Wednesday, 21 September 2016

एक सरल सी बात ....

एक सरल सी बात ....
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एक सीधी-सादी और सरलतम बात है जिसे कोई भी समझ सकता है| इसको समझने के लिए न तो किसी से कुछ पूछने की आवश्यकता है और न कहीं जाने की|
भारत का गरीब से गरीब और अनपढ़ से अनपढ़ व्यक्ति भी इस बात को सदा से जानता आया है| यह बात दूसरी है कि आज हम जानते हुए भी इसे नकारने का प्रयास कर रहे हैं|
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हर क्रिया की प्रतिक्रया होती है| जब हम किसी की आँखों में झाँक कर देखते हैं तब वह भी हमारी आँखों में झाँक कर देखने को बाध्य हो जाता है| जब हम किसी पर्वत शिखर से किसी गहरी खाई में झाँकते हैं तब वह गहरी खाई भी हमारे में झाँकती है| पर्वत शिखरों को हम घूरते हैं तो वे भी हमें घूरने लगते हैं|
किसी से हम प्रेम या घृणा करते हैं तो वह भी स्वतः ही हम से वैसे ही करने लगता है| यह प्रकृति का स्वाभाविक नियम है| इसके लिए किसी प्रार्थना या अनुरोध की आवश्यकता नहीं है|
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इसी तरह जब हम परमात्मा से प्रेम करते हैं तो परमात्मा भी हम से प्रेम करने लगते हैं| हम उनकी सृष्टि को प्रेम करेंगे तो उनकी सृष्टि भी हमारे से प्रेम करेगी| हम उनको सर्वव्यापकता में अनुभूत करेंगे तो उनकी सर्वव्यापकता भी हमें अपने साथ एक कर लेगी|
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हम प्रेममय बन जाएँ, हम स्वयं ही परमात्मा का प्रेम बन जाएँ| इससे ऊँची और इससे बड़ी अन्य कोई उपलब्धी नहीं है| जब स्वयं परमात्मा ही हमसे प्रेम करने लगें तब हमें और क्या चाहिए ?????
एक बार प्रयास तो करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

चरैवेति चरैवेति चरैवेति .....

चरैवेति चरैवेति चरैवेति .....
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कमलिनीकुलवल्लभ, मार्तंड, अंशुमाली, भगवान् भुवनभास्कर आदित्य जब अपने पथ पर निरंतर अग्रसर होते हैं तब मार्ग में क्या कहीं भी उन्हें तिमिर का कोई अवशेष मिलता है? उन्हें क्या इस बात की चिंता होती है कि मार्ग में क्या घटित हो रहा है? वैसे ही अपनी चेतना में क्या घटित हो रहा है, कोई क्या सोचता है, कोई क्या कहता है इसकी परवाह ना करते हुए निरंतर अग्रसर चलते रहो, चलते रहो, चलते रहो| सामने अपना लक्ष्य ही रहे, अन्य कुछ नहीं|
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महत्व इस बात का नहीं है कि अपने साथ क्या हो रहा है या कोई क्या सोच रहा है, या कह रहा है| महत्व इस बात का है कि वे अनुभव हमें क्या बना रहे हैं| हर परिस्थिति कुछ ना कुछ सीखने का अवसर है| सूर्य की तरह चमकते हुए अपने लक्ष्य की आभा को निरंतर अपने सामने रखो, इधर उधर कुछ भी मत देखो, रुको मत और चलते रहो|
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जो नारकीय जीवन हम जी रहे हैं उससे तो अच्छा है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दें| या तो यह देह ही रहेगी या लक्ष्य की प्राप्ति ही होगी| हमारे आदर्श भगवान भुवन भास्कर हैं जो निरतर प्रकाशमान और गतिशील हैं| उनकी तरह कूटस्थ में अपने आत्म-सूर्य की ज्योति को सतत् प्रज्ज्वलित रखो और उस दिशा में उसका अनुसरण करते हुए निरंतर अग्रसर रहो| हमारे महापुरुषों के अनुसार एक ना एक दिन हम पाएँगे कि वह ज्योतिषांज्योति हम स्वयं ही हैं |
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
22/09/2014

अंग्रेजी शासन से पूर्व भारत एक बार तो हिन्दू राष्ट्र हो गया था ......

अंग्रेजी शासन से पूर्व भारत एक बार तो हिन्दू राष्ट्र हो गया था ......
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एक बहुत बड़ा झूठ जो हमें पढ़ाया जाता है वह है कि अंग्रेजों से पूर्व भारत एक हज़ार वर्ष तक विदेशी आक्रान्ताओं यानि मुगलों का दास था| यह बिलकुल झूठ है|
मराठों और सिक्खों ने मुगलों की सत्ता को लाल किले की चारदिवारी के भीतर तक ही सीमित कर दिया था| लाल किले के बाहर कोई मुग़ल सत्ता नहीं थी|
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महाराजा रणजीत सिंह जी ने उस सारी भूमि जिस पर यह (ना)पाकिस्तान बना है, पूरा अफगानिस्तान, पूरा कश्मीर व तिब्बत तक का शासन अपने आधीन कर लिया था| मराठों ने सन १७२० ई. में ही अटक (अफगानिस्तान) पर एक बार तो भगवा फहरा दिया था| फिर एक अल्प काल के लिए पठानों का राज्य हुआ जिसे महाराजा रणजीतसिंह ने समाप्त कर अपने आधीन कर लिया था|
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पूरे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और दक्षिण में खूब गहराई तक सत्ता मराठों के हाथ में आ गयी थी| दिल्ली के आसपास का क्षेत्र भी मराठों ने अपने आधीन कर लिया था|
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कर्णाटक में हरिहर राय (प्रथम) और बुक्का ने विजयनगर राज्य की स्थापना की जो विश्व का समृद्धतम राज्य था|
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(ना)पाकिस्तान तो एक नाजायज मुल्क है जिसे अंग्रेजों ने महाराजा रणजीत सिंह जी की भूमि पर खडा कर दिया था|
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छत्रपति शिवाजी महाराज, महाराणा प्रताप, बालाजी बाजीराव और महाराजा रणजीत सिंह जी जैसे महान योद्धा विश्व में अन्यत्र नहीं हुए| क्या बादल और फत्ता जैसे वीर किसी अन्य राष्ट्र में हुए हैं?
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हमारा इतिहास गौरव का है| भारत ने दासता कभी भी स्वीकार नहीं की, अपितु निरंतर पराधीनता के विरुद्ध संघर्ष किया|
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एक दिन ऐसा अवश्य आयेगा जब हम सत्य इतिहास को जान सकेंगे| भारत का वर्त्तमान इतिहास तो भारत के शत्रुओं ने लिखा है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

Tuesday, 20 September 2016

एक महान गृहस्थ योगी .......

एक महान गृहस्थ योगी .......
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योगिराज श्री श्री श्यामाचरण लाहिडी महाशय का जन्म सन ३० सितम्बर १८२८ ई. को कृष्णनगर (बंगाल) के समीप धुरनी ग्राम में हुआ था| इनके परम शिवभक्त पिताजी वाराणसी में आकर बस गए थे| श्यामाचरण ने वाराणसी के सरकारी संस्कृत कोलेज में शिक्षा प्राप्त की| संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी, बंगला, उर्दू और फारसी भाषाएं सीखी|
श्रीमान नागभट्ट नाम के एक प्रसिद्ध शास्त्रज्ञ महाराष्ट्रीय पंडित से उन्होंने वेद, उपनिषद और अन्य शास्त्रों व धर्मग्रंथों का अध्ययन किया|
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पं.देवनारायण सान्याल वाचस्पति की पुत्री काशीमणी से इनका १८ वर्ष की उम्र में विवाह हुआ| २३ साल की उम्र में इन्होने सरकारी नौकरी कर ली| उस समय सरकारी वेतन अत्यल्प होता था अतः खर्च पूरा करने के लिये नेपाल नरेश के वाराणसी अध्ययनरत पुत्र को गृहशिक्षा देते थे|
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बाद में काशीनरेश के पुत्र और अन्य कई श्रीमंत लोगों के पुत्र भी इनसे गृहशिक्षा लेने लगे| हिमालय में रानीखेत के समीप द्रोणगिरी पर्वत की तलहटी में इनको गुरुलाभ हुआ| इनके गुरू हिमालय के अमर संत महावतार बाबाजी थे जो आज भी सशरीर जीवित हैं और अपने दर्शन उच्चतम विकसित आत्माओं को देते हैं| गुरू ने इनको आदर्श गृहस्थ के रूप में रहने का आदेश दिया और ये गृहस्थी में ही रहकर संसार का कार्य करते हुए कठोर साधना करने लगे|
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पर जैसे फूलों की सुगंध छिपी नहीं रह सकती वैसे ही इनकी प्रखर तेजस्विता छिपी नहीं रह सकी और मुमुक्षुगण इनके पास आने लगे| ये सब को गृहस्थ में ही रहकर साधना करने का आदेश देते थे क्योंकि गृहस्थाश्रम पर ही अन्य आश्रम निर्भर हैं| हालाँकि इनके शिष्यों में अनेक प्रसिद्ध सन्यासी भी थे जैसे स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी, स्वामी केशवानंद ब्रह्मचारी, स्वामी प्रणवानंद गिरी, स्वामी केवलानंद, विशुद्धानंद सरस्वती, बालानंद ब्रह्मचारी आदि|
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कश्मीर नरेश, काशी नरेश और बर्दवान नरेश भी इनके शिष्य थे| इसके अतिरिक्त उस समय के अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति जो कालांतर में प्रसिद्ध योगी हुए भी इनके शिष्य थे जैसे पंचानन भट्टाचार्य, भूपेन्द्रनाथ सान्याल, काशीनाथ शास्त्री, नगेन्द्रनाथ भादुड़ी, प्रसाद दास गोस्वामी, रामगोपाल मजूमदार आदि| सामान्य लोगों के लिये भी इनके द्वार खुले रहते थे| वाराणसी के वृंदाभगत नाम के इनके एक शिष्य डाकिये ने योग की परम सिद्धियाँ प्राप्त की थीं|
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लाहिड़ी महाशय ने न तो किसी संस्था की स्थापना की, न कोई आश्रम बनवाया और न कभी कोई सार्वजनिक प्रवचन दिया और न कभी किसी से कुछ रुपया पैसा लिया| अपने घर की बैठक में ही साधनारत रहते थे और अपना खर्च अपनी अत्यल्प पेंशन और बच्चों को गृहशिक्षा देकर पूरा करते थे|
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गुरूदक्षिणा में मिले सारे रूपये हिमालय में साधुओं को उनकी आवश्यकता पूर्ति हेतु भिजवा देते थे| इनके घर में शिवपूजा और गीतापाठ नित्य होता था| शिष्यों के लिये नित्य गीतापाठ अनिवार्य था|.
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अपना सारा रुपया पैसा अपनी पत्नी को दे देते थे, अपने पास कुछ नहीं रखते थे| अपनी डायरी बंगला भाषा में नित्य लिखते थे| शिष्यों को दिए प्रवचनों को इनके एक शिष्य भूपेन्द्रनाथ सान्याल बांगला भाषा में लिपिबद्ध कर लेते थे| उनका सिर्फ वह ही साहित्य उपलब्ध है|
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सन २६ सितम्बर १८९५ ई. को इन्होने देहत्याग किया और इनका अंतिम संस्कार एक गृहस्थ का ही हुआ| शरीर छोड़ते समय तीन विभिन्न स्थानों पर एक ही समय में इन्होने अपने तीन शिष्यों को सशरीर दर्शन दिए और अपने प्रयाण की सूचना दी| इनके देहावसान के ९० वर्ष बाद इनके पोते ने इनकी डायरियों के आधार पर इनकी जीवनी लिखी| इनके कुछ साहित्य का तो हिंदी, अंग्रेजी और तेलुगु में अनुवाद हुआ है, बाकी बंगला भाषा में ही है|
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"Always remember that you belong to no one, and no one belongs to you. Reflect that some day you will suddenly have to leave everything in this world – so make the acquaintanceship of God now. Prepare yourself for the coming astral journey of death by daily riding in the balloon of God-perception. Through delusion you are perceiving yourself as a bundle of flesh and bones, which at best is a nest of troubles. Meditate unceasingly, that you may quickly behold yourself as the Infinite Essence, free from every form of misery. Cease being a prisoner of the body; using the secret key of Kriya, learn to escape into Spirit."
~ Sri Sri Shyama Charan Sri Lahiri Mahasaya

सभ्यताओं का उदयास्त और पारस्परिक संघर्ष .....

