ही निजात्मा हो, आप सब भगवान के अंश हो, आप सब को मेरे ह्रदय का गहनतम प्यार समर्पित है|
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ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ !!
कृपाशंकर
हमारी रक्षा कैसे हो ? .......
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यह एक अनुभूत सत्य है| इसके लिए हमें भावजगत में जाना होगा और परमात्मा से जुड़ना होगा| एक भाव निरंतर रखने का अभ्यास करें कि भगवान श्रीराम हर समय हमारी रक्षा कर रहे हैं| भगवान का वचन है .....
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते| अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम||"
(He who seeks refuge in me just once, telling me that “I am yours”, I shall give him assurance of safety against all types of beings. This is my solemn pledge)
भगवान ने यहाँ तक कहा है कि ....... “यदि वा रावणः स्वयम्” ........ यदि रावण स्वयं भी मेरी शरण में आ जाए तो उसे भी मैं अभय दूंगा|
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हिन्दू बालिकाओं को तो निरंतर यह अपनी स्मृति में रखना चाहिए|
यदि आप किसी अन्य इष्टदेव के रूप को मानना चाहते हैं तो भी कोई बात नहीं| भगवान शिव या माँ दुर्गा का त्रिशूल, भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र, या हनुमान जी स्वयं निरंतर आपकी रक्षा कर रहे हैं| महत्त्व है निरंतर स्मरण और श्रद्धा-भक्ति का|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Would You Be My Valentine ? " "क्या आप मुझसे शादी करेंगे ? ....

" Would You Be My Valentine ? " "क्या आप मुझसे शादी करेंगे ?"
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योरोप और अमेरिका में पहले कोई स्थायी विवाह नहीं करता था| लोग बिना विवाह के रखैलें रखते थे| स्त्री का महत्त्व सिर्फ एक उपयोगी वस्तु की तरह होता था, अप्रिय हो गयी तो बदल ली| वहाँ के सारे दार्शनिक और सम्राट अनेक स्त्रियाँ रखते थे| लोग पशुओं की तरह ही रहते थे| सन 478 ई. में इटली में वेलेंटाइन नाम के एक पादरी ने लोगों को समझा बुझाकर उनके विवाह करवाने आरम्भ कर दिए| वहाँ के सम्राट क्लोडियस को यह बात बुरी लगी और उसने सन 14 फ़रवरी 498 ई को सार्वजनिक रूप से वेलेंटाइन को फांसी दे दी| फांसी से पहिले उन सब को वहाँ साक्षी के रूप में खडा किया जिनका विवाह वेलेंटाइन ने करवाया था| उन सब लोगों ने वेलेंटाइन की याद में वेलेंटाइन डे मनाना आरम्भ कर दिया| वेलेंटाइन डे के सन्देश का अर्थ है .... क्या आप मुझसे विवाह करोगे? अब आप लोगों की इच्छा है आप इस वेलेंटाइन डे को कैसे मनाएँ|
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जो लोग वेलेंटाइन दिवस मनाते हैं उन सब लडके, लडकियों और लड़कियों के नाम से फेसबुक पर खाता चलाने वाले लडकों को भी वेलेंटाइन डे की शुभ कामनाएँ ....... भगवान आपको सद्बुद्धि दे|

परमात्मा का मार्ग .......

परमात्मा का मार्ग .......
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जहाँ तक मेरी सीमित और अल्प बुद्धि सोच सकती है, सुषुम्ना पथ ही परमात्मा का मार्ग है| सुषुम्ना मार्ग से सहस्त्रार और ब्रह्मरंध्र पार कर अनंत ब्रह्म से एकाकार होना योगमार्ग की साधना है|
सभी योगी जो परमात्मा के साक्षात्कार हेतु ध्यान साधना करते हैं, साधनाकाल में अपना मेरुदंड यानि कमर सीधी रखते है और भ्रूमध्य में दृष्टी स्थिर रखते हैं|
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इसका कारण यह है कि जब इन्द्रियों से चेतना हटने लगती है तो प्राण ऊर्जा, आध्यात्मिक नेत्र जिसे तृतीय नेत्र भी कह सकते हैं जो दोनों भौतिक नेत्रों के मध्य में है के और आज्ञाचक्र के मध्य की ओर स्वतः निर्देशित होती है| आध्यात्मिक नेत्र ----- आज्ञा चक्र (जो मस्तिकग्रंथी/मेरुशीर्ष यानि Medulla Oblongata में है) का प्रतिबिम्ब है| आज्ञा चक्र से प्रकाश दोनों आँखों में आता है| भ्रूमध्य में ध्यान से वह प्रकाश भ्रूमध्य में स्थिर रूप से दिखना आरम्भ हो जाता है और योगी की चेतना ब्राह्मीचेतना होने लगती है और ज्योतिर्मय ब्रह्म का आभास होने लगता है| अनाहत नाद भी धीरे धीरे सुनाई देने लगता है|
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भावजगत में सम्पूर्ण समष्टि के साथ स्वयं को एकाकार करें| आप यह देह नहीं बल्कि परमात्मा की अनंतता और उनका सम्पूर्ण प्रेम हैं| शिवनेत्र होकर कूटस्थ में सर्वव्यापी सद्गुरु रूप शिव का ध्यान करें|
निष्ठावान मुमुक्षु का सारा मार्गदर्शन निश्चित रूप से भगवान स्वयं करते हैं और उसकी रक्षा भी होती है| आपकी सारी जिज्ञासाओं के उत्तर और सारी समस्याओं का समाधान परमात्मा में ही मिलेगा|
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यहाँ तक की और इससे आगे की प्रगति साधक गुरु रूप में परमात्मा की कृपा से ही कर सकता है|
गुरुकृपा का पात्र साधक तभी हो सकता है जब उसके आचार विचार सही हों, व भक्ति और समर्पण की पूर्ण भावना हो|
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हठयोग की साधनाओं का उद्देश्य यही है कि साधक स्वस्थ हो और सुषुम्ना पथ पर अग्रसर हो|
पर सबसे महत्वपूर्ण है ----- भक्ति यांनी प्रभु के प्रति परम प्रेम, और उन्हें समर्पित होने की प्रबल अभीप्सा|
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हे परमशिव प्रभु, आप सब का कल्याण करो, आपकी सृष्टि में सब सुखी हों, कोई दुःखी ना हो, सबके ह्रदय में आपके प्रति परम प्रेम जागृत हो, और सब आनंदमय हों|
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ॐ नमः शिवाय! ॐ शिव! ॐ ॐ ॐ||

हृदय की एक घनीभूत पीड़ा व्यक्त हुई है .....

मैं सुदर्शन चक्रधारी भगवान श्रीकृष्ण और धनुर्धारी भगवान श्रीराम को नमन करता हूँ जिन्होंने आतताइयों के संहार के लिए अपने हाथों में अस्त्र धारण कर रखे हैं| उनकी चेतना सभी भारतवासियों में जागृत हो| ॐ ॐ ॐ ||
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भारत की प्रत्येक नारी आत्मरक्षा में प्रवीण हो, आतताई के प्राण लेने में भी सक्षम हो, और सदैव अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु आत्मोत्सर्ग करने में भी तत्पर हो|
उसे सदा यह बोध रहे कि जीवन में मृत्यु में हर परिस्थिति में भगवान शिव की शक्ति निरंतर उसकी रक्षा कर रही है और करेगी|
हर नारी अबला नहीं सबला बने, भोग्या नहीं पूज्या बने, धर्मरक्षिका बने| ॐ ॐ ॐ ||
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यदि हम आत्मरक्षा करने में समर्थ नहीं हैं, संगठित नहीं हैं, हमारे में समाज व राष्ट्र की चेतना नहीं है, हमारे में आत्म-सम्मान नहीं है, तो हमारा वैभव, समृद्धि, संस्कृति, धर्म, घर-परिवार कुछ भी सुरक्षित नहीं है| न तो हमारे साधू-संत बचेंगे, न हमारे धर्मग्रन्थ, न हमारे देवालय, हमारा भौतिक अस्तित्व भी नहीं बचेगा|
भारत का कितना वैभव था, उस पर विचार करें| हमारी यह स्थिति कैसे हुई उस पर भी विचार करें|
आज जब हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं, तब हमें आत्म-रक्षा में समर्थ और संगठित होना ही होगा|
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अखंड भारत में कितना वैभव था, कितने भव्य मंदिर थे, कितनी महान संस्कृति थी, ज्ञान-विज्ञान की पराकाष्ठा थी, हमारे कितने गुरुकुल थे, कितने महान आचार्य थे, पर आज वह सब कहाँ है? हम क्यों पददलित हुए? हमारा अस्तित्व और हमारी अस्मिता प्रभु की परम कृपा से ही थोड़ी बहुत बची है| उस पर भी आसुरी शक्तियाँ प्रहार कर रही हैं| हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान इतना अधिक क्यों गिर गया है?
चेतना का हमारा स्तर इतना अधिक गिर गया है कि हम अपने अस्तित्व की रक्षा के प्रति भी निरपेक्ष बने हुए हैं|
कहीं न कहीं से कुछ न कुछ हमें पुनः आरम्भ करना ही होगा| हम अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ क्या कर सकते हैं, इस पर हमें विचार करना ही होगा| ॐ ॐ ॐ ||
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हम आत्महीनता के बोध से मुक्त हों| हमें अपने धर्म और संस्कृति पर अभिमान हो| यह हमारा धर्म ही है जो अहैतुकी भक्ति और परोपकार की शिक्षा देता है| अन्य सभी मतों ने परोपकार के नाम पर परपीडन ही किया है| अन्य मत एक तरह की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं हैं जिन्होंने अपने मत का उपयोग अपने साम्राज्य विस्तार और अर्थलोलूपता के लिए किया है|
हम विदेशी प्रभाव से मुक्त हों| गर्व से कहो हम हिन्दू हैं| सत्य सनातन धर्म की जय| ॐ ॐ ॐ

