Wednesday, 30 November 2016

विफलता और सफलता ....

विफलता और सफलता ....
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मेरे अनेक आत्मीय सम्बन्धियों/मित्रों की एक व्यथा से मैं कभी कभी पीड़ित हो जाता हूँ| मेरा तो यह विश्वास और आस्था है कि मनुष्य का जन्म अपने स्वयं के प्रारब्ध कर्मों के फल भोगने के लिए ही होता है, और हर व्यक्ति अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार अपना अपना भाग्य लेकर आता है|
प्रारब्ध का फल तो भोगना ही पड़ता है| संचित कर्मों से हम मुक्त हो सकते हैं पर प्रारब्ध से नहीं| प्रकृति अपने नियमों के अनुसार कार्य कर रही है और करती रहेगी|
अतः हमें कभी भी आत्म-ग्लानि, क्षोभ व अफ़सोस नहीं करने चाहियें| जो कुछ भी हो रहा है वह परमात्मा के बनाए नियमों के अनुसार प्रकृति द्वारा हो रहा हैं| अतः सदा संतुष्ट और प्रसन्न रहना चाहिए|
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पर मेरे अनेक आत्मीय ऐसा नहीं सोचते| संसार की दृष्टि में वे चाहें अति सफल हों पर उनके मन में सदा आत्म-ग्लानि बनी रहती है कि हम जीवन में यह नहीं कर पाए, वह नहीं कर पाए आदि आदि| इस आत्मा ग्लानि से वे सदा दुखी रहते हैं और दूसरों को भी दुखी करते रहते हैं| अपनी विफलताओं का दोष वे दूसरों पर या विपरीत परिस्थितियों पर डालते रहते हैं|
उनकी महत्वाकांक्षाएँ इतनी अधिक होती हैं जो यथार्थ में संभव हो ही नहीं सकतीं| ऐसे व्यक्ति वास्तव में बड़े दुखी रहते हैं जब कि दुःख का कोई कारण ही नहीं होता| जब कोई स्वयं से ही दुखी होता है तब उसके लिए कोई क्या कर सकता है?
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हमारी सफलता का एक ही मापदंड होना चाहिए वह यह कि हम परमात्मा के कितना समीप हैं| जितने हम ईमानदारी से स्वयं की दृष्टी में परमात्मा के समीप हैं उतने ही सफल हैं| जितने हम परमात्मा से दूर है उतने ही विफल हैं| भौतिक धन-संपत्ति की प्रचूरता, समाज में अच्छा मान-सम्मान और सब कुछ पाकर भी हम यही सोचते सोचते इस ससार से विदा हो जाते हैं कि हम तो कुछ भी नहीं कर पाए|
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आशा है मैं अपनी बात आपको समझा सका हूँ| हो सकता है कि किसी पूर्व जन्म में एक राजा भी था और किसी अन्य जन्म में भिखारी भी| इससे क्या फर्क पड़ता है कि मैं क्या था और क्या नहीं? और क्या बनूँगा इस का भी महत्व नहीं है|
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यदि मनुष्य जन्म लेकर भी मैं इस जन्म में परमात्मा को उपलब्ध नहीं हो पाया तो निश्चित रूप से मेरा जन्म लेना ही विफल था, मैं इस पृथ्वी पर भार ही था| जीवन की सार्थकता उसी दिन होगी जिस दिन परमात्मा से कोई भेद नहीं रहेगा|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

टैक्स आतंकवाद से मुक्ति मिले .....

टैक्स आतंकवाद से मुक्ति मिले .....
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ज्यादातर व्यवसायी चाहते हैं कि देश में नकद-विहीन (Cash less) अर्थव्यस्था न पनपे और इनका व्यवसाय दो नम्बर में चलता रहे| इसका कारण आयकर की बहुत ऊंची दरें और कर अधिकारियों द्वारा आतंकित करना है| मैं कोई व्यवसायी नहीं हूँ पर मेरे अनेक मित्र बहुत अच्छे व्यवसायी हैं और सब यही विचार रखते हैं|
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कर व्यवस्था इतनी सरल हो जिसे समझने के लिए किसी चार्टेड अकाउंटेंट से सहायता की आवश्यकता न पड़े| करों की दर भी कम हो| आयकर छूट की सीमा भी बढे|
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मेरे विचार से छः लाख वार्षिक तक की आय पर कोई आय कर न हो और अधिक से अधिक किसी भी परिस्थिति में 15% से अधिक आयकर न हो| 65 वर्ष से अधिक आयु वालों पर आय कर की दर आधी हो व 70 वर्ष से ऊपर के आयु वालों पर कोई आय कर नहीं हो|
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पूरी तरह की cash less अर्थ व्यवस्था तो हो ही नहीं सकती| जहां आवश्यक हो वहाँ नकद में भुगतान हो|

धन्यवाद !

क्या हम प्रकृति के रहस्यों को समझ पाने मे समर्थ हैं ..... ?

क्या हम प्रकृति के रहस्यों को समझ पाने मे समर्थ हैं ..... ?
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सृष्टि का हर घटनाक्रम सुनियोजित और विवेकपूर्ण है| हर घटना के पीछे कोई न कोई कारण है| हर कार्य पूर्णता से हो रहा है| कहीं भी कोई कमी या अपूर्णता नहीं है| बिना किसी अपेक्षा के प्रकृति अपना कार्य पूर्णता से कर रही है|
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अपूर्णता है तो सिर्फ हमारे स्वयं में, स्वयं के अस्तित्व में|
क्या हम जान सकते हैं कि ऐसा क्यों है? क्या जन्म और मृत्यु, व सुख और दुःख से परे भी कोई अस्तित्व या जीवन है? उसका बोध हमें क्यों नहीं होता? यदि हम शाश्वत हैं तो हमें उसका बोध क्यों नहीं है?
हम हैं कौन? क्या हम इसे जान सकते हैं?
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यह बात हर कोई नहीं समझ सकता| पर जो बात मुझे समझ में आ रही है, जिसका मुझे आभास हो रहा है, उसे व्यक्त करने का प्रयास कर रहा हूँ ......
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(१) पूर्णता का ध्यान कर, पूर्णता को समर्पित होकर ही हम पूर्ण हो सकते हैं|
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(२) जिस परमब्रह्म परमशिव का कभी जन्म ही नहीं हुआ उसी को समर्पित होकर हम अमर हो सकते हैं|
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(३) जिसे हम परमब्रह्म, या परमशिव कहते हैं, वह ही पूर्णता है जिसको उपलब्ध होने के लिए ही हमने जन्म लिया है| जब तक हम उसमें समर्पित नहीं हो जायेंगे तब तक यह अपूर्णता रहेगी|
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४) उसका एकमात्र मार्ग है --- परम प्रेम, पवित्रता और उसे पाने की एक गहन अभीप्सा| अन्य कोई मार्ग नहीं है| जब इस मार्ग पर चलते हैं तो परमप्रेमवश प्रभु निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं|
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(५) कुछ बनना और कुछ होना ------ ये दोनों अलग अलग अवस्थाएं है, जो कभी एक नहीं हो सकतीं|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन और आप सब को अहैतुकी प्रेम | ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते |पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव शिव शिव | ॐ ॐ ॐ ||
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हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है ---

हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है ---
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जब कोई अपने प्रेमास्पद को बिना किसी अपेक्षा या माँग के, निरंतर प्रेम करता है तो प्रेमास्पद को प्रेमी के पास आना ही पड़ता है| उसके पास अन्य कोई विकल्प नहीं होता|
प्रेमी स्वयं परम प्रेम बन जाता है| वह पाता है कि उसमें और प्रेमास्पद में कोई अंतर नहीं है|
प्रेम की "कामना" और "बेचैनी" हमें प्रभु के दिए हुए वरदान हैं|

"कामना" अपने आप में भगवान का दिया हुआ एक अनुग्रह है|
मैं लौकिक दृष्टी से यहाँ उल्टी बात कह रहा हूँ पर यह सत्य है| किसी भी वस्तु की "कामना" इंगित करती है कि कहीं ना कहीं किसी चीज का "अभाव" है| यह "अभाव" ही हमें बेचैन करता है और हम उस बेचैनी को दूर करने के लिए दिन रात एक कर देते हैं, पर वह बेचैनी दूर नहीं होती और एक "अभाव" सदा बना ही रहता है| उस अभाव को सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही भर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं|
संसार की कोई भी उपलब्धि हमें "संतोष" नहीं देती क्योंकि "संतोष" तो हमारा स्वभाव है| वह हमें बाहर से नहीं मिलता बल्कि स्वयं उसे जागृत करना होता है|

"संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" से ही होती है|
हमारा पीड़ित और बेचैन होना ही हमारी परमात्मा की ओर यात्रा की शुरुआत है| हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं| अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे|
अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों| भगवान को खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो|
हम को सभी कुछ मिल जायेगा| स्वयं प्रेममय बन जाओ|

अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो| उनके कृपासिन्धु में हमारी हिमालय सी भूलें, कमियाँ और पाप भी छोटे मोटे कंकर पत्थर से अधिक नहीं है| वे वहाँ भी शोभा दे रहे हैं|

इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है उस परम प्रेम में समर्पित हो जाएँ| वहाँ संतोषधन भी मिलेगा और आनंद भी मिलेगा|

"प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है| भगवन के पास सब कुछ है पर एक चीज नहीं है जिसके लिए वे भी तरस रहे हैं, और वह है हमारा प्रेम| हम रूपया पैसा, पत्र पुष्प आदि जो कुछ भी चढाते हैं क्या वह सचमुच हमारा है? हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"| तो उसको देने में भी कंजूसी क्यों?

ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हे गुरु रूप ब्रह्म, आप ही इस नौका के कर्णधार है ...

हे गुरु रूप ब्रह्म, आप ही इस नौका के कर्णधार है .....
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जीवन के अंधेरे मार्गों पर आप ही मेरे मार्गदर्शक हैं ......
इस अज्ञानांधकार की निशा में आप ही मेरे चन्द्रमा हैं .....
आप ही मेरे ज्ञानरूपी दिवस के सूर्य हैं .....
मेरे बिखरे हुए भटकते विचारों के ध्रुव भी आप ही हैं .....
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प्रबल चक्रवाती झंझावातों और भयावह अति उत्ताल तरंगों से त्रस्त इस दारुण दुःखदायी भवसागर की इस घोर तिमिराच्छन्न निशा में इस असंख्य छिद्रों वाली देहरूपी नौका के कर्णधार जब आप स्वयं ही बने हैं, तब अंतर्चैतन्य में कोई अन्धकार रहा ही नहीं है, सम्पूर्ण अस्तित्व ज्योतिर्मय है व चारों ओर आनंद ही आनंद और अनुकूलता है|
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अब इसी दिव्य चेतना में अवस्थित रखो, भवसागर का तो कोई आभास ही नहीं है| लगता है पार हो ही गया है|
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव शिव शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

एक विशेष घटनाक्रम .....

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आज का एक विशेष घटनाक्रम :--- आज जैसी यथार्थ स्थिति बनी है उसमें नाटो या अमेरिका के उकसावे पर तुर्की ने 'बास्फोरस' और 'दर्रा दानियल' से नौकानयन बंद कर दिया तो श्यामसागर (Black Sea) से भूमध्यसागर का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा|
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फिर विश्वयुद्ध को कोई नहीं रोक पायेगा क्योंकि 'बास्फोरस' जलडमरूमध्य के मार्ग से श्यामसागर स्थित देशों --- बुल्गारिया, रोमानिया, माल्दोवा, युक्रेन, जॉर्जिया और रूस के क्रीमिया सहित क्षेत्र का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता है| इस से निकट के अन्य देशों जैसे अज़रबेजान व आर्मेनिया का व्यापार भी प्रभावित होता है| रूस की श्यामसागर स्थित नौसेना भी आणविक शस्त्रों से युक्त बहुत शक्तिशाली है| संकट की स्थिति में ये देश अपना पुराना द्वेष भुलाकर रूस के साथ हो जाएँगे क्योंकी तुर्की से इनकी पारंपरिक शत्रुता रही है| भूमध्यसागर में सीरिया तट पर रूस की श्यामसागर नौसेना के ही जहाज हैं|
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इस मौसम में श्याम सागर में कोहरा भी कम होने लगता है जिससे visibility भी ठीक रहती है और आवागमन सुचारू रूप से होता है| गर्मियों में तो वहाँ बहुत घना कोहरा होता है| जब कोहरा कम होता है उस समय की स्थिति युद्ध के अधिक अनुकूल होती है|
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बास्फोरस जलडमरूमध्य एशिया और योरोप को जोड़ता है| इस जलडमरूमध्य के दोनों ओर वर्तमान इस्ताम्बूल नगर है जो पहले कुस्तुन्तुनिया के नाम से जाना जाता था| योरोप का भारत से सारा व्यापार कुस्तुन्तुनिया के मार्ग से ही होता था| जब तुर्कों ने इस पर अपना अधिकार कर लिया उसके पश्चात् ही बाध्य होकर योरोप को जलमार्ग से भारत की खोज करनी पड़ी थी|
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भगवान सबको विवेक दे| ॐ ॐ ॐ ||

असहमति में उठा हाथ ......

असहमति में उठा हाथ ......
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इस जीवन की एक अति अल्प अवधी के लिए मैं भटक कर घोर नास्तिक और कौमनष्ट (कम्युनिष्ट) हो गया था| इसका कारण था कि किशोरावस्था में ही मैंने समाज में काफी अन्याय, शोषण और नैतिक पतन देखा| किशोर मन में इसका कोई समाधान समझ में नहीं आया| फिर दो वर्ष रूस में मुझे उस समय रहने का अवसर मिला जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था| अपरिपक्व मन में सामाजिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह की भावना जागृत होना स्वभाविक थी, जिसको व्यक्त करने का एकमात्र विकल्प मार्क्सवाद था| अन्य कोई समझ उस समय थी ही नहीं|
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फिर पूर्व जन्मों के कुछ अच्छे संस्कार जागृत हुए व और अधिक गहराई में गया तो साम्यवाद का खोखलापन सामने आया और उसके महानायकों .... मार्क्स, लेनिन, स्टालिन, किम-इल-सुंग, माओ, फिदेल कास्त्रो आदि की वास्तविकता और भारतीय मापदंडों के अनुसार चरित्रहीनता सामने आई जिनमें कुछ भी प्रेरणास्पद और प्रशंसनीय आदर्श नहीं था| मार्क्सवाद एक लुभावना पर खोखला घोर भौतिकवादी सिद्धांत सिद्ध हुआ| जितने भी मार्क्सवादी विचारक जीवन में मिले उन सब का जीवन खोखला और कुंठाग्रस्त था|
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फिर आध्यात्म में रूचि जागृत हुई तो योगदर्शन और अद्वैत वेदान्त से परिचय हुआ जिनसे उत्तम अन्य कोई सिद्धांत और विचार मिला ही नहीं| भक्ति के संस्कार जागृत हुए, राष्ट्रवाद तो कूट कूट कर भरा हुआ था ही| आध्यात्म से जीवन में पूर्ण संतुष्टि और एक ठोस आधार मिला| जीवन में १८० डिग्री का परिवर्तन आया और घोर नास्तिक से मैं घोर आस्तिक और आध्यात्मिक बन गया|
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सारे मार्क्सवादी महानायक निरंकुश, तानाशाह, शराबी, घोर कामुक और भयानक परस्त्रीगामी थे| ये सब दानव थे जिनके जीवन में व्यवस्था के प्रति विद्रोह और संघर्ष की भावना के अतिरिक्त कुछ भी अन्य आदर्श नहीं था|
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अभी कुछ दिनों पूर्व क्यूबा के फिदेल कास्त्रो का निधन हुआ था| किसी समय मैं भी उनका बड़ा प्रशंसक था| उनकी खूबी थी कि विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति अमेरिका के पड़ोस में रहते हुए भी उन्होंने अमेरिका के आगे कभी सिर नहीं झुकाया और पूर्व सोवियत यूनियन को अपने यहाँ आने को अवसर दिया| अमेरिका की CIA ने ३५० से अधिक बार उनकी ह्त्या के कुटिल से कुटिल प्रयास किये पर उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाई| इस अवधी में अमेरिका के नौ राष्ट्रपति बदल गये|
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अब प्रश्न यह है कि फिदेल कास्त्रो ने अपनी प्रजा के लिए क्या किया? उत्तर है .... कुछ भी नहीं| सिर्फ तानाशाह की तरह क्यूबा पर राज्य किया, और अपने अहंकार और वासनाओं की पूर्ति की| इनके समय वहाँ कुछ भी विकास नहीं हुआ और क्यूबा विश्व के सर्वाधिक दरिद्रतम देशों में ही रहा| अपने नागारिकों को आतंकित करके के इन्होने शासन किया| पूरी क्यूबा को एक जेल बना दिया और अनगिनत लड़कियों को वेश्यावृति करने को बाध्य कर दिया|
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मार्क्सवादी साम्यवाद हो या पूँजीवाद, दोनों व्यवस्थाएं घोर भौतिकवादी हैं जिनसे
मानवता का कोई कल्याण नहीं हो सकता|
जीवन का सार आध्यात्म में ही है|
ॐ तत्सत | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ ||

ध्यान साधना में आने वाले आवरण और विक्षेप रूपी बाधाओं का समाधान .....