सभ्यताओं का उदयास्त और पारस्परिक संघर्ष .....
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वर्षों से मेरी यह सोच थी कि विश्व की आसुरी सभ्यताओं में संघर्ष होगा और उनमें हुए पारस्परिक युद्धों से विश्व का विनाश हो जाएगा | पर अब मनुष्यता इतनी बुद्धिमान हो चुकी है कि वह विनाश को सामने देखकर समझौते कर लेती है और विनाश को टाल देती है | पिछले कुछ वर्षों में कई बार महाशक्तियाँ आमने सामने हुईं और लगा कि उनमें आपस में युद्ध होगा, पर युद्ध की चरम संभावना होते ही उन्होंने आपस में समझौते कर लिए और संभावित युद्ध को टाल दिया| द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका इतनी भयावह थी कि अब कोई भी युद्ध करने से डरता है|
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अब तक के सारे युद्ध दो ही कारणों से लड़े गये हैं, तीसरा कोई कारण नहीं था| पहला कारण था मनुष्य का लोभ, और दूसरा था मनुष्य की घृणा| दोनों विश्व युद्ध भी घृणा और लोभवश लड़े गये| भारत पर जितने भी विदेशी आक्रमण हुए उन सब के पीछे भी यही कारण थे|
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पर वर्त्तमान में तीन ऐसी व्यवस्थाएँ या सभ्यताएँ हैं जिनमें आपसी संघर्ष होने की पूरी संभावनाएँ हैं ...... एक तो इस्लामिक ज़ेहाद है जो सम्पूर्ण विश्व को अपने ही रंग में रंग देना चाहता है| दूसरा अमेरिका और पश्चिमी जगत है जो अन्य सब का शोषण करना चाहता है| तीसरा चीन है जो अपना अधिक से अधिक विस्तार चाहता है|
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विचारधारा के रूप में तो साम्यवाद पराभूत हो चुका है पर चीन में साम्यवादी दल के नाम पर कुछेक लोगों का एक गिरोह है जो आतंक के जोर पर राज्य कर रहा है| यही हाल उत्तरी कोरिया का है जहाँ एक परिवार का निरंकुश तानाशाह राज कर रहा है| साम्यवाद जीवित है तो सिर्फ भारत में ही है| साम्यवाद के चरम को मैंने बहुत समीप से पूर्व सोवियत संघ में रूस, युक्रेन, व लाटविया, और चीन, रोमानिया व उत्तरी कोरिया में देखा है| उनका पतन भी बहुत समीप से देखा है|
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माओ ने चीन में चाहे करोड़ों लोगों की हत्याएँ की हों पर एक काम उसने बहुत अच्छा किया और वह था साम्यवाद को चीन के राष्ट्रवाद के पक्ष में खडा करना| पर भारत में इसका उलटा हुआ| भारत में साम्यवाद को लाने का श्रेय एम.एन.रॉय नाम के एक विचारक को है जिसने इसे हिन्दू राष्ट्रवाद के विरुद्ध खडा किया| भारत में आज भी साम्यवादी/मार्क्सवादी लोग हिन्दू राष्ट्रवाद के कट्टर विरुद्ध हैं|
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पश्चिमी जगत ने ईसाइयत का प्रयोग एक शस्त्र के रूप में अपने वर्चस्व के लिए ही किया है| सबसे पहिले रोम के सम्राट कोंस्तेंताइन दि ग्रेट ने ईसाइयत का प्रयोग अपने साम्राज्य के विस्तार के लिए किया जबकि वह स्वयं ईसाई नहीं था और सूर्य उपासक पेगन था| अपनी मृत्यु शैया पर जब वह लाचार पडा था तब पादरियों ने उसका बापतिस्मा कर दिया| वर्तमान ईसाई धर्म उसी का दिया हुआ रूप है| भारत में ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में जहाँ भी पश्चिमी देशों ने राज्य किया है वहाँ पहले पादरियों को भेजा, फिर समुद्री डाकुओं को और फिर व्यापारियों के साथ अपनी सेना को|
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इस्लाम भी अरब राष्ट्रवाद का विस्तार है| इसके अनुयायी दिन में पाँच बार अरब की ओर मुंह कर के अरबी भाषा में प्रार्थना करते हैं, अरब की ओर सिर कर के सोते हैं, मृतक का सिर भी अरब की और करते हैं, अरबी ढंग से वस्त्र पहिनते हैं और जीवन में एक बार अरब की यात्रा अवश्य करते हैं| यह विशुद्ध अरबी राष्ट्रवाद है| इससे अरब का वर्चस्व बढ़ता है और अर्थव्यवस्था सुधरती है|
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सीरिया, ईराक आदि की घटनाओं ने और पकिस्तान के व्यवहार ने यह सिद्ध कर दिया है कि इस समय विश्व को सबसे अधिक खतरा ज़ेहादी विचारधारा से है जो दूसरों से घृणा करना सिखाती है| इस विचारधारा को यहूदी राष्ट्र इजराइल ने पर्याप्त सीमा तक रोक रखा है|
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सबसे विचित्र बात तो यह है की चीन जहाँ इस्लाम पर पूर्ण प्रतिबन्ध है, उसके प्रायः सभी मुस्लिम देशों से बहुत अच्छे सम्बन्ध हैं| इसका एकमात्र कारण चीन का भारत और अमेरिका से विरोध है|
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चीन ने भारत को चारों और से घेर रखा था| बंगाल की खाड़ी में म्यामार के कोको द्वीप पर से, और अरब सागर में पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से चीन की नौसेना भारत की हर गतिविधि पर निगाह रखती है| पर अब प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी जी कि कूटनीति ने चीन को ही अपने अन्य पड़ोसियों से अलग थलग कर दिया है|
म्यामार के कोको द्वीप से भारत का East Island नाम का द्वीप बिलकुल समीप पड़ता है जहाँ का प्रकाश स्तंभ (Light House) भारत के सबसे बड़े प्रकाश स्तंभों में से एक है| वह क्षेत्र इतना अधिक संवेदनशील है कि East island पर वहाँ सेवा में नियुक्त सरकारी कर्मचारियों, पुलिस और नौसेना के अतिरिक्त अन्य किसी को भी जाने की अनुमति नहीं है| नौसेना के बहुत सारे युद्धपोत वहाँ हर समय रहते हैं और कोको द्वीप से होने वाली चीन की हर गतिविधि पर निगाह रखते हैं| वहां के आसपास के द्वीपों पर भी जाने की किसी को अनुमति नहीं है|
अरब सागर में ग्वादर बंदरगाह से चीन की हर गतिविधि पर निगाह रखने केलिए भारत, ईरान के चाबहार बंदरगाह का प्रयोग कर रहा है|
यह भी भारत और चीन की सभ्यताओं का संघर्ष ही है|
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आगामी समय भारत की उन्नति का होगा| जब तक हम आध्यात्मिक उन्नति के प्रति पुरी तरह जागृत नहीं होंगे तब तक ये आसुरी शक्तियाँ भारत दमन का कुचक्र चलाती रहेंगी|
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विश्व में अनेक व्यवस्थाएँ/सभ्यताएँ आईं और चली गईं| और भी अनेक प्रकार की सभ्यताएँ/व्यवस्थाएँ आएँगी जिनका उदयास्त और पारस्परिक संघर्ष चलता रहेगा| यह कभी देवासुर तो कभी असुरासुर संग्राम है जो सदा चलता ही रहता है| उपरोक्त वर्णित सभी सभ्यताएँ भी एक दिन नष्ट हो जायेंगी और उनका स्थान अन्य सभ्यताएँ ले लेंगी| कुछ भी शाश्वत नहीं है|
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यह एक महाभारत का युद्ध है जो प्रत्येक मनुष्य के अन्तर में चल रहा है और सदा चलता ही रहेगा| वर्तमान सभ्यता का विनाश भी निश्चित ही होगा पर कब होगा, यह सृष्टिकर्ता ही जानता है|
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इन सब के रहस्य को समझना मानव बुद्धि के लिए असम्भव है| समझने के प्रयास में मनुष्य पागल हो सकता है| यहाँ प्रश्न तो यह उठता है कि ..... इस मनुष्य जीवन का उद्देश्य और सार्थकता क्या है, और वह सर्वश्रेष्ठ क्या है जो हम कर सकते हैं???
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यह त्रिगुणात्मक विषम सृष्टि है| इस विषमता से पार जाने पर ही मनुष्य का कल्याण हो सकता है| तभी वह इस महादु:ख से बच सकता है| ऐसा महापुरुषों का कथन है|
>>> पर इस विषमता से पार कैसे जाया जाये? यही विचारणीय बिंदु है जिस पर सभी को विचार करना चाहिए|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
21 September 2013

बाहरी व भीतरी पवित्रता दोनों ही आवश्यक हैं .....

बाहरी व भीतरी पवित्रता दोनों ही आवश्यक हैं .....
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शौचाचार (बाहरी व भीतरी पवित्रता) हमारे मानस को प्रभावित करता है, अतः यह अति आवश्यक है| योगदर्शन के नियमों में यह पहला नियम है|
हमारा बाहरी परिवेश तो शुद्ध और पवित्र हो ही, पर भीतरी परिवेश भी शुद्ध होना चाहिए| इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि हमारा मन कैसे पवित्र हो?
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अन्न से हमारा मन बनता है| अतः जो भी हम खाते हैं उसकी पवित्रता अति आवश्यक है| वह साधन भी पवित्र होना चाहिए जिससे हम अन्न का उपार्जन करते हैं| हम अधर्म से कमाए हुए रुपयों से खाद्य सामग्री क्रय करते हैं, जिसे खाकर हमारा जीवन अशांत और दुखी होता है| हमारी अशांति का यह मुख्य कारण है|
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दान में भी हम अधर्म से उपार्जित धन देते हैं, अतः उससे कोई पुण्य नहीं मिलता|
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झूठ बोलने से हमारी वाणी दग्ध हो जाती है| उस वाणी (चाहे वह किसी भी स्तर पर हो) से की हुई प्रार्थना, स्तुति और जप निष्फल होते हैं|
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हमारे समस्त दोषों का कारण हमारा अज्ञान है| कामनाएँ और वासनाएँ भी अज्ञान से ही जन्म लेती हैं, जो समस्त बंधनों का कारण हैं| इन कामनाओं और वासनाओं को ही अब्राहमिक मतों (यहूदी, ईसाईयत और इस्लाम) में "शैतान" कहा गया है| शैतान कोई बाहरी शक्ति नहीं अपितु हमारी कामनाएँ ही है| यह अज्ञान, ज्ञान से ही मिटता है| ज्ञान से हटी हुई चीज ही मिथ्या होती है, इसीलिए सांसारिक बंधनों को मिथ्या कहते हैं|
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धर्म का आचरण हमें करना ही पडेगा, तभी तो हम धर्म की रक्षा कर पायेंगे| अपने बच्चों को भी धर्माचरण सिखाना पड़ेगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

विषयी लोगों का साथ बड़ा दुखदायी है .......

हे प्रभु मुझे सिर्फ और सिर्फ ऐसे ही लोगों का साथ दो जो तुम्हारे ही प्रेम से परिपूर्ण हैं, जो रात-दिन सिर्फ तुम्हारे ही स्वप्न देखते हैं और तुम्हारा ही निरंतर चिंतन करते हैं | विषयी लोगों से सदा दूर रखो | विषयी लोगों का साथ बड़ा दुःखदायी है |
तुम्हारे भक्त जहाँ भी जाते हैं, जहाँ भी उनके पैर पड़ते हैं, वह भूमि पवित्र हो जाती है, जिस पर भी उनकी दृष्टी पड़ती है वह निहाल हो जाता है | देवता भी उनकी बराबरी नहीं कर सकते| वह परिवार, कुल, समाज और वह देश भी धन्य हो जाता है जहाँ वे जन्म लेते हैं | अन्य लोगों का साथ बड़ा दुःखदायी है |
ॐ ॐ ॐ !!

Monday, 19 September 2016

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार | राग न द्वेष न दोष दुख, दास भए भव पार || ......

तुलसी ममता राम सों, समता सब संसार |
राग न द्वेष न दोष दुख, दास भए भव पार || ......
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एक बात जो मुझे बहुत अच्छी तरह समझ में आती है वह है कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से हमारी मानसिक कामनाएँ यानि इच्छाएँ ही हमारे सब बंधनों का कारण है | इनसे मुक्त होने का उपाय भी पता है पर उसके लिए कठोर साधना करनी पड़ती है जो इतनी सरल नहीं है | मात्र संकल्प से कुछ नहीं होता | कोई भी साधना आसानी से नहीं होती, उसके लिए तितिक्षापूर्वक बहुत अधिक कष्ट सहन करना पड़ता है |
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हम चाहें कितने भी संकल्प कर लें पर ये इच्छाएँ हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगी | इनसे मुक्त होने के लिए सत्संग, भक्ति, निरंतर नाम-जप, शरणागति, ध्यान और समर्पण साधना करनी ही पड़ती है, जो बड़ी कष्टप्रद होती हैं | बहुत लम्बे अभ्यासके पश्चात जाकर परमात्मा की कृपा से हम कामनाओं से मुक्त हो सकते हैं|
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कामनाओं से मुक्त होने के लिए कहना बड़ा सरल है पर करना बहुत कठिन |
मेरी अति अल्प और सीमित बुद्धि जहाँ तक काम करती है, सबसे सरल मार्ग है...... परमात्मा की उपस्थिति का निरंतर आभास और पूर्ण प्रेम से निरंतर मानसिक नाम-जप |
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मिलें न रघुपति बिन अनुरागा, कियें जोग जप ताप विरागा |
परमात्मा सिर्फ प्रेम से ही मिलते हैं | बिना प्रेम यानि बिना भक्ति के कोई भी साधन सफल नहीं होता |
हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं ..... यह भाव निरंतर रखने का अभ्यास करें | तब जाकर कामनाओं से पीछा छूटेगा |
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!