जब तक पकिस्तान का अस्तित्व है, तब तक भारत में कभी सुख-शांति नहीं हो सकती .....

Feb.13, 2017.

जब तक पकिस्तान का अस्तित्व है, तब तक भारत में कभी सुख-शांति नहीं हो सकती .....
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कश्मीर के कुलगाम जिले में कल शहीद हुए दो जवानों व दो नागरिकों को श्रद्धांजलि| भगवान उनको सद्गति प्रदान करे| घायल हुए जवान शीघ्र स्वस्थ हों|
आतंकवादियों के समर्थन में अलगाववादियों ने आज पूरी कश्मीर घाटी में बंद कर रखा है| जिस समय आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ चल रही थी, कई सौ लोगों की भीड़ आतंकवादियों के समर्थन में नारे लगा रही थी और सुरक्षा बलों पर पत्थर फेंक रही थी| इतना अधिक भ्रमित कर रखा है पकिस्तान ने कश्मीर के लोगों को मजहब के नाम पर जैसे पकिस्तान में मिलने पर वे स्वर्ग में पहुँच जायेंगे|
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कश्मीर के लोगों को पाकिस्तान की वास्तविकता का नहीं पता है कि पृथ्वी पर यदि कहीं कोई नर्क है तो वह पकिस्तान ही है| पाक अधिकृत कश्मीर के लोग पाकिस्तानियों के हाथों कितने दुखी हैं और नर्क की यंत्रणा झेल रहे हैं, इसका पता संभवतः कश्मीरियों को नहीं है| वहाँ के लोग पकिस्तान से मुक्ति चाहते हैं| पंजाब को छोड़कर पकिस्तान के सभी प्रांत, पाकिस्तान से मुक्त होना चाह्ते हैं|
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पाकिस्तान जैसे कट्टर इस्लामिक देश की चीन जैसे कट्टर नास्तिक देश से मित्रता का एकमात्र कारण भारत से द्वेष है| चीन में मस्जिदों में अज़ान पर, रमजान के महीने में रोज़े रखने पर और इस्लाम की शिक्षा पर पूर्ण प्रतिबन्ध है| चीन में इमामों को सडक पर नचाया जाता है और उनसे कसम दिलवाई जाती है कि वे बच्चों को इस्लाम की शिक्षा नहीं देंगे| चीन में जो मुसलमान सरकारी कर्मचारी हैं उनसे नारे लगवाये जाते हैं कि उनका वेतन अल्लाह से नहीं बल्कि चीन की सरकार से मिलता है| आश्चर्य की बात तो यह है कि मुस्लिम जगत में कोई भी चीन के इस कदम का विरोध नही करता है| भारत के मानवाधिकारवादी भी शांत रहते हैं| दुखद बात तो यह है की भारत में पकिस्तान का विरोध करने वाले को साम्प्रदायिक की उपाधी तुरंत दे दी जाती है| पाकिस्तान एक असत्य और अन्धकार की शक्ति है, जिसका जितनी शीघ्र नाश हो जाए उतनी ही शीघ्र इस विश्व में शान्ति होगी|
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ॐ ॐ ॐ ||

सहज योग .....

सहज योग .....
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मेरे प्रिय निजात्मगण, सप्रेम अभिवादन !
'सहज' का अर्थ क्या होता है ? सहज का अर्थ .... 'आसान' नहीं है| 'सहज' का अर्थ है .... 'सह+ज' यानि जो साथ में जन्मा है| साथ में जो जन्मा है उसके माध्यम से या उसके साथ योग ही सहज योग है|
कोई भी प्राणी जब जन्म लेता है तो उसके साथ जिसका जन्म होता है वह है उसका श्वास| अत: श्वास-प्रश्वास ही सह+ज यानि 'सहज' है|
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महर्षि पतंजलि ने चित्त की वृत्तियों के निरोध को 'योग' परिभाषित किया है| चित्त और उसकी वृत्तियों को समझना बड़ा आवश्यक है| उसको समझे बिना आगे बढना ऐसे ही है जैसे प्राथमिक कक्षाओं को उतीर्ण किये बिना माध्यमिक में प्रवेश लेना|
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चित्त है हमारी चेतना का सूक्ष्मतम केंद्र बिंदु, जिसे समझना बड़ा कठिन है|
चित्त स्वयं को दो प्रकार से व्यक्त करता है .... एक तो मन व वासनाओं के रूप में, और दूसरा श्वास-प्रश्वास के रूप में|
मन व वासनाओं को पकड़ना बड़ा कठिन है| हाँ, साँस को पकड़ा जा सकता है|
योगी लोग कहते हैं कि मानव देह और मन के बीच की कड़ी .... 'प्राण' है|
चंचल प्राण ही मन है| प्राणों को स्थिर कर के ही मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है|
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भारत के योगियों ने अपनी साधना से बड़े बड़े महान प्रयोग किये और योग-विज्ञान को प्रकट किया| योगियों ने पाया की श्वास-प्रश्वास कोई स्वतंत्र क्रिया नहीं है बल्कि सूक्ष्म देह में प्राण प्रवाह की ही प्रतिक्रिया है| जब तक देह में प्राणों का प्रवाह है तब तक साँस चलेगी| प्राण प्रवाह बंद होते ही साँस भी बंद हो जायेगी|
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योगियों की स्वयं पर प्रयोग कर की गयी महानतम खोज इस तथ्य का पता लगाना है कि श्वास-प्रश्वास पर ध्यान कर के प्राण तत्व को नियंत्रित किया जा सकता है, और प्राण तत्व पर नियन्त्रण कर के मन पर विजय पाई जा सकती है, मन पर विजय पाना वासनाओं पर विजय पाना है| यही चित्त वृत्तियों का निरोध है|
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फिर चित्त को प्रत्याहार यानि अन्तर्मुखी कर एकाग्रता द्वारा कुछ सुनिश्चित धारणा द्वारा ध्यान किया जा सकता है, और ध्यान द्वारा समाधि लाभ प्राप्त कर परम तत्व यानि परमात्मा के साथ 'योग' यानि समर्पित होकर जुड़ा या उपलब्ध हुआ जा सकता है| फिर इस साधना में सहायक हठ योग आदि का आविष्कार हुआ| फिर यम नियमों की खोज हुई| फिर इस समस्त प्रक्रिया को क्रमबद्ध रूप से सुव्यवस्थित कर योग विज्ञान प्रस्तुत किया गया|
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मूल आधार है श्वास-प्रश्वास पर ध्यान| यही सहज (सह+ज) योग है|
बौद्ध मतानुयायी साधकों ने इसे विपासना यानि विपश्यना और अनापानसति योग कहा जिसमें साथ में कोई मन्त्र नहीं होता है| योगदर्शन व तंत्रागमों और शैवागमों में श्वास-प्रश्वास के साथ दो बीज मन्त्र 'हँ' और 'स:' जोड़कर एक धारणा के साथ ध्यान करते हैं| इसे अजपाजाप कहते हैं|
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इनमें यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) और नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान) की अनिवार्यता इसलिए कर दी गयी क्योंकि योग साधना से कुछ सूक्ष्म शक्तियों का जागरण होता है| यदि साधक के आचार विचार सही नहीं हुए तो या तो उसे मस्तिष्क की कोई गंभीर विकृति हो सकती है या सूक्ष्म जगत की आसुरी शक्तियां उस को अपने अधिकार में लेकर अपना उपकरण बना सकती हैं|
(प्राणायाम एक दुधारी तलवार है| यदि साधक के आचार-विचार सही हैं तो वह उसे देवता बना देती है, और यदि साधक कुविचारी है तो वह असुर यानि राक्षस बन जाता है| इसीलिए सूक्ष्म प्राणायाम साधना को गोपनीय रखा गया है| वह गुरु द्वारा प्रत्यक्ष शिष्य को प्रदान की जाती है| गुरु भी यह विद्या उसकी पात्रता देखकर ही देता है|)
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भारत की विश्व को सबसे बड़ी देन .... आध्यात्म, विविध दर्शन शास्त्र, अहैतुकी परम प्रेम यानि भक्ति व समर्पण की अवधारणा, वेद, वेदांग, पुराणादि अनेक ग्रन्थ, सब के उपकार की भावना के साथ साथ योग दर्शन भी है जिसे भारत की आस्तिक और नास्तिक (बौद्ध, जैन आदि) दोनों परम्पराओं ने स्वीकार किया है||
इस चर्चा का समापन यहीं करता हूँ| धन्यवाद|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