ध्यान साधना में आने वाले आवरण और विक्षेप रूपी बाधाओं का समाधान .....
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साधना में आ रही समस्त बाधाओं, विक्षेप आदि का तुरंत और एकमात्र समाधान है ..... सत्संग, सत्संग और निरंतर सत्संग|
अन्य कोई समाधान नहीं है| बाधादायक किसी भी परिस्थिति को तुरंत नकार दो| एक सात्विक जीवन जीओ और आध्यात्मिक रूप से उन्नत लोगों के साथ रहो| अपने ह्रदय में पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम को जागृत करो और अपने अस्तित्व को गुरु व परमात्मा के प्रति समर्पित करने का निरंतर अभ्यास करते रहो|
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जीभ को सदा ऊपर की ओर मोड़ कर रखने का प्रयास करते रहो| खेचरी मुद्रा का खूब अभ्यास करो| खेचरी मुद्रा सिद्ध होने पर ध्यान खेचरी मुद्रा में ही करो| खेचरी मुद्रा के इतने लाभ हैं कि यहाँ उन्हें बताने के लिए स्थान कम पड़ जाएगा|
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ऊनी कम्बल के आसन पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर बैठो| समय हो तो ध्यान से पूर्व कुछ देर हल्के व्यायाम जैसे सूर्य नमस्कार और कुछ आसन कर लो|
ध्यान से पूर्व महामुद्रा का अभ्यास नियमित रूप से नित्य करने से कमर सीधी रहती है और कभी नहीं झुकती| नींद की झपकियाँ आने लगे तब पुनश्चः तीन चार बार महामुद्रा का अभ्यास कर लो| कमर सीधी कर के बैठो इससे नींद नहीं आएगी|
ध्यान करने से पहले अपने गुरु और परमात्मा से उनके अनुग्रह के लिए प्रार्थना अवश्य करें|
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ध्यान में अनाहत और आज्ञा चक्र पर एक साथ अपनी चेतना को केन्द्रित रखें| वास्तव में मस्तकग्रंथि जिसे मेरुशीर्ष और Medulla Oblangata भी कहते हैं, ही आज्ञा चक्र है| वही कूटस्थ केंद्र है| वहीं ज्योति का प्राकट्य होता है और वहीं नाद श्रवण होता है| वहीं से ब्रह्मांडीय ऊर्जा देह में प्रवेश करती है| यह देह का सर्वाधिक संवेदनशील स्थान है जहाँ मेरुदंड की नाड़ियाँ मस्तिष्क से मिलती है| जीव के प्राण यहीं रहते हैं| इस भाग की कोई शल्य क्रिया भी नहीं हो सकती| भ्रूमध्य में तो उस ज्योति का प्रतिबिंब ही दिखाई देता है इसलिए गुरु की आज्ञा से वहाँ ध्यान करते हैं| पर स्वतः ही चेतना मस्तक ग्रंथि पर स्वाभाविक रूप से चली जाती है|
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ध्यान में अजपा जाप और नाद के श्रवण का अभ्यास निरंतर करते रहो|
बाद में अपनी चेतना को नाद में और भ्रूमध्य में दिखने वाली श्वेत ज्योति में समाहित कर दो| यही ध्यान है|
इधर उधर चेतना और विचार जाएँ तो ॐकार के मानसिक जाप के साथ साथ प्रेमपूर्वक उन्हें बापस भ्रूमध्य में ले आओ|
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ध्यान से पूर्व नाडी शुद्धि के लिए अनुलोम-विलोम प्राणायाम करो| इसमें पूरक यानि साँस लेते समय मूलाधार से आज्ञाचक्र तक क्रमशः हर चक्र पर ॐ का मानसिक जाप करो| रेचक यानि साँस छोड़ते समय बापस आज्ञाचक्र से मूलाधार तक ॐ का जाप मानसिक रूप से हर चक्र पर करें|
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सहस्त्रार गुरु का स्थान है जहाँ से गुरु महाराज ही सब कुछ कर रहे हैं, यही भाव रखें| उन्हीं को कर्ता बनाओ| स्वयं कभी कर्ता मत बनो| आप तो उनके एक उपकरण मात्र हैं| वास्तव में सारी साधना वे ही आपके माध्यम से कर रहे हैं| अपने सारे अच्छे-बुरे सब कर्म और उनके फल उन्हें समर्पित कर दो| इससे गुरु महाराज बड़े प्रसन्न होते हैं और आपकी साधना में होने वाली किसी भी कमी का शोधन कर देते हैं| कभी कर्ता मत बनो| किसी भी प्रकार के प्रलोभन में मत आओ|
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अपने अहं यानि अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का समर्पण गुरु तत्व में करना ही साधना है और उनके श्रीचरणों में आश्रय मिलना ही सबसे बड़ी सिद्धि है|
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मूलाधार से आज्ञा चक्र तक का क्षेत्र अज्ञान क्षेत्र है| इसे परासुषुम्ना भी कहते हैं| जब तक चेतना यहाँ है अज्ञान का नाश नहीं होता| आज्ञा चक्र से सहस्त्रार तक का क्षेत्र ज्ञानक्षेत्र है| सारा ज्ञान यहीं प्राप्त होता है| इसे उत्तरा सुषुम्ना भी कहते हैं| इसमें प्रवेश गुरु कृपा से ही होता है, स्वयं के प्रयास से नहीं|
गुरु कृपा ही केवलं| यहीं सारी अध्यात्मिक सिद्धियाँ हैं| सहस्त्रार से आगे का क्षेत्र तो पराक्षेत्र है और उससे भी आगे सुमेरु है जहां आत्मा और परमात्मा में कोई अंतर नहीं रहता|
असली श्रीचक्र भी सहस्त्रार में है| श्री बिंदु भी वहीं है| ज्येष्ठा, वामा और रौद्री ग्रंथियाँ भी वहीँ हैं जहाँ से तीनों गुण नि:सृत होते हैं|
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जब ह्रदय में एक परम प्रेम जागृत होता है और प्रभु को पाने की अभीप्सा और तड़फ़ पैदा होती है तब भगवान किसी ना किसी सद्गुरु के रूप में निश्चित रूप से आकर मार्गदर्शन करते हैं|
तब तक भगवान श्रीकृष्णरूप में या शिवरूप में गुरु हैं|
"कृष्णं वन्दे ज्गत्गुरुम्"| भगवन श्री कृष्ण इस काल के सबसे बड़े गुरु हैं| वे गुरुओं के भी गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गायत्री मन्त्र के सविता देव भी वे ही हैं, भागवत मन्त्र के वासुदेव भी वे ही है, और समाधि में कूटस्थ में योगियों को दिखने वाले पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र यानि पंचमुखी महादेव भी वे ही हैं| उस पंचमुखी नक्षत्र का भेदन और उससे परे की स्थिति योगमार्ग की उच्चतम साधना है जिसके पश्चात ही जीव स्वयं शिवभाव को प्राप्त होने लगता है और तभी उसे -- शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि --- का बोध होता है|
सहस्त्रार ही श्री गुरू चरणों का स्थान है| वहां पर स्थिति ही गुरु चरणों में आश्रय पाना है| गुरु चरणों में आश्रय पाना ही सबसे बड़ी सिद्धि है जिसके आगे अन्य सब सिद्धियाँ गौण हैं|
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हमारी बातो का दूसरों पर प्रभाव नहीं पड़ता, कोई हमारी बात सुनता नहीं है, इसका एकमात्र कारण हमारी साधना में कमी होना है| हमारी व्यक्तिगत साधना अच्छी होगी तभी हमारे विचारों का प्रभाव दूसरों पर पड़ेगा, अन्यथा नहीं| हिमालय की कंदराओं में तपस्यारत संतों के सद्विचार और शुभ कामनाएँ मानवता का बहुत कल्याण करती हैं| इसीलिए हमारे यहाँ माना गया है कि आत्मसाक्षात्कार यानि ईश्वर की प्राप्ति ही सबसे बड़ी सेवा है जो आप औरों के लिए कर सकते हो|
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इस विषय पर पूर्व में अनेक प्रस्तुतियाँ दे चुका हूँ| इसका उद्देष्य आपके ह्रदय में एक अभीप्सा और प्रेम जागृत करना ही है|
कुछ और भी बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं जिन्हें गुरु परंपरा के अनुशासन के कारण सार्वजनिक रूप से बताने का निषेध है| साधक की पात्रता के अनुसार ही वे व्यक्तिगत रूप से बताई जाती हैं|
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आप सब में हृदयस्थ भगवान वासुदेव को प्रणाम| बहुत बहुत शुभ कामनाएँ|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

और क्या चाहिए ?

लक्ष्य स्पष्ट हो, दृढ़ आत्मविश्वास और उत्साह हो, संतुलित वाणी हो, आजीविका का पवित्र साधन हो, स्वस्थ देह और मन हो, परमात्मा से प्रेम हो, फिर और क्या चाहिए ??
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चेतना में जब गुरु रूप ब्रह्म निरंतर कर्ता और भोक्ता के रूप में बिराजमान हों, उनके श्रीचरणों में आश्रय मिल गया हो, ओंकार की ध्वनी अंतर में निरंतर सुन रही हो, ज्योतिर्मय ब्रह्म निरंतर कूटस्थ में हों, परमात्मा की सर्वव्यापकता का निरंतर आभास हो, सम्पूर्ण चेतना परम प्रेममय हो गयी हो, तब और कौन सी उपासना या साधना बाकी बची है ?
हे गुरु रूप ब्रह्म आपकी जय हो|
ॐ ॐ ॐ ||

Saturday, 26 November 2016

रक्षा करो हे प्रभु मैं आपकी शरण में हूँ .....

"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद व्रतं ममः ||
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रक्षा करो हे प्रभु मैं आपकी शरण में हूँ | रक्षा करो, रक्षा करो |
अपनी माया से रक्षा करो जो निरंतर विक्षेप उत्पन्न कर रही है और अज्ञान के आवरण को और भी दृढ़ बना रही है |
आप मेरे से अच्छा जानते हैं कि मेरी समस्या और उसका निदान क्या है |
मेरा और कोई नहीं है | मैं सिर्फ आपका हूँ और आप मेरे हैं |
आप को छोड़कर मेरा कोई ठिकाना नहीं है |
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आप सदा मेरे समक्ष हैं और मेरी रक्षा कर रहे हैं | मेरे विचारों के केंद्र बिदु आप ही हैं | मेरे विचार अब इसी समय से इधर उधर न भटकें, सिर्फ आप पर ही केन्द्रित रहें |
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जीवन के अंधेरे मार्गों पर आप ही मेरे मार्गदर्शक हैं | इस अज्ञानांधकार की निशा में आप ही मेरे चन्द्रमा हैं | आप ही मेरे ज्ञानरूपी दिवस के सूर्य हैं | इस अंधकारमय भवसागर में भी आप ही मेरे ध्रुव तारे हैं | मेरे भटकते बिखरे हुए विचारों के ध्रुव आप ही रहें | इस घनीभूत पीड़ा और वेदना से मेरी रक्षा करो |
त्राहिमाम् त्राहिमाम् ||

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

दुनियाँ पर तीन बड़े असुर राज्य कर रहे हैं, उनके साथ अन्य भी अनेक असुर हैं ...........

दुनियाँ पर तीन बड़े असुर राज्य कर रहे हैं, उनके साथ अन्य भी अनेक असुर हैं ...........
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जी हाँ, यह बिलकुल सत्य है| इस समय पृथ्वी पर बहुत दीर्घ काल से तीन बड़े असुरों का राज्य है और ये तीनों असुर मानसिक धरातल पर से इस भौतिक धरा पर राज्य कर रहे हैं|
इन असुरों ने पूरी पृथ्वी पर असत्य और अन्धकार फैला रखा है| बहुत कम लोग हैं जो इनकी सत्ता से स्वयं को सुरक्षित रख पा रहे हैं|
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मैं जो लिख रहा हूँ यह कोई खाली बैठे की बेगार या कोई गपोड़ नहीं है, बल्कि वास्तविकता है जिसकी अनुभूति मैंने स्वयं अनेक बार की है, और अनेक बार करता हूँ| इस धरा पर सिर्फ हम लोग ही नहीं हैं, सूक्ष्म जगत की असंख्य अच्छी और बुरी आत्माएं भी हैं जो हमारे ऊपर निरंतर प्रभाव डालती हैं| हमें वे अपना उपकरण बनाकर अपनी वासनाओं की पूर्ति भी करती हैं| हमें बुरी आत्माओं का उपकरण बनने से बचना चाहिए और सिर्फ परमात्मा को ही निज जीवन में अवतरित कर परमात्मा का ही उपकरण बनना चाहिए| तभी हम अपनी रक्षा कर सकते हैं|
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(1) पहिला असुर है ..... जो मनुष्य को लोभी, लालची और स्वार्थी बनाता है|
(2) दूसरा असुर है ..... जो मनुष्य को काम वासना में धकेलता है|
(3) तीसरा असुर है ..... जो सारी स्वार्थ और अहंकार की राजनीति करता है|

ये मानसिक धरातल पर से ही अपने ऊपर आक्रमण करते हैं और हमें अपना गुलाम बना लेते हैं| कभी न कभी जब हम स्वयं को इनके प्रति खोलते हैं तभी ये हमारे ऊपर अधिकार कर पाते हैं|
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(4) पिछले बीस-तीस वर्षों से एक और बड़े असुर ने भारत में जन्म ले लिया है और वह है .....
राक्षसी पत्रकारिता का असुर जो आजकल झूठी और सनसनीखेज खबरों, दुराग्रहपूर्ण समाचारों, और अधर्म का प्रचार कर भ्रम फैला रहा है|
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ये सब असुर और राक्षस ही हैं जो वर्त्तमान में "असहिष्णुता" और "खून खराबे" की बातें कर रहे हैं| इनका एकमात्र उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना ही है| ये देवत्व को नष्ट करना चाहते हैं| इनमें से कोई सा असुर जब मरता है तो तुरंत कोई दूसरा उसका स्थान ले लेता है|
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इनसे निपटने का एक ही मार्ग है और वह है ........ हम परमात्मा के प्रति खुलें और परमात्मा को भक्ति द्वारा अपने जीवन में प्रवाहित होने दें, और हर कदम पर इन आसुरी शक्तियों का विरोध करें|
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सबको शुभ कामनाएँ| ॐ तत्सत् | ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
प्रत्येक व्यक्ति का स्वरूप साक्षात शिव है .....
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समस्त अस्तित्व शिवमय है| शिव से परे कुछ भी नहीं है| शिव आदि तत्त्व और अपरिभाष्य हैं| यह ब्रह्माण्ड शिव का ही साकार स्वरूप है| हम सब शिव में ही रमण करें, शिव का ही ध्यान करें और अंत में शिव में ही लय हो जाएँ|
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सिर्फ परमात्मा शिव ही हमारे हैं, वे ही हमारे शाश्वत साथी हैं, इस जन्म से पूर्व भी वे ही हमारे साथ थे और मृत्यु के उपरांत भी वे ही रहेंगे| उनका साथ शाश्वत है| हमारे अस्तित्व भी वे ही हैं| एक वे ही हैं, उनसे परे अन्य कोई नहीं है|
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आप सब के शिवत्व को प्रणाम करता हूँ| ॐ ॐ ॐ ||

जीवन में परमात्मा को समर्पित होना ही सार्थकता है .....