शिखा की आवश्यकता व शिखा बंधन ..............

शिखा की आवश्यकता व शिखा बंधन ..............
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आज से साठ-सत्तर वर्षों पहिले तक भारत के सब हिन्दू , और चीन में प्रायः सभी लोग शिखा रखते थे| शिखा रखने के पीछे एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक कारण है|
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खोपड़ी के पीछे के अंदरूनी भाग को संस्कृत में मेरुशीर्ष और अंग्रेजी में Medulla Oblongata कहते हैं| यह देह का सबसे अधिक संवेदनशील भाग है| मेरुदंड की सब शिराएँ यहाँ मस्तिष्क से जुडती हैं| इस भाग की कोई शल्य क्रिया नहीं हो सकती| जीवात्मा का निवास भी यहीं होता है| देह में ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रवेश यहीं से होता है|
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यहीं आज्ञा चक्र है जहाँ प्रकट हुई कूटस्थ ज्योति का प्रतिविम्ब भ्रू-मध्य में होता है|
योगियों को नाद की ध्वनि भी यहीं सुनती है|
देह का यह भाग ग्राहक यंत्र (Receiver) का काम करता है| शिखा सचमुच में ही Receiving Antenna का कार्य करती है| ध्यान के पश्चात् आरम्भ में योनीमुद्रा में कूटस्थ ज्योति के दर्शन होते हैं| वह ज्योति कुछ काल के अभ्यास के पश्चात आज्ञा चक्र और सहस्त्रार के मध्य में या सहस्त्रार के ऊपर नीले और स्वर्णिम आवरण के मध्य श्वेत पंचकोणीय नक्षत्र के रूप में दिखाई देती है| योगी लोग इसी ज्योति का ध्यान करते हैं और इस पञ्चकोणीय नक्षत्र का भेदन करते हैं| यह नक्षत्र ही पंचमुखी महादेव है|
(कोई भी साधना अधिकारी ब्रह्मनिष्ठ गुरु के मार्गदर्शन में ही करें)
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मेरुदंड व मस्तिष्क के अन्य चक्रों (मेरुदंड में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत और विशुद्धि, व मस्तिष्क में आज्ञा और सहस्त्रार, व सहस्त्रार के भीतर --- ज्येष्ठा, वामा और रौद्री ग्रंथियों व श्री बिंदु को ऊर्जा यहीं से वितरित होती है|
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शिखा धारण करने से यह भाग अधिक संवेदनशील हो जाता है|
भारत में जो लोग शिखा रखते थे वे मेधावी होते थे| अतः शिखा धारण की परम्परा भारत के हिन्दुओं में है|
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संध्या विधि में संध्या से पूर्व गायत्री मन्त्र या शिखाबंधन मन्त्र के साथ शिखा बंधन का विधान है| इसके पीछे और कोई कारण नहीं है यह मात्र एक संकल्प और प्रार्थना है| किसी भी साधना से पूर्व ..... शिखा बंधन मन्त्र के साथ होता है, यह एक हिन्दू परम्परा मात्र है| इसके पीछे यदि और भी कोई वैज्ञानिकता है तो उसका बोध गहन ध्यान में माँ भगवती की कृपा से ही हो सकता है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

September 19, 2015 at 8:08pm

^^^^^ श्रद्धांजली ^^^^^ यह क्रम (सिलसिला) कब तक चलेगा ? .......

^^^^^ श्रद्धांजली ^^^^^
यह क्रम (सिलसिला) कब तक चलेगा ? .......
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कश्मीर में शहीद हुए सेना और पुलिस के सभी जवानों और अधिकारियों को श्रद्धांजली | उन सब को वीरगति / सद्गति प्राप्त हो | वे तो राष्ट्र की सेवा में थे और आतताइयों द्वारा मारे गए |
यह क्रम (सिलसिला) कब तक चलेगा ? जैसे क्रिकेट मैच में स्कोर बोर्ड पर लिखा आता है कि इतने रन बन गए, वैसे ही नित्य समाचार देखते है कि इतने जवान आज आहूत (शहीद) हो गए| यह क्रम अब रुकना चाहिये |
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भारतीय परम्परा में आतताइयों के लिए कोई क्षमा नहीं है | आतताइयों के लिए सिर्फ मृत्यु दंड ही है |
हे भगवती, इस राष्ट्र की क्लीवता दूर करो, वीर पुरुषों को जन्म दो और पराक्रमी नेतृत्व दो |
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कश्मीर में आज प्रातः आतंकी आतताइयों के आक्रमण में १७ (सत्रह) जवान आहूत हो गए हैं | इस समाचार से देश के सेकुलर और वामपंथी तो प्रसन्न हो रहे होंगे पर सभी देशभक्त दुखी हैं |
माँ भगवती से पुनश्चः प्रार्थना है कि उन सब को सद्गति प्राप्त हो और उनके परिवारों को इस संकट की घड़ी में पूरी सांत्वना और राष्ट्रीय सहायता प्राप्त हो |
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जब भी कोई जवान मारा जाता है उस दिन को राष्ट्रीय शोक दिवस मनाया जाना चाहिए | उनके शोक में राष्ट्र ध्वज आधा झुकाया जाना चाहिए |
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यह वर्त्तमान सरकार के लिए परीक्षा की घड़ी है | विगत की तो सारी सरकारें विफल रहीं और मात्र झूठे आश्वासन ही देती रहीं | आतंकी तो यहाँ नरसंहार कर के अपने उद्देश्य में सफल होते रहे पर भारत की बिकी हुई प्रेस दावे करती रही कि आतंकी अपने उद्देश्य में विफल रहे क्योंकि भारत में शांति बनी रही |
सारे राजनेता मात्र बनावटी घोषणा करते रहे कि किसी को बख्शेंगे नहीं पर आलगाववादी तत्वों को संरक्षण और धन उपलब्ध कराते रहे | कहीं भी उन्होंने प्रतिकार नहीं किया | अब पाकिस्तान द्वारा दी गयी आणविक हमले से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है | पकिस्तान ने ऐसा दुःसाहस किया तो वह राख में बदल जाएगा |
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अब हम एक शक्तिशाली, स्वाभिमानी और साहसी राष्ट्र के रूप में रहें |
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युद्ध में विजय देश के लिए मरने से ही नहीं मिलती, अपितु शत्रु को उसके देश के लिए मारने से मिलती है |
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वन्दे मातरं ! भारत माता की जय !


18-09-2016 

Saturday, 17 September 2016

ईश्वरार्पण बुद्धि से हर कार्य करना चाहिए .....

ईश्वरार्पण बुद्धि से हर कार्य करना चाहिए .....
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जीवन का छोटे से छोटा, और बड़े से बड़ा, हर कार्य परमात्मा को समर्पित होना चाहिए| हर कार्य के आरम्भ, मध्य और अंत में निरंतर परमात्मा का स्मरण कर उन्हें ही कर्ता बनाना चाहिए| हमारे द्वारा न चाहते हुए भी साँस चलती है, वह भी परमात्मा को समर्पित होनी चाहिए| यह साँस परमात्मा ही ले रहें, न कि हम| अतः हर दो सांसों के मध्य भी परमात्मा का स्मरण रहना चाहिए|
हमें भूख लगती है तब जो कुछ भी खाते हैं वह भी परमात्मा को ही समर्पित हो|
हमें सुख और दुःख की अनुभूतियाँ होती हैं, वे सुख और दुःख भी परमात्मा के ही हैं, हमारे नहीं| साधना मार्ग की जो भी कठिनाइयां हैं वे भी परमात्मा की ही हैं, हमारी नहीं|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

मरूँ पर माँगू नहीं, अपने तन के काज | परमारथ के कारणे, मोहिं न आवै लाज ||

"मरूँ पर माँगू नहीं, अपने तन के काज |
परमारथ के कारणे, मोहिं न आवै लाज ||"
(मर जाऊँ, परन्तु अपने शरीर के स्वार्थ के लिए नहीं माँगूँगा| परमार्थ के लिए माँगने में मुझे लज्जा नहीं लगती)
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हे, प्रभु, मैं यदि तुम से स्वयं के लिए कुछ माँगूँ तो मेरी प्रार्थना कभी भी स्वीकार मत करना| मेरे माध्यम से आप ही साधना कर रहे हो, जो समष्टि के कल्याण के लिए है| साधक, साध्य और साधना में कोई भेद न रहे| मेरी कोई पृथकता न रहे, कोई भेद न रहे, बस सिर्फ तुम रहो और तुम्हारीं ही इच्छा रहे| मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व तुम को समर्पित है|
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ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव । यद् भद्रं तन्न आ सुव ॥ ॐ शांति शांति शांति ||
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अयमात्मा ब्रह्म | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

Friday, 16 September 2016

सबसे बड़ा गुण ........

सबसे बड़ा गुण ........
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एक ऐसा भी गुण है जिसकी प्राप्ति के बाद अन्य समस्त गुण गौण होकर अपने आप ही उसके पीछे पीछे चलने लगते हैं| जिस भी व्यक्ति में यह गुण प्रकट होता है उसमें अन्य सारे गुण अपने आप ही आ जाते हैं| यह गुण अन्य सब गुणों की खान है|
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जिस भी व्यक्ति में यह गुण होता है वह जहाँ भी जाता है, जहाँ भी उसके पैर पड़ते हैं वह भूमि पवित्र हो जाती है, जिस पर भी उसकी दृष्टी पडती है वह निहाल हो जाता है, देवता और उसके पितृगण भी उसे देखकर आनंदित होते हैं, उसकी सात पीढ़ियाँ तर जाती हैं, और वह परिवार, कुल और वह देश भी धन्य हो जाता है जहाँ उसने जन्म लिया है|
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वह गुण है ----- परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम जिसे देवर्षि नारद ने भक्ति सूत्रों में 'भक्ति' का नाम दिया है|
यहाँ मैं भक्ति सूत्रों के आचार्य भगवान देवर्षि नारद और उनके गुरु ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार को प्रणाम करता हूँ| उनकी कृपा सदा बनी रहे|

ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय | ॐ ॐ ॐ ||

सूक्ष्म जगत में भारत के भविष्य की रूपरेखा ......

सूक्ष्म जगत में भारत के भविष्य की रूपरेखा ......
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सूक्ष्म जगत में भारत के भविष्य की रूपरेखा है जिसका ज्ञान स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, श्री अरविन्द, परमहंस योगानंद आदि युगपुरुषों को था| पिछले सवा सौ वर्षों के इतिहास को देखिये, अनेक चमत्कारी घटनाएँ हुई हैं जिनकी किसी ने कल्पना तक नहीं की थी| दिखने में वे छोटी मोटी घटनाएँ ही थीं पर उन्होंने विश्व की चिंतन धारा को बदल दिया| भारत का पुनरोत्थान एक महानतम घटना होगी जिससे समस्त विश्व को एक नई दिशा मिलेगी और असत्य व अंधकार की आसुरी शक्तियों का पराभव होगा|
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(1) क्या सन १९०५ ई.में किसी ने कल्पना भी की थी कि जापान जैसा एक छोटा सा देश रूस जैसे विशाल देश की सेना को युद्ध में हराकर उससे पोर्ट आर्थर (वर्तमान दायरन, चीन में) व मंचूरिया (वर्त्तमान में चीन का भाग) छीन लेगा और रूस की शक्तिशाली नौसेना को त्शुसीमा जलडमरूमध्य (जापान व कोरिया के मध्य) में डूबा देगा? उस झटके से रूस अभी तक उभर नहीं पाया है|
बोल्शेविक क्रांति जो वोल्गा नदी में खड़े रूसी युद्धपोत औरोरा के नौसैनिकों के विद्रोह से आरम्भ हुई और लेनिन के नेतृत्व में पूरे रूस में फ़ैल गयी के पीछे भी मुख्यतः इसी निराशा का भाव था|
उपरोक्त घटना से प्रेरणा लेकर भारत में क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ किया| भारत में अंग्रेजों ने इतने अधिक नर-संहार किये (पाँच-छः करोड़ से अधिक भारर्तीयों की ह्त्या अंग्रेजों ने की) और भारतीयों को आतंकित कर के यह धारणा जमा दी थी कि गोरी चमड़ी वाले फिरंगी अपराजेय हैं| उपरोक्त युद्ध से यह अवधारणा समाप्त हो गयी|

(2) किस तरह बाध्य होकर रूस को अलास्का बेचना पडा था अमेरिका को, यह भी एक ऐसी ही घटना थी|
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(3) क्या प्रथम विश्व युद्ध के समय तक किसी ने कल्पना भी की थी कि ओटोमन साम्राज्य बिखर जाएगा और खिलाफत का अंत हो जाएगा? वे लोग जो स्वयं को अपराजेय मानते थे, पराजित हो गए|
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(4) जर्मनी जैसा एक पराजित राष्ट्र विश्व का सबसे अधिक शक्तिशाली देश बनकर उबरेगा और पराजित होकर खंडित होगा और फिर एक हो जाएगा, यह क्या किसी चमत्कार से कम था ?
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(5) ब्रिटिश साम्राज्य का विखंडन, जापान की हार, भारत की स्वतंत्रता, चीन में साम्यवादी शासन की स्थापना, सोवियत संघ का विघटन, साम्यवादी विचारधारा का पराभव आदि क्या किसी अप्रत्याशित चमत्कार से कम थे?
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ऐसे ही भारत में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना भी एक चमत्कार से कम नहीं होगा| भारत के आध्यात्मिक राष्ट्रवाद से समस्त सृष्टि का कल्याण होगा क्योंकि इससे सनातन धर्म की पुनर्स्थापना और प्रतिष्ठा होगी| भारत में आध्यात्मिक राष्ट्रवाद का अभ्युदय नहीं हुआ तो पूरी मानवता ही अन्धकार में चली जायेगी| भगवान कभी भी नहीं चाहेंगे की ऐसा हो अतः वे निश्चित रूप से भारत की रक्षा करेंगे|
आध्यात्मिक राष्ट्रवाद ही भारत का भविष्य है|
ॐ ॐ ॐ !!
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17 सितम्बर 2013

सबसे बड़ा डर .......