धारणा व ध्यान .....

धारणा व ध्यान .....
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मेरा कोई लक्ष्य नहीं है, मेरे लिए कोई उपलब्धि नहीं है| हर लक्ष्य, हर उपलब्धि मैं स्वयं हूँ| मैं शाश्वत और सम्पूर्ण अस्तित्व हूँ| मैं परमात्व तत्त्व हूँ| मैं यह देह नहीं बल्कि असीम सम्पूर्ण अनंतता हूँ| मेरे सिवा कोई अन्य नहीं है|
शिव शिव शिव | शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ||
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सारी सृष्टि परमात्मा का साकार रूप है| सम्पूर्ण अस्तित्व परमात्मा है| विविधता उसकी लीला है|
यह मैं, मेरे गुरु और परमात्मा सब एक हैं, उनमें कोई भेद नहीं है| पृथकता का बोध माया है|
ॐ ॐ ॐ ||

ज्ञान का स्त्रोत ....

ज्ञान का स्त्रोत ....
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पुस्तकों का अध्ययन अति आवश्यक है पर यह ध्यान रहे कि पुस्तकें मात्र सूचनाएँ देती हैं, ज्ञान नहीं| ज्ञान का स्त्रोत तो सिर्फ परमात्मा हैं|
पुस्तकों से प्राप्त सूचनाएँ तो एक उच्च स्तर का अज्ञान ही है जो सही ज्ञान पाने की प्रेरणा देता है| यही उसका उपयोग है|
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अच्छी पुस्तकें पढ़ने से सूचना और प्रेरणा तो मिलती ही हैं, साथ साथ लेखक से और जिन के बारे में वह लिखी गयी है से सत्संग भी होता है| अतः सत्साहित्य का खूब स्वाध्याय करना चाहिए|
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पर उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है ---- भगवन की अहैतुकी भक्ति और उन का ध्यान| जो लाभ आठ घंटे के स्वाध्याय से होता है, उससे भी अधिक लाभ एक घंटे की ध्यान साधना से होता है| ध्यान ..... परमात्मा के साथ सत्संग है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर

Saturday, 11 February 2017

एक फूल की स्मृति में जो बिना खिले ही मुरझा गया .....

ॐ ऐं सरस्वत्ये नमः .....बसंत पंचमी की शुभ कामनाएँ ........
एक फूल की स्मृति में जो बिना खिले ही मुरझा गया .....
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बसंत पंचमी का दिन पतझड़ के बाद नए फूल खिलने की शुरुआत करता है, लेकिन इस दिन एक फूल बिना खिले मुरझा गया। इसी दिन धर्मांधों ने 14 साल के मासूम हकीकत राय की नाजुक गर्दन धड़ से अलग कर दी थी बाल शहीद वीर हकीकत राय ने जान दे दी पर धर्म नहीं छोड़ा| वीर बालक हकीक़त राय को कत्ल कर दिया गया। वह शहीद हो गया, उसने अपना बलिदान दे दिया लेकिन धर्म से डिगा नहीं|
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हकीकत राय नाम का बालक था धर्म परायण और वीर। मुगल राज़ था। एक मदरसे मे पढता था वह वीर बालक| एक दिन साथ के कुछ मुस्लिम बच्चे उसे चिढ़ाने के लिए हिंदू देवी दुर्गा को गाली देने लगे| उस सहनशील बालक ने कहा अगर यह सब मैं बीबी फातिमा के लिए कहूँ तो तुम्हे कैसा लगेगा। इतना सुन कर हल्ला मच गया कि हकीकत ने गाली दी| बात बड़े काजी तक पहुँची| फ़ैसला सुनाया गया इस्लाम स्वीकार कर लो या मरो। उस बालक ने कहा मैंने गलत नही कहा मैं इस्लाम नही स्वीकार करूँगा। उसके पास भगवद्गीता थी जिसमें उसने पढ़ा था कि आत्मा अमर है| यह गीता का ज्ञान ही उसका संबल था|
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बाद में यह मामला स्यालकोट के शासक अमीर बेग की अदालत में पहुँचा। हकीकत राय ने दोनों जगह सही बात बता दी। मुल्लाओं की राय ली गई तो उन्होंने कहा कि हकीकत राय के मन में इस्लाम के अपमान का विचार आया, इसीलिए उसे मृत्युदण्ड दिया जाए।
लाहौर के सूबेदार की कचहरी में भी यही निर्णय बहाल रहा। तब मुल्लाओं ने कहा कि हकीकत राय इस्लाम धर्म ग्रहण कर ले तो उसके प्राण बच सकते हैं। माता-पिता और पत्नी ने इसे मान लेने का अनुरोध किया, पर हकीकत राय इसके तैयार नहीं हुए। 1740 ई. में उनका कत्ल कर दिया गया|
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हकीकत राय का जन्म 1724 ई. में स्यालकोट (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उनके पिता का नाम भागमल खत्री था। हकीकत राय बचपन से ही बड़ी धार्मिक प्रवृत्ति के थे। उनकी माता गौराँ देवी अत्यंत धार्मिक स्त्री थीं। हकीकत राय की सगाई बटाला के कादी हट्टी मुहल्ला के रहने वाले उप्पल गौत्र के किशन सिंह खत्री की बेटी लक्ष्मी के साथ हुई थी। कुछ इतिहासकार उसका नाम सावित्री भी बताते हैं| उनकी अभी गौना नहीं हुआ था इसलिए लक्ष्मी अपने मायके में ही रह रही थी।
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जब हकीकत राय की शहादत की खबर बटाला पहुंची तो सारे शहर में शोक की लहर फैल गई। लक्ष्मी ने सती होने की इच्छा व्यक्त की। परिवार द्वारा काफी मनाने के बावजूद वो नहीं मानी और शहर से बाहर एक स्थान पर आकर सती हो गई। लाहौर से दो मील पूर्व की ओर हकीकत राय की समाधि बनी हुई थी जहाँ विभाजन से पूर्व हर वर्ष मेला भरा करता था बसंत पंचमी के दिन भारी संख्या में लोग शहीदों को श्रद्धांजलि देने के लिए नतमस्तक होते हैं।
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जय सनातन वैदिकी संस्कृति ! जय श्रीराम !

बसंत पंचमी की शुभ कामनाएँ ........