जीवन में परमात्मा को समर्पित होना ही सार्थकता है .....
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आध्यात्म में विभिन्न प्रकार की अनेक साधनाएँ हैं और उनके अनेक क्रम हैं| किसी जिज्ञासु का मार्गदर्शन तो कोई श्रोत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही कर सकते हैं, मेरे जैसा अकिंचन व्यक्ति नहीं| यहाँ तो मैं अपने आप को और अपने विचारों को व्यक्त करने का एक प्रयास मात्र कर रहा हूँ| कोई आवश्यक नहीं है कि कोई मुझसे सहमत ही हो|
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भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि थोड़ी-बहुत अल्प मात्रा में भी धर्म का आचरण महा भय से हमारी रक्षा करता है| इसका अर्थ मेरी अल्प और सीमित बुद्धि से यही है कि हमारे सब कष्टों का कारण धर्म का आचरण नहीं करना ही है| हम धर्म का आचरण करेंगे तभी भगवान हमारी रक्षा करेंगे| धर्म के आचरण से ही धर्म की रक्षा होती है जो अंततः हमारी ही रक्षा करता है|
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अब प्रश्न यह उठता है कि धर्म क्या है| इसकी अनेक परिभाषाएँ हैं| पर मुझे जो समझ में आया है उसके अनुसार परमात्मा के प्रति परम प्रेम और सतत समर्पण की साधना द्वारा ही हम धर्म का मर्म समझ सकते हैं| धर्म एक अनुभव और प्रेरणा है जो हमें परमात्मा से प्राप्त होती है| परमात्मा को परम प्रेम और समर्पण ही धर्म को जानने की कुंजी है| हमारा आचरण धार्मिक तभी हो सकता है जब हमारे जीवन का केंद्रबिंदु और कर्ता एकमात्र परमात्मा ही हो| जो साधक परमेश्वर में अपनी सारी इच्छाओं को लीन कर देता है, ऐसे साधक के योगक्षेम का वहन भगवान करते हैं| ध्यान भाव को भी छोड़कर केवल ध्येय स्वरूप में सर्वथा स्थित रहने का प्रयास ही सही साधना है|
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मूर्ति पूजा, जप, स्तुति, मानस पूजा, ध्यान और ब्रह्मभाव आदि ये सब क्रम हैं, जैसे एक बालक प्रथम कक्षा में पढ़ता है, एक पांचवीं में, एक कॉलेज में, कोई डॉक्टरेट कर रहा है और कोई पोस्ट डॉक्टरेट कर रहा है वैसे ही साधनाओं के भी क्रम हैं| एक ही साधना सभी के लिए नहीं हो सकती|
चौथी कक्षा का बालक अभियांत्रिकी गणित को नहीं समझ सकता, वैसे ही श्रेणियाँ आध्यात्मिक साधनाओं में हैं और ईश्वर की परिकल्पना की समझ में भी है|
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जब हम कहते हैं कि मनुष्य जीवन का लक्ष्य केवल ईश्वर की प्राप्ति है तो ईश्वर की परिकल्पना भी प्रत्येक व्यक्ति की अलग अलग होती है| इसे समझाना अति कठिन है| अधिकाँश लोग तो यही समझते हैं कि भगवान हमारी प्रार्थनाओं व स्तुतियों से प्रसन्न होकर हमें सुख शांति और भोग्य पदार्थ देता है| उनके लिए परमात्मा एक माध्यम यानि साधन है और संसार की वासनाएँ साध्य है| ऐसे लोगों के लिए आध्यात्म को समझना असम्भव है|
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हमारी श्रुतियाँ कहती हैं कि हमारे सब दुःखों का कारण हमारी कामनाएँ हैं तो उनसे मुक्त कैसे हों?
इसका एकमात्र उत्तर है -- "उपासना"|
भगवान की ओर समस्त कामनाओं को मोड़ देंगे तो वे हमारी कामनाओं को निश्चित ही समाप्त कर देंगे। यही हमारी आस्था है, हमारी श्रद्धा और विश्वास है|
पूरा ह्रदय उनको दे देंगे तो एक ना एक दिन तो उन्हें आना ही पडेगा| यदि वे नहीं भी आते हैं तो कोई बात नहीं| इस नारकीय जीवन से तो अच्छा है कि उनका स्मरण चिंतन करते हुए ही हम उनकी इस मायावी दुनियाँ से विदा ले लें|
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हे प्रियतम परमात्मा, हमें आपसे प्यार हो गया है, आप सदा हमें प्यारे लगें, आप सदा हमें प्यारे लगें, और आप सदा हमें प्यारे लगें| इसके अतिरिक्त हमारी कोई कामना नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
26 नवम्बर 2014

आवश्यकता चेतना के स्तर को ऊंचा उठाने में है .....

उत्तमो ब्रह्मसद्भावो ध्यानभावस्तु मध्यमः |
स्तुतिर्जपाऽधमो भावो बहिः पूजाऽधमाधमा ||
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उपरोक्त श्लोक ज्ञान संकलिनी तंत्र से है| शिव संहिता में भी इससे मिलता एक मन्त्र है| जिस प्रकार शिक्षा में क्रम हैं वैसे ही साधना में भी क्रम हैं| एक बालक चौथी कक्षा में है, एक दसवीं में, एक कॉलेज में, एक डॉक्टरेट कर रहा है, सब की पढाई अलग अलग होती है| वैसे ही अपने अपने चैतन्य की स्थिति और विकास के क्रम के अनुसार ही हमारी साधना भी अलग अलग होती है| एक साधक के लिए जो साधना अनुकूल है, यह आवश्यक नहीं है कि दूसरे साधक के भी अनुकूल होगी| एक उत्तम उपासक सर्वथा परमेश्वर में अपनी सारी इच्छाओं को लीन कर देता है| उसकी कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं होती|
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वेदान्त के दृष्टिकोण से जो ध्यान भाव को भी तज कर केवल ध्येय स्वरूप में सर्वथा स्थित रहते हैं वे सबसे उत्तम उपासक हैं| यह एक बहुत गहन रहस्य की बात है जिसे परमात्मा की कृपा से ही समझा जा सकता है|

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आवश्यकता चेतना के स्तर को ऊंचा उठाने में है| समस्त ज्ञान, समस्त उपलब्धियाँ, पूर्णता कहीं बाहर नहीं है, ये सब हमारी चेतना में ही हैं| चेतना के स्तर को ऊंचा उठाओ, सारी उपलब्धियाँ स्वयं को अनावृत कर हमारे साथ एकाकार हो जायेंगी|
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ॐ तत्सत् | 
ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ? जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ....

सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा ....
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महाराजा रणजीतसिंह जी ने जब अटक के किले पर आक्रमण किया था तब उस समय मार्ग की एक बरसाती नदी में बाढ़ आई हुई थी| किले का किलेदार और सभी पठान सिपाही निश्चिन्त होकर सो रहे थे कि रात के अँधेरे में रणजीतसिंह की फौज नदी को पार नहीं कर पायेगी| अगले दिन किले के पठानों को आसपास से और भी सहायता मिलने वाली थी|
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आधी रात का समय था और रणजीतसिंह जी के सामने नदी पार करने के अतिरिक्तं कोई अन्य विकल्प नहीं था| उन्हें पता था कि दिन उगते ही पठान सेना सजग हो जायेगी और आसपास से उन्हें और भी सहायता मिल जायेगी| तब अटक को जीतना असम्भव होगा| रणजीतसिंह जी एक वीर योद्धा ही नहीं अपितु एक भक्त और योगी भी थे|
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उन्होंने नदी का वह सबसे चौड़ा पाट ढूँढा जहाँ पानी सबसे कम गहरा था, और अपने सिपाहियों से यह कह कर कि .....
"सकल भूमि गोपाल की, तामें अटक कहाँ ?
जाके मन में अटक है, सोई अटक रहा "....
अपना घोड़ा नदी में उतार दिया और नदी के उस पार पहुँच गए| पीछे पीछे सारी सिख फौज ने भी नदी पार कर ली|
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भोर होने से पूर्व ही उनकी सिख सेना ने अटक के किले को घेर लिया| रणजीत सिंह जी को देखकर किले का किलेदार और उसकी सारी फौज भाग खड़ी हुई| अटक पर अधिकार कर के ही रणजीतसिंह जी नहीं रुके, उन्होंने पूरे अफगानिस्तान को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया| उनके राज्य की सीमाओं में सिंध, अफगानिस्तान, पंजाब, कश्मीर और पूरा लद्दाख भी था| हिन्दू जाति के सबसे वीर योद्धाओं में उनका नाम भी सम्मिलित है| वे एक ऐसे महान योद्धा थे जिन्होनें कभी असफलता नहीं देखी| इसका कारण उनका दृढ़ मनोबल और दूरदर्शिता थी|
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जो भी व्यक्ति मन लगाकर किसी भी असंभव कार्य को संपन्न करने के लिए प्रयत्नशील होने लगता हे तो वह निश्चित रूप से उसे संभव कर ही लेता है|
रहीमदास जी ने कहा है ....
रहिमन मनहिं लगाइके, देखि लेहुँ किन कोय |
नर को बस कर वो कहाँ, नारायण वश होय ||
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सभी को सादर नमन ! ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Thursday, 24 November 2016

शिवभाव में शिवत्व की साधना .....

November 24, 2015.
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शिवभाव में शिवत्व की साधना .....
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शिवभाव में स्थित होकर शिवतत्व में स्वयं को पूर्णतः समर्पित कर देना ही जीवन की सार्थकता है ..... ऐसा मेरा मत है| कोई आवश्यक नहीं है कि कोई अन्य इससे सहमत हों पर मैं अपने संकल्प पर दृढ़ हूँ| जब तक इस लक्ष्य की प्राप्ति नहीं होगी तब तक जन्म लेता रहूँगा| ज्ञान तो बहुत है पर कार्यरूप में परिवर्तित न होने के कारण वह अपूर्ण ही है| इस अल्प जीवन में ईश्वर प्रदत्त मूल्यवान समय का सदुपयोग कम, और दुरुपयोग अधिक हुआ है|
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काल किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। इसलिए वृद्धावस्था में जीने की आशा रखना, भगवत भजन में मन न लगना, सांसारिक प्रपंचों में फंसे रहना मूढ़ता का ही परिचायक है। ज्ञानी और विवेकी वह है, जो भगवान की भक्ति में लगा रहता है।
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कहीं से तो प्रारम्भ होना ही चाहिए| शुरुआत होनी ही चाहिए | पर कोई ग्लानी नहीं है| भगवान हैं, यहीं हैं और सदा मेरे साथ हैं|
मैं सिर्फ उनका हूँ और वे मेरे हैं|
अंततः हम दोनों एक हैं|
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ॐ ॐ ॐ | शिव शिव शिव ||

भारतवर्ष की और मेरे ह्रदय की घनीभूत पीड़ा ...

November 24, 2013.
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भारतवर्ष की और मेरे ह्रदय की घनीभूत पीड़ा .....
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इस राष्ट्र की अस्मिता सनातन हिन्दू धर्म है| हिदुत्व ही इस राष्ट्र की पहिचान है|
सनातन हिन्दू धर्म ही भारत है और भारत ही सनातन हिन्दू धर्म है|
अनगिनत युगों में मिले संस्कारों से यहाँ की संस्कृति का जन्म हुआ है| इस संस्कृति का आधार ही सनातन धर्म है| यदि यह संस्कृति और धर्म ही नष्ट हो गए तो यह राष्ट्र भी नष्ट हो जाएगा|
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जीवन में पूर्णता का सतत प्रयास, अपनी श्रेष्ठतम सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति, परम तत्व की खोज, दिव्य अहैतुकी परम प्रेम, भक्ति, करुणा और परमात्मा को समर्पण ये सब भारत की ही संस्कृति है|
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धर्म-निरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव और आधुनिकता आदि आदि नामों से हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं| भारत की शिक्षा और कृषि व्यवस्था को नष्ट कर दिया गया है| झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है| पशुधन को कत्लखानों में कत्ल कर के विदेशों में भेजा जा रहा है| बाजार में मिलने वाला दूध असली नहीं है| दूध के पाउडर को घोलकर थैलियों में बंद कर असली दूध के नाम से बेचा जा रहा है| संस्कृति के नाम पर फूहड़ नाच गाने परोसे जा रहे हैं| हमारी कोई नाचने गाने वालों की संस्कृति नहीं है| हमारी संस्कृति -- ऋषियों मुनियों, महाप्रतापी धर्म रक्षक वीर राजाओं, ईश्वर के अवतारों, वेद वेदांगों, दर्शनशास्त्रों, धर्मग्रंथों और संस्कृत साहित्य की है| जो कुछ भी भारतीय है उसे हेय दृष्टी से देखा जा रहा है| विदेशी मूल्य थोपे जा रहे हैं| देश को निरंतर खोखला, निर्वीर्य और धर्महीन बनाया जा रहा है|
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परोपकार, सब के सुखी व निरोगी होने और कल्याण की कामना हिन्दू संस्कृति में ही है, अन्यत्र नहीं| अन्य मतावलम्बी सिर्फ अपने मत के अनुयाइयों के कल्याण की ही कामना करते हैं, उससे परे नहीं| औरों के लिए तो उनके मतानुसार अनंत काल तक नर्क की ज्वाला ही है और उनका ईश्वर भी मात्र उनके मतावलंबियों पर ही दयालू है|
उनके ईश्वर की परिकल्पना भी एक ऐसे व्यक्ति की है जो अति भयंकर और डरावना है जो उनके मतावलम्बियों को तो सुख ही सुख देगा और दूसरों को अनंत काल तक नर्क की अग्नि में तड़फा कर आनंदित होगा| पर पीड़ा से आनंदित होने वाले ईश्वर से भय करना व अन्य मतावलंबियों को भयभीत और आतंकित करना ही उनकी संस्कृति है|
समुत्कर्ष, अभ्युदय और नि:श्रेयस की भावना ही सनातन हिदू धर्म का आधार हैं| अन्य संस्कृतियाँ इंद्रीय सुख और दूसरों के शोषण की कामना पर ही आधारित हैं|
इन पंक्तियों के लेखक ने प्रायः पूरे विश्व की यात्राएं की हैं और वहां के जीवन को प्रत्यक्ष देखा है| जो कुछ भी लिख रहा है वह अपने अनुभव से लिख रहा है|
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धर्मनिरपेक्षतावादियों, सर्वधर्मसमभाववादियों और अल्पसन्ख्यकवादियों से से मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि आपकी धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्मसमभाववाद और अल्पसंख्यकवाद तभी तक है जब तक भारत में हिन्दू बहुमत है| हिन्दुओं के अल्पमत में आते ही भारत भारत ना होकर अखंड पकिस्तान हो जाएगा, और आपका वही हाल होगा जो पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दुओं का हुआ है| यह अनुसंधान का विषय है कि वहाँ के मन्दिर और वहाँ के हिन्दू कहाँ गए| क्या उनको धरती निगल गई? आपके सारे के सारे उपदेश और सीख क्या हिन्दुओं के लिए ही है? यह भी अनुसंधान का विषय है कि भारत के भी देवालय और मंदिर कहाँ गए| यहाँ की तो संस्कृति ही देवालयों और मंदिरों की संस्कृति थी|
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सनातन धर्म ही भारत का भविष्य है| सनातन धर्म ही भारत की राजनीति हो सकती है| भारत का भविष्य ही विश्व का भविष्य है| भारत की संस्कृति और हिन्दू धर्म का नाश ही विश्व के विनाश का कारण होगा| क्या पता उस विनाश का साक्षी होना ही हमारी नियति हो|
जयशंकर प्रसाद जी के शब्दों में --
"हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह|
एक व्यक्ति भीगे नयनों से,
देख रहा था प्रलय अथाह|"
हो सकता है कि उस व्यक्ति की पीड़ा ही हमारी पीड़ा हो, और उसकी नियति ही हमारी नियति हो|
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मेरे ह्रदय की यह पीड़ा समस्त राष्ट्र की पीड़ा है जिसे मैंने व्यक्त किया है| मुझे तो पता है की मुझे क्या करना है, और वह करने का प्रयास कर रहा हूँ| मुझे किसी को और कुछ भी नहीं कहना है| यह मेरे ह्रदय की अभिव्यक्ति मात्र है| किसी से मुझे कुछ भी नहीं लेना देना है| सिर्फ एक प्रार्थना मात्र है आप सब से कि अपने देश भारत के धर्म और संस्कृति की रक्षा करें|
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वन्दे मातरम| भारत माता कीजय|
वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलय़जशीतलाम्,
शस्यश्यामलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।१।।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम् । वन्दे मातरम् ।।२।।
कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
के बॉले माँ तुमि अबले,
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।३।।
तुमि विद्या तुमि धर्म,
तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वं हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदय़े तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम् ।।४।।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।५।।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्,
धरणीं भरणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।६।।

Wednesday, 23 November 2016

जो परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं वे इस पृथ्वी पर देवता है .....

जो परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं वे इस पृथ्वी पर देवता है .....
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जो परमात्मा को उपलब्ध हो गए हैं वे इस पृथ्वी पर देवता है, वे ही ब्राह्मण हैं| यह पृथ्वी उन्हें पाकर धन्य हो जाती है| जहाँ भी उनके चरण पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है| देवता उन्हें देखकर आनंदित होते हैं, पितृगण उन्हें देखकर नृत्य करते हैं| उनकी सात पीढियाँ तर जाती हैं| उनके चरणों की रज मस्तक पर धारण व स्नान करने योग्य है| वह कुल और वह भूमि धन्य है जहाँ ऐसी आत्माएँ जन्म लेती हैं|
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आप भी परमात्मा को प्राप्त हों| जिस पर भी आपकी दृष्टि पड़े वह तत्क्षण परम प्रेममय हो निहाल हो जाए| जो आपको देखे वह भी तत्क्षण धन्य हो जाए|
आप अपने सर्वव्यापी शिवरूप में स्थित हो सम्पूर्ण समष्टि का कल्याण करने अवतरित हुए हो| आप सामान्य मनुष्य नहीं, परमात्मा की अमृतमय अभिव्यक्ति हो, साक्षात शिव परमब्रह्म हो|

भगवान कहीं आसमान से नहीं उतरने वाले, अपने स्वयं के अन्तर में उन्हें जागृत करना होगा| आप में कूटस्थ ज्योतिर्मय ब्रह्म का आलोक ही बाहर के तिमिर का नाश कर सकता है|
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ॐ तत्सत् | अयमात्माब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||

हे जगन्माता, हमारे जीवन में कहीं भी असत्य, अन्धकार, और अधर्म ना रहे .....