सबसे बड़ा डर .......
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सबसे बड़ा डर मुझे अपनी एक मानसिक बीमारी से लगता है | उस बीमारी से अधिकाँश लोग ग्रस्त हैं| वह बीमारी एक महामारी की तरह फ़ैली हुई है| पूरा समाज और राष्ट्र ही उस महामारी से ग्रस्त है| भगवान मेरी उस महामारी से रक्षा करें| वह महामारी है ... "दम्भित्व" |
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दंभ का अर्थ है झूठा दिखावा और कपट | "अमानीत्व" के साथ साथ "अदम्भित्व"
का गुण भी आवश्यक है, प्रभु प्राप्ति के लिए |
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मैं आंशिक रूप से स्वयं को इस बीमारी से ग्रस्त पाता हूँ, और इससे मुक्त होने का प्रयत्न कर रहा हूँ, अतः किसी की आलोचना का अधिकार मुझ में नहीं है | पर शीघ्र ही इस बीमारी से मुक्त हो जाऊंगा |
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बात करते करते बीच बीच में हम अंग्रेजी बोलने लगते हैं, अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं, यह हमारा दंभ ही है|
दिखावे के लिए संस्कृत का कोई श्लोक, कोई शेर-शायरी, कोई दोहा , चुटकला, या कोई असंगत बात करने लगते हैं, यह भी हमारा दंभ ही है|
कुछ भी जानने का झूठा दिखावा एक दंभ है|
विवाह-शादी आदि में दिखावे के लिए अनावश्यक खर्च भी एक दंभ है|
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किसी भी तरह का दिखावा एक दंभ है, चाहे वह अपने ज्ञान का हो, या समृद्धि का| यह दिखावा एक दंभ है जिसे हम माया का आवरण भी कह सकते हैं| यह आवरण हमें परमात्मा से दूर करता है|
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दम्भभाव ही कपटभाव है । जब तक मनसे कपट नहीं जाता तब तक मनुष्य परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करने में असमर्थ रहता है । कभी कभी हम शिकायत करते हैं कि हमें भगवान की प्राप्ति क्यों नहीं होती | इसके अनेक कारणों में से ये दो मुख्य हैं ..... मानित्व यानि कर्ताभाव, और दम्भित्व यानि झूठा दिखावा | मोहे कपट छल छिद्र न भावा |
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सभी का कल्याण हो | आप सब को नमन ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

जीवन एक शाश्वत जिज्ञासा है सत्य को जानने की .....

जीवन एक शाश्वत जिज्ञासा है सत्य को जानने की .....
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वर्तमान में तो चारों और असत्य ही असत्य दिखाई दे रहा है| पर यह अन्धकार अधिक समय तक नहीं रहेगा| असत्य, अंधकार और अज्ञान की शक्तियों का पराभव निश्चित रूप से होगा| मनुष्य जीवन की सार्थकता भेड़ बकरी की तरह अंधानुक़रण करने में नहीं है, अपितु सत्य का अनुसंधान करने और उसके साथ डटे रहने में है|
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मुझे गर्व है मेरे धर्म और संस्कृति पर| मुझे गर्व है भारत के ऋषियों पर जिन्होंने सत्य को जानने के प्रयास में परमात्मा के साथ साक्षात्कार किया और ज्ञान का एक अथाह भण्डार छोड़ गए| हमारे प्राणों में जो तड़प है और जो प्रचंड अग्नि हमारे ह्रदय में जल रही है वह ही इसका बोध करा सकती है कि सत्य क्या है| उसे निरंतर प्रज्ज्वलित रखो|
वह तड़प और वह प्रचंड अग्नि ही वास्तविक शाश्वत जिज्ञासा है जो सत्य का बोध करा सकती है| जीवन एक ऊर्ध्वगामी और सतत विस्तृत प्रवाह है कोई जड़ बंधन नहीं| स्वयं को किसी भी प्रकार के बंधन में न बाँधें| इसे प्रवाहित ही होते रहने दें| अपने व्यवहार, आचरण और सोच में कोई जड़ता न लायें| अपने अहंकार को किनारे पर छोड़ दें और प्रभु चैतन्य के आनंद में स्वयं को प्रवाहित होने दें| सारी अनन्तता और प्रचूरता हमारी ही है|
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हम न तो स्त्री हैं और न पुरुष|, हम एक शाश्वत आत्मा हैं| भौतिक जगत में हम यह देह नहीं बल्कि परमात्मा के एक अंश और उसके उपकरण हैं| मानवीय चेतना में बंधना ही हमारे दुःखों का कारण है| सुख और दुःख की अनुभूतियों से हमें ऊपर उठना ही होगा| हम कर्ता नहीं हैं| कर्ता तो परमात्मा है| हम तो उसके एक उपकरण मात्र हैं| हम न तो पापी हैं और न पुण्यात्मा| हम परमात्मा की छवि मात्र हैं| हमारी यह मनुष्य देह हमारा वाहन मात्र है| हम यह देह नहीं हैं| हमारा स्तर तो देवताओं से भी ऊपर है| अपने देवत्व से भी उपर उठो|
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किसी भी विचारधारा या मत-मतान्तर में स्वयं को सीमित ना करें| हम सबसे ऊपर हैं| हैं| हम सिर्फ और सिर्फ भगवान के हैं, अन्य किसी के नहीं| उनकी सारी सृष्टि हमारी है| हम किसी अन्य के नहीं हैं और कोई अन्य हमारा नहीं है| हमारा एकमात्र सम्बन्ध परमात्मा से है | अपने समस्त बंधन और सीमितताएँ उन्हें समर्पित कर उनके साथ ही जुड़ जाओ| हम शिव है, जीव नहीं| अपने शिवत्व को व्यक्त करो|
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प्राचीन काल में असुरों, राक्षसों और पिशाचों की शक्ल-सूरत पृथक हुआ करती होगी पर अब इस युग में तो ये सब मनुष्य देह धारण कर हमारे मध्य ही घूम रहे हैं|
कौन नर-पिशाच है और कौन मनुष्य इसका निर्णय करना असम्भव है| दोनों एक से लगते हैं| वर्तमान में तो इन्ही का वर्चस्व है| पता नहीं क्या कर्म किये होंगे कि इनकी शक्ल देखनी पड़ती है| अतः अपनी संगती के बारे में सचेत रहो|
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भारत का भविष्य सनातन धर्म पर निर्भर है, पूरी पृथ्वी का भविष्य भारत के भविष्य पर निर्भर है, और पूरी सृष्टि का भविष्य पृथ्वी के भविष्य पर निर्भर है|
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सत्य ही परमात्मा है| सत्यनिष्ठ होकर ही हम परमात्मा से जुड़ सकते हैं| ह्रदय में कोई कुटिलता और अहंकार न हो| असत्य वादन करने यानि झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है| उस दग्ध वाणी से किया कोई भी जप, प्रार्थना और साधना फलीभूत नहीं होती|
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ॐ तत्सत ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !

विचित्र लीला ........

विचित्र लीला ........
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यह संसार एक ऐसी विचित्र लीला है जिसे समझना बुद्धि की क्षमता से परे है|
सभी प्राणी परमात्मा के ही अंश हैं, और परमात्मा ही कर्ता है| हमारा भी एकमात्र सम्बन्ध परमात्मा से ही है|
हम एक-दूसरे के रूप में स्वयं से ही विभिन्न रूपों में मिलते रहते हैं|
एकमात्र "मैं" ही हूँ, दूसरा अन्य कोई नहीं है| अन्य सब प्राणी मेरे ही प्रतिविम्ब हैं|
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परमात्मा प्रदत्त विवेक हमें प्राप्त है| उस विवेक के प्रकाश में ही उचित निर्णय लेकर सारे कार्य करने चाहिएँ|| वह विवेक ही हमें एक-दुसरे की पहिचान कराएगा और यह विवेक ही बताएगा कि हमें क्या करना चाहिए और क्या नहीं|
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परमात्मा के संकल्प से सृष्टि बनी है अतः वे सब कर्मफलों से परे हैं| पर अपनी संतानों के माध्यम से वे ही उनके फलों को भी भुगत रहे हैं|
हम कर्म फलों को भोगने के लिए अपने अहंकार और ममत्व के कारण बाध्य हैं|
माया के बंधन शाश्वत नहीं हैं, उनकी कृपा से एक न एक दिन वे भी टूट जायेंगे| वे आशुतोष हैं, प्रेम और कृपा करना उनका स्वभाव है| वे अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते|
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परमात्मा के पास सब कुछ है पर एक ही चीज की कमी है, जिसके लिए वे भी तरसते हैं, और वह है ..... हमारा प्रेम|
कभी न कभी तो हमारे प्रेम में भी पूर्णता आएगी, और कृपा कर के हमसे वे हमारा समर्पण भी करवा लेंगे|
कोई भी पिता अपने पुत्र के बिना सुखी नहीं रह सकता| जितनी पीड़ा हमें उनसे वियोग की है, उससे अधिक पीड़ा उनको भी है| वे भी हमारे बिना नहीं रह सकते| एक न एक दिन तो वे आयेंगे ही| अवश्य आयेंगे|
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हे परम प्रिय प्रभु, हमारे प्रेम में पूर्णता दो, हमारी कमियों को दूर करो| अज्ञानता में किये गए कर्मों के फलों से मुक्त करो| ॐ ॐ ॐ ||

जब तक पाशों से बँधे हैं तब तक हम पशु ही हैं | पाशों से कैसे मुक्त हों ? अमानित्व को कैसे प्राप्त हों ?

बात "पाशों" की चल रही थी | बहुत सारे "पाश" हैं जिन से बंध कर हम "पशु" बने हुए हैं |
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(1) पहला सबसे बड़ा पाश जिसने हमें पशु बना रखा है वह है ..... "काम वासना"|
"काम" और "राम" दोनों विपरीत बिंदु हैं |
"जहाँ राम तहँ काम नहीं, जहाँ काम नहीं राम |
तुलसी कबहूँ होत है, रवि रजनी एक धाम ||"
जिस प्रकार सूर्य और रात्री एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही काम और राम एक साथ नहीं रह सकते | यह जीवन भी काम से राम के बीच की यात्रा है |
मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में वासनाएँ नीचे के तीन चक्रों में रहती हैं | गुरु का स्थान आज्ञाचक्र ओर सहस्त्रार के मध्य है | परमात्मा की अनुभूति सहस्त्रार से भी ऊपर होती है |
परमात्मा के मार्ग में काम-वासना सबसे बड़ी बाधा है| कामजयी ही राम को पा सकता है | जिसने काम जीता, उसने जगत को जीता | ब्रह्मचर्य सबसे बड़ा तप है, जिसके लिए देवता भी तरसते हैं |
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(2) दूसरा पाश है .... राग-द्वेष | इसे समझना थोड़ा कठिन है | फिर भी शांत मन से चिंतन किया जाए तो यह समझ में आ जाता है |
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(3) तीसरा पाश है ... अहंकार | क्रोध इसी का भाई है | और भी छोटे-मोटे इसके कई साथी हैं |
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इन सब पाशों में जो बंधा है वह पशु है |
इन सब पाशों से मुक्त होकर अपने सच्चिदानंद स्वरुप में स्थित होना ही "मुक्ति" है, और उपरोक्त पाशों से से मुक्त होना ही "ज्ञान" है |
जो इन पाशों से मुक्त है वही वास्तविक "ज्ञानी" है |
जो विद्या हमें इस मार्ग पर ले चलती है वही "पराविद्या" है और जो उसका उपदेश देकर हमें साथ ले चलता है वही "सद्गगुरु" है |
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ॐ तत्सत् ! बहुत बड़ी बात कर गया जो नहीं करनी चाहिए थी | छोटे मुंह बड़ी बात हो गयी | कुछ अधिक ही कह गया जिसके लिए क्षमा चाहता हूँ |
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आप सब मेरी निजात्मा हो, परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हो, सच्चिदानंद स्वरुप हो | आप सब को नमन ! भगवान "पशुपति" सदाशिव हम सबका कल्याण करें |
ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

भिखारियों को दुत्कारें नहीं ............