बसंत पंचमी की शुभ कामनाएँ ........
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सभी को बसंत पंचमी की शुभ कामनाएँ और अभिनन्दन .......
माँ सरस्वती की कृपा हम सब पर बनी रहे|

वसंत ऋतु में प्रकृति का कण-कण खिल उठता है| सारे प्राणी उल्लास से भर उठते हैं| आज माघ शुक्ल ५ को मनाया जाने वाला बसंत पंचमी का पर्व हमारे जन जीवन को सदा प्रभावित करता आया है| मुझे मेरे बचपन की एक बहुत अच्छी स्मृति है ..... बसंत पंचमी के दिन हर मंदिर में भजन-कीर्तन होते थे, गुलाल उडती थी, प्रसाद बँटता था, और सभी विद्यालयों में सरस्वति पूजा होती थी| अब वे सारे रीति-रिवाज धर्म-निरपेक्षता की भेंट चढ़कर समाप्त हो गए हैं|
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हमारे देश की संस्कृति, इतिहास और परम्पराओं में बसंत पंचमी का बड़ा महत्व रहा है| कुछ का यहाँ विवरण दे रहा हूँ .....
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लोक कथाओं में बसंत पंचमी के ही दिन बालक भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीराधा जी का शृंगार किया था| पूरी प्रकृति ही उस दिन अपने पूर्ण सौंदर्य में सँज-सँवर गयी थी|
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बसंत पंचमी का ही दिन था जब भगवान श्रीराम शबरी माँ की कुटिया में पधारे थे|
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वसंत पंचमी के ही दिन सन 1192 ई.में पृथ्वीराज चौहान ने तीर चलाकर मोहम्मद घोरी को मार गिराया था| उन्होंने विदेशी हमलावर मोहम्मद गौरी को 16 बार पराजित किया और उदारता दिखाते हुए हर बार जीवित छोड़ दिया, पर जब सत्रहवीं बार वे पराजित हुए, तो मोहम्मद गौरी ने उन्हें नहीं छोड़ा। वह उन्हें अपने साथ अफगानिस्तान ले गया और उनकी आंखें फोड़ दीं|
इसके बाद की घटना तो जगप्रसिद्ध ही है| गौरी ने मृत्युदंड देने से पूर्व उनके शब्दभेदी बाण का कमाल देखना चाहा| पृथ्वीराज के साथी कवि चंदबरदाई के परामर्श पर गौरी ने ऊंचे स्थान पर बैठकर तवे पर चोट मारकर संकेत किया| तभी चंदबरदाई ने पृथ्वीराज को संदेश दिया .......
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण|
ता ऊपर सुल्तान है, मत चूको चौहान||
पृथ्वीराज चौहान ने इस बार भूल नहीं की| उन्होंने तवे पर हुई चोट और चंदबरदाई के संकेत से अनुमान लगाकर जो बाण मारा, वह गौरी के सीने में जा धंसा| इसके बाद चंदबरदाई और पृथ्वीराज ने भी एक दूसरे के पेट में छुरा भौंककर आत्मबलिदान दे दिया|
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वीर बालक हकीकत राय की ह्त्या आज बसंत पंचमी के ही दिन कर दी गयी थी| लाहौर निवासी वीर बालक हकीक़त राय एक विद्यालय का विद्यार्थी था जिसे एक मौलवी उस्ताद चलाते थे| एक दिन जब मौलवी किसी काम से विद्यालय छोड़कर चले गये, तो सब बच्चे खेलने लगे, पर हकीकत राय पढ़ता रहा| जब अन्य बच्चों ने उसे छेड़ा, तो हकीक़त राय ने उनको माँ दुर्गा की सोगंध दी| मुस्लिम बालकों ने माँ दुर्गा की हँसी उड़ाई| हकीकत ने कहा कि यदि मैं तुम्हारी बीबी फातिमा के बारे में कुछ कहूँ, तो तुम्हें कैसा लगेगा?
बस फिर क्या था, मौलवी जी के आते ही उन शरारती छात्रों ने शिकायत कर दी कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है| फिर तो बात बढ़ते हुए काजी तक जा पहुंची| मुस्लिम शासन में वही निर्णय हुआ, जिसकी अपेक्षा थी| आदेश हो गया कि या तो बालक हकीकत राय मुसलमान बन जाये, अन्यथा उसे मृत्युदंड दिया जायेगा| सरहिंद के नवाब ने तो उसे अपनी शहजादी के साथ निकाह और आधे राज्य का भी प्रस्ताव दिया पर वीर बालक हकीकत राय ने यह स्वीकार नहीं किया और अपने धर्म पर अडिग रहा| परिणामत: उसे तलवार के घाट उतारने का फरमान जारी हो गया|
उसके घरवालों ने भी उससे आग्रह किया कि प्राणरक्षा के लिए तुम मुसलमान बन जाओ पर हकीक़त राय ने एक हाथ में गीता ली और कहा कि मेरी आत्मा अमर है जिसे कोई नहीं मार सकता और मैं अपने स्वधर्म में ही मरना चाहूँगा| उसके भोले मुख को देखकर जल्लाद के हाथ से तलवार गिर गयी| हकीकत ने तलवार उसके हाथ में दी और कहा कि जब मैं बच्चा होकर अपने धर्म का पालन कर रहा हूं, तो तुम बड़े होकर अपने धर्म से क्यों विमुख हो रहे हो? इस पर जल्लाद ने दिल मजबूत कर तलवार चला दी, पर उस वीर का शीश धरती पर नहीं गिरा, वह आकाशमार्ग से सीधा स्वर्ग चला गया।
यह घटना वसंत पंचमी (23.2.1734) को हुई थी| पाकिस्तान यद्यपि मुस्लिम देश है, पर हकीकत के आकाशगामी शीश की याद में वहां वसंत पंचमी पर पतंगें उड़ाई जाती है| हकीकत लाहौर का निवासी था| अत: पतंगबाजी का सर्वाधिक जोर लाहौर में रहता है|
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गुरू रामसिंह कूका का जन्म 1816 ई. में वसंत पंचमी पर लुधियाना के भैणी ग्राम में हुआ था| कुछ समय तो वे रणजीत सिंह की सेना में रहे, फिर घर आकर खेतीबाड़ी में लग गये, पर आध्यात्मिक प्रवृति होने के कारण इनके प्रवचन सुनने लोग आने लगे| धीरे-धीरे इनके शिश्यों का एक अलग पंथ ही बन गया, जो कूका पंथ कहलाया|
गुरू रामसिंह गोरक्षा, स्वदेशी, नारी उद्धार, अंतरजातीय विवाह, सामूहिक विवाह आदि पर बहुत जोर देते थे| उन्होंने भी सर्वप्रथम अंग्रेजी शासन का बहिष्कार कर अपनी स्वतंत्र डाक और प्रशासन व्यवस्था चलायी थी| प्रतिवर्ष मकर संक्रांति पर भैणी गांव में मेला लगता था| 1872 में मेले में आते समय उनके एक शिष्य को मुसलमानों ने घेर लिया| उन्होंने उसे पीटा और गोवध कर उसके मुंह में गोमांस ठूँस दिया। यह सुनकर गुरू रामसिंह के शिष्य भड़क गये| उन्होंने उस गांव पर हमला बोल दिया, पर दूसरी ओर से अंग्रेज सेना आ गयी अत: युध्द का पासा पलट गया|
इस संघर्ष में अनेक कूका वीर शहीद हुए और 68 पकड़ लिये गये। इनमें से 50 को सत्रह जनवरी 1872 को मलेरकोटला में तोप के मुँह से बाँधकर खड़ाकर उड़ा दिया गया| शेष 18 को अगले दिन फांसी दे दी गयी| दो दिन बाद गुरू रामसिंह को भी पकड़कर बर्मा की मांडले जेल में भेज दिया गया| 14 साल तक वहाँ कठोर अत्याचार सहकर 1885 ई. में उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया|
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वसंत पंचमी हिन्दी साहित्य की अमर विभूति महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' का जन्मदिवस भी है| निराला जी के मन में निर्धनों के प्रति अपार प्रेम और पीड़ा थी| वे अपने पैसे और वस्त्र खुले मन से निर्धनों को दे डालते थे| इस कारण लोग उन्हें 'महाप्राण' कहते थे|

जय सनातन वैदिकी संस्कृति ! जय श्रीराम !

Friday, 10 February 2017

जितेन्द्रीय शासक ही शासन का अधिकारी है .....

जितेन्द्रीय शासक ही शासन का अधिकारी है .....
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प्राचीन भारत में प्रायः सभी राजा जितेन्द्रीय होते थे| वे निःस्वार्थ भाव से अपना वर्णाश्रम धर्म निभाते हुए राज्य करते थे| जब से भारत पर विषय-वासनाओं में लिप्त राजाओं ने शासन करना आरम्भ किया, तब से भारत का पतन होना आरम्भ हुआ| भारत का वास्तविक इतिहास इस तथ्य की पुष्टि करता है|
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भविष्य का कालचक्र तो सही दिशा में जा रहा है, अतः निश्चित रूप से सकारात्मक क्रांतिकारी परावर्तन होंगे|
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हमारा सबसे बड़ा योगदान तो यही होगा कि हम अपने जीवनकाल में अपने निज विवेक के प्रकाश में क्षमतानुसार यथासंभव अपना सर्वश्रेष्ठ करें| बाकी तो सब सृष्टिनियंता के हाथ में है| भारत पर इस समय दीर्घकाल के पश्चात एक जितेन्द्रीय और समर्पित शासक (नरेन्द्र मोदी) राज्य कर रहा है| जगत-नियंता से प्रार्थना है कि ऐसे ही कुशल, समर्पित और धर्मनिष्ठ शासक ही भारतवर्ष में हों |

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Thursday, 9 February 2017

मानसिक आरती ..........