हे जगन्माता, हमारे जीवन में कहीं भी असत्य, अन्धकार, और अधर्म ना रहे .....
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हमें इतनी शक्ति, मार्गदर्शन, प्रेरणा, और सामर्थ्य दो कि हम अपने स्वयं के भीतर के, और हमारे राष्ट्र के भीतर और बाहर के सभी शत्रुओं का नाश कर सकें| हमारे जीवन में कहीं भी असत्य, अन्धकार और अधर्म न रहे| हमारी सभी बुराइयाँ और कमियाँ दूर हों|
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हम तुम्हारे अमृतपुत्र हैं| हम चट्टान की तरह अडिग हों, परशु की तरह तीक्ष्ण हों और स्वर्ण की तरह पवित्र हों| हमारे चरित्र में कोई कमी न हो| अपने आवरण को हटाकर हमारा परमशिव से एकाकार करो| माँ. तुम ही हमारी गति हो| हम तुम्हारी शरणागत हैं हमारा पूर्ण समर्पण स्वीकार करो|
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I am one with Thee. I am a perfect child of Thee. Reveal Thyself unto me. मैं तुम्हारे साथ एक हूँ, तुम्हारा पूर्ण पुत्र हूँ, स्वयं को मुझ में व्यक्त करें|
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ॐ सहना भवतु, सहनो भुनक्तु सहवीर्यं करवावहै ।
तेजस्वीनावधीतमस्तु माविद्विषावहै ॥
ॐ शांति:! शांति: !! शांति !!!
ईश्वर हमारा रक्षण करे - हम सब मिलकर सुख का लाभ ले - एक दुसरे के लाभ हेतु प्रयास करें -हम सबका जीवन तेज से परिपूर्ण हो - परस्पर कोई द्वेष या ईर्षा न हो ॥

ॐ शांति शांति शांति|
ॐ तत्सत् | शिवोहं शिवोहं अयमात्माब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||

जिनके जीवनसाथी भारत में प्रसन्न नहीं हैं वे भारत छोड़कर किसी अन्य देश में चले जाएँ तो राष्ट्र का बड़ा हित होगा .....

जिनके जीवनसाथी भारत में प्रसन्न नहीं हैं वे भारत छोड़कर किसी अन्य देश में चले जाएँ तो राष्ट्र का बड़ा हित होगा .....
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मैं राष्ट्रहित में ही यह लिख रहा हूँ ......
>>>> जिनकी पत्नियाँ या पति भारत में प्रसन्न नहीं हैं वे भारत छोड़कर किसी दूसरे देश में चले जाएँ तो बहुत अच्छा होगा| जो भारत में प्रसन्न नहीं हैं वे चले ही जाएँ| यहाँ बचे सब लोगों का बहुत ही भला होगा| जहाँ प्रसन्नता है वहीँ रहना चाहिए|<<<<
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आज से तीस वर्ष पूर्व की बात है| सन 1985 में जापान के कोबे नगर में एक भारतीय इंजिनियर जो मूल रूप से कोलकाता के थे, से मेरा घनिष्ठ परिचय हुआ| जीवन से वे बड़े असंतुष्ट थे| उनकी असंतुष्टि उनकी जापानी पत्नी से जन्मे दो बड़े बड़े बालकों को वे कैसे संस्कार दें, इस दुविधा के कारण थी| जापान में पैसा तो उन्होंने खूब कमाया और टोक्यो में अपना एक बहुत मंहगा निजी मकान भी खरीद रखा था|
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वे कोलकाता में अपने माता-पिता की सेवा करना चाहते थे और उनके साथ ही रहना चाहते थे| बालकों को भी हिन्दू संस्कार देना चाहते थे| पर उनकी पत्नी न तो भारत में रहने को तैयार थी और न उनके माता-पिता को साथ रखना चाहती थी| बच्चों को भी वह जापानी ही बनाना चाहती थी| अंततः उन्होंने आपस में यह निर्णय लेकर कि बच्चे बड़े होकर स्वयं यह तय करें कि वे कहाँ रहेंगे, बच्चों को पढने अमेरिका में लॉस-एंजिलिस भेज दिया| वे स्वयं वहीँ जापान में प्रसन्न थे अतः अंततः वहीँ के हो गए|
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जिनकी पत्नियाँ या पति भारत में असुरक्षित या भयभीत हैं वे अमेरिका या ब्रिटेन चले जाएँ| अंग्रेजों के साथ वे बड़े सुखी रहेंगे| उन सब को मेरी शुभ कामनाएँ| धन्यवाद|
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पुनश्चः :----- अमेरिका के राष्ट्रपति और ब्रिटेन के प्रधानमंत्री आपके स्वागत के लिए वहां के हवाईअड्डे पर तैयार खड़े हैं अतः जाने में विलम्ब न करें| धन्यवाद !


24 November 2015

ह्रदय की घनीभूत पीड़ा .... . यह विक्षेप और आवरण क्यों ? ....

ह्रदय की घनीभूत पीड़ा ....
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यह विक्षेप और आवरण क्यों ? ....
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तुम हो, यहीं हो, बिलकुल यहीं हो, निरंतर मेरे साथ हो, समीपतम हो.....
फिर भी यह विक्षेप और आवरण क्यों है ?.....
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(१) मैं और मेरा सोचने वाला यह मन भी तुम हो.
(२) यह सारी समृद्धि भी तुम हो.
(३) ये साँसें भी तुम हो और जो इन्हें ले रहा है वह भी तुम हो.
(४) यह ह्रदय भी तुम हो और जो इसमें धड़क रहा है वह भी तुम हो.
(५) साधना के मार्ग पर साधक, साध्य और साधन भी तुम हो.
(६) कुछ भी करने की प्रेरणा, संकल्प और शक्ति भी तुम हो.
(७) यह भौतिक देह जिन अणुओं से बनी है वे भी तुम हो.
(८) जो इन आँखों से देख रहा है, जो इन कानों से सुन रहा है, और जो इन पैरों से चल रहा है वह भी तुम हो.

तुम्हें समझने के लिए कुछ तो दूरी चाहिए, वह तो हो ही नहीं सकती .....
विवेक अत्यंत सीमित है ... कुछ समझ में नहीं आ रहा है .....आस्था कहती है श्रुतियाँ प्रमाण हैं .... पर उन्हें समझने की क्षमता ही नहीं है ....... ह्रदय में एक प्रचण्ड अग्नि जल रही है ....... अभीप्सा शांत होने का नाम ही नहीं लेती .......
इस अतृप्त अभीप्सा को सिर्फ तुम्हारे प्रेम की शीतलता ही शांत कर सकती है ...........
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हो सकता है तुम परब्रह्म परमात्मा हो..... सकल जगत् के कारण हो ...... स्थिति और संहार करने वाले हो ..... पर मेरे लिए तो तुम मेरे प्रियतम और अभिन्न ही नहीं मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व हो .......
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तुम ही साक्षीस्वरुप हो ..... तुम ही ब्रह्म हो..... मैं अन्य किसी को नहीं जानता ..... और जानने की इच्छा भी नहीं है.....
अब तुम और नहीं छिप सकते ..... इस शांत आकाश में भी नहीं ....... उत्तुंग पर्वतों के शिखरों और उनकी निविड़ गुहाओं में भी नहीं ..... विशाल महासागरों की गहराइयों में भी नहीं .....
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तुम मुझमें ही छिपे हो .......
जहाँ से तुम्हें प्रकट होना ही होगा .......
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हे त्रिपुरहर ..... स्थूल सूक्ष्म और कारण तुम्ही हो ..... जिसको हरणा हो हर लो ..... जो हरणा हो हर लो..... मुझे इनसे कोई मतलब ही नहीं है ..... मतलब सिर्फ तुम्हीं से है .....
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प्रतीक्षा रहेगी..... कब तक छिपोगे? ..... एक न एक दिन तो स्वयं को मुझमें व्यक्त करोगे ही ..... अनंत काल तक प्रतीक्षा करेंगे ......
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ॐ ॐ ॐ शिवोहं शिवोहं अयमात्मा ब्रह्म | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

November 23, 2015 at 7:07am

बलि किसकी दें ? .... बलि रहस्य .....

बलि किसकी दें ? .... बलि रहस्य .....
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हम क़ुरबानी या बलि किस की दें ? इस विषय पर विचार करते हैं|
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(1) सर्वप्रथम तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि हमारे उपास्य सिर्फ परमात्मा हैं, कोई देवी-देवता नहीं| देवी-देवता इसी सृष्टि के ही भाग हैं और उनका एक निर्धारित कार्य है| यज्ञ में हवि देकर हम उन्हें शक्ति प्रदान कर उनकी सहायता ले सकते हैं, पर उनकी उपासना नहीं| उपासना सिर्फ परमात्मा की ही होती है|
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(2) अपनी वृत्ति को परमात्मा के साथ निरंतर एकाकार करना, यानि अभेदानुसंधान ही उपासना है| इसका शाब्दिक अर्थ है ... पास में बैठना| अकामता ही तृप्ति है| कामना चित्त का धर्म है और उसका आश्रय अंतःकरण है| चित्त की वृत्तियाँ ही वे अज्ञान रूपी पाश हैं जो हमें बाँधकर पशु बनाती हैं| जहाँ इनको आश्रय मिलता है उस अंतःकरण के चार पैर हैं .... मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार|
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(3) ज्ञान रूपी खड़ग से इस अज्ञान रूपी पशु का वध ही वास्तविक बलि देना यानि कुर्बानी है, किसी निरीह प्राणी की ह्त्या नहीं| परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही वास्तविक प्रसाद है| इसके लिए किसी श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त कर उपासना करनी पडती है|
यह है बलि का रहस्य|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

समृद्धि क्या है ? हम समृद्ध कैसे बनें ? ............

समृद्धि क्या है ? हम समृद्ध कैसे बनें ? ............
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भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति ही समृद्धि है| अभी प्रश्न उठता है की हम समृद्ध कैसे बनें ?
समृद्धि आती है अपनी मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक क्षमताओं को विकसित करने से, अतः इन क्षमताओं को विकसित कर के ही हम समृद्ध बन सकते हैं|
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हमें क्या चाहिए और हम क्या चाहते हैं, इसमें बहुत अधिक अंतर है|
हमें जिस भी वस्तु की या परिस्थिति की आवश्यकता हो वह हमें तुरंत प्राप्त हो जाए यह पर्याप्त है और यही समृद्धि है| अपने अहंकार की तृप्ति के लिए वस्तुओं को और धन को एकत्र करना कोई समृद्धि नहीं है|
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ईमानदारी से रुपये कमाना कोई अपराध नहीं है| अपराध तो बेईमानी से अर्जित करना है| रूपयों का सदुपयोग होना चाहिए| दुरुपयोग से हमें भविष्य में दरिद्रता का दुःख भोगना पड़ता है|
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रुपयों की आवश्यकता तो सब को पडती है चाहे वह साधू, संत, वैरागी हो या गृहस्थ| भूख सब को लगती है, ठण्ड और गर्मी भी सब को लगती है, व बिमार भी सभी पड़ते हैं| भोजन, वस्त्र, निवास और रुग्ण होने पर उपचार के लिए धन आवश्यक है|
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अपनी सारी ऊर्जा धन कमाने में लगा देने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता| तरह तरह की बीमारियाँ उसे घेर लेती हैं|
जितना आवश्यक है उतना तो धन सबको कमाना ही चाहिए| पर उसके पश्चात अधिक से अधिक समय परमात्मा के ध्यान में लगाना चाहिए|
आज के युग में समाज अभावग्रस्त है| अतः किसी को समाज पर भार नहीं बनना चाहिए|
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एक आध्यात्मिक पूँजी भी है| उस आध्यात्मिक पूँजी से सम्पन्न होने पर परिस्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि भौतिक पूँजी की भी कमी नहीं रहती|
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प्रकृति , उपलब्ध जीवों की आवश्यकतानुसार ही उत्पन्न करती है| हमें जितने की आवश्यकता है , उससे अधिक पर यदि हम अपना अधिकार समझते हैं तो यह एक हिंसा ही है| आवश्यकता से अधिक का संग्रह "परिग्रह" कहलाता है| पाँच यमों (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) में अपरिग्रह भी है, जिनके बिना हम कोई आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते|
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सभी को शुभ कामनाएँ | ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

November 22, 2015.

भारत में कभी भी "सती-प्रथा" नहीं थी .....

भारत में कभी भी "सती-प्रथा" नहीं थी ......
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भारत में तथाकथित "सती प्रथा" पर एक बहुत बड़े ऐतिहासिक शोध की आवश्यकता है| हम जो पढ़ रहे हैं वह अंग्रेजों और उनके मानस-पुत्रों का लिखा हुआ इतिहास है जो सत्य नहीं है| इस इतने बड़े असत्य का कारण क्या था इस पर यहाँ कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है|
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अंग्रेज जब भारत छोड़कर गए तब उन्होंने अपने समय के यथासंभव सारे दस्तावेज, वे सारे सबूत जला कर नष्ट कर दिए जो उनके द्वारा किये हुए जनसंहार, अत्याचार और भारतीयों को बदनाम करने के लिए किये गए कार्यों को सिद्ध कर सकते थे| उन्होंने करोड़ों लोगों की हत्याएँ कीं, दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न कर करोड़ों को भूख से मरने को विवश किया और हिंदुत्व को बदनाम करने व भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए अनेक दुष्कृत्य किये जैसे भारत की शिक्षा व्यवस्था व कृषि प्रणाली को नष्ट करना, हिन्दू धर्मग्रंथों को प्रक्षिप्त करवाना, झूठा इतिहास लिखवाना, आदि आदि| भारत को बहुत धूर्तता, निर्दयता और क्रूरता से बुरी तरह उन्होंने लूटा| पश्चिम की सारी समृद्धि भारत से लूटे हुए धन के कारण ही है| मूल रूप से वे समुद्री लुटेरे थे और भारत में लुटेरों के रूप में लूटने के उद्देश्य से ही आये थे|
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भारत में अंग्रेज़ी शासन स्थापित करने के पश्चात अँगरेज़ शासकों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या थी अँगरेज़ सिपाहियों, कर्मचारियों और अधिकारियों को छुट्टी पर इंग्लैंड बापस जाने से रोकना| वे किसी भी कीमत पर उन्हें यहीं रोकना चाहते थे| इसके लिए उन्होंने भारत में अँगरेज़ कर्मचारियों, अधिकारियों और सिपाहियों के लिए वैश्यालय स्थापित किये| भारत के इतिहास में कभी भी व्यवस्थित रूप से वैश्यावृति नहीं थी, वेश्यालयों की तो भारत में कभी कल्पना भी नहीं की गयी थी|
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अंग्रेजों ने सबसे पहिले अपना शासन वर्त्तमान कोलकाता से आरम्भ किया था अतः अपना शासन स्थापित होते ही उन्होंने कोलकाता के सोनागाछी में एशिया का सबसे बड़ा वैश्यालय स्थापित किया| उनकी सबसे बड़ी छावनी भी बंगाल में ही हुआ करती थी| अब उन्हें वैश्या महिलाओं की आवश्यकता थी, अतः उन्होंने अपने शासन के आरम्भ में बंगाल में किसी भी विधवा हुई महिला को बलात बन्दूक की नोक पर अपहृत कर के वैश्या बनने को बाध्य करना आरम्भ कर दिया| बाद में वे विधिवत रूप से गुपचुप छद्म रूप से भारतीय युवतियों का अपहरण करने लगे और उन्हें वैश्या बनने को बाध्य करने लगे| यह कार्य उन्होंने अति निर्दयता और क्रूरता से किया|
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एक बात पर गौर कीजिये कि तथाकथित सती प्रथा वहीं थी जहां अंग्रेजों की छावनियाँ थीं, अन्य कहीं भी नहीं| इसकी प्रतिक्रया यह हुई कि अपनी रक्षा के लिए हिन्दू समाज ने बाल विवाह आरम्भ कर दिए और विधवाओं की अँगरेज़ सिपाहियों से रक्षा के लिए विधवा दहन आरम्भ कर दिये| पर्दा प्रथा भी यहीं से चली|
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इससे पूर्व भारत में अरब, फारस और मध्य एशिया से आये लुटेरों ने भी यही कार्य किया था पर उन्होंने कभी वैश्यालय स्थापित नहीं किये| वे अपने साथ महिलाओं को तो लाये नहीं थे अतः उन्होंने हिन्दुओं की ह्त्या कर के उनकी महिलाओं का अपहरण कर के उनके साथ अपने घर बसाए| जिन हिन्दुओं की वे ह्त्या करते थे उनकी भूमि और महिलाओं पर अपना अधिकार कर लेते थे|
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अंग्रेजों ने फिर मुम्बई में फारस रोड़ पर और जहाँ जहाँ भी वे गए, वहाँ वहाँ अपने सिपाहियों और कर्मचारियों के लिए वैश्यालय स्थापित किये|
हिन्दू महिलाएँ इन विदेशी आक्रमणकारियों से अपनी रक्षा के लिए ही आत्मदहन को बाध्य होने लगीं|
यह था भारत में तथाकथित सती प्रथा यानि महिला दहन का कारण|
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भारत में राजा राममोहन रॉय को बहुत बड़ा समाज सुधारक बताया जाता है, जो वास्तव में एक झूठ है| निःसंदेह वे बहुत बड़े विद्वान् थे पर अंग्रेजी शासन के सबसे बड़े समर्थक भी थे| अंग्रेजी शासन, अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी सभ्यता की प्रशंसा जितनी उन्होंने की उतनी शायद ही किसी अन्य भारतीय ने की होगी| उन्होने स्वतंत्रता आन्दोलन में कोई प्रत्यक्ष भाग नहीं लिया, और उनकी अन्तिम सांस भी ब्रिटेन में ही निकली|
अंग्रेजों ने पुरष्कार में उन्हें बहुत बड़ी जमींदारी दी थी, अतः अपनी जमींदारी को चमकाते हुए भारतीय समाज में हीन भावना भरने का ही कार्य उन्होंने किया| वे अंग्रेजों के अदृष्य सिपाही थे| भारत में अंग्रेजी राज्य और गुलामी को स्थापित करने में उनका बहुत बड़ा योगदान था| वे कभी अंग्रेजों की कूटनीति को समझ नहीं सके और भारत का सही मार्गदर्शन नहीं कर पाए|
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भारत का वर्त्तमान इतिहास भारत के शत्रुओं ने ही लिखा है, जिस पर एक बहुत बड़े शोध और पुनर्लेखन की आवश्यकता है| भारत में सतीप्रथा नाम की कोई प्रथा थी ही नहीं| यह अंग्रेजों और उनके मानसपुत्रों द्वारा फैलाया गया झूठ है कि भारत में कोई सतीप्रथा नाम की कुप्रथा थी| भारत में मध्यकाल में जिन लाखों क्षत्राणियों ने जौहर किया था वह उन्होंने विदेशी अधर्मी आक्रान्ताओं से अपनी रक्षा के लिए किया| आज़ादी के बाद भारत में दो चार घटनाएँ हुईं उनके पीछे का कारण अज्ञान और अशिक्षा ही हो सकता है, अन्य कुछ नहीं|
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भारत का भविष्य बहुत उज्जवल है| एक पुनर्जागरण आरम्भ हो रहा है| आगे आने वाला समय अच्छा ही अच्छा होगा| एक आध्यात्मिक क्रांति का भी आरम्भ हो चुका है और भविष्य में भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

यथा व्रजगोपिकानाम् .....