भिखारियों को दुत्कारें नहीं ............
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कभी कोई आपसे भीख माँगता है तो भिखारी को दुत्कारें नहीं, उसका तिरस्कार और उससे घृणा भी न करें| आप भीख न देना चाहें तो प्रेम से मना कर दीजिये|
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ये भिखारी अपने पूर्व जन्म में बहुत बड़े बड़े हर विभाग के अधिकारी, कर्मचारी और राजनेता थे, जिनकी माँगने की आदत नहीं गयी तो भगवान ने इस जन्म में उनकी ड्यूटी यहाँ लगा दी| इनसे भी कभी दुनियाँ डरती थी| आज भी जो लोग जनता को दुखी और विवश कर घूस लेते हैं उनकी भी यहीं ड्यूटी लगने वाली है|
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जो दूसरों को पीड़ा देते हैं और दूसरों पर अत्याचार करते हैं उनकी ड्यूटी तो अति कष्टप्रद पशुयोनी में लगनी निश्चित है| पराये धन को हड़पने वाले भी सब निश्चित रूप से पशु योनी में जाते हैं|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
September 14, 2015

ढाका (बांग्लादेश) में बही खून की नदी ......

September 13 at 9:58pm ·2016
ढाका (बांग्लादेश) में बही खून की नदी ......
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अभी नेट पर समाचार देख रहा था कि बांग्लादेश की एक फोटो और समाचार देख कर स्तब्ध रह गया| आज बक़रीद पर कुर्बानी दिए हुए गायों और बकरों का रक्त वर्षा के जल से मिलकर ढाका की सडकों पर बह निकला| पूरी सड़कें खून से लाल हो गईं और कटे हुए जानवरों के अंग सारे नगर में बिखर गए| खून की नदी का बहना इतिहास में तो पढ़ा था पर समाचारों में पहली बार देखा|
नीचे उस समाचार की लिंक दे रहा हूँ| निम्न लिंक को दबाइए| सारी फोटो और समाचार आ जायेंगे|
http://tinyurl.com/hsarpck
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अरबी भाषा में "बकरा" का अर्थ "गाय" (Cow) होता है .....
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उत्सुकतावश गूगल पर अरबी के "बकरा" शब्द का अर्थ देख रहा था| गूगल पर टंकण किया .... Al Baqarah तो स्तब्ध रह गया देखकर कि अरबी में "बकरा" शब्द का अर्थ "गाय" (Cow) होता है| सामने बहुत सारी वेब साइट्स आईं| कई अरबी में थीं और कोई अंग्रेजी में| वहाँ पर देखकर यह पक्का हो गया कि जिस त्योहार को मैं बकरे की कुर्बानी देने की बजह से "बकरा-ईद" समझता था, वह वास्तविकता में "गाय" की कुर्बानी का त्योहार है|
नीचे अंग्रेजी की एक वेब साईट की लिंक भी दे रहा हूँ| जिसे दबाकर आप देख सकते हैं|
http://www.noblequran.com/translation/surah2.html
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हमें सभी का सम्मान करना चाहिए| आप सब से प्रार्थना है कि कोई नकारात्मक टिप्पणी ना करे|
सभी का कल्याण हो | ॐ ॐ ॐ !!

Monday, 12 September 2016

सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है ......

सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है ......
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वेदांत के दृष्टिकोण से अपने सच्चिदानंद रूप में स्थित हो जाना ही मोक्ष है| परब्रह्म ही जीव और जगत् के सभी रूपों में व्यक्त है| वही जीवरूप में भोक्ता है और वही जगत रूप में भोग्य है|
साभार: स्वामी मृगेंद्र सरस्वती

मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासा .....

मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासा .....
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एक बहुत ऊंचे और विराट पर्वत की तलहटी में बसे एक गाँव के लोगों में यह जानने की प्रबल जिज्ञासा थी की पर्वत के उस पार क्या है| बहुत सारे किस्से कहानियाँ प्रचलित थे| कई पुस्तकें लिखी गयी थीं यही बताने को कि पर्वत के उस पार क्या है| बहुत सारे लोग थे जो बताते थे कि पर्वत के उस पार क्या है| पर उनमें से किसी ने भी प्रत्यक्ष देखा नहीं था कि उस पार क्या है| सबकी अपनी मान्यताएं थीं|
कुछ लोगों की मान्यता थी कि वे जो कहते हैं वही सही है, और बाकी सब गलत| कुछ लोगों ने घोषणा कर दी कि जो भी उनकी बात को नहीं मानेगा उसे दंडित किया जाएगा, उसकी ह्त्या भी कर दी जायेगी|
इस सब के बाद भी लोगों की जिज्ञासा शांत नहीं हुई यह जानने को की पर्वत के उस पार क्या है|

एक दिन एक साहसी युवक ने हिम्मत जुटाई और पर्वत पर चढ़ गया| पर्वत पर चढ़ कर और स्वयं देखकर अपने निजी अनुभव से ही उसे पता चला कि पर्वत के उस पार क्या है| उसने पाया कि नीचे की सब प्रचलित बातें अर्थहीन हैं| पर उसने जो अनुभूत किया वह उसका निजी अनुभव था जो उसी के काम का था| अन्य कोई उसकी बात को मान भी नहीं सकता था| उसने नीचे आकर घोषणा कर दी की जिसे यह जानना है कि पर्वत के उस पार क्या है उसे स्वयं को पर्वत पर चढ़कर देखना होगा| किसी ने उसकी बात मानी किसी ने नहीं| कुछ ने उसे द्रोही घोषित कर दिया| पर फिर भी लोगों की जिज्ञासा शांत नहीं हुई|
अपना संसार ही वह गाँव है, और अज्ञान ही वह पर्वत है| उस अज्ञान रुपी पर्वत से ऊपर जाकर ही पता चल सकता है की सत्य क्या है| यह मनुष्य की शाश्वत जिज्ञासा है यह जानने की कि सत्य क्या है| दूसरों के उत्तर इस जिज्ञासा को शांत नहीं कर सकते| एक सुखी व्यक्ति ही यह जान सकता है कि सुख क्या है| एक पीड़ित व्यक्ति यह जानना चाहे कि आनंद क्या है तो उसे स्वयं को आनंदित होना होगा|
आप मुझसे पूछें की चन्द्रमा कहाँ है तो मैं अपनी अंगुली से संकेत कर के बता दूंगा| एक बार चन्द्रमा को देखने के पश्चात मेरी अंगुली का कोई महत्व नहीं रहता|
आप कहीं अनजान जगह जा रहे हैं तो आप अपने साथ एक पथ प्रदर्शक पुस्तिका रखेंगे| पर एक बार गंतव्य स्थान दिखाई पड़ जाने पर उस पुस्तिका का कोई महत्व नहीं रहता और न ही दूसरों के बताये हुए दिशा निर्देशों का|
अपनी जिज्ञासाओं को तृप्त करने के लिए स्वयं को प्रयास और खोज करनी होगी| अन्य कोई आपकी जिज्ञासाओं को शांत नहीं कर सकता|
बस यही मेरे भाव हैं जो मैं व्यक्त करना चाहता था| परम धन्यवाद|
ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
13 सितम्बर 2013

आतंकवाद ......

आतंकवाद .....
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आतंकवाद .... एक असत्य और अन्धकार की शक्ति है जो मनुष्य को अपनी वासनाओं और अहंकार की पूर्ती के लिए दिग्भ्रमित कर असत्य और अंधकार में ही उलझाए रखती है|
मनुष्य स्वयं तो असत्य और अन्धकार के आवरण में रहता ही है, पर अन्यों को भी उसी असत्य को सत्य व अन्धकार को प्रकाश मानने को निर्दयता से बलात् बाध्य करता है; यही आतंकवाद है|
इसके कारण मनुष्य के षड़ विकार --- काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर्य हैं|
यह सृष्टि के आदिकाल से ही रहा है, कभी कम और कभी अधिक| इसका सबसे नकारात्मक पहलू तो यह है कि अपने मत की पुष्टि के लिए बीच में भगवान और धर्म को भी ले आते हैं| भगवान और धर्म का उपयोग मात्र एक अस्त्र के रूप में किया जाता है|
पिछले दो हज़ार वर्षों के इतिहास को देखो तो आतंकवाद के अनेक रूप रहे हैं|
हूण, शक, मंगोलों, क्रूसेडरों, जिहादियों आदि ने लूट खसोट और साम्राज्य विस्तार के लिए आतंक फैलाया| नाजियों, फासिस्टों, जापानियों व कम्युनिस्टों ने साम्राज्य विस्तार के लिए आतंक फैलाया| अब भी कुछ मतानुयायी अपने संख्या विस्तार के लिए आतंक का सहारा ले रहे हैं जो गलत है|
किसी भी प्रकार के आतंक का विरोध करना चाहिए| इसका समर्थन किसी भी परिस्थिति में ना हो|
पूरे विश्व को अपना परिवार मानकर और सभी के कल्याण की कामना ही आतंकवाद का सही उत्तर है| पर कोई किसी पर बलात् अत्याचार करे तो उसका प्रतिकार भी बलपूर्वक और पूर्ण साहस के साथ होना चाहिए| धन्यवाद |
ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
सितम्बर 13, 2014.

धर्म की अवधारणा का क्षरण ही वर्त्तमान दुःखद परिस्थितियों का कारण है .....

धर्म की अवधारणा का क्षरण ही वर्त्तमान दुःखद परिस्थितियों का कारण है .....
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एक यक्ष प्रश्न सभी भारतीयों से है कि जो भारतीय समाज शान्तिप्रिय था उसमें अचानक ही असहिष्णुता, असंतोष, ईर्ष्या, द्वेष, और लूट- पाट बढ़ने लगी है | इसका मूल कारण क्या है?
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जहां तक मेरी सोच है, पहिले लोगों की आवश्यकता कम थी| थोड़े में ही गुज़ारा कर लेते थे| लोग अपरिग्रह को धर्म मानते थे और संतोष को धन; इसलिए सुखी थे|
अब दिखावे की प्रवृति बढ़ गयी है, टेलिविज़न आने के बाद से लोगों में मेलजोल कम हो हो गया है| समाचारपत्रों और टेलिविज़न में विज्ञापनों को देखकर अधिक से अधिक और पाने की चाह बढ़ गयी है| "धर्म" की अवधारणा का बोध भी कम हो गया है| इसलिए लूट-खसोट और चोरी बढ़ गयी है|
धर्म की अवधारणा का क्षरण ही वर्त्तमान दुःखद परिस्थितियों का कारण है|
क्या हम वास्तव में प्रगति कर रहे हैं?
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कृपा शंकर
13 सितम्बर 2014

हमारे विचार, सोच और भावनाएँ ही हमारे "कर्म" हैं, दोष विषय वासनाओं में नहीं, अपितु उनके चिंतन में है ...

हमारे विचार, सोच और भावनाएँ ही हमारे "कर्म" हैं, दोष विषय वासनाओं में नहीं, अपितु उनके चिंतन में है .....
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यह सृष्टि द्वैत से बनी है| सृष्टि के अस्तित्व के लिए विपरीत गुणों का होना अति आवश्यक है| प्रकाश का अस्तित्व अन्धकार से है और अन्धकार का प्रकाश से|
मनुष्य जैसा और जो कुछ भी सोचता है वह ही "कर्म" बनकर उसके खाते में जमा हो जाता है|
यह सृष्टि हमारे विचारों से ही बनी है| हमारे विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर व्यक्त हो रहे हैं|
ये ही हमारे कर्मों के फल हैं|

परमात्मा की सृष्टि में कुछ भी बुरा या अच्छा नहीं है| कामना ही बुरी है|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -- "ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।"
विषय मिलने पर विषय का प्रयोग आसक्ति को पैदा नहीं करेगा। परन्तु जब हम विषय को मन में सोचते हैं तो उसके प्रति कामना जागृत होगी|
यह कामना ही हमारा "बुरा कर्म" है, और निष्काम रहना ही "अच्छा कर्म" है|
हम बुराई बाहर देखते हैं, अपने भीतर नहीं|
हम विषयों को दोष देते है| पर दोष विषयों में नहीं बल्कि उनके चिंतन में है|
कामनाएं कभी पूर्ण नहीं होतीं|
उनसे ऊपर उठने का एक ही उपाय है, और वह है --------- "निरंतर हरि का स्मरण|"
सांसारिक कार्य भी करते रहो पर प्रभु को समर्पित होकर|
"मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि|"
अपने आप को ह्रदय और मन से मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर जाएगा|
इस समर्पण पर पूर्व में प्रस्तुति दी जा चुकी है|
आगे और लिखना मेरी सीमित और अल्प क्षमता से परे है| मेरे में और क्षमता नहीं है|
और अब आप कुछ भी अर्थ लगा लो, यह आप पर निर्भर है|
यह कोई उपदेश नहीं है, स्वयं को व्यक्त करने का मेरा स्वभाव है|
सभी को शुभ कामनाएँ| ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
13 सितम्बर 2014

जिसने काम जीता उसने जगत जीता .....