मानसिक आरती ..........
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कई बार आप यात्रा में या घर से बाहर हों या किसी अन्य परिस्थितिवश अपने इष्ट देव की आरती उतारने में असमर्थ हों तो मानसिक रूप से निम्न प्रकार से आरती उतारें ......
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बाह्यान्तर कुम्भक में यानि बलपूर्वक पूरी साँस बाहर निकाल कर, भ्रूमध्य में अपने इष्ट देव का ध्यान करें| जितनी देर साँस बाहर रख सकें उतनी देर तक रखें और हाथ जोडकर इष्टदेव को नमन करें| फिर साँस सामान्य रूप से चलने दें और परिस्थिति जितनी और जैसी अनुमति देती है वैसे ही भ्रूमध्य में पूर्ण श्रद्धा भक्ति से इष्टदेव का नमन और ध्यान करें| यह मानस पूजा है|
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आत्मस्वरूप परमात्मा को सदा याद रखें|
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ॐ गुरु! ॐ तत् सत् ! शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर

षटचक्रों में पञ्चदेव ध्यान और उपासना ............

षटचक्रों में पञ्चदेव ध्यान और उपासना ............
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(1) मूलाधार चक्र ..............ॐ गणेशाय नमः |
(2) स्वाधिष्ठान चक्र ............ॐ दुर्गाय नम: |
(3) मणिपुर चक्र ............... ॐ सूर्याय नम: |
(4) अनाहत चक्र ............... ॐ नारायणाय नमः |
(5) विशुद्धि चक्र .................ॐ शिवाय नमः |
जब यह अभ्यास सहज हो जाए तब
(6) आज्ञा चक्र में .................ॐ गुरवे नमः |
(7) सहस्त्रार में ...................ॐ परमात्मने नमः |
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फिर आज्ञा चक्र और सहस्त्रार के मध्य में ओंकार रूप में श्रीगुरु चरणों का यथासंभव ध्यान करें|

गुरुचरणों पर ध्यान .......

गुरुचरणों पर ध्यान .......
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आज्ञाचक्र ही मेरा ह्रदय है| सहस्त्रार ही मेरे गुरु महाराज के चरण कमल हैं, जिनका ध्यान ही मेरे लिए गुरु चरणों में आश्रय है| सहस्त्रार से ऊपर की अनंतता और विस्तार ही मेरे लिए परमशिव परमब्रह्म सच्चिदानंदं परमात्मा है| वे ही मेरे सद्गुरु हैं जो सब नामरूपों से परे हैं| अनाहत नाद ही कूटस्थ अक्षर गुरु वाक्य है| कूटस्थ ज्योति ही उनका साकार रूप है| यही मेरी उपासना और साधना है| कूटस्थ चैतन्य ही मेरा जीवन है|
हे गुरु महाराज, कभी अपने ध्यान से विमुख मत करो| जीवन में, मृत्यु में, सदा मैं निरंतर आपका ही रहूँ| यह देह रहे या न रहे, पर मैं सदा आपका ही रहूँगा|
ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ | ॐ ॐ ॐ ||
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(कूटस्थ चैतन्य ........... साधक जब शिवनेत्र होकर यानि दोनों आँखों की पुतलियों को बिना तनाव के नासिका मूल के समीप लाकर, भ्रूमध्य में प्रणव यानि ॐकार से लिपटी दिव्य ज्योतिर्मय सर्वव्यापी आत्मा का चिंतन करता है, तब उसके ध्यान में विद्युत् की आभा के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति प्रकट होती है| उस ब्रह्मज्योति और उसके साथ सुनाई देने वाले प्रणव नाद में लय होना 'कूटस्थ चैतन्य' है| वह ज्योति और नाद ही कूटस्थ ब्रह्म है|)
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असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....

असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....
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कुछ दिनों पूर्व मैनें एक प्रस्तुति दी थी ... "हमें साधना में सफलता क्यों नहीं मिलती"? यह लेख उसी के आगे की एक कड़ी है|
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अंग्रेजी राज्य में मध्य भारत के एक प्रसिद्ध अंगरेज़ न्यायाधीश ने जो अंग्रेज़ी सेना के उच्चाधिकारी भी रह चुके थे, अपनी स्मृतियों में लिखा है कि उनके सेवाकाल में उनके समक्ष सैकड़ों ऐसे मुक़दमें आये जहाँ अभियुक्त असत्य बोलकर बच सकते थे, उन्होंने सजा भुगतनी स्वीकार की पर असत्य नहीं बोला| किसी भी परिस्थिति में उन्होंने असत्य बोलना स्वीकार नहीं किया| ऐसे सत्यनिष्ठ होते थे भारत के अधिकाँश लोग|
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'सत्य' सृष्टि का मूल तत्व है| वेदों में सत्य को ब्रह्म कहा गया है| तैत्तिरीय उपनिषद् में .... 'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रह्म' .... वाक्य द्वारा ब्रह्म के स्वरुप पर पर चर्चा हुई है| यहाँ सत्य की प्रधानता है| इसी उपनिषद् में आचार्य अपने शिष्यों को उपदेश देता है ..... सत्यं वद | धर्मं चर | स्वाध्यायान्मा प्रमदः | आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजानन्तुं मा व्यवच्छेसीः | सत्यान्न प्रमदितव्यम् | धर्मान्न प्रमदितव्यम् | कुशलान्न प्रमदितव्यम् | भूत्यै न प्रमदितव्यम् | स्वाध्यायप्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम् || .... यहाँ सर्वप्रथम उपदेश "सत्यं वद" है|
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मुन्डकोपनिषद में ..... सत्यमेव जयति नानृत, सत्येन पन्था विततो देवयानः, येनाक्रममन्त्यृषयो ह्याप्तकामा, यत्र तत् सत्यस्य परमं निधानाम् , ....अर्थात
सत्य (परमात्मा) की सदा जय हो, वही सदा विजयी होता है, असत् (माया) तात्कालिक है उसकी उपस्थिति भ्रम है, वह भासित सत्य है वास्तव में वह असत है अतः वह विजयी नहीं हो सकता. ईश्वरीय मार्ग सदा सत् से परिपूर्ण है. जिस मार्ग से पूर्ण काम ऋषि लोग गमन करते हैं वह सत्यस्वरूप परमात्मा का धाम है|
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ऋषि पतंजलि के योग सूत्रों के पाँच यमों में सत्य भी है| पञ्च महाव्रतों में भी सत्य एक महाव्रत भी है|
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"धरम न दूसर सत्य समाना।आगम निगम प्रसिद्ध पुराना" ||
सत्य के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है यह सभी आगम, निगम और पुराणों में प्रसिद्द है|
भगवान श्रीराम भरत जी से कहते है ....
राखेऊ राऊ,सत्य मोहिं त्यागी .... राजा दशरथ जी ने प्रभु श्रीराम को त्याग दिया, पर सत्य को नहीं|
राम चरित मानस में जहाँ भी झूठ यानि असत्य है वहाँ भगवान श्रीसीताराम जी नहीं हैं|
प्रमाण .....
झूठइ लेना झूठइ देना | झूठइ भोजन झूठ चबेना ||
इस चौपाई में "र" और "म" यानी " राम" नहीं हैं तथा "स" और "त" यानी "सीता" भी नहीं है| क्यों ? ..... क्योंकि जिसमें असत्य हो उसमें मेरे प्रभु श्रीसीताराम नहीं रह सकते|
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असत्ये तु वाग्दग्धा मंत्र सिद्धि कथं भवेत ? ....... असत्य बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है| जैसे जला हुआ पदार्थ यज्ञ के काम का नहीँ होता है, वैसे ही जिसकी वाणी झूठ बोलती है, उससे कोई जप तप नहीं हो सकता| वह चाहे जितने मन्त्रों का जाप करे, कितना भी ध्यान करे, उसे फल कभी नहीं मिलेगा| दूसरों की निन्दा या चुगली करना भी वाणी का दोष है। जो व्यक्ति अपनी वाणी से किसी दूसरे की निन्दा या चुगली करता है वह कोई जप तप नहीं कर सकता|
निर्मल मन जन सो मोहिं पावा | मोहिं कपट छल छिद्र न भावा || ये भगवान श्रीराम के वचन हैं|
जहाँ पर सत्य है वहाँ अभिन्न रूप से श्रीसीताराम जी वास करते हैं| ....
गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न|
बंदऊँ सीताराम पद जिन्हहिं परम प्रिय खिन्न ||
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हे मेरे मुर्ख मन, अपने भीतर से असत्य को बाहर निकाल कर अपने हृदय के सिंहासन पर परमात्मा को बैठा, क्योंकि ..... 'नहीं असत्य सम पातक पुंजा'| यानि असत्य के सामान कोई पाप नहीं है|
"आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः" आचारहीन को वेद भी नहीं पवित्र कर सकते|
असत्यवादी कभी आत्मज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता| .
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

विदेशी संस्कृति क्यों और कैसे हावी हुई हमारे देश में ............