यथा व्रजगोपिकानाम् .....
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यथा व्रजगोपिकानाम् (जैसे व्रज की गोपिकाएं) ..... यह नारद भक्ति सूत्रों के प्रथम अध्याय का इक्कीसवां सूत्र है|
"गोपी" किसी महिला का नाम नहीं अपितु जो भी श्रीकृष्ण प्रेम अर्थात परमात्मा के प्रेम में स्वयं प्रेममय हो जाए वही "गोपी" है| हर समय निरंतर श्रीकृष्ण अर्थात् परमात्मा का चिंतन ध्यान करने वाले ही गोपी कहलाते हैं| उनका प्रेम गोपनीय यानि किसी भी प्रकार के दिखावे से रहित स्वाभाविक होता है| ऐसी भक्ति के प्राप्त होने पर मनुष्य न किसी वस्तु की इच्छा करता है, न द्वेष करता है, न आसक्त होता है, और न उसे विषय-भोगों में उत्साह होता है|
व्रज .... भक्ति की भावभूमि है|
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जैसी भक्ति व्रज की गोपिकाओं को प्राप्त हुई,वैसी ही भक्ति हम सब को प्राप्त हो| ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा की उपासना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है .....

परमात्मा की उपासना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है .....
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ईश्वर उपासना मनुष्य का स्वभाविक धर्म है, वैसे ही जैसे नदियों का धर्म महासागर में मिल जाना है| कोई भी नदी जब तक महासागर में नहीं मिलती तब तक चंचल और बेचैन रहती है| समुद्र में मिलते ही नदी समुद्र के साथ एक हो जाती है| उपासना विकास की प्रक्रिया है, जो शरणागति और समर्पण द्वारा मनुष्य को परमात्मा से एकाकार कर देती है|

एक बार परमात्मा से परम प्रेम हो जाए फिर आगे का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त हो जाता है| ॐ ॐ ॐ ||

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति .....

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति .....
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यह नारद भक्ति सूत्र के प्रथम अध्याय का छठा सूत्र है जो एक भक्त की तीन अवस्थाओं के बारे में बताता है| उस परम प्रेम रूपी परमात्मा को जानकर यानि पाकर भक्त प्रेमी पहिले तो मत्त हो जाता है, फिर स्तब्ध हो जाता है और अंत में आत्माराम हो जाता है, यानि आत्मा में रमण करने लगता है|

शाण्डिल्य सूत्रों के अनुसार आत्म-तत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग ही भक्ति है| भक्त का आत्माराम हो जाना निश्चित है|
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जो भी अपनी आत्मा में रमण करता है उसके लिये "मैं" शब्द का कोई अस्तित्व नहीं होता|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

साधू, सावधान ! ,,,,,

साधू, सावधान !
मैं जब परमात्मा के अतिरिक्त अन्य बातों पर अधिक ध्यान देता हूँ तो यह माया की महिमा ही है जो मुझे भटका रही है|

वास्तव में मेरे अन्तःकरण में सिवाय परमात्मा के अन्य कुछ भी नहीं रहना चाहिए|
मैं जब अन्य बातें करता हूँ तब यह मेरा भटकाव ही है| अब निरंतर सावधान रहना होगा| साधू, सावधान !
यह "मैं" भी एक भटकाव है क्योंकि जो आत्मा में रमण करता है उसके लिए "मैं" का कोई महत्व नहीं है|

(मेरी अच्छी बातों पर ही ध्यान दीजिये, बुरी बातों पर नहीं | परमात्मा के विस्मरण से बुरी बात अन्य कोई नहीं है|)

संधिक्षणों में सर्वश्रेष्ठ क्षण ......

पुनर्प्रेषित (Re posted)
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संधिक्षणों में सर्वश्रेष्ठ क्षण ......
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"संध्या" हमारी साधना का सर्वश्रेष्ठ शुभ मुहूर्त होता है|
संधिक्षणों में की गयी साधना को "संध्या" कहते हैं|
संधिक्षणों में मन्त्रचेतना अति प्रबल रहती है और साधना में सिद्धि भी आसानी से मिल जाती है|
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प्रातःकाल , मध्याह्न, सायंकाल, और मध्यरात्रि ये चार सन्धिक्षण संध्याकाल कहलाते हैं|
इन चारों में मध्यरात्रि की संध्या सर्वश्रेष्ठ और सर्वाधिक फलदायी है| इसे तुरीय संध्या भी कहते हैं| रात्रि को घर के सब सदस्य जब सो जाएँ तब घर में किसी भी प्रकार का शोरगुल या व्यवधान नहीं होता| अर्धरात्रि वैसे भी निःस्तब्ध और शांत होती है| उस समय चुपके से उठकर एकांत में बैठकर पूर्ण भक्ति से परमात्मा का ध्यान करना चाहिए| जो मंत्रसाधना करते हैं उन्हें इस काल में खूब मंत्र जपना चाहिए|
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जब परमात्मा के प्रति अहैतुकी परमप्रेम जागृत हो जाए तब कर्मकांड का कोई महत्व नहीं है| शरणागत होकर पूर्ण प्रेम (भक्ति) से समर्पित होने का निरंतर प्रयास ही साधना है| परमात्मा को उपलब्ध होने के अतिरिक्त हमें और कुछ भी नहीं चाहिए| हमारा समर्पण सिर्फ परमात्मा के प्रति है| किसी भी तरह की अन्य कोई कामना आये तो उसे विष के सामान त्याग देना चाहिए| परमात्मा की इच्छा ही हमारी इच्छा है और उसकी कामना ही हमारी कामना है|
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साधना में कोई भी कठिनाई आये तो उसके निराकरण के लिए भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए| प्रभु का चिंतन और ध्यान इतना गहन हो कि प्रभु ही हमारी चिंता करें| हमारी चिंता सिर्फ प्रभु की ही हो|
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परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी ना देखें, अन्य कहीं भी दृष्टी ना डालें, हमारा ज्वलन्त लक्ष्य सदा हमारे सामने रहे| साधना इतनी गहन हो कि साध्य, साधन और साधक एक हो जाएँ| कहीं भी कोई भेद ना रहे| शुभ कामनाएँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||


पुनश्चः :---- आते-जाते और जाते-आते साँस के मध्य का क्षण भी योगियों के लिए सन्धिक्षण होता है| इसलिए हर साँस पर परमात्मा का ध्यान होना चाहिए|

19 नवम्बर 2015

सामूहिक प्रार्थना ......

सामूहिक प्रार्थना ......
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प्रार्थना की एक विधि है जो बहुत प्रभावी है| सामान्यतः प्रार्थना जन कल्याण के लिए ही होती है| हम समष्टि का यानि सभी का भला चाहते हैं इसीलिए प्रार्थना करते हैं| समष्टि के कल्याण में ही हमारा कल्याण है|
उपास्य देव को या किसी को नमन और प्रार्थना करने के लिए परम्परागत रूप से हम हाथों को जोड़कर गले के सामने लाते हैं और सिर झुकाते हैं|
 

ध्यान दीजिये जब हम हाथ जोड़ते हैं तब दोनों हाथ विशुद्धि चक्र के सामने होते हैं, और सिर झुकाते ही अंगूठे स्वतः ही भ्रूमध्य को स्पर्श कर जाते हैं|
उस समय अनायास ही हमारी अँगुलियों से सूक्ष्म स्पस्न्दन सामने उपास्य तक निश्चित पहुँच जाते हैं|

जब हम बहुत भाव विह्वल होकर प्रार्थना करते हैं तब हमारे दोनों हाथ अपने आप ही ऊपर उठ जाते हैं, जैसे "जय जय श्री राधे" या "हर हर महादेव" बोलते समय हो जाते हैं| उस समय हमारी अँगुलियों से दिव्य स्पंदन निकल कर ब्रह्मांड में फ़ैल जाते हैं और सभी का भला करते हैं| इस विधि का प्रयोग प्रायः मैं नित्य करता हूँ और बड़ी अच्छी अनुभूतियाँ होती हैं|

उपरोक्त प्रक्रिया की वैज्ञानिकता पर विचार कर के मैं इस निर्णय पर पहुँचा हूँ......
अनाहत चक्र और आज्ञाचक्र के मध्य का क्षेत्र एक गहन चुम्बकीय क्षेत्र है| इसके मध्य में हम यदि हथेलियों का घर्षण करेंगे या एक दुसरे के चारों ओर चक्राकार तीब्र गति से घुमाएँगे तो हमारी अँगुलियों में एक विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होती है, यानि एक सूक्ष्म electromotive force का induction होता है|
इस अवधि में हमारी दृष्टी भ्रूमध्य पर होनी चाहिए| जब हमें लगे कि हमारी अंगुलियाँ ऊर्जा से भर गयी हैं, तब हम अपने दोनों हाथों को ऊपर उठायें और ओम् की ध्वनी के साथ उस ऊर्जा को किसी संकल्प के साथ छोड़ दें| उसी समय से वह संकल्प पूरा होना आरम्भ हो जाएगा| यह संकल्प हम जन-कल्याण के लिए भी कर सकते हैं और किसी को रोग मुक्त करने के लिए भी| यह प्रयोग समष्टि के कल्याण हेतु नित्य कीजिये| समष्टि के कल्याण में ही हमारा कल्याण है|

यदि हम एक समूह में खड़े होकर नित्य एक निश्चित समय पर उपरोक्त विधि से समष्टि के कल्याण के लिए परमात्मा से प्रार्थना करेंगे तो हमारी प्रार्थनाएँ भी प्रभावी होंगी और हम परमात्मा के उपकरण भी होंगे| सच्चे ह्रदय से की गयी सामूहिक प्रार्थनाएँ बहुत अधिक प्रभावी होती हैं| जितना हम देंगे उससे अधिक प्राप्त करेंगे|

ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

विश्व के विनाश और तृतीय विश्वयुद्ध या भविष्य में होने वाले किसी भी युद्ध का कारण मनुष्य का द्वेष (घृणा) और लोभ होगा .....