आध्यात्म पथ के साधकों के लिए ......
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>>>>> "जिसने काम जीता उसने जगत जीता |" <<<<<
वह चक्रवर्ती सम्राट है |
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और मुझे कुछ नहीं कहना है | आप सब समझदार हो | अतः साधू, सावधान !
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ !!

राजस्थान के लोक देवता रामसा पीर बाबा रामदेव जी .....

राजस्थान के लोक देवता रामसा पीर बाबा रामदेव जी .....
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भाद्रपद शु.प.दूज से आरम्भ हुए बाबा रामदेव जी के मेले का आज समापन है|
बाबा रामदेव जी राजस्थान के एक लोक देवता हैं। 15वी शताब्दी के आरम्भ में भारत में लूट खसोट, छुआछूत, हिंदू-मुस्लिम झगडों आदि के कारण स्थितियाँ बड़ी अराजक बनी हुई थीं। ऐसे विकट समय में पश्चिम राजस्थान के पोकरण नामक प्रसिद्ध नगर के पास रुणिचा नामक स्थान में तोमर वंशीय राजपूत और रुणिचा के शासक अजमाल जी के घर भादो शुक्ल पक्ष दूज के दिन वि•स• 1409 को बाबा रामदेव पीर अवतरित हुए (द्वारकानाथ ने राजा अजमल जी के घर अवतार लिया, जिन्होंने लोक में व्याप्त अत्याचार, वैर-द्वेष, छुआछूत का विरोध कर अछूतोद्धार का सफल आन्दोलन चलाया।
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बाबा रामदेव ने अपने अल्प जीवन के तेंतीस वर्षों में वह कार्य कर दिखाया जो सैकडो वर्षों में भी होना सम्भव नही था। सभी प्रकार के भेद-भाव को मिटाने एवं सभी वर्गों में एकता स्थापित करने की पुनीत प्रेरणा के कारण बाबा रामदेव जहाँ हिन्दुओ के देव है तो मुस्लिम भाईयों के लिए रामसा पीर। मुस्लिम भक्त बाबा को रामसा पीर कह कर पुकारते हैं। वैसे भी राजस्थान के जनमानस में पॉँच वीरों की प्रतिष्ठा है जिनमे बाबा रामसा पीर का विशेष स्थान है।
पाबू हडबू रामदेव माँगळिया मेहा।
पांचू वीर पधारजौ ए गोगाजी जेहा।।
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बाबा रामदेव ने छुआछूत के खिलाफ कार्य कर सिर्फ़ दलितों का पक्ष ही नही लिया वरन उन्होंने दलित समाज की सेवा भी की। डाली बाई नामक एक दलित कन्या का उन्होंने अपने घर बहन-बेटी की तरह रख कर पालन-पोषण भी किया। यही कारण है आज बाबा के भक्तो में एक बहुत बड़ी संख्या दलित भक्तों की है। बाबा रामदेव पोकरण के शासक भी रहे लेकिन उन्होंने राजा बनकर नही अपितु जनसेवक बनकर गरीबों, दलितों, असाध्य रोगग्रस्त रोगियों व जरुरत मंदों की सेवा भी की। यही नही उन्होंने पोकरण की जनता को भैरव राक्षस के आतंक से भी मुक्त कराया। प्रसिद्ध इतिहासकार मुंहता नैनसी ने भी अपने ग्रन्थ "मारवाड़ रा परगना री विगत" में इस घटना का जिक्र करते हुए लिखा है- भैरव राक्षस ने पोकरण नगर आतंक से सूना कर दिया था, लेकिन बाबा रामदेव के अदभूत एवं दिव्य व्यक्तित्व के कारण राक्षस ने उनके आगे आत्म-समर्पण कर दिया था और बाद में उनकी आज्ञा अनुसार वह मारवाड़ छोड़ कर चला गया। बाबा रामदेव ने अपने जीवन काल के दौरान और समाधि लेने के बाद कई चमत्कार दिखाए जिन्हें लोक भाषा में परचा देना कहते है। इतिहास व लोक कथाओं में बाबा द्वारा दिए ढेर सारे परचों का जिक्र है। जनश्रुति के अनुसार मक्का के मौलवियों ने अपने पूज्य पीरों को जब बाबा की ख्याति और उनके अलौकिक चमत्कार के बारे में बताया तो वे पीर बाबा की शक्ति को परखने के लिए मक्का से रुणिचा आए। बाबा के घर जब पांचो पीर खाना खाने बैठे तब उन्होंने बाबा से कहा की वे अपने खाने के बर्तन (सीपियाँ) मक्का ही छोड़ आए है और उनका प्रण है कि वे खाना उन सीपियों में खाते है तब बाबा रामदेव ने उन्हें विनयपूर्वक कहा कि उनका भी प्रण है कि घर आए अतिथि को बिना भोजन कराये नही जाने देते और इसके साथ ही बाबा ने अलौकिक चमत्कार दिखाया जो सीपी जिस पीर कि थी वो उसके सम्मुख रखी मिली।
इस चमत्कार (परचा) से वे पीर इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने बाबा को पीरों का पीर स्वीकार किया। आख़िर जन-जन की सेवा के साथ सभी को एकता का पाठ पढाते बाबा रामदेव ने भाद्रपद शुक्ला एकादशी वि.स . 1442 को जीवित समाधी ले ली। श्री बाबा रामदेव जी की समाधी संवत् 1442 को रामदेव जी ने अपने हाथ से श्रीफल लेकर सब बड़े बुढ़ों को प्रणाम किया तथा सबने पत्र पुष्प् चढ़ाकर रामदेव जी का हार्दिक तन मन व श्रद्धा से अन्तिम पूजन किया। रामदेव जी ने समाधी में खड़े होकर सब के प्रति अपने अन्तिम उपदेश देते हुए कहा 'प्रति माह की शुक्ल पक्ष की दूज को पूजा पाठ, भजन कीर्तन करके पर्वोत्सव मनाना, रात्रि जागरण करना। प्रतिवर्ष मेरे जन्मोत्सव के उपलक्ष में तथा अन्तर्ध्यान समाधि होने की स्मृति में मेरे समाधि स्तर पर मेला लगेगा। मेरे समाधी पूजन में भ्रान्ति व भेद भाव मत रखना। मैं सदैव अपने भक्तों के साथ रहूँगा। इस प्रकार श्री रामदेव जी महाराज ने समाधि ली।' आज भी बाबा रामदेव के भक्त दूर- दूर से रुणिचा उनके दर्शनार्थ और अराधना करने आते है। वे अपने भक्तों के दु:ख दूर करते हैं, मुराद पूरी करते हैं। हर साल लगने मेले में तो लाखों की तादात में जुटी उनके भक्तो की भीड़ से उनकी महत्ता व उनके प्रति जन समुदाय की श्रद्धा का आकलन आसानी से किया जा सकता है।
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(संकलन : विकिपीडिया से)

सर्वश्रेष्ठ हितैषी .....

सर्वश्रेष्ठ हितैषी .....
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महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं .....
"सदगुरु महिमा कहन को, मन बहुत लुभाया |
मुख में जिह्वा एक ही, तातैं पछताया ||"
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किसी भी साधक का सर्वश्रेष्ठ हितैषी उसका सद्गुरु ही होता है| सद्गुरु से बढकर किसी का भी कल्याण चाहने वाला अन्य कोई नहीं होता| सद्गुरु का सम्बन्ध शाश्वत होता है| वे न सिर्फ अपने शिष्य को भगवद् प्राप्ति का उपाय बताते हैं बल्कि उसके साथ साथ साधना भी करते हैं, और उसकी भावी विपदाओं और सांसारिक समस्याओं से रक्षा भी करते हैं| गुरु को समर्पित की हुई साधना में कोई त्रुटी भी रह जाए तो सद्गुरु उसमें शोधन कर देते हैं|
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किसी भी साधक को अपनी साधना का सिर्फ 25 प्रतिशत ही पूर्ण निष्ठा से करना होता है| 25 प्रतिशत सद्गुरु करता है| बाकि 50 प्रतिशत जगन्माता की असीम करुणा से उसे फल मिल जाता है| पर स्वयं के भाग का 25 प्रतिशत तो हर साधक को शत प्रतिशत करना पड़ता है|
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वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है| जीवन की विपरीततम परिस्थितियों में जहाँ कहीं कोई आशा की किरण दिखाई न दे, और चारों ओर अंधकार ही अंधकार हो, वहाँ एकमात्र सद्गुरु ही हैं जो साथ नहीं छोड़ते| बाकि सारी दुनिया साथ छोड़ सकती है, पर सद्गुरु महाराज कभी हमारा साथ नहीं छोड़ते| हम ही उन्हें भुला सकते हैं पर वे नहीं| उनसे मित्रता बनाकर रखो उनका साथ शाश्वत है| वे हमारे आगे के भी सभी जन्मों में साथ रहेंगे|
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अपनी सारी पीडाएं, सारे दु:ख, सारे कष्ट उन्हें सौंप दो| उन्हें मत भूलो, वे भी हमें नहीं भूलेंगे| निरंतर उनका स्मरण करो| हमारे सुख-दुःख सभी में वे हमारे साथ रहेंगे| अपने ह्रदय का समस्त प्रेम उन्हें बिना किसी शर्त के दो|
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'गु' शब्द का अर्थ है ..... अन्धकार, और 'रू' का अर्थ है दूर करने वाला|
जो अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करते हैं वे ही गुरु हैं| शिष्य को गुरु का ध्यान अपने सहस्त्रार में निरंतर करना चाहिये| गुरु ही वास्तव में तीर्थ और देवता हैं क्योंकि वे भेदबुद्धि के विनाशक हैं|
"संतन ह़ी में पाईये, राम मिलन को घाट।
सहजै ही खुल जात है, सुंदर ह्रदय कपाट||"
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ॐ गुरवे नमः, ॐ परम गुरवे नमः, ॐ परात्पर गुरवे नम:, ॐ परमेष्टि गुरवे नमः, ॐ जगत गुरवे नमः, ॐ आत्म गुरवे नमः, ॐ विश्व गुरवे नमः ! ॐ गुरु ! जय गुरु ! ॐ नम:शिवाय !! ॐ ॐ ॐ !!

दीर्घसूत्रता मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है .....

दीर्घसूत्रता मनुष्य की सबसे बड़ी कमजोरी है .....
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जो काम करना है उसे अब और इसी समय करो| जो कल करना है उसे आज करो, और जो आज करना है उसे अभी करो| काम को आगे टालने की प्रवृति को दीर्घसूत्रता कहते हैं| यह मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी कमजोरी है| प्रमाद यानि आलस्य ही मृत्यु है|
रावण के मन में तीन शुभ संकल्प थे.....
(१) उसकी पहली इच्छा थी कि वह स्वर्ग का मार्ग एक लम्बी सीढ़ी की तरह इतना आसान बना देगा कि पापी मनुष्य भी वहाँ पहुँच सकें|
(२) उसको औरतों को भोजन बनाते समय अग्नि से उठने वाले धुएँ से होने वाली असुविधा से बड़ी पीड़ा थी| उसकी दूसरी इच्छा थी अग्नि को धुआं रहित करने की|
(३) उसकी तीसरी इच्छा थी सोने में सुगंध भर कर उसे सुगन्धित पदार्थ बनाने की| वह चाहता था की स्त्रियाँ जब स्वर्णाभूषण पहिनें तब उनकी देह महक उठे और उन्हें अन्य किसी शृंगार की आवश्यकता न पड़े|

रावण इन सब कामों को करने में समर्थ था| पर आलस्यवश आज करेंगे, कल करेंगे कहकर इन शुभ कामों को टालता रहां| फलस्वरूप उसे बहुत देरी हो गयी| उसके साथ भगवान राम का युद्ध छिड़ गया और उसकी मृत्यु हो गयी| उसके पश्चात हज़ारो वर्ष व्यतीत हो गए पर उसके छोड़े हुए शुभ संकल्प को आज तक कोई पूरा नहीं कर पाया है| हाँ अशुभ कार्य को करने में आलस्य और दीर्घसूत्रता लाभदायक है| अगर सीताहरण में वह आलस्य और प्रमाद करता तो न तो वह मरता और न ही उसका कुल नष्ट होता|
शुभ कर्म जितनी शीघ्र कर लिए जाएँ उतना ही अच्छा है और अशुभ कार्यों में जितनी देरी की जाए या उन्हें किया ही न जाये तो और भी अच्व्छा है| अतः उठो जागो और अपने लक्ष्य की प्राप्ति में तुरंत जुट जाओ|
हमारा सब से पहिला और पवित्रतम कार्य है परमात्मा को प्राप्त होना| बाकी अन्य हर चीज प्रतीक्षा कर सकती है पर ईश्वर की खोज नहीं| अपना दिवस ईश्वर के ध्यान से आरम्भ करो| पूरे दिन उसकी स्मृति बनाए रखो, और जब भी भूल जाओ तब याद आते ही फिर उसकी स्मृति में रहने का प्रयत्न करते रहो| रात्री को शयन से पूर्व परमात्मा का गहनतम ध्यान कर जगन्माता की गोद में निश्चिन्त होकर सो जाओ|
अपने ह्रदय में एक प्रचंड अग्नि जला दो परमात्मा को प्राप्त करने की| हमारी अभीप्सा इतनी तीब्र हो की उसके समक्ष अन्य कोई कामना टिक ही न सके| उसके प्रेम को इतना गहन बना दो कि अन्य कोई विचार ही न रहे|
माया की शक्तियों से बचना अति कठिन है| भगवान से गहन प्रार्थना और सत्संग साधक की सदा रक्षा करते हैं| भगवान का ध्यान भी सत्संग ही है जिसमें आप भगवान के साथ रहते है| पर ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रिय और परम भक्त महात्माओं का लौकिक सत्संग भी अति आवश्यक है, जो दुर्लभ है|
शुभ कामनाएँ|
ॐ तत्सत् | ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!