विदेशी संस्कृति क्यों और कैसे हावी हुई हमारे देश में ............
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सन 1858 ई.में Indian Education Act बनाया गया जिसका प्रारूप लोर्ड मैकाले ने तैयार किया था| उससे पहले उसने भारत की शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था| उससे पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी| अंग्रेजों का एक अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था Thomas Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था|
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यह सन 1823 ई.के आसपास की बात है| Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है, और Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है| उस समय भारत में इतनी साक्षरता थी|
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मैकाले का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी| तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब वे इस देश के विश्वविद्यालयों से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे| मैकाले का कहना था कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले उसे पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इस देश को बौद्धिक रूप से जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी|
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इसलिए उसने सबसे पहले '' गुरुकुलों को गैरकानूनी '' घोषित किया,
जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज की तरफ से होती थी वह गैरकानूनी हो गयी|
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फिर ''संस्कृत को गैरकानूनी घोषित'' किया गया|
अँगरेज़ अधिकारियों ने पूरे भारतवर्ष में घूम घूम कर सारे गुरुकुलों को नष्ट कर दिया, उनमे आग लगा दी गयी और उसमे पढ़ाने वाले ब्राह्मण गुरुओं को मारा-पीटा और उनका धन छीन कर जेल में डाला| ब्राह्मणों को इतना दरिद्र बना दिया कि वे अपने बच्चों को पढ़ाने में भी असमर्थ हो गए| उनके ग्रन्थ जला दिए गये| आज जो भी शास्त्र बचे हैं वे वे ही हैं जिनको ब्राह्मणों ने रट रट कर याद रखा था|
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1850 तक इस देश में 7 लाख 32 हजार गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे 7 लाख 50 हजार| हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल था| ये जो गुरुकुल होते थे वे सब के सब आज की भाषा में Higher Learning Institute हुआ करते थे उन सबमे 18 विषय पढाये जाते थे| ये गुरुकुल समाज के लोग मिल कर चलाते थे न कि राजा, महाराजा| इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी|
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इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर सिर्फ अंग्रेजी शिक्षा को ही कानूनी घोषित किया गया| कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया| उस समय इसे फ्री स्कूल कहा जाता था| इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के यूनिवर्सिटियाँ आज भी इस देश में हैं|
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मैकाले ने अपने पिता को एक पत्र लिखा था जो बहुत प्रसिद्ध पत्र है| उसमें उसने लिखा कि इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे| उन्हें अपने देश, अपनी संस्कृति, और अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा| उनको अपनी भाषा और अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे| जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी|
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उस समय लिखी गयी उसकी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है| उस कानून की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा भी बोलने में शर्म आती है| हम अंग्रेजी में इसलिए बोलते हैं कि इससे दूसरों पर रोब पड़ेगा| हम स्वयं ही इतने हीन हो गए हैं कि हमें अपनी भाषा बोलने में भी शर्म आ रही है, इससे दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा? लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, जो गलत है| दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है? शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है|
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इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वह भी अंग्रेजी में नहीं थी और इनके भगवान जीसस क्राइस्ट भी अंग्रेजी नहीं बोलते थे| जीसस क्राइस्ट की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी| अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारी बंगला भाषा से मिलती जुलती थी| समय के कालचक्र में वह भाषा विलुप्त हो गयी है| संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहाँ की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है | जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकाले की रणनीति थी|
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पर अब एक प्रबल आध्यात्मिक शक्ति भारत का उत्थान कर रही है| भारत फिर से उठ रहा है और परम वैभव के शिखर पर पहुँचेगा|


ओम् तत् सत् | शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं शिवोहं | ॐ ॐ ॐ||
कृपा शंकर

सम्पूर्ण ब्रह्मांड अपना घर है और समस्त सृष्टि अपना परिवार .....

सम्पूर्ण ब्रह्मांड अपना घर है और समस्त सृष्टि अपना परिवार .....
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जब हम साँस लेते हैं तो सारी सृष्टि साँस लेती है| हमारा अस्तित्व ही समस्त सृष्टि का अस्तित्व है| हमारा केंद्र सर्वत्र है, परिधि कहीं भी नहीं| जिसका भी ऊर्ध्वमुखी भाव है, जिसमे भी परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम है व उसे पाने की अभीप्सा है वही धार्मिक है| सही अर्थों में वही एक सच्चा भारतीय है| ऐसे लोगो का समूह ही अखंड भारत है| ईश्वर ने यही भाव सम्पूर्ण सृष्टि में फैलाने के लिए भारतवर्ष को चुना है| अतः सनातन धर्म ही भारत है और भारत ही सनातन धर्म है| सनातन धर्म का विस्तार ही भारत का विस्तार है, और भारत का विस्तार ही सनातन धर्म का विस्तार है| भारत एक भू-खंड नहीं अपितु साक्षात माता है|
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भारत माँ अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर विराजमान हो, यह हमारी आध्यात्मिक साधना है|
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धर्म एक ऊर्ध्वमुखी भाव है जो हमें परमात्मा से संयुक्त करता है| "यथो अभ्युदय निःश्रेयस् सिद्धि स धर्म"| जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि हो वही धर्म है| धर्म की यह परिभाषा कणाद ऋषि ने वैशेषिकसूत्रः में की है जो हिंदू धर्म के षड्दर्शनों में से एक है| जिससे हमारा सम्पूर्ण सर्वोच्च विकास और सब तरह के दुःखों/कष्टों से मुक्ति हो वही धर्म है| यह धर्म की हिंदू परिभाषा है| यही वास्तविकता है|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

माया और भक्ति ....

माया और भक्ति ....
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माया और भक्ति ये भगवान की दो शक्तियाँ हैं जो हम पर निरंतर अपना कार्य कर रही हैं| भक्ति हमें भगवान की ओर आकर्षित करती है, माया हमें भगवान से दूर करती है| यह प्रभु की एक लीला ही है| भक्ति परम प्रेम है, माया आवरण और विक्षेप है|
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राग-द्वेष, अहंकार, हिंसा, संसार में सुखों की लालसा, वासनाएँ, प्रमाद, आलस्य, दीर्घसूत्रता आदि ये सब माया के ही अस्त्र हैं| आजकल लोगों में इतना अधिक मानसिक तनाव है जिससे तरह तरह की बीमारियाँ जैसे हृदयाघात, मधुमेह और अवसाद आदि हो रहे हैं| कितनी भी दवाइयाँ लो पर मानसिक तनाव के कारण उनका कुछ प्रभाव ही नहीं पड़ता| सब लोग कहते हैं तनाव मुक्त जीवन जीओ पर तनाव है कि दूर होता ही नहीं है| तनाव दूर करने के लिए लोग नशा करते हैं, नींद की गोलियाँ लेते हैं, पर तनाव फिर भी पीछा नहीं छोड़ता|
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इसका सबसे बड़ा निदान है .... भगवान की भक्ति|
हम अपना हर कार्य भगवान की प्रसन्नता के लिए करें, धीरे धीरे भगवान को ही कर्ता बनाएँ और दुःख-सुख जो भी मिलता है उसे प्रसाद रूप में ग्रहण कर के संतुष्ट रहें| परमात्मा के प्रति जितना अधिक प्रेम हमारे हृदय में होगा, उसी अनुपात में उससे कई गुणा अधिक परमात्मा की कृपा हमारे ऊपर होगी|
सार की बात एक ही है कि सभी भवरोगों का एक ही उपचार है ....भगवान की भक्ति| फिर आगे के सब द्वार अपने आप ही खुलने लगते हैं, सारे दीप अपने आप ही जल उठते हैं|


ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कुण्डलिनी ........