विश्व के विनाश और तृतीय विश्वयुद्ध या भविष्य में होने वाले किसी भी युद्ध का कारण मनुष्य का द्वेष (घृणा) और लोभ होगा .....
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यह लेख लिखते समय मेरे मन में किसी के प्रति भी कोई दुराग्रह, लोभ, घृणा या कोई द्वेष नहीं है| पूर्ण जिम्मेदारी और अपने निज अनुभवों से लिख रहा हूँ| मुझे योरोप के अनेक देशों, अमेरिका, कनाडा, और मुस्लिम देशों में सऊदी अरब, मिश्र, तुर्की, मोरक्को और दक्षिणी यमन जाने का अवसर मिला है| एशिया के मुस्लिम देशों में बांग्लादेश, मलेशिया और इंडोनेशिया भी जाने का अवसर मिला है| पूर्व सोवियत संघ में मध्य एशिया के अनेक मुसलमानों से मेरा परिचय था| मैंने रूसी भाषा जिस अध्यापिका से सीखी वह एक तातार मुसलमान थी| युक्रेन के ओडेसा नगर में एक अति विदुषी वयोवृद्ध तातार मुस्लिम महिला ने मुझे एक बार भोजन पर अपने घर निमंत्रित किया था| ये महिला दस वर्ष तक चीन में एक राजनीतिक बंदी रह चुकी थी| उनसे काफी कुछ जानने का अवसर मिला| अतः मैं योरोप के देशों और मुस्लिम विश्व की मानसिकता को बहुत अच्छी तरह समझता हूँ और अपने अध्ययन से प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व की स्थिति से भी अवगत हूँ| आज लगभग वैसी ही स्थिति बन रही है जो प्रथम विश्व युद्ध से पूर्व थी| विश्व के भूगोल का भी मुझे बहुत अच्छा ज्ञान है और विश्व के इतिहास का भी अल्प अध्ययन है|
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इस समय पृथ्वी पर दो तरह की शक्तियां काम कर रही हैं ..... एक तो वह जो विश्व को युद्ध में धकेलना चाहती है, और दूसरी वह जो युद्ध को टालना चाहती है| वर्तमान में मनुष्य की मानसिकता, चिंतन और विचार इतने दूषित हो गए हैं कि युद्ध अपरिहार्य सा ही लगता है| अपने विचारों और सोच को सात्विक बना कर ही हम विनाश को टाल सकते हैं| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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कोई मेरी बात को माने या न माने पर यह सत्य है कि विश्व की दुर्गति का एकमात्र कारण मनुष्य जाति के हिंसा, लोभ, अहंकार और वासना के भाव ही हैं| मनुष्य इतना हिंसक और भोगी हो गया है कि वह स्वयं ही स्वयं के विनाश को आमंत्रित कर रहा है| मनुष्य का स्वार्थी होना भी प्रबल हिंसा ही है|
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कोई भी विचार और संकल्प जिस पर आप दृढ़ रहते हैं वह विश्व के घटनाक्रम पर निश्चित रूप से प्रभाव डालता है|
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वर्तमान में विश्व में हो रहा घटनाक्रम तृतीय विश्वयुद्ध का कारण बन सकता है| अमेरिका के स्वार्थ इतने अधिक हैं कि वह भविष्य में युद्ध को नहीं टाल पायेगा| जर्मनी की आतंरिक परिस्थितियाँ उसे तटस्थ रखेंगी| जर्मनी में इस समय इतनी क्षमता नहीं है कि वह कोई युद्ध लड़ सके|
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इस समय मध्य पूर्व में तनाव का कारण .....
शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच की घृणा,
जेहादी मानसिकता,
ईसाइयों व मुसलमानों में द्वेष,
और पश्चिमी देशों व अमेरिका की तेल के स्त्रोतों पर अधिकार बनाए रखने की लालसा है|
इसी तरह दक्षिण चीन सागर में उस क्षेत्र के देशों के आर्थिक हित आपस में टकरा रहे हैं जो कभी भी युद्ध का कारण बन सकते हैं| भारत के भी आर्थिक हित उस क्षेत्र में हैं|
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अमेरिका व कुछ पश्चिमी देशों ने तेल उत्पादक देशों पर अपना वर्चस्व बनाकर रखा है| ये चाहते हैं कि जब तक यहाँ पर तेल है तब तक इनका वर्चस्व बना रहे| वे अरब देशों को बहुत बुरी तरह निचोड़ कर ही छोड़ेंगे|
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इराक में शिया वहाँ की कुल आबादी का लगभग पैंसठ प्रतिशत हैं, पर विगत में वहाँ का शासन सुन्नियों के हाथों में रहा था जिन्होंने शियाओं को दबाकर रखा| जब ईरान में इस्लामी क्रांति हुई तब वहाँ के नए शासकों ने वहाँ के राजा शाह पहलवी को तो भगा ही दिया, साथ साथ अमेरिका को भी बाहर का रास्ता दिखा दिया| अमेरिका ने अपमानित महसूस कर ईरान से बदला लेने के लिए इराक को भारी मात्रा में हथियार दिए और शतअलअरब पर अधिकार के लिए इराक व ईरान को आपस में लड़ाया जिसमें दोनों देशों के अनगिनत लाखों लोग मारे गए| इस युद्ध से किसी को भी लाभ नहीं हुआ था| इराक को अमेरिका ने ही शक्तिशाली बनाया था| जब इराक ने अमेरिकी वर्चस्व को मानने से मना कर दिया तो अमेरिका ने बिलकुल झूठे बहाने बनाकर ईराक पर आक्रमण कर दिया और उस देश को बर्बाद कर दिया| इससे पूर्व के घटनाक्रम में इराक को कुवैत पर अधिकार करने के लिए भी अमेरिका ने ही उकसाया था| अमेरिका के झाँसे में आकर इराक ने कुवैत पर अधिकार कर लिया जिससे अमेरिका को इराक पर आक्रमण करने का बहाना मिल गया| उस युद्ध में अमेरिका ने एक पाई भी खर्च नहीं की, सारा खर्च सऊदी अरब से वसूल किया| अपने देश के जनमत के दबाब के कारण अमेरिका जब इराक से हटा तो वहाँ चुनाव करवाए जिससे बहुमत के कारण शिया लोगों का शासन स्थापित हो गया और सुन्नियों में असंतोष फ़ैल गया|
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सीरिया में स्थिति इसके विपरीत है| वहाँ सुन्नी बहुमत है पर शासन एक शिया तानाशाह असद के हाथ में है जो सुन्नियों को क्रूरता से दबा कर रखता है| सुन्नियों ने असद के विरुद्ध विद्रोह किया| अमेरिका भी असद को हटाना चाहता है इसलिए उसने सुन्नियों की सहायता की| पर असद ने अपने समर्थन में अमेरिका के प्रतिद्वंद्वी रूस को अपने देश में बुला लिया| रूस ने सीरिया में अपने सैन्य अड्डे स्थापित कर लिए और खुल कर असद के समर्थन में आ गया| अप्रत्यक्ष रूप से इस कार्य में ईरान ने पूरा सहयोग किया|
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असद के विरोध में अमेरिका ने सीरिया के सुन्नी मुसलमानों को उकसाया जिन्होनें इराक के सुन्नी मुसलमानों के साथ मिलकर ISIS (इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया) की स्थापना कर ली| इस दुर्दांत आतंकी संगठन को आरम्भ में शस्त्रास्त्र अमेरिका ने ही दिए| ISIS अमेरिका की सहायता से खूब शक्तिशाली बन गया| उसने सीरिया और इराक के बहुत बड़े भूभाग और तेल के कुओं पर अधिकार कर लिया और बहुत समृद्ध और प्रभावशाली बन गया|
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ISIS ने इराक की सेना को भगा दिया और उसके हज़ारों शिया सैनिकों की ह्त्या कर दी| फिर शक्तिशाली होकर ISIS अपनी मनमानी पर उतर आया और उसने शिया व अन्य गैर सुन्नियों की ह्त्या का अभियान चला दिया| उसने लाखों शियाओं, यज़ीदियों और कुर्दों की निर्ममता से ह्त्या कर दी व उनकी महिलाओं और बच्चों को गुलाम बनाकर बेच दिया| इससे शिया और सुन्नियों में एक स्थायी विभाजन और घृणा हो गयी है|
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ISIS यहीं पर नहीं रुका| उसने अपने नक्शों में पूरा योरोप, भारत, श्रीलंका, म्यांमार और थाईलैंड तक को दिखा दिया और पूरे विश्व पर वहाबी सुन्नियों के राज्य का संकल्प कर डाला| ISIS का लक्ष्य है कि या तो सभी उसके अनुयायी बन जाएँ या उसके गुलाम बनने या मरने के लिए तैयार हो जाएँ| उसका लक्ष्य सम्पूर्ण विश्व पर अपनी सत्ता स्थापित करने का है|
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जब उसने ईसाइयों की ह्त्या करनी आरम्भ कर दी तब अमेरिका ने उसके विरुद्ध आधे मन से कारवाई आरम्भ कर दी| अमेरिका कभी भी ISIS को समाप्त नहीं करना चाहता था, वह सिर्फ उसका उपयोग करना चाहता था| यहाँ यह बताना चाहूंगा कि जब लेबनान के गृहयुद्ध में अधिकांश ईसाईयों की वहाँ के मुस्लिम चरम पंथियों ने ह्त्या कर दी थी तब से योरोप में ईसाईयों और मुसलमानों के मध्य में भी घृणा की एक दीवार खिंच गयी है|
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एक बार दो बिल्लियाँ एक रोटी के लिए लड़ पड़ीं| उन्होंने एक बन्दर को आधी आधी रोटी बराबर बाँटने के लिए न्यायाधीश बनाया| बन्दर ने वह रोटी आधी आधी कर के एक तराजू के दोनों पलड़ों पर रख दी| जिधर पलड़ा भारी होता उधर से बन्दर रोटी तोड़ कर खा जाता| इस तरह बन्दर सारी रोटी खा गया और बिल्लियों को कुछ भी नहीं मिला| इस कहानी से आप सब कुछ समझ सकते हैं| अमेरिका वह पुलिस और न्यायाधीश है जो दुनिया को लड़ाकर उनसे कमाई कर रहा है|
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इस लेख में मैंने कम से कम शब्दों में मध्यपूर्व की स्थिति को स्पष्ट कर दिया है जो एक विश्व युद्ध में बदल सकती है| एक बात याद रखें कि जो दूसरों को तलवार से काटता है वह स्वयं भी तलवार से ही काटा जाता है|
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जो सर्वश्रेष्ठ योगदान आप कर सकते हो वह यह है कि .....
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(१) भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से आप स्वयं शक्तिशाली बनो| भगवान सिर्फ मार्गदर्शन कर सकते हैं, शक्ति दे सकते हैं पर आपको स्वयं की रक्षा तो स्वयं को ही करनी होगी| अलग से आपकी रक्षा के लिए भगवान नहीं आयेंगे| भगवान उसी की रक्षा करेंगे जो स्वयं की रक्षा करेगा|
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(२) स्वयं के जीवन में परमात्मा को केंद्रबिंदु बनाओ| राग, द्वेष और अहंकार से ऊपर उठकर निरंतर परमात्मा की चेतना में रहने का अभ्यास करो|
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(३) नित्य समष्टि यानि सब के कल्याण के लिए भगवान से प्रार्थना करो|
जब अनेक लोग मिलकर एक साथ अपने हाथ उठाकर सब के कल्याण की प्रार्थना करते हैं तब निश्चित रूप से उसका प्रभाव पड़ता है|
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सबका कल्याण हो, सब सुखी रहें, कोई भूखा, बीमार या दरिद्र न रहे | सब में पारस्परिक सद्भाव और प्रेम हो | सब में प्रभु के प्रति अहैतुकी परम प्रेम जागृत हो |
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ॐ विश्वानि देव सवितः दुरितानि परासुव यद् भद्रं तन्न्वासुव | ॐ शांति शांति शांतिः ||
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कृपा शंकर
१८ नवम्बर २०१५

मात्र आध्यात्मिक/धार्मिक पुस्तकें/लेख पढने से या मात्र प्रवचन सुनने से कुछ नहीं होगा .....

मात्र आध्यात्मिक/धार्मिक पुस्तकें/लेख पढने से या मात्र प्रवचन सुनने से कुछ नहीं होगा|
सत्य का बोध स्वयं करना होगा, दूसरा कोई यह नहीं करा सकता|
माया के वशीभूत होकर हम निरंतर भ्रमित हो रहे हैं|
सच्चिदानंद के प्रति पूर्ण परम प्रेम जागृत कर उनको पूर्ण समर्पित होने का निरंतर प्रयास ही साधना है और पूर्ण समर्पण ही लक्ष्य है|
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नित्य नियमित ध्यान साधना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है| अन्यथा परमात्मा को पाने की इच्छा ही समाप्त हो जाती है| मन पर निरंतर मैल चढ़ता रहता है जिस की नित्य सफाई आवश्यक है|
सप्ताह में एक दिन (हो सके तो गुरुवार को) अन्य दिनों से कुछ अधिक ही समय परमात्मा को देना चाहिए| जो भी समय हम परमात्मा के साथ बिताते हैं, वह सबसे अधिक मुल्यवान है| अतः कुछ अधिक समय अपनी व्यक्तिगत साधना में बिताएँ|
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हे सच्चिदानंद गुरु रूप परम ब्रह्म आपको नमन !
मेरे कूटस्थ चैतन्य में आप निरंतर हैं| मेरी हर साँस, मेरी हर सोच, मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व आप ही हैं| आपको बारंबार नमन !

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Wednesday, 16 November 2016

मुक्त और पारदर्शी अर्थव्यवस्था ........

मुक्त और पारदर्शी अर्थव्यवस्था ........
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अर्थशास्त्र कभी कभी अनर्थशास्त्र भी हो सकता है| भारत का अर्थशास्त्र ..... अनर्थशास्त्र में परिवर्तित हो रहा था जिसकी रक्षा का कार्य माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने आरम्भ किया है| इसके लिए उन्हें शुभ कामनाएँ देता हुआ कुछ सुझाव देना चाहता हूँ|
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आप इस लेख को शेयर ही नहीं copy/paste भी कर सकते हैं, अपने नाम से छाप भी सकते हैं, पर कैसे भी इसे भारत की आर्थिक सता के गलियारों तक और अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाइये| यह मेरी आपसे प्रार्थना है|
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भारत की अर्थव्यवस्था को मुक्त व पारदर्शी बनाने के लिए मुद्रा का प्रयोग कम से कम होना चाहिए| इसके लिए सारा लेन-देन बैंकों के माध्यम से डिजिटल हो|
इसके लिए सरकार को चाहिए कि ......

(1) स्वाईप मशीनों का अधिक से अधिक प्रयोग करने के लिए दुकानदारों को प्रोत्साहित किया जाए| स्वाइप करने पर एक बार तो कुछ वर्षों तक कोई ट्रांजेक्शन फीस न हो| डेबिट/क्रेडिट कार्डों से ही अधिक से अधिक खरीददारी और बिक्री हो| वर्तमान में गुजरात में अधिक से अधिक खरीददारी डेबिट कार्डों से ही होती है| यहाँ तक कि होटल/रेस्टोरेंट वाले भी भुगतान स्वाइप मशीन पर डेबिट कार्डों से स्वीकार करते हैं|
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(2) चेकबुक के प्रयोग को प्रोत्साहित किया जाए| किसी को भेंट में रुपये पैसे देने हों तो वे चेक़ से ही दिए/लिए जाएँ|
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(3) सारे सरकारी भुगतान डिजिटल हों| नकदी के प्रयोग को हतोत्साहित किया जाए|
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मुझे यह देखकर प्रसन्नता होती है कि कम पढ़े लिखे लोग भी आजकल डिजिटल लेन-देन को समझते हैं|
माननीय श्री नरेन्द्र मोदी का उद्देश्य सफल हो| शुभ कामनाएँ|
ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः >>>>>
बड़ी राशि के लेन-देन के लिए डेबिट/क्रेडिट कार्ड, चेक बुक, payTm, डिजिटल ट्रांसफर आदि का प्रयोग करें|
छोटी राशि के लिए १००, ५०, २०, १०, ५ के नोट और सिक्कों का प्रयोग करें|
देशद्रोहियों, जमाखोरों, नक्सलियों, वामपंथियों और जिहादी आतंकियों की तरह परेशान मत होइए| भारत सरकार पर विश्वास कीजिये और माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी को पूर्ण समर्थन दीजिये, उनका कोई विकल्प नहीं है|

पञ्चमुखी महादेव .....

पञ्चमुखी महादेव .....
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ब्रह्मांड पाँच तत्वों से बना है ..... जल, पृथ्वी, अग्नि, वायु और आकाश| भगवान शिव पंचानन अर्थात पाँच मुख वाले है| शिवपुराण के अनुसार ये पाँच मुख हैं .....
ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात|
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(1) भगवान शिव के ऊर्ध्वमुख का नाम 'ईशान' है जो आकाश तत्व के अधिपति हैं| इसका अर्थ है सबके स्वामी|

(2) पूर्वमुख का नाम 'तत्पुरुष' है, जो वायु तत्व के अधिपति हैं|
(3) दक्षिणी मुख का नाम 'अघोर' है जो अग्नितत्व के अधिपति हैं|
(4) उत्तरी मुख का नाम वामदेव है, जो जल तत्व के अधिपति हैं|
(5) पश्चिमी मुख को 'सद्योजात' कहा जाता है, जो पृथ्वी तत्व के अधिपति हैं|
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भगवान शिव पंचभूतों (पंचतत्वों) के अधिपति हैं इसलिए ये 'भूतनाथ' कहलाते हैं|
भगवान शिव काल (समय) के प्रवर्तक और नियंत्रक होने के कारण 'महाकाल' कहलाते है| काल की गणना 'पंचांग' के द्वारा होती है| काल के पाँच अंग ..... तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण हैं|
रुद्राक्ष सामान्यत: पंचमुखी ही होता है|
शिव-परिवार में भी पांच सदस्य है..... शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदीश्वर| नन्दीश्वर साक्षात धर्म हैं|
शिवजी की उपासना पंचाक्षरी मंत्र .... 'नम: शिवाय' द्वारा की जाती है|
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शिव का अर्थ है ..... कल्याणकारी| शंभू का अर्थ है ..... मंगलदायक| शंकर का अर्थ है ..... शमनकारी और आनंददायक|
ब्रहृमा-विष्णु-महेश तात्विक दृष्टि से एक ही है| इनमें कोई भेद नहीं है|
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योगियों को कूटस्थ में एक स्वर्णिम आभा के मध्य एक नीला प्रकाश दिखाई देता है जिसके मध्य में एक श्वेत पंचकोणीय नक्षत्र दिखाई देता है...... जो पंचमुखी महादेव ही है| गहन ध्यान में योगीगण उसी का ध्यान करते हैं|
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शिव-तत्व को जीवन में उतार लेना ही शिवत्व को प्राप्त करना है और यही शिव होना है| यही हमारा लक्ष्य है|
ॐ नमः शंभवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च || ॐ नमःशिवाय || ॐ ॐ ॐ ||

यह मैं एक अनुभूत सत्य कह रहा हूँ .......

यह मैं एक अनुभूत सत्य कह रहा हूँ .......
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हमारे मन में यदि यश की, प्रशंसा की और प्रसिद्धि की कामना है तो ये हमें प्राप्त तो हो जायेंगी पर साथ साथ इसका निश्चित दंड भी अपयश, निंदा, और अपकीर्ति (बदनामी) के रूप में भुगतना ही पड़ेगा|
इसके विस्तार में नहीं जाऊंगा, इतना ही पर्याप्त है|
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जो कुछ भी हम इस सृष्टि में प्राप्त करना चाहते हैं वह तो हमें मिलता ही है पर उसका विपरीत भी निश्चित रूप से मिलता है| यह प्रकृति का नियम है|
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इस से बचने का एक ही उपाय है ........ हम कर्ताभाव, कामनाओं और अपेक्षाओं से मुक्त हों| इसके लिए हमें साधना/उपासना करनी ही पड़ेगी|
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भगवान परमशिव सब का कल्याण करें | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

मेरा काला धन ....

मेरा काला धन ....
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किसी मित्र ने आज मुझ से पूछा कि मेरे पास कितना काला धन है?
मेरा उत्तर था पाँच-छः बोरियों में खूब सारा काला धन घर के पिछवाड़े में पडा है जिसमें से आप चाहे जितना फ्री में ले सकते हैं|
उनकी उत्सुकता और अधिक बढ़ गई जब मैंने कहा कि काले धन को जलाकर मैं नित्य नहाने के लिए पानी गर्म करता हूँ|
उन्होंने देखने की इच्छा प्रकट की|
मैंने घर के पिछवाड़े में बोरियों में भरे कोयले और लकडियों को दिखाया कि यह ही मेरा काला धन है जो पानी गर्म करने के काम आता है|
पास में ही ईंटों पर रखे लोहे के जुगाड़ चुल्हे को देखकर वे समझ गए कि मैं लकडियाँ जलाकर नहाने का पानी गर्म करता हूँ और हर बार लकडियाँ बुझाने के पश्चात कुछ कोयले बच जाते हैं जिन्हें मैं काला धन कहता हूँ|
तो मित्रो, ये लकड़ियों के कोयले ही मेरा काला धन हैं|
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एक हज़ार और पाँच सौ के नोट बदलने के निर्णय से मुझे कोई शिकायत नहीं है| सिर्फ एक दिन छुट्टे रुपये न होने से थोड़ी देर के लिए मामूली सी असुविधा हुई|
राष्ट्रहित में यह निर्णय बहुत अच्छा हुआ है जिसका मैं पूर्ण समर्थन करता हूँ|
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मोदी जी सफल हुए तो निकट भविष्य में भारत में मुद्रा के रूप में नोटों का प्रयोग बहुत कम हो जाएगा और सारा लेन-देन बैंकों के माध्यम से ही होगा| यह एक बहुत बड़ी उपलब्धी होगी|

मेरा एक ही सुझाव है कि क्रेडिट या डेबिट कार्ड से सामान खरीदने पर कभी भी कोई सरचार्ज नहीं हो| अधिक से अधिक खरीददारी डेबिट कार्डों से हों|
प्रधान मंत्री मोदी जी को शुभ कामनाएँ| वे अपने उद्देश्य में सफल हों|

उन्होंने छुड़ाए थे गज के वो बंधन, वे ही मेरे बंधन छुड़ाया करेंगे ......

