मेरे विचार जो मेरे जीवन के निष्कर्ष हैं .....
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(१) सृष्टिकर्ता को जानने की मनुष्य की जिज्ञासा शाश्वत है, वह सभी युगों में थी, अभी भी है और भविष्य में भी सदा रहेगी| जन्म-जन्मान्तरों में भटकता हुआ प्राणी अंततः यह सोचने को बाध्य हो जाता है कि मैं क्यों भटक रहा हूँ, मैं कौन हूँ, और मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? तब मनुष्य के जीवन की दिशा बदलने लगती है|
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(२) मनुष्य की चेतना कभी तो बहुत अधिक उन्नत हो जाती है, और कभी बहुत अधिक अधम हो जाती है, इसके पीछे कोई अतिमानसी अज्ञात ज्योतिषीय कारण है जिसके आधार पर युगों की रचना हुई है| जैसे हमारा पृथ्वी ग्रह अपने उपग्रह चन्द्रमा के साथ सूर्य की परिक्रमा करता है, वैसे ही अपना यह सूर्य भी निश्चित रूप से पृथ्वी आदि अपने सभी ग्रहों के साथ सृष्टि में किसी ना किसी बिंदु से सम्बंधित परिक्रमा अवश्य करता है| जब अपना सूर्य उस बिंदु के निकटतम होता है वह सत्ययुग का चरम होता है, और उस बिन्दु से दूरी कलियुग का चरम होता है| यह क्रम सुव्यवस्थित रूप से चलता रहता है| सृष्टि में कुछ भी अव्यवस्थित नहीं है, सब कुछ व्यवस्थित है, पर हमारी चेतना में हमें उसका ज्ञान नहीं है| काश! हमें वह ज्ञान होता!
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(३) जिस कालखंड में मनुष्य की जैसी समझने की बौद्धिक क्षमता होती है और जैसी चेतना होती है उसी के अनुसार प्रकृति जिसे हम जगन्माता भी कह सकते हैं, वैसा ही ज्ञान और वैसे ही ग्रंथ हमें उपलब्ध करवा देती है| जब मनुष्य की चेतना उच्चतम स्तर पर थी तब वेद थे, जिनमे समस्त ज्ञान था| वे प्राचीन भारत में कभी लिखे नहीं गए थे| हर पीढ़ी में एक वर्ग उन्हें कंठस्थ रखकर अगली पीढ़ी को प्रदान कर देता था| जब मनुष्य की स्मृति मंद हुई तब ही वे लिखे गए|
फिर उनके ज्ञान को समझाने के लिए पुराणों की रचना हुई| उनका उद्देश्य वेदों के ज्ञान को ही बताना था| पुराणों के शब्दों का अर्थ लौकिक नहीं, आध्यात्मिक है| उनका आध्यात्मिक अर्थ बताने वाले आचार्य मिलने अब दुर्लभ हैं, अतः वे ठीक से समझ में नहीं आते|
फिर मनुष्य की चेतना और भी नीचे गिरी तो आगम ग्रंथों की रचना हुई, जिन्होंने हमारी आस्था को बचाए रखा|
जब हमारे धर्म और संस्कृति पर आतताइयों के मर्मान्तक प्रहार हुए तब एक भक्तिकाल आया और अनगिनत भक्तों ने जन्म लिया| उन्होंने भक्ति द्वारा हमारी आस्थाओं की और धर्म की रक्षा की|
अब मुझे लगता है कि जितना पतन हो सकता था उतना हो चुका है, और अब आगे उत्थान ही उत्थान है| इसका प्रमाण है कि पिछले कुछ वर्षों से पूरे विश्व में 'गीता' क्रमशः बहुत अधिक लोकप्रिय हो रही है| उपनिषदों के ज्ञान को जानने की जिज्ञासा भी पूरे विश्व में बढ़ रही है| परमात्मा को जानने की जिज्ञासा, योग साधना, ध्यान और भक्ति का प्रचार प्रसार भी निरंतर हो रहा है|
रूस जैसे पूर्व साम्यवादी देशों में जहाँ साम्यवाद जब अपने चरम पर था तब भगवान में आस्था रखना भी अपनी मृत्यु को निमंत्रित करना था| पर अब वहाँ की स्थिति उस से विपरीत है| अब से पचास वर्ष पूर्व जब साम्यवाद अपने चरम शिखर पर था, उस समय में मैं रूस में लगभग दो वर्ष रहकर एक प्रशिक्षण ले रहा था| चीन, उत्तरी कोरिया, युक्रेन, लाटविया, रोमानिया आदि पूर्व साम्यवादी देशों का भ्रमण भी मैं कर चुका हूँ| विश्व के अनेक देशों की मैं यात्राएँ कर चुका हूँ, और पूरी पृथ्वी की परिक्रमा भी एक बार की है| अतः पूरे अधिकार से यह बात कह रहा हूँ कि अब आने वाला समय बहुत अच्छा होगा, सनातन धर्म की सारे विश्व में पुनर्स्थापना होगी, और असत्य व अन्धकार की शक्तियाँ क्षीण होंगी|
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(४) यह सृष्टि, ज्ञान रूपी प्रकाश और अज्ञान रूपी अन्धकार के संयोग से बनी है अतः कुछ न कुछ अज्ञान रूपी अन्धकार तो सदा ही रहेगा| हमारा कार्य उस प्रकाश में वृद्धि करना है|
हमारे जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति है| जब तक हम ईश्वर को यानि परमात्मा को प्राप्त नहीं करते तब तक इस दुःख रूपी महासागर के जीवन में यों ही भटकते रहेंगे|
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ये मेरे अनुभवजनित दृढ़ निजी विचार हैं, अतः जिनके विचार मुझ से नहीं मिलते उन्हें आहत और उत्तेजित होने की आवश्यकता नहीं है| मैं मेरे विचारों पर दृढ़ हूँ| भगवान सदा मेरे साथ हैं|
सभी को मेरी शुभ कामनाएँ और नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ जनवरी २०१८