कुण्डलिनी ........
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मेरे ये शब्द प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध हैं अतः किसी को बुरा लगना भी स्वाभाविक है| कुछ बातों को समझाने के लिए प्रतीकों का सहारा लिया जाता है पर वे प्रतीक ही कालान्तर में रहस्यमय हो जाते हैं| फिर कोई कोई उन पर प्रकाश डालता है वह अपने शब्दों में आकर्षण लाने के लिए उसे और भी अधिक रहस्यमय बना देता है| ऐसा ही एक शब्द है ...'कुण्डलिनी'|
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इस शब्द को इतना अधिक रहस्यमय बना दिया गया है जब कि इसमें कोई रहस्य है ही नहीं| इसे समझना बड़ा सरल है| कोई भी साधक जो नियमित ध्यान साधना करता है वह प्रत्यक्ष अनुभूति से इसे तुरंत समझ जाता है| बिना ध्यान साधना के सिर्फ बौद्धिकता से इस विषय को समझना असंभव है|
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कुछ लोग अपनी मान्यताओं के विरुद्ध कोई बात सुनते ही भड़क जाते हैं और सीधे अभद्र भाषा का प्रयोग करने लगते हैं| ऐसा नहीं होना चाहिए| यह प्रस्तुति ऐसे लोगों के लिए नहीं है| मैं जो लिख रहा हूँ वह मेरा निजी अनुभव है| कोई क्या सोचता है यह उसकी अपनी समस्या है|
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सर्वप्रथम तो मैं यहाँ यह कहना चाहता हूँ कि कुण्डलिनी कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं है| यह प्रकृति या मूल प्रकृति भी नहीं है| इसे सिर्फ एक "कुण्डलिनी महाशक्ति" नाम दिया गया है जो मात्र प्रतीकात्मक है| वास्तव में यह सब तरह की शक्तियों से परे बिखरी हुई प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन मात्र है| जैसे जैसे इस घनीभूत प्राण ऊर्जा का आरोहण यानि ऊर्ध्वगमन होता है, वैसे वैसे चेतना का और समझ का स्तर बढ़ता जाता है| यह साधक की चेतना को अज्ञान क्षेत्र से ज्ञान क्षेत्र और उससे भी परे परा क्षेत्र में ले जाती है|
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हम कुण्डलिनी को अपने प्रयास मात्र से जागृत नहीं कर सकते, यह चेतना सिद्ध गुरु और परमात्मा के अनुग्रह से स्वयं जागृत होकर हमें ही जागृत करती है|
कुण्डलिनी से सम्बंधित सारी साधनाएँ शिष्य की पात्रता देखकर कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ सिद्ध गुरु परमात्मा की इच्छा से कृपा कर के शिष्य को प्रदान करता है| किसी पुस्तक को पढ़कर या किसी से सुनकर इसकी साधना नहीं की जा सकती|
यह चेतना स्वयमेव प्रभुकृपा से ही जागृत होती है| 'क्रियायोग' व इस तरह की कुछ अन्य साधनाओं से चेतना ऊर्ध्वमुखी होती है|
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जब गुरु की आज्ञा से कोई साधक भ्रूमध्य पर दृष्टी स्थिर कर आज्ञा चक्र पर ध्यान करता है तब सूक्ष्म देह की बहिर्मुखी शक्तियाँ अंतर्मुखी होकर मेरुदंड के नीचे मूलाधार चक्र में प्रकट होती हैं इसकी अनुभूति प्रत्येक साधक को होती है| उसे लगता है जैसे कोई पीछे से ठोकर मार रहा है| पर इसमें कोई घबराने की बात नहीं है| यह कुण्डलिनी जागरण का एक side effect है| मुख्य लक्ष्य तो भक्ति है| कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है|
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प्रभुकृपा से जैसे जैसे यह चेतना सुषुम्ना में ऊर्ध्वमुखी होकर ऊपर के चक्रों को पार करती है साधक की समझ भी विस्तृत होती जाती है| नीचे के तीन चक्रों को पार कर जब यह चेतना ह्रदय के पीछे अनाहत चक्र तक आती है तब विशुद्ध भक्ति जागृत होती है| जिनमें पूर्वजन्मों के अच्छे संस्कारों से विशुद्ध भक्ति है उनकी कुण्डलिनी पहिले से ही जागृत है|
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मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक ज्ञान क्षेत्र है, और उससे आगे परा क्षेत्र है| इससे अधिक यहाँ इस पोस्ट में लिखना एक भटकाव होगा|
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सार की बात यह है कि कुण्डलिनी जागरण कोई लक्ष्य नहीं है| हमारा लक्ष्य भक्ति द्वारा प्रभु की शरणागति और समर्पण है| जब यह कुण्डलिनी चेतना आज्ञा चक्र से ऊपर उठती है तब सिद्धियाँ भी प्राप्त होने लगती हैं जो साधक को परमात्मा से विमुख करती हैं| उस ओर ध्यान देना ही नहीं चाहिए| ध्येय ..... भक्ति द्वारा परमात्मा की शरणागति और समर्पण ही हैं अन्य कुछ भी नहीं|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

Tuesday, 7 February 2017

"व्यभिचारिणी" भक्ति और "अव्यभिचारिणी" भक्ति ...........

"व्यभिचारिणी" भक्ति और "अव्यभिचारिणी" भक्ति ............
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उपासना में जहाँ परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं है, वह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| भूख लगी तो भोजन प्रिय हो गया, प्यास लगी तो पानी प्रिय हो गया, जहाँ जिस चीज की आवश्यकता है वह प्रिय हो गयी, ध्यान करने बैठे तो परमात्मा प्रिय हो गया, यह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| जब तक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य विषयों में भी आकर्षण है, तब तक हुई भक्ति "व्यभिचारिणी" है| संसार में प्रायः जो भक्ति हम देखते हैं, वह "व्यभिचारिणी" ही है|
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जब सर्वत्र सर्वदा सब में परमात्मा के ही दर्शन हों वह भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| भूख लगे तो अन्न में भी परमात्मा के दर्शन हों, प्यास लगे तो जल में भी परमात्मा के दर्शन हों, जब पूरी चेतना ही नाम-रूप से परे ब्रह्ममय हो जाए तब हुई भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| वहाँ कोई राग-द्वेष औरअभिमान नहीं रहता है| वहाँ सिर्फ और सिर्फ भगवान ही होते हैं|
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जिनमें "अव्यभिचारिणी" भक्ति का प्राकट्य हो गया है वे इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देवी/देवता हैं| यह पृथ्वी उनको पाकर सनाथ हो जाती है| जहाँ उनके पैर पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है| वह कुल और परिवार भी धन्य हो जाता है जहाँ उनका जन्म हुआ है|


ॐ तत्सत् ! नमस्ते ! ॐ ॐ ॐ !!

मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासाओं का समाधान मनुष्य के शांत मन व ह्रदय में ही है .....

मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासाओं का समाधान मनुष्य के शांत मन व ह्रदय में ही है|
ॐ ॐ ॐ ||
ब्रह्मांड अपना सौन्दर्य हमारी ही आँखों से देखता है|
ब्रह्मांड अनंत प्रेम की अनुभूति हमारे ह्रदय ही से करता है|
ब्रह्मांड सत्य का बोध हमारे ही स्पर्श से करता है|
ब्रह्मांड की मुस्कान हमारे ही आनंद से है|
ब्रह्मांड को अपनी महानता का ज्ञान हमारी ही आत्मा से होता है|
ब्रह्मांड अपनी जीवन्तता का उत्सव हमारे ही जीवन से मनाता है|
सब कुछ हमारे द्वारा ही|
पर यह तभी संभव है जब हमारा मन शांत हो व ह्रदय परम प्रेम से भरा हो|
नमस्ते !ॐ ॐ ॐ |
कृपा शंकर

मानवतावाद .....