उन्होंने छुड़ाए थे गज के वो बंधन, वे ही मेरे बंधन छुड़ाया करेंगे ......
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{1} अब तो मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को उस चोर-जार-शिखामणि, कुहुक-शिरोमणि और दुःख-तस्कर हरि ने चुरा लिया है| उस तस्कर का आकर्षण इतना प्रबल है कि छुटाने से नहीं छूटता| अब उससे हमें प्रेम हो गया है| उस हरि ने अब ह्रदय में अभीप्सा की प्रचंड अग्नि भी जला दी है|
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उस हरि ने कभी गजराज को बंधनों से मुक्त किया था, अब मुझे भी उन बंधनों से मुक्त करेंगे| उस दुःख-तस्कर, चोर-जार-शिखामणि और कुहुक-शिरोमणि हरि से बस एक ही निवेदन है कि जो कुछ भी थोड़ा-बहुत तथाकथित 'मैं' और 'मेरापन' रूपी अज्ञान बचा है उसे भी चुरा ले| मेरे लिए पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त अन्य सब मार्ग बंद हो गये हैं| मार्ग के अवरोध चोरी चोरी वह कब हटा लेगा इसका पता ही नहीं चलेगा|
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{2}भारत में प्रेमवश भक्तों ने भगवान को उलाहना देते हुए उन्हें ईर्ष्यालु और चोर तक कहा है| पर किसी ने भी उनकी इस बात का कभी बुरा या ईशनिंदा नहीं माना है| गोपाल सहस्त्रनाम में भगवान को तस्कर और चोरों का चोर कहा है .....
"बालक्रीड़ासमासक्तो नवनीतस्य तस्करः |
गोपालकामिनीजारश्चोरजारशिखामणि: ||"
यहाँ भगवान को नवनीत तस्कर और चोरजारशिखामणि कहा गया है| इसका अर्थ है कि भगवान के समान चोर और जार और कोई है ही नहीं, और हो सकता भी नहीं है| दुसरे चोर और जार तो केवल अपना ही सुख चाहते हैं, पर भगवान केवल दूसरों के सुख के लिए चोर और जार की लीला करते हैं| उनकी ये दोनों ही लीलाएँ दिव्य, अलौकिक और विलक्षण हैं|
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संसारी चोर तो केवल वस्तुओं की ही चोरी करते हैं, परन्तु भगवान् वस्तुओं के साथ-साथ उन वस्तुओं के राग, आसक्ति और मोह आदि को भी चुरा लेते है| वे सुखासक्ति का भी हरण कर लेते हैं, जिससे कामाकर्षण न रहकर केवल विशुद्ध प्रेमाकर्षण रह जाता है| अन्य की सत्ता न रहकर केवल भगवान की सत्ता रह जाती है|
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भगवान अपने भक्तों में किसी को चोर और जार रहने ही नहीं देते, उनके चोर और जारपने को ही हर लेते हैं| कनक और कामिनी की इच्छा ही मनुष्य को चोर और जार बनाती है| भगवन अपने भक्त की इस इच्छा को ही हर लेते हैं इसी लिए वे "हरि" हैं| आसक्ति का सर्वदा अभाव करने वाले होने से भगवान् चोर और जार के भी शिखामणि हैं| अर्थात चोरों के भी चोर हैं जो चोरी की इच्छा को ही चुपचाप चुरा लेते हैं|
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कुहुक का अर्थ होता है ..... कोहरा| जैसे कोहरे में कोई छिप जाता है वैसे ही वे अपने मायावी आवरण रुपी कोहरे में छिपे हैं| इसलिए वे कुहुक-शिरोमणि हैं| अब तो उनके बिना हम रह ही नहीं सकते|
दुःख तस्कर वे हैं क्योंकि अपने भक्तों के दुःखों को हर लेते हैं|
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एक प्रचलित पुराना भजन याद आ रहा है .....

कन्हैया कन्हैया पुकारा करेंगे,
लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे |
कहीं तो मिलेंगे, वो बाँके बिहारी,
उन्हीं के चरण चित लगाया करेंगे।
जो रुठेंगे हमसे वो बाँके बिहारी,
चरण पड़ उन्हें हम मनाया करेंगे।
कन्हैया कन्हैया पुकारा करेंगे,
लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे॥
उन्हें प्रेम डोरी से हम बाँध लेंगे,
तो फिर वो कंहाँ भाग जाया करेंगे।
कन्हैया कन्हैया पुकारा करेंगे,
लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे॥
उन्होंने छुड़ाए थे गज के वो बंधन,
वहीँ मेरे संकट मिटाया करेंगे।
कन्हैया कन्हैया पुकारा करेंगे,
लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे॥
उन्होंने नचाये थे ब्रह्माण्ड सारे,
मगर अब उन्हें हम नचाया करेंगे।
कन्हैया कन्हैया पुकारा करेंगे,
लताओं में ब्रज की गुजारा करेंगे॥

एक बार उनके हाथों में डोर देकर तो देखो .......

एक बार उनके हाथों में डोर देकर तो देखो .......
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महाभारत के महा भयंकर युद्ध में महारथी अर्जुन ने प्रतिज्ञा की थी कि यदि अगले दिन सूर्यास्त से पूर्व उसने जयद्रथ का वध नहीं किया तो वह आत्मदाह कर लेगा| अगले दिन युद्ध में जयद्रथ को कौरव सेना ने रक्षा कवच में घेर लिया और उसकी रक्षा के लिए सारी शक्ति लगा दी| कौरव सेना का संहार करते हुए अर्जुन ने बड़ी वीरता से युद्ध किया पर जयद्रथ कहीं भी दिखाई न दिया| संध्या होने ही वाली थी और सूर्य भगवान अस्ताचल की ओट में छिपने को अग्रसर थे| सारथी बने भगवान श्रीकृष्ण को अपने भक्त की चिंता थी| उन्होंने अपनी माया से सूर्य को बादलों से ढक दिया| सन्ध्या का भ्रम उत्पन्न हो गया| कहते हैं उन्होंने काल की गति ही रोक दी| युद्ध बंद होने की सूचना देने के लिए बाजे बज उठे| पांडव सेना में हाहाकार मच गया| कौरव सेना प्रसन्नता से झूम उठी| अब अर्जुन का आत्मदाह देखने के लिए दुर्योधन आदि कौरव हर्षातिरेक में उछल पड़े| अब तक छिपा हुआ जयद्रथ भी कौरव सेना के आगे आकर अट्टहास करने लगा|
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अर्जुन ने अग्नि में आत्मदाह की तैयारी कर ली| श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पूछा कि किसके भरोसे तुमने ऐसी कठोर प्रतिज्ञा की? अर्जुन नतमस्तक हो गया और कहा कि आपके ही श्री चरणों में शरणागति जो ली है उसी का भरोसा है, अब आप ही मेरी गति हैं| शरणागत भक्त की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अब अपनी माया समेट ली| मायावी बादल छँट गए और कमलिनीकुलवल्लभ भगवान भुवनभास्कर मार्तंड बादलों की ओट से निकलकर प्रखर हो उठे|
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जयद्रथ को सामने खडा देखकर श्रीकृष्ण बोले ..... 'पार्थ ! तुम्हारा शत्रु तुम्हारे सामने खड़ा है, उठाओ अपना गांडीव और वध कर दो इसका| वह देखो अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है|' सबकी दृष्टि आसमान की ओर उठ गई थी| सूर्य अभी भी चमक रहा था जिसे देखकर जयद्रथ और दुर्योधन के पैरों तले ज़मीन खिसक गई| जयद्रथ भागने को उद्द्यत हुआ लेकिन तब तक अर्जुन ने अपना गांडीव उठा लिया था| श्रीकृष्ण ने चेतावनी देते हुए बोले ..... 'हे अर्जुन! जयद्रथ के पिता ने इसे वरदान दिया था कि जो इसका मस्तक ज़मीन पर गिराएगा, उसका मस्तक भी सौ टुकड़ों में विभक्त हो जाएगा| इसलिए यदि इसका सिर ज़मीन पर गिरा तो तुम्हारे सिर के भी सौ टुकड़े हो जाएँगे| उत्तर दिशा में यहाँ से सौ योजन की दूरी पर जयद्रथ का पिता तप कर रहा है| तुम इसका मस्तक ऐसे काटो कि वह इसके पिता की गोद में जाकर गिरे|'
अर्जुन ने श्रीकृष्ण की चेतावनी ध्यान से सुनी और अपनी लक्ष्य की ओर ध्यान कर बाण छोड़ दिया| उस बाण ने जयद्रथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और उसे ले जा कर सीधा जयद्रथ के पिता की गोद में गिरा दिया| जयद्रथ का पिता चौंक कर उठा तो उसकी गोद में से सिर ज़मीन पर गिर गया| सिर के ज़मीन पर गिरते ही उनके सिर के भी सौ टुकड़े हो गए| इस प्रकार अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हुई, और भगवान ने अपने भक्त की रक्षा की|
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एक बार हम शरणागत होकर तो देखें| अपने आप को परमात्मा के हाथों में सौंप दो| यह शरणागति ही सबसे बड़ी गति है| हे प्रभु, मैं आपका हूँ, और सदा आपका ही होकर रहूँगा| भगवान के शरणागत हो जाना सम्पूर्ण साधनों का सार और भक्ति की पराकाष्ठा है| इसमें शरणागत भक्त को अपने लिये कुछ भी करना शेष नहीं रहता; जैसे पतिव्रता स्त्री का अपना कोई काम नहीं रहता| वह अपने शरीर की सार-सँभाल भी पति के लिये ही करती है| वह घर, कुटुम्ब, वस्तु, पुत्र-पुत्री और अपने कहलाने वाले शरीर को भी अपना नहीं मानती, प्रत्युत पतिदेव का ही मानती है| उसी प्रकार शरणागत भक्त भी अपने मन, बुद्धि और देह आदि को भगवान् के चरणों में समर्पित करके निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक और निःशंक हो जाता है|
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हम अधिक से अधिक भगवान का ध्यान करें और उनके श्रीचरणों में समर्पित होकर शरणागत हों| एक बार जीवन की डोर उनके हाथों में देकर तो देखें|
भगवान श्रीकृष्ण हमारे चैतन्य में निरंतर अवतरित हों, एक क्षण के लिए भी उनकी विस्मृति ना हो| उनसे पृथक हमारा कोई अस्तित्व ना रहे|
."कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने | प्रणत क्लेश नाशाय गोविन्दाय नमो नमः ||"
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सभी को शुभ कामनाएँ और सादर सप्रेम अभिनन्दन !
ॐ ॐ ॐ ||

Saturday, 12 November 2016

मेरी अभीप्सा .......

मेरी अभीप्सा .......
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"वंशीविभूषितकरान्नवनीरादाभात्, पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात् |
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविंदनेत्रात्, कृष्णात्परं किमपि तत्वमहम् न जाने ||"
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आचार्य मधुसुदन सरस्वती ने जो आचार्य शंकर की परम्परा में अद्वैत वेदान्त के स्वनामधन्य आचार्य हुए थे ने उपरोक्त श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण की वन्दना करते हुए "कृष्ण तत्व" को परम तत्व बताया है|
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मैं ऐसे सभी आचार्यों की वन्दना करता हूँ जिनकी परम कृपा और प्रेरणा से हमारे ह्रदय में परमात्मा के प्रति परम प्रेम जागृत हुआ है| जब भी आवश्यकता होती है तब समय समय पर भगवान किसी न किसी माध्यम से अपना परम प्रेम फिर से जगा देते हैं|
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उस परम प्रेम की एक अल्प झलक या आभास भी जिसको मिल जाए उसके लिए उस प्रेम को छोड़कर अन्य सब कुछ गौण हो जाता है| उस प्रेम को प्राप्त करना ही संसार की उच्चतम उपलब्धि है| उसी प्रेम को भक्ति सूत्रों में नारद जी ने "भक्ति" कहा है| उसी प्रेम को हम सब प्राप्त हों| उस प्रेम को प्राप्त करना ही मेरी अभीप्सा है|
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सृष्टिकर्ता और सृष्टिपालक प्रभु ..... जो मेरे ह्रदय में तभी से धड़क रहा है जब से मैंने जन्म लिया है, उसे सिर्फ मेरा सम्पूर्ण प्रेम ही चाहिए| यह प्रेरणा मुझे बार बार अपने ह्रदय से मिल रही है| बार बार मेरी चेतना, मेरा अस्तित्व यही कह रहा है|
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सब कुछ तो उसी का दिया हुआ है| उसे मैं और दे ही क्या सकता हूँ ? जो कुछ भी उसका है उसे बापस उसी को लौटाने के अतिरिक्त मेरे पास अब और है ही क्या ? यह प्रेम भी उसी का है, यह ह्रदय, यह चेतना और यह सम्पूर्ण अस्तित्व ---- अब तो सब कुछ बस उसी का ही है| मैं तो हूँ ही नहीं, जो कुछ भी है वो वो ही वो है| ये सारे अणु-परमाणु , ये उर्जा और उसके पीछे का विचार और संकल्प आदि ये सब कुछ उसी के हैं|
अब मैं उससे और पृथक नहीं रह सकता| उसे पाने की अभीप्सा इतनी तीब्र है कि या तो यह देह ही रहेगी या मेरे लक्ष्य ही सिद्ध होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सबसे कठिन कार्य ......

सबसे कठिन कार्य ......
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हमारे लिए सबसे अधिक कठिन कार्य है ..... इस संसार में रहते हुए परमात्मा के प्रति अभीप्सा (कभी न बुझने वाली प्यास), तड़प और प्रेम की निरंतरता को बनाए रखना|
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इससे अधिक कठिन कार्य और कोई दूसरा नहीं है| इस संसार में हर कदम पर माया विक्षेप उत्पन्न कर रही है जो हमें परमात्मा से दूर करती है|
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घर-परिवार के लोगों, सांसारिक मित्रों और जन सामान्य के नकारात्मक स्पंदन हमें निरंतर परमात्मा से दूर करते हैं|
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हमें ढूँढ़ ढूँढ़ कर समान सकारात्मक विचार और स्पंदन के साधकों जिनका एक ही लक्ष्य है ....परमात्मा की प्राप्ति, का एक समूह बनाना चाहिए और उनके साथ सप्ताह में कम से कम एक दिन सामूहिक ध्यान साधना और सत्संग आयोजित करने चाहियें| वे एक ही गुरु-परम्परा के हों| बड़े नगरों में ऐसे अनेक समूह हैं जिनके यहाँ सप्ताह में कम से कम एक बार तो सामूहिक ध्यान होता ही है| मैं यहाँ उनका अभाव अनुभूत कर रहा हूँ|
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यदि ऐसे समूह न बना सकें तो प्रतिदिन किसी मंदिर में जाना चाहिए| यदि वहाँ भी सकारात्मकता न मिलती हो तो एकांतवास करें| नकारात्मक लोगों से मिलने से तो अच्छा है किसी से भी न मिलें|
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मिलना भी उसी से है जो हमारे लक्ष्य में सहायक हो, चाहे किसी से भी न मिलना पड़े, बात भी वही करनी है अन्यथा बिना बात किये रहें, भोजन भी वो ही करना है जो लक्ष्य में सहायक हो, अन्यथा बिना भोजन किये रहें, हर कार्य वो ही करना है जो हमें हमारे लक्ष्य की ओर ले जाता हो| किसी भी तरह का समझौता एक धोखा है| एक साधक के लिए सबसे बड़ा धोखा हमारी तथाकथित सामाजिकता है| मैं पुनश्चः कह रहा हूँ कि सबसे बड़ी बाधा हमारी तथाकथित सामाजिकता है|
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धन्य हैं वे परिवार जहाँ पति-पत्नी दोनों ही प्रभुप्रेमी हो, और जिनका एक ही लक्ष्य है ..... परमात्मा की प्राप्ति|
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हे परम ब्रह्म परमात्मा भगवान परम शिव, आपका विस्मरण एक क्षण के लिए भी ना हो| हमें अपने मायावी आवरण और विक्षेप से मुक्त करो| हमें निरंतर सत्संग प्राप्त हों, हम सदा आपकी ही चेतना में रहें|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हे परमशिव परमात्मा, तुम प्रसन्न हो तो सभी प्रसन्न हैं .....

हे परमशिव परमात्मा, तुम प्रसन्न हो तो सभी प्रसन्न हैं .....
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तुम मुझ पर प्रसन्न हो तो सभी प्रसन्न हैं| सारे संचित और प्रारब्ध कर्म भी तुम्हारे हैं| तुम ही कर्ता हो और तुम ही भोक्ता हो| तुम स्वयं में प्रसन्न रहो, और अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| यह समस्त सृष्टि तुम्हारी है, तुम स्वयं ही यह सृष्टि हो| तुम्हारी मायावी आवरण और विक्षेप की शक्तियाँ निष्प्रभावी हों| तुम्हारे से कुछ भी माँगना मात्र एक दुराग्रह है| पूरा ब्रह्मांड ही तुम हो, तुम्हारे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं| मैं तुम्हारी अनंतता और परम प्रेम हूँ| तुम्हारी पूर्णता मुझ में व्यक्त हो| ॐ ॐ ॐ ||
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ॐ तत्सत् | ॐ नमःशिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हमारे ह्रदय की बंजर भूमि में भी भक्ति रुपी सुन्दर सुगन्धित पुष्प खिलें .....

