"व्यभिचारिणी" भक्ति और "अव्यभिचारिणी" भक्ति ............
-------------------------------------------------------
उपासना में जहाँ परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं है, वह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| भूख लगी तो भोजन प्रिय हो गया, प्यास लगी तो पानी प्रिय हो गया, जहाँ जिस चीज की आवश्यकता है वह प्रिय हो गयी, ध्यान करने बैठे तो परमात्मा प्रिय हो गया, यह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| जब तक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य विषयों में भी आकर्षण है, तब तक हुई भक्ति "व्यभिचारिणी" है| संसार में प्रायः जो भक्ति हम देखते हैं, वह "व्यभिचारिणी" ही है|
.
जब सर्वत्र सर्वदा सब में परमात्मा के ही दर्शन हों वह भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| भूख लगे तो अन्न में भी परमात्मा के दर्शन हों, प्यास लगे तो जल में भी परमात्मा के दर्शन हों, जब पूरी चेतना ही नाम-रूप से परे ब्रह्ममय हो जाए तब हुई भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| वहाँ कोई राग-द्वेष औरअभिमान नहीं रहता है| वहाँ सिर्फ और सिर्फ भगवान ही होते हैं|
.
जिनमें "अव्यभिचारिणी" भक्ति का प्राकट्य हो गया है वे इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देवी/देवता हैं| यह पृथ्वी उनको पाकर सनाथ हो जाती है| जहाँ उनके पैर पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है| वह कुल और परिवार भी धन्य हो जाता है जहाँ उनका जन्म हुआ है|
ॐ तत्सत् ! नमस्ते ! ॐ ॐ ॐ !!
-------------------------------------------------------
उपासना में जहाँ परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं है, वह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| भूख लगी तो भोजन प्रिय हो गया, प्यास लगी तो पानी प्रिय हो गया, जहाँ जिस चीज की आवश्यकता है वह प्रिय हो गयी, ध्यान करने बैठे तो परमात्मा प्रिय हो गया, यह भक्ति "व्यभिचारिणी" है| जब तक परमात्मा के अतिरिक्त अन्य विषयों में भी आकर्षण है, तब तक हुई भक्ति "व्यभिचारिणी" है| संसार में प्रायः जो भक्ति हम देखते हैं, वह "व्यभिचारिणी" ही है|
.
जब सर्वत्र सर्वदा सब में परमात्मा के ही दर्शन हों वह भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| भूख लगे तो अन्न में भी परमात्मा के दर्शन हों, प्यास लगे तो जल में भी परमात्मा के दर्शन हों, जब पूरी चेतना ही नाम-रूप से परे ब्रह्ममय हो जाए तब हुई भक्ति "अव्यभिचारिणी" है| वहाँ कोई राग-द्वेष औरअभिमान नहीं रहता है| वहाँ सिर्फ और सिर्फ भगवान ही होते हैं|
.
जिनमें "अव्यभिचारिणी" भक्ति का प्राकट्य हो गया है वे इस पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देवी/देवता हैं| यह पृथ्वी उनको पाकर सनाथ हो जाती है| जहाँ उनके पैर पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है| वह कुल और परिवार भी धन्य हो जाता है जहाँ उनका जन्म हुआ है|
ॐ तत्सत् ! नमस्ते ! ॐ ॐ ॐ !!
* नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
ReplyDeleteसुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी ||
भावार्थ:-हे नाथ! मुझे अत्यंत सुख देने वाली अपनी निश्चल भक्ति कृपा करके दीजिए। हनुमान्जी की अत्यंत सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब प्रभु श्री रामचंद्रजी ने 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा॥
* उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
भावार्थ:-हे उमा! जिसने श्री रामजी का स्वभाव जान लिया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नहीं सुहाती। यह स्वामी-सेवक का संवाद जिसके हृदय में आ गया, वही श्री रघुनाथजी के चरणों की भक्ति पा गया॥2॥
बार बार वर माँगहूं हरषि देउ श्री रंग
ReplyDeleteपद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग...��❣
बार बार वर माँगहूं हरषि देउ श्री रंग
ReplyDeleteपद सरोज अनपायनी भगति सदा सत्संग...🙏❣