केवल जीव ही नहीं, सारा संसार ही ब्रह्मरूप है, सारा जगत् ब्रह्म ही है, वस्तुतः मैं वह स्वयं हूँ ..

केवल जीव ही नहीं, सारा संसार ही ब्रह्मरूप है, सारा जगत् ब्रह्म ही है, वस्तुतः मैं वह स्वयं हूँ .....

परमात्मा ही सर्वस्व है| जब हम किसी चीज की कामना करते हैं तब परमात्मा उस कामना के रूप में आ जाते हैं, पर स्वयं का बोध नहीं कराते| हम जब तक कामनाओं पर विजय नहीं पाते तब तक परमात्मा का बोध नहीं कर सकते|

आत्मा को प्रेम का विषय बना कर ही कामनाओं को जीत सकते हैं| काम, क्रोध ही हमारे वास्तविक शत्रु हैं, और राग, द्वेष व मोह ही वास्तविक बाधाएँ| अन्यथा परमात्मा तो नित्य प्राप्त हैं| वे तो हमारा स्वरूप हैं| जीव ही नहीं, समस्त सृष्टि ही परमात्मा है, मैं वह स्वयं हूँ| हर ओर परमात्मा ही परमात्मा है| उस अज्ञात परमात्मा को अपने से एक समझते हुए ही उससे पूर्ण प्रेम करना होगा| अन्य कोई मार्ग नहीं है|
ॐ तत्सत्| ॐ ॐ ॐ ||

अब भारत को जागृत होना ही होगा .....

अब भारत को जागृत होना ही होगा .....
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अब समय आ गया है, भारतवर्ष को अब जागृत होना ही होगा|
बहुत हानि हो चुकी है और हो रही है| भारतवर्ष की अस्मिता पर चारों और से बड़े भयानक और मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं, पर भारत में जागृति आ रही है और लोग समझने लगे हैं|
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भारत पर सबसे बड़ा खतरा धर्मनिरपेक्षतावाद यानि सेकुलरिज्म से है| यह भारत को निरंतर खोखला कर रहा है| सेकुलरिज्म के नाम पर भारत की अस्मिता को मिटाया जा रहा है| इस विषय पर बहुत अधिक लिखा जा चुका है अतः और नहीं लिखूंगा|
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दूसरा खतरा सरकारी जातिवाद से है| भारत में जातिप्रथा अब तक समाप्त हो गयी होती पर सरकारी नीतियों से जातिवाद जीवित है| जातिगत आरक्षण और हर व्यक्ति के सरकारी कागजों पर अपनी जाति लिखने की बाध्यता के कारण जातिप्रथा जीवित है| यदि सरकारी कागजों पर जाति के उल्लेख पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाए और जातिगत आरक्षण समाप्त कर दिया जाए तो जातिप्रथा स्वतः ही समाप्त हो जायेगी|
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भारत की वर्त्तमान धर्मनिरपेक्ष शिक्षा व्यवस्था लोगों को चरित्रवान नहीं बनाती| विद्या के नाम पर अविद्या का प्रसार हो रहा है| जीवन के उच्चतर मूल्य समाप्त हो रहे हैं| जीवन का उद्देश्य मात्र रुपया कमाना और भोग-विलास की सामग्री एकत्र करना ही रह गया है|
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जो तथाकथित अल्पसंख्यक हैं वे तो अपने धर्म और संस्कृति की शिक्षा दे सकते हैं, पर हिन्दुओं को यह अधिकार नहीं है| हिंदुत्व यानी इस राष्ट्र की अस्मिता पर कोई कुछ कहना चाहे तो उसे साम्प्रदायिक कह कर नीचा दिखा दिया जाता है, और अन्य कोई कुछ भी अनाप-शनाप कहे तो उसे विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहा जाता है|
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पश्चिमी देश भी भारत को एक बाज़ार मात्र समझते हैं| अब पहली बार भारत में एक राष्ट्रवादी सरकार आई है और भारत की वर्त्तमान विदेश नीति के अच्छे परिणाम आ रहे हैं| भारतीयों का स्वाभिमान भी बढ़ा है|
पूर्व में भारत पर पाकिस्तान के जितने भी आक्रमण हुए वे सब अमेरिका के संकेत पर ही हुए थे| अमेरिका का सदा प्रयास रहता था कि भारत की सरकारें सदा अमेरिका की पिछलग्गू ही रहें| पर पहली बार बराबरी के आधार पर समझौते हो रहे हैं|
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भारत की अस्मिता हिंदुत्व है जिसे कमजोर करने के लिए भारत की धार्मिक संस्थाओं पर भी विदेशी शक्तियाँ अधिकार कर रही हैं| संस्कृत का प्रयोग तो समाप्तप्राय किया जा चुका है| भारतीय संस्कृति को नष्ट करने का पूरा प्रयास किया जा रहा है| संस्कृति के नाम पर नाच-गाने परोसे जा रहे हैं| क्या हमारी संस्कृति नाचने-गाने वालों की ही है?
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विदेशी चर्च और इटली का माफिया भारत को नष्ट करने के पूरे हथकंडे अपना रहा है| माओवादियों को भी धन और शस्त्र भारत में विदेशी चर्चों से ही प्राप्त होता है| ये माओवादी और मानवाधिकारवादी अमेरिका और पश्चिमी देशों के ही शस्त्र हैं| भारत की शिक्षा और कृषि व्यवस्था में सुधार करने का ये सदा विरोध करते रहेंगे|
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भारत पर अगला सबसे बड़ा खतरा जेहाद की अवधारणा से है| "गजवा-ए-हिन्द" की नीति के अनुसार अल-कायदा के पश्चात इस्लामिक स्टेट (पूर्व नाम ... इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया) की भी योजना भारत पर अधिकार कर शरिया कानून लागु करने और इसको खुरासान नामक देश बनाने की है जहाँ किसी भी हिन्दू के लिए कोई स्थान नहीं होगा| या तो उसको इस्लाम कबूलना होगा या मृत्यु को चुनना होगा| पकिस्तान का तो जन्म ही भारत के प्रति घृणा के आधार पर हुआ है| पकिस्तान का जब तक अस्तित्व है वह कभी भारत का मित्र नहीं हो सकता| जेहादी शक्तियों के पास भारत को नष्ट करने की पूरी क्षमता है, जिनका प्रतिकार भारत को करना ही होगा|
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भारत की सैन्य शक्ति जनसंख्या और क्षेत्रफल के अनुपात में बहुत कम है|
भारत के पास चीन के बराबर सेना तो होनी ही चाहिए| हम शक्तिशाली होंगे तो हमारी ओर आँख उठाकर देखने का किसी में साहस नहीं होगा|
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पर मुझे लगता है कि भारत का अब और पतन नहीं होगा| एक प्रबल आधात्मिक शक्ति का जागरण हो रहा है जो भारत का उत्थान करेगी| सभी असत्य और अन्धकार की आसुरी शक्तियों का नाश होगा और भारत माँ निकट भविष्य में ही अपने द्विगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर विराजमान होगी|
भारत एक आध्यात्मिक धर्म सापेक्ष राष्ट्र के रूप में उभरेगा|
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ॐ तत्सत् | जय जननी जय माँ | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

Thursday, 8 September 2016

(1) हर पल एक उत्सव है ..... (2) शिवमय होकर शिव का ध्यान करो .....

(1) हर पल एक उत्सव है .....
(2) शिवमय होकर शिव का ध्यान करो .....
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(1) किसी भी शुभ कार्य के लिए हर पल एक शुभ मुहूर्त होता है| सबसे शुभ कार्य है ..... परमात्मा का ध्यान| उसके लिए हर पल शुभ है| परमात्मा के स्मरण के लिए कोई देश-काल या शौच-अशौच का बंधन नहीं है| निरंतर परमात्मा का स्मरण रहे| जब भूल जाओ तब याद आते ही फिर स्मरण में रखने का प्रयास करो| किसी भी अन्य तथाकथित शुभ पल की प्रतीक्षा मत करो|
>>>हर साँस के आने-जाने व जाने-आने के मध्य का क्षण एक संधि-क्षण होता है जो सर्वाधिक शुभ समय होता है| उस समय परमात्मा का स्मरण रहना चाहिए|<<<
>>>योगियों के अनुसार जब दोनों नासिका छिद्रों से साँस चल रही हो वह समय सर्वश्रेष्ठ है, उस समय परमात्मा का ध्यान सिद्ध होता है| उस समय का उपयोग परमात्मा के ध्यान के लिए ही करना चाहिए|<<<
हर क्षण शुभ है, हर दिन शुभ है, हर पल और हर दिन एक उत्सव है| हर दिन होली है और हर रात दिवाली है, दूसरे शब्दों में हर दिन नववर्ष है और हर रात क्रिसमस है|
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वह कौन है जो हमारे में साँस ले रहा है? यदि आप ले रहे हैं तो साँस बंद कर के दिखाओ| यह परमात्मा ही है जो हर प्राणी में साँस ले रहा है, और हर जीव को जीवंत रखे हुए है| अतः उसके स्मरण और उसके प्रेम में व्यतीत किया हुआ जीवन ही सार्थक है| जो भी क्षण परमात्मा की स्मृति में, उनके स्मरण में लिकल जाए वह ही शुभ और सर्वश्रेष्ठ है, बाकी समय विराट मरुभूमि की रेत में गिरे जल की कुछ बूंदों की तरह निरर्थक है|
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(2) निरंतर अपने शिव-स्वरुप का ध्यान करो| शिवमय होकर शिव का ध्यान करो| पवित्र देह और पवित्र मन के साथ, एक ऊनी कम्बल पर कमर सीधी रखते हुए पूर्व या उत्तर की ओर मुँह कर के बैठ जाओ| भ्रूमध्य में भगवान शिव का ध्यान करो| वे पद्मासन में शाम्भवी मुद्रा में बैठे हुए हैं, उनके सिर से ज्ञान की गंगा प्रवाहित हो रही है, और दसों दिशाएँ उनके वस्त्र हैं| धीरे धीरे उनके रूप का विस्तार करो| आपकी देह, आपका कमरा, आपका घर, आपका नगर, आपका देश, यह पृथ्वी, यह सौर मंडल, यह आकाश गंगा, सारी आकाश गंगाएँ, और सारी सृष्टि व उससे परे भी जो कुछ है वह सब शिवमय है| उस शिव रूप का ध्यान करो| वह शिव आप स्वयं हो| आप यह देह नहीं बल्कि साक्षात शिव हो| बीच में एक-दो बार आँख खोलकर अपनी देह को देख लो और बोध करो कि आप यह देह नहीं हो बल्कि शिव हो| उस शिव रूप में यथासंभव अधिकाधिक समय रहो| सारे ब्रह्मांड में ओंकार की ध्वनी गूँज रही है, उस ओंकार की ध्वनी को निरंतर सुनो| हर आते आती जाती साँस के साथ यह भाव रहे कि मैं "वह" हूँ .... "हँ सः" या "सोsहं" | यही अजपा-जप है, यही प्रत्याहार, धारणा और ध्यान है| यही है शिव बनकर शिव का ध्यान, यही है सर्वोच्च साधना|
यह साधना उन्हीं को सिद्ध होती है जो निर्मल, निष्कपट है, जिन में कोई कुटिलता नहीं है और जो सत्यनिष्ठ और परम प्रेममय हैं| उपरोक्त का अधिकतम स्वाध्याय करो| भगवान परमशिव की कृपा से आप सब समझ जायेंगे|
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भगवान परमशिव सबका कल्याण करेंगे| अपने अहंकार का, अपने अस्तित्व का, अपनी पृथकता के बोध का उनमें समर्पण कर दो|
ॐ तत्सत् ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!

लक्ष्य प्राप्ति हेतु हमें परिस्थितियों से ऊपर उठना ही पड़ेगा, दूसरा कोई विकल्प नहीं है .....

