Tuesday, 7 February 2017

स्वयं परम प्रेममय हो जाना ही परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण है .....

स्वयं परम प्रेममय हो जाना ही परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण है .....
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पसंद और नापसंद का भाव ..... राग-द्वेष की ही एक अभिव्यक्ति है| हमें क्या पसंद है और क्या पसंद नहीं है, इसका कोई महत्व नहीं है| महत्व सिर्फ इसी बात का है कि हमारे परम प्रिय परमात्मा को क्या पसंद है| जो भगवान की पसंद है वही हमारी पसंद होनी चाहिए| हमारी निजी पसंद-नापसंद हमें परमात्मा से दूर करती है|
पूरी निष्ठा से पूछें तो इसका सही उत्तर हमारा ह्रदय दे देता है| जो भी विषय हमें परमात्मा से जोड़ता है वही परमात्मा को पसंद है, और जो हमें परमात्मा से पृथक करता है वह परमात्मा को नापसंद है| यही मेरा मापदंड है|
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जहां तक मेरा व्यक्तिगत मत है, मेरे लिए तो उनके प्रति अहैतुकी परम प्रेम ही उन्हें पसंद है| अतः उस परम प्रेम की अभिव्यक्ति ही मेरे जीवन का ध्येय यानि उद्देश्य है| उनके सिवा अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है| सम्पूर्ण समष्टि उन्हीं की अभिव्यक्ति है| स्वयं परम प्रेममय हो जाना ही परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण है|

ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर

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