घोर शुष्क मरू भूमि में और पथरीली बंजर भूमि में भी मैंने सुन्दर पुष्पों को उगते, खिलते और महकते हुए देखा है | अनेक प्रयास करने पर उपजाऊ भूमि में भी कई बार गुलाब के फूल नहीं उगते पर मैंने उनको अनायास ही गंदे पानी में भी उगते हुए देखा है | कीचड़ में कमल का उगना तो सामान्य है |
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हमारे ह्रदय की बंजर भूमि में भी भक्ति रुपी सुन्दर सुगन्धित पुष्प खिलें और उनकी महक हमारे ह्रदय से सभी हृदयों में व्याप्त हो जाए | हे परम शिव, आपकी उपस्थिति का सूर्य सदा हमारे कूटस्थ में स्थिर रहे, और हमारे समक्ष कहीं भी अज्ञान रूपी तिमिर का अस्तित्व न रहे |
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हे जगन्माता, हे माँ, मुझे ही बदलो, मेरे जीवन की परिस्थितियों को नहीं .....

हे जगन्माता, हे माँ, मुझे ही बदलो, मेरे जीवन की परिस्थितियों को नहीं .....
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वर्षों पहिले मेरे मानस में कुछ प्रश्न आते थे, जैसे .....
{1} अच्छा या बुरा, मेरे साथ या किसी के भी साथ जो कुछ भी घटित हो रहा है वह
कर्मों का फल है, पुरुषार्थ का पुरुष्कार है, एक संयोग मात्र है, या ईश्वर की इच्छा है?
{2} यदि जब सब कुछ पूर्वनिर्धारित है तो फिर पुरुषार्थ की क्या आवश्यकता है?
{३) सृष्टि का उद्देश्य क्या है? यदि यह उसकी लीला ही है तो भी कुछ तो उद्देश्य होगा ही|
{४} ह्रदय में सदा एक तड़फ, एक अति प्रबल जिज्ञासा, अज्ञात के प्रति एक परम प्रेम, अभीप्सा और शुन्यता क्यों है?
{5} वह क्या है जिसे पाने से ह्रदय की शुन्यता और अभाव भरेगा?
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इन प्रश्नों का कभी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला और कभी मिलेगा भी नहीं जो ह्रदय को तृप्त कर सके|
ये सब शाश्वत प्रश्न हैं जो सभी के दिमाग में आते हैं पर कोई शाश्वत उत्तर नहीं है| हरेक जिज्ञासु को स्वयं ही इन का उत्तर स्वयं के लिए ही प्राप्त करना होता है| वे उत्तर अन्य किसी के काम के नहीं होते|
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इन सब प्रश्नों पर दिमाग खपाने के बाद इन पर सोचना ही छोड़ दिया| फिर भी ये विचार आते कि जिसने इस सृष्टि को बनाया है वह अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम है, उसे किसी की सलाह की आवश्यकता नहीं है, वह जैसे भी सृष्टि सञ्चालन करे, उसकी मर्जी| वह स्वयं अपनी रचना के लिए जिम्मेदार है, अन्य कोई नहीं| सब की जिम्मेदारी सिर्फ उन्हीं के द्वारा किये कर्मों की है, दूसरों के द्वारा किये गए कर्मों की नहीं|
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अब जो मुझे समझ में आ रहा है और जिस निष्कर्ष पर मैं पहुंचा हूँ वह यह है ....
(1) उपरोक्त सभी प्रश्नों के उत्तर इस तथ्य पर निर्भर है कि हम "मैं" को कैसे परिभाषित करते हैं|
(2) यदि हम स्वयं को यह देह और व्यक्तित्व समझते हैं तब हम मायाजाल से स्वतंत्र नहीं हैं| तब तक हम अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने को बाध्य हैं|
(3) भगवान को पूर्ण रूप से भक्ति और साधना द्वारा समर्पित होकर ही और भगवान से जुड़कर ही हम मुक्त हो सकते हैं, अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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तभी हम हर परिस्थिति से ऊपर उठ सकते हैं| परिस्थितियों को बदलने से कुछ नहीं होगा| आवश्यकता स्वयं की चेतना को बदलने की है|
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हे जगन्माता, मुझे अपने साथ एक करो, मुझे अपना पूर्ण पुत्र बनाओ, मुझे अपना पूर्ण प्रेम दो| अन्य कुछ पाने की कभी कोई कामना ही ना हो|

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

हमारे पास जो कुछ भी है वह सब कुछ किसी और का दिया हुआ है .....

हमारे पास जो कुछ भी है वह सब कुछ किसी और का दिया हुआ है | हम कृतज्ञतापूर्वक उसी का निरंतर चिंतन करें जिसने यह सब कुछ हमें दिया है ....
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(१) मैं और मेरा सोचने वाला यह "मन" भी किसी और का है|
(२) यह रूपया-पैसा, धन-दौलत और सारी समृद्धि भी किसी और की है|
(३) ये साँसें जिसकी दी हुई है और जो इन्हें ले रहा है, वह भी कोई और हैं|
(४) यह ह्रदय भी किसी और का ही दिया हुआ है जो इसमें धड़क रहा है, वह भी कोई और है |
(५) साधना के मार्ग पर "साधन" भी किसी और का ही दिया हुआ है |
(६) कुछ भी करने की प्रेरणा, संकल्प और शक्ति भी किसी और की ही दी हुई है |
(७) यह भौतिक देह जिन अणुओं से बनी है वे भी किसी और के ही हैं |
(८) जो इन आँखों से देख रहा है, जो इन कानों से सुन रहा है, और जो इन पैरों से चल रहा है वह भी कोई और है|
(९) सारे पुण्य, पाप, बंधन, मोक्ष, धर्म, अधर्म, ज्ञान, अज्ञान आदि सब कुछ उसी के ही हैं |
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यह "मैं" और "मेरापन" एक धोखा है | जिसे हम "मैं" और "मेरापन" समझ रहे हैं, और जो कुछ भी है वह कोई और है | यह साक्षी भाव भी वह ही है | यह आत्मा भी वह ही है | जीवन की सार्थकता उसी परमात्मा को पूर्ण समर्पण कर उसी के साथ जुड़ कर एकाकार होने की है जो सब कुछ है |
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ॐ अयमात्मा ब्रह्म | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

"प्रभु से परम प्रेम" ही एकमात्र मार्ग है जो हमारा उद्धार कर सकता है .....

"प्रभु से परम प्रेम" ही एकमात्र मार्ग है जो हमारा उद्धार कर सकता है .....
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भारत की आत्मा आध्यात्मिक है | अतः भारत में हम सब के उद्धार का सिर्फ एक ही मार्ग है, और वह है ..... प्रभु से अहैतुकी परम प्रेम और उसकी पूर्ण अभिव्यक्ति |
अन्य कोई मार्ग नहीं है |
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जो भी भगवान से अहैतुकी पूर्ण प्रेम करेगा उसका प्रारब्ध बदल जाएगा |
प्रारब्ध बदलने का अन्य कोई मार्ग नहीं है |
ह्रदय में प्रभुप्रेम के अतिरिक्त अन्य कोई कामना नहीं होनी चाहिए |
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भगवान हैं, यहीं हैं, निरंतर हमारे साथ हैं| हम उन्हें कभी भूलें नहीं |
यह शरीर, यह जीवात्मा, यह मन बुद्धि चित्त और अहंकार सब कुछ वे ही हैं | यह समस्त चेतना, यह साक्षी भाव और सब कुछ वे ही हैं | उनके अतिरिक्त अन्य किसी का कोई अस्तित्व नहीं है|
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हे प्रभु, हे मेरे प्रभु अपनी पूर्णता को अपने इस अंश में व्यक्त करो |
तुम मैं हूँ, और मैं तुम हूँ |
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ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा के प्रति प्रेम ..... किसी भी प्रकार के संक्रामक विचार से अधिक संक्रामक है, बस कोई जगाने वाला चाहिए .....

परमात्मा के प्रति प्रेम ..... किसी भी प्रकार के संक्रामक विचार से अधिक संक्रामक है, बस कोई जगाने वाला चाहिए |
हम सब के भीतर भगवान् के प्रति एक सुप्त प्रेम है जिसे कोई जगाने वाला चाहिए| यह प्रेम इतनी तीब्रता से फैलता है जितनी तीब्रता से कोई संक्रामक रोग भी नहीं फैलता|
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मार्क्सवादी धर्मनिरपेक्ष अधर्मी राजनेताओं द्वारा फैलाया गया यह कुटिल वाक्य ..... "सर्वधर्म समभाव" ..... यानि सब धर्म एक ही शिक्षा देते हैं, और सभी मार्ग एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं, सबसे बड़ा झूठ है|

बिना गहन अध्ययन किये किसी निष्कर्ष पर ना पहुंचें, और दिग्भ्रमित न हों| धर्म के नाम पर सिर्फ हम हिन्दू लोग ही कुछ भी स्वीकार कर लेते हैं| वास्तविकता तो यह है कि विश्व के बड़े बड़े धर्मों में कोई मूलभूत समानता नहीं है| सभी के उद्देश्य और लक्ष्य अलग अलग हैं|

जातिगत राजनीति एक अभिशाप है .......

भारत में दुर्भाग्य से जातिवाद एक राजनीतिक अस्त्र हो गया है जिसके लिए कुछ राजनेता गृहयुद्ध तक छेड़ने को तैयार बैठे हैं| यदि जातिगत आरक्षण समाप्त हो जाए और सरकारी पन्नों में जाति के उल्लेख पर प्रतिबन्ध लग जाए तो जातिप्रथा अति शीघ्र समाप्त हो जायेगी| वर्त्तमान राजनीतिक व्यवस्था ही जातिवाद को प्रोत्साहित करती है|

जिन्हें अगड़ा वर्ग कहते हैं वह इस समय सर्वाधिक पिछड़ा है| उदाहरण के लिए ब्राह्मण जाति इस समय सबसे अधिक पिछड़ी हुई जाति है| वह अतिपिछड़ों से भी अधिक पिछड़ी हुई है| ब्राह्मणों में इस समय सबसे अधिक गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी है| ऐसे ही कुछ अन्य जातियां भी हैं, आरक्षण व्यवस्था ने जिनकी कमर तोड़ दी है, और जिनके समाज में एक घोर निराशा व्याप्त है|

प्राचीन काल की वर्ण-व्यवस्था का वर्त्तमान जाति प्रथा से कोई सम्बन्ध नहीं है| जो स्वधर्म की साधना कर रहे हैं, उन्हें सदा प्रोत्साहित करना चाहिए|
यज्ञोपवीत, तिलक, माला, गुरुमंत्र, सात्विक आहार, उच्च विचार और आध्यात्मिक साधना .... ये सब हमारी संस्कृति के अंग हैं|

जातिगत राजनीति एक अभिशाप है जो समाज में घृणा फैला रही है| इसका अंत कभी ना कभी तो अवश्य ही होगा|

Sunday, 6 November 2016

प्राण तत्व की स्थिरता, मन पर नियंत्रण, निःसंगत्व और शिवत्व ......

प्राण तत्व की स्थिरता, मन पर नियंत्रण, निःसंगत्व और शिवत्व ......
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>>> कल मुझसे किसी मनीषी ने ये प्रश्न पूछे थे जिनका मैं उस समय तो कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दे पाया था, क्योंकि वे प्रश्न ही इतने गहन थे कि एक बार तो मैं स्तब्ध हो गया था| पर अब उनका उत्तर दे सकता हूँ|
वे प्रश्न थे .....
(1) मन क्या है ? मन को कैसे परिभाषित करेंगे ? मन से मुक्त यानि मनरहित कैसे हों ?
(2) निःसंगत्व की उपलब्धी कैसे हो ? क्या हम निःसंग हो सकते हैं ?
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इन का उत्तर इस प्रकार है .....
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(1) मन पर नियंत्रण हम तभी कर सकते हैं जब हम इसके स्त्रोत को समझ सकें| जहाँ से यानि जिस बिंदु से मन का जन्म होता है उसे समझना आवश्यक है|
मैं अपनी अति अल्प और सीमित समझ से इस निर्णय पर पहुंचा हूँ कि .....
>>> मन की उत्पत्ति प्राणों से होती है| "चंचल प्राण ही मन है"| प्राण की चंचलता को स्थिर कर के ही हम मन को वश में कर सकते हैं, और मनरहित हो सकते हैं| प्राण तत्व को स्थिर करना ही योग साधना है| यही चित्त की वृत्तियों का निरोध है| इसी के लिए हम यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान करते हैं| चंचल प्राण से ही चित्त की वृत्तियों और मन का जन्म होता है|
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(2) चंचल प्राण को स्थिर करने पर हम पाते हैं कि ...... एकोsहं द्वितीयोनास्ति| प्राणों की स्थिरता ही शिवत्व में स्थिति है| जब हम सम्पूर्ण समष्टि के साथ एक हो जाते हैं, तब हम पाते हैं कि सिर्फ एक मैं ही हूँ जो जड़-चेतन में सर्वत्र व्याप्त है, मेरे सिवाय अन्य कोई भी नहीं है| यही शिवत्व है और यही निःसंगत्व है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

भगवा वस्त्र ----

भगवा वस्त्र ----
भगवा वस्त्र अग्नि का प्रतीक ही नहीं साक्षात पवित्रतम अग्निवस्त्र है जिसे पहिन कर सन्यासी अपने अहंकार और वासनाओं कि आहुति अग्नि में निरंतर देता है|
भारत के जनमानस में भगवा वस्त्र का सम्मान इतना अधिक है कि वे किसी को भी भगवा वस्त्र में देखकर नतमस्तक हो जाते हैं|
पर दुर्भाग्यवश विदेशी जासूस और विधर्मी मत प्रचारक भी हिन्दुओं को ठगने के लिए भगवा वस्त्र पहिनते आए हैं|
भारत के साधू समाज को चाहिए कि वे हर किसी को भगवा वस्त्र न पहिनने दें| इसके लिए कोई शासकीय व्यवस्था हो जिसके अंतर्गत भगवा वस्त्र पहिनने का अधिकार मात्र उसी को हो जिसने विधिवत रूप से संन्यास दीक्षा ली हो|
हिन्दुओं को बदनाम करने के लिए हिन्दू नाम धारी अधर्मियों ने "भगवा आतंकवाद" नाम के शब्द की भी रचना की|
कोई कुछ भी कहे पर भारत की अस्मिता हिंदुत्व ही है और भारत हिंदुत्व के कारण ही भारत है|
सनातन धर्म ही भारतवर्ष है और भारतवर्ष ही सनातन धर्म है|
ॐ ॐ ॐ ||

Saturday, 5 November 2016

एक महान चमत्कार ......


एक महान चमत्कार ....
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कहते हैं संतों के पैर जहाँ भी पड़ते हैं वहाँ चमत्कार ही चमत्कार होते हैं| वह भूमि भी धन्य हो जाती है जहाँ उनके पैर पड़ते हैं| कुछ ऐसा ही चमत्कार मैं पिछले चार-पाँच दिन से देख रहा हूँ|
मैं जहाँ रहता हूँ, उस मोहल्ले में सारे लोग उच्च शिक्षित और समर्थवान हैं| शत-प्रतिशत महिलाऐं भी उच्च शिक्षित हैं| कहीं भी कोई अनपढ़ महिला नहीं मिलेगी| कोई निर्धन भी नहीं है|
पर लगभग सारे लोग अति भौतिकवादी और आधुनिक विचारों के हैं जहाँ आध्यात्म और भक्ति की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता| मैं प्रभु से प्रार्थना किया करता था कि यहाँ सब में धर्म की चेतना जागृत हो, पर कुछ भी नहीं हो रहा था| अंततः भगवान ने सुन ही ली|
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हमारे सौभाग्य से पाँच दिनों पूर्व एक विरक्त संत हरिशरण जी महाराज मेरे घर के सामने वाली पंक्ति के ही दो घर छोड़कर एक घर में आकर ठहरे और उन्होंने अपने साक्षात मूर्तिमान परम प्रेममय व्यक्तित्व से पूरे मोहल्ले को ही प्रभुप्रेममय बना दिया है| अब स्थिति यह है कि पच्चीस-तीस महिलाएं, दस-बारह पुरुष और अनेक बालक प्रातःकाल पाँच बजे एकत्र होकर संस्कृत में गीता पाठ करते हैं और मोहल्ले में हरिनाम संकीर्तन करते हुए प्रभात फेरी निकालते हैं| यह चेतना इन संत पुरुष के आने के एक दिन पश्चात ही आरम्भ हो गयी| प्रेतभाषा अंग्रेजी को छोडकर ये उच्च शिक्षित महिलाऐं अब आपस में राधे राधे बोलकर ही अभिवादन करती हैं| पता नहीं इनके किस जन्म के संस्कार जागृत हो गए कि सब भगवान की भक्त हो गयी हैं|
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इन महात्मा जी की हमारे नगर पर अत्यंत कृपा रही है| इनकी प्रेरणा से नगर में दो अन्य स्थानों से भी हरिनाम संकीर्तन करते हुए प्रभात फेरियाँ निकलती हैं जिनमें बहुत अच्छी संख्या रहती हैं| गीता, भागवत और रामायण की अनेक कथाएँ भी समय समय पर होने लगी हैं| भक्तिभाव बहुत अधिक बढ़ा है|
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November 06, 2015