मानवतावाद .....
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"मानवतावाद", "मनुष्यता" या "इंसानियत" ..... ये विजातीय, अस्पष्ट और भ्रमित करने वाले शब्द हैं| ये शब्द नास्तिक मार्क्सवादी महान रूसी साहित्यकार मेक्सिम गोर्की की देन हैं| उन्होंने ही सर्वप्रथम इन शब्दों का रूसी भाषा में प्रयोग किया था| उनका साहित्य विश्व की अनेक भाषाओँ में अनुवादित होकर अति लोकप्रिय हुआ और ये शब्द प्रयोग में आये| हिंदी में भी उनका साहित्य अनुवादित होकर छपा और बहुत लोकप्रिय हुआ था| हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद मेक्सिम गोर्की से बहुत अधिक प्रभावित थे| मेक्सिम गोर्की ने एक नारा दिया था कि हम मनुष्य हैं, इसका हमें अभिमान होना चाहिए| मार्क्सवादियों ने मानवतावाद को मानव मूल्यों और चिंताओं पर ध्यान केंद्रित करने वाला दर्शन बताया जो धार्मिकता को अस्वीकार कर नैतिकता और न्याय का पक्ष लेता है| यह नास्तिक रूसी साहित्य का ही प्रभाव था जिससे भारत के साहित्य पर मार्क्सवाद यानि प्रगतिवाद का इतना गहरा प्रभाव पड़ा|
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उपरोक्त मानवतावाद दर्शन वेदविरुद्ध है| समष्टिवाद वेदसम्मत है| भारतीय दर्शन समष्टि के कल्याण की बात करते हैं, न की सिर्फ मनुष्य जाति की|
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मानवतावाद की बातें करने वाले अपने स्वयं के देश में हुए नरसंहारों से कभी विचलित नहीं हुए| यह उनका पाखण्ड था| स्टालिन ने बाल्टिक सागर को श्वेत सागर से जोड़ने के लिए लेनिनग्राद से आर्केंगल्स्क तक एक नहर बनाने का आदेश दिया था, जिसमें लाखों राजनीतिक बंदियों को बलात् काम पर लगा दिया गया | दस लाख के लगभग राजनीतिक बंदी वहाँ ठण्ड और कुपोषण से मारे गए थे| जब वह नहर आधी-अधूरी बनी तब उसमें सर्वप्रथम यात्रा करने वालों में मेक्सिम गोर्की भी थे जिन्होनें मानवतावाद का सिद्धांत प्रचलित किया|
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मार्क्सवाद एक अंधे कुएँ का अन्धकार है जिसमें मैं भी कुछ समय के लिए डूब गया था पर हरिकृपा से शीघ्र ही उस अन्धकार से मुक्त हो गया| मार्क्सवाद की काट भारत का वेदांत दर्शन है जिसके आगे कोई भी नास्तिक सिद्धांत नहीं टिक सकता| ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

"मैं कौन हूँ?" .....

"मैं कौन हूँ?" .....
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इस विषय पर बड़े बड़े दर्शन शास्त्र हैं, बड़े बड़े महान मनीषियों ने अपने महान विचार व्यक्त किये हैं| इस बारे में मेरे विचार बिलकुल स्पष्ट हैं, किसी भी तरह का कोई भ्रम या संदेह नहीं है| सोचने के दो स्तर हैं मेरे मेरे लिए ..... एक तो भौतिक है, और दूसरा आध्यात्मिक है|
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> चाहे मैं यह शरीर महाराज नही हूँ, पर मेरी हर अभिव्यक्ति इस शरीर महाराज के माध्यम से ही है| लोग मुझे इस शरीर महाराज के नाम कृपा शंकर के रूप में ही जानते हैं| यह सत्य मैं झुठला नहीं सकता| भौतिक स्तर पर मैं एक सेवानिवृत वरिष्ठ नागरिक यानि Retired Senior Citizen हूँ और कुछ भी नहीं| मेरे जैसे लाखों करोड़ों लोग हैं, उनकी भीड़ में मैं भी एक अकिंचन और महत्वहीन हूँ| घर-परिवार वालों के लिए वास्तव में मैं एक रुपया-पैसा कमाने की मशीन ही था, जो उनका भावनात्मक व सामाजिक सहारा बना| इस जीवन में मैनें भगवान का भजन तो नहीं किया पर सांसारिक घर-परिवार के लिए रुपया-पैसा कमाने हेतु मशीन की तरह दिन-रात एक कर के दुनियाँ के हर कोने की धूल छानी है| फिर भी आत्म-संतुष्टि के सिवा अन्य कुछ भी नहीं मिला है, दूसरे शब्दों में .... 'न माया मिली न राम'|
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> आध्यात्मिक स्तर पर मैं परमात्मा के विराट अनंत महासागर की एक लहर के एक जल बिंदु का एक अकिंचन कण मात्र हूँ| महासागर में अनंत असंख्य लहरें उठती हैं और उसी में विलीन हो जाती हैं| एक लहर में भी असंख्य जल की बूँदें होती हैं| जल की एक एक बूँद के भी अनेक कण होते हैं| पर कभी कभी भूले से जल की बूँद का कोई कण स्वयं उस महासागर में विलीन होकर उसके साथ एक होने की चाह कर बैठता है ........ बस वो ही एक कण मात्र हूँ जिसके पीछे अनंत महासागर है| वह कण ही महासागर है| अन्य मैं कुछ भी नहीं हूँ|
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सांसारिक समाज के लिए मैं असंगत यानि Misfit हूँ .....
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समाज में जहाँ भी जाता हूँ लोग प्रायः इस चार विषयों पर ही बात करते हैं --- राजनीतिक आलोचना (परनिंदा), रुपया-पैसा, सेक्स और तथाकथित समाज सेवा| इसके अतिरिक्त अन्य कोई चर्चा न तो प्रायः वे पसंद करते हैं और न करते हैं| पर मैं ऐसा नहीं कर पाता अतः उनके लिए misfit हूँ|
समाज में अधिकाँश लोग अपने मनोरंजन के लिए या तो सिनेमा नाटक आदि देखते हैं, या शराब पीते हैं या गपशप करते हैं, ताश पत्ते आदि खेलते हैं या घूमने फिरने चले जाते हैं| पर मेरी इनमें से किसी में भी रूचि नहीं है| अतः मैं उन के समाज के लिए फिर misfit हूँ|
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भगवान का नाम लेने का एक लाभ .....
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भगवान का नाम लेने का एक बहुत बड़ा लाभ तो यह है कि कोई मेरा समय खराब नहीं करता और परेशान भी नहीं करता| कोई गपशप करने आता है तो मैं उससे हरिचर्चा छेड़ देता हूँ, फिर वह दुबारा लौटकर बापस नहीं आता| हर कोई मुझ से मिलना भी नहीं चाहता क्योंकि कोई बोर नहीं होना चाहता| मुझ से वे ही लोग मिलते हैं जिनको परमात्मा से प्रेम है| अन्य कोई मुझसे नहीं मिलता| वे ही लोग मुझे बुलाते हैं| अन्य कहीं मैं जाता भी नहीं हूँ| इस तरह के लोग ही मेरे मित्र हैं|
मेरा मनोरंजन .... परमात्मा का चिंतन और ध्यान है| बातें भी उसी की करता हूँ| लघु लेख भी मैं हिन्दू राष्ट्रवाद और प्रभु प्रेम पर ही लिखता हूँ| इससे मुझे बहुत लाभ हैं|
भगवान् ने सब कुछ दे रखा है, किसी के आगे आज तक न तो हाथ फैलाया है और न फैलाऊँगा| मेरे लिए किसी से कुछ माँगने से मरना भला है| मेरे अंतर में जो परमात्मा हैं, उन्हें मेरी हर आवश्यकता का पता है और वे ही मेरे योग-क्षेम का वहन करते हैं| मुझे परमात्मा में ही खूब आनंद आता है और मैं अपने जीवन में पूर्ण रूप से प्रसन्न और संतुष्ट हूँ|
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हे हरि, तुम कितने सुन्दर हो! पर्वतों में तुम कितने उन्नत हो, वनों में तुम हरे-भरे हो, मरुभूमि की शुष्कता हो, एकांत की नीरवता हो, नदियों की चंचलता हो, महासागर की गंभीरता हो, और मेरे अंतर का आनंद हो| तुम से अब पृथक हो ही नहीं सकता| मेरे ह्रदय का साम्राज्य अब तुम्हारा ही है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
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पुनश्चः .....
अयमात्मा ब्रह्म | आत्मा नित्य मुक्त है, सारे बंधन एक भ्रम मात्र हैं, उठो और अपने ब्रह्मत्व को व्यक्त करो| यह सारा जगत सृष्टिकर्ता के मन का एक संकल्प मात्र है, यहाँ कुछ भी अनुपयोगी नहीं है, पर सृष्टि के रहस्यों को समझना बड़ा कठिन है| कोई छोटा बड़ा नहीं है, सब परमात्मा की अभिव्यक्तियाँ हैं| "मैं" भी परमात्मा की ही अभिव्यक्ति हूँ| ॐ ॐ ॐ ||