लक्ष्य प्राप्ति हेतु हमें परिस्थितियों से ऊपर उठना ही पड़ेगा,
दूसरा कोई विकल्प नहीं है .....
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किसी अन्य को दोष देना व्यर्थ है| दुर्बलता स्वयं में ही होती है| बाहर की समस्त समस्याओं का समाधान स्वयं के भीतर ही है| अपनी विफलताओं के लिए हर समय परिस्थितियों को दोष देना उचित नहीं है| हम कभी स्वयं को परिस्थितियों का शिकार न समझें| इससे कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि परिस्थितियाँ और भी विकट होती जाएँगी|
अच्छी सकारात्मक सोच के मित्रों के साथ रहें| सब मित्रों का एक परम मित्र परमात्मा है जिसकी शरण लेने से सोच भी बदलेगी और परिस्थितियाँ भी बदलेंगी|
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मेरा अब तक का अनुभव यही है कि जैसा हम सोचते हैं और जैसे लोगों के साथ रहते हैं, वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हमारे चारों ओर हो जाता है| पर अपने प्रारब्ध कर्मों के फलस्वरूप जो भी परिस्थितियाँ हमें मिली हैं, उन से ऊपर हमें उठना ही होगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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सद्साहित्य के अध्ययन और परमात्मा के नियमित ध्यान से विपरीत से विपरीत परिस्थितियों से जूझने और उनसे ऊपर उठने की शक्ति मिलती है|
जीवन के रणक्षेत्र में आहें भरना और स्वयं पर तरस खाना एक कमजोर मन की कायरता ही है| जो साहस छोड़ देते हैं वे अपने अज्ञान की सीमाओं में बंदी बन जाते हैं| जीवन अपनी समस्याओं से ऊपर उठने का एक निरंतर संघर्ष ही है|
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हमें हर समस्या का समाधान करने का और हर विपरीत परिस्थिति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करने का परमात्मा द्वारा दिया हुआ एक पावन दायित्व है जिससे हम बच नहीं सकते| यह हमारे विकास के लिए प्रकृति द्वारा बनाई गई एक आवश्यक प्रक्रिया है जिसका होना अति आवश्यक है| हमें इसे भगवान का अनुग्रह मानना चाहिए| बिना समस्याओं के कोई जीवन नहीं है| यह हमारी मानसिक सोच पर निर्भर है कि हम उनसे निराश होते हैं या उत्साहित होते हैं|
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जब हम परिस्थितियों के सामने समर्पण कर देते हैं या उनसे हार मान जाते हैं, तब हमारे दुःखों और दुर्भाग्य का आरम्भ होता है|, इसमें किसी अन्य का क्या दोष ??? नियमों को न जानने से किये हुए अपराधों के लिए किसी को क्या क्षमा मिल सकती है? नियमों को न जानना हमारी ही कमी है|
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हमें चाहिए कि हम निरंतर परमात्मा को अपने ह्रदय में रखें और अपने सारे दुःख-सुख, सारे संचित और प्रारब्ध कर्मों के फल व कर्ताभाव अपने प्रियतम मित्र परमात्मा को सौंप दें| इस दुःख, पीड़ाओं, कष्टों और त्रासदियों से भरे महासागर को पार करने के लिए अपनी जीवन रूपी नौका की पतवार उसी परम मित्र को सौंप कर निश्चिन्त हो जाएँ|
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यह संसार ..... आत्मा से परमात्मा के बीच की यात्रा में एक रंगमंच मात्र है| इस रंगमंच पर अपना भाग ठीक से अदा नहीं करने तक बार बार यहीं लौट कर आना पड़ता है| माया के आवरण से परमात्मा दिखाई नहीं देते| यह आवरण विशुद्ध भक्ति से ही हटेगा जिसके हटते ही इस नाटक का रचेता सामने दिखाई देगा| सारे विक्षेप भी भक्ति से ही दूर होंगे|
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प्रभु के श्रीचरणों में शरणागति और पूर्ण समर्पण ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है| गहन से गहन निर्विकल्प समाधी में भी आत्मा को वह तृप्ति नहीं मिलती जो विशुद्ध भक्ति में मिलती है| .मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि ..... पराभक्ति ही है|
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हे प्रभु हमारा यह देह रुपी साधन सदा स्वस्थ और शक्तिशाली रहे, हमारा ह्रदय पवित्र रहे, व मन सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त रहे| हमें सदा के लिए अपनी शरण में ले लो| हर प्रकार की परिस्थितियों से हम ऊपर उठें और स्वयं की कमजोरियों के लिए दूसरों को दोष न दें| हमें अपनी शरण में लो ताकि हमारा समर्पण पूर्ण हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

आप सब नमन के योग्य हैं .......

आप सब नमन के योग्य हैं .......
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कोई दो लाख में से एक व्यक्ति होता है जो बिना किसी शर्त, हित या अपेक्षा के भगवान से प्रेम करता है| आप सब उन दो लाख में एक हो अतः आप सब अति धन्य हो| बाकी जो लोग स्वयं को आस्तिक कहते हैं, उनके लिए तो संसार साध्य है और परमात्मा एक साधन|
आध्यात्मिक लेखों को कोई पढ़ना नहीं चाहता, जो उनको पढ़ता है और उनसे प्रेरणा लेकर उपासना में लग जाता है वह और भी धन्य है| फिर उसे कुछ पढने की आवश्यकता भी नहीं है|
मुझ अकिंचन के माध्यम से सरलतम भाषा में जो कुछ भी हल्का-फुल्का लिखा जाता है, उसे पढ़कर आप मुझ पर उपकार करते हो यानि मुझे धन्य ही करते हो| स्वयं को व्यक्त करने के लिए ही लिखता हूँ, अन्य कोई उद्देश्य नहीं है|
आप सब को शुभ कामनाएँ और नमन ! आप सब मेरी ही निजात्मा और परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति हो | ॐ नमःशिवाय | ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!

'राम' नाम और 'ॐ' की ध्वनि दोनों एक ही है .....

'राम' नाम और 'ॐ' की ध्वनि दोनों एक ही है .....
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कुछ संतों ने संस्कृत व्याकरण और आध्यात्मिक साधना दोनों से ही सिद्ध किया है कि तारक ब्रह्म 'राम' और 'ॐ' की ध्वनि दोनों एक ही हैं|
संस्कृत व्याकरण की दृष्टी से -----
राम = र् + आ + म् + अ |
= र् + अ + अ + म् + अ ||
हरेक स्वर वर्ण पुल्लिंग होता है अतएव पूरा स्वतंत्र होता है| इसी तरह हर व्यंजन वर्ण स्त्रीलिंग है अतः वह परतंत्र है|
'आद्यन्त विपर्यश्च' पाणिनि व्याकरण के इस सूत्र के अनुसार विश्लेषण किये गए 'राम' शब्द का 'अ' सामने आता है| इससे सूत्र बना --- अ + र् + अ + अ + म् |
व्याकरण का यह नियम है कि अगर किसी शब्द के 'र' वर्ण के सामने, तथा वर्ण के पीछे अगर 'अ' बैठते हों, तो उसका 'र' वर्ग 'उ' वर्ण में बदल जाता है|
इसी कारण राम शब्द के अंत में आने वाले र् + अ = उ में बदल जाते हैं|
इसलिए अ + र् + अ = उ
अर्थात उ + अ = ओ हुआ|
ओ + म् = ओम् या ॐ बन गए|
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इसी तरह 'राम' शब्द के भीतर ही 'ॐ' मन्त्र निहित है| राम शब्द का ध्यान करते करते राम शब्द 'ॐ' में बदल जाता है| जिस प्रकार से ॐकार मोक्ष दिलाता है, उसी तरह से 'राम' नाम भी मोक्ष प्रदान करता है| इसी कारण से 'राम' मन्त्र को तारकब्रह्म कहते हैं|
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जो साधक ओंकार साधना करते हैं और जिन्हें ध्यान में ओंकार की ध्वनी सुनती है वे एक प्रयोग कर सकते हैं| ध्यान में ओंकार की ध्वनी खोपड़ी के पिछले भाग में मेरु-शीर्ष (Medulla Oblongata) के ठीक ऊपर सुनाई देती है| यह प्रणव नाद मेरु-शीर्ष से सहस्त्रार और फिर समस्त ब्रह्माण्ड में फ़ैल जाता है| आप शांत स्थान में कमर सीधी रखकर आज्ञा चक्र पर दृष्टी रखिये और मेरुशीर्ष के ठीक ऊपर राम राम राम राम राम शब्द का खूब देर तक मानसिक जाप कीजिये| आप को ॐकर की ध्वनी सुननी प्रारम्भ हो जायेगी और राम नाम ॐकार में बदल जाएगा| कुछ समय के लिए कानों को अंगूठे से बंद कर सकते हैं| धन्यवाद| जय श्रीराम !
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

मिले ना रघुपति बिन अनुरागा, किये जोग जप ताप विरागा .....

मिले ना रघुपति बिन अनुरागा, किये जोग जप ताप विरागा .....
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संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है ---
"मिले ना रघुपति बिन अनुरागा, किये जोग जप ताप विरागा"||
बिना प्रेम के प्रभु नहीं मिलते, चाहे कोई जितना भी योग, जप, तप कर ले और वैराग्य भी क्यों ना हो| भक्ति का अर्थ है ..... परम प्रेम|
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प्रेम में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| वही प्रेम जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचता है उसे परा भक्ति कह सकते हैं| प्रेम के मार्ग में आने वाले माया के हर आवरण और विक्षेप की निवृति के लिए शरणागत भी होना पड़ता है| शरणागति भी बिना प्रेम के नहीं होती|
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अतः निरंतर दिन रात हर समय अपने प्रेमास्पद को प्रेम करें और प्रेम के मार्ग में आने वाली हर बाधा को विष की तरह त्याग दें और आगे बढ़ते रहें| प्रभु से प्रेम, प्रेम और प्रेम|
हम स्वयं ही वह परम प्रेम बनें| प्रेम की उच्चतम अभिव्यक्ति हुई है श्रीराधा जी और श्री हनुमान जी में| उनके ह्रदय में जो प्रेम था उसका दस लाखवाँ भाग भी यदि हमारे में हो तो प्रभु कहीं दूर नहीं है|
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हर साधक को साधना क्षेत्र में सफलता के लिए अहैतुकी परम प्रेम का विकास करना पड़ता है| परम प्रेम में कोई अपेक्षा या माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| समर्पण ही आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है|
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आप सब मनीषियों को मेरा सप्रेम सादर प्रणाम ! सब में प्रभु की पराभक्ति जागृत हो | आप सब परमात्मा की दिव्यतम अभिव्यक्तियाँ हैं |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

सत्य का आलोक, असत्य और अन्धकार के बादलोँ से ढका ही दिखता है, नष्ट नहीँ होता .....

सत्य का आलोक, असत्य और अन्धकार के बादलोँ से ढका ही दिखता है,
नष्ट नहीँ होता .....
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भगवान भुवन भास्कर जब अपने पथ पर अग्रसर होते हैं तब मार्ग में कहीं भी तिमिर का अवशेष नहीं रहता| अब समय आ गया है| असत्य, अन्धकार और अज्ञान की शक्तियों का पराभव सुनिश्चित है, पर पहिले अपने अंतर में उस ज्योतिर्मय ब्रह्म को आलोकित करना होगा|
सत्य विचार अमर है । सनातन वैदिक धर्म अमर है ।।
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सत्यं वद (सत्य बोलो) !
धर्मं चर (धर्म मेँ विचरण करो) !
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स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यं ।
वेदाध्ययन और उसके प्रवचन प्रसार मेँ प्रमाद मत करो| !
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तद्विष्णोः परमं पदम् । सदा पश्यन्ति सूरयः।।
उस विष्णु के परम पद का दर्शन सदैव सूरवीर ही करते हैँ ।
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नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः ||
बलहीन को कभी परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती|
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अश्माभव:परशुर्भवःहिरण्यमस्तृतांभवः|
उस चट्टान की तरह बनो जो समुद्र की प्रचंड लहरों के आघात से भी विचलित नहीं होती|
उस परशु की तरह बनो जिस पर कोई गिरे वह भी नष्ट हो, और जिस पर भी गिरे वह भी नष्ट हो जाए|
तुम्हारे में हिरण्य यानि स्वर्ण की सी पवित्रता हो|
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परमात्मा से प्रेम करना तथा उसे प्रसन्न करने के लिये ही जीवन के हर कार्य को करना चाहे वह छोटे से छोटा हो या बड़े से बड़ा ..... बस यही महत्व रखता है| जब प्रेम की पराकाष्ठा होगी तब ईश्वर ही कर्ता हो जायेंगे और हमारा नहीं सिर्फ उन्हीं का अस्तित्व होगा|
ॐ ॐ ॐ !!

आभार .....

आभार ....

आप के हार्दिक प्रेम, आत्मीयता, सहयोग और प्रोत्साहन के लिए मैं सदा आप का आभारी हूँ| इस लौकिक जीवन में स्वयं को व्यक्त करने की अवचेतन मन में एक कामना थी जिसे पूर्ण करने का फेसबुक ने अवसर दिया| अब तो व्हाट्सअप जैसे अनेक अन्य साधन भी आ गए हैं पर अब अन्यत्र कहीं भी जाने का मानस नहीं है| सूक्ष्मता में एक नया द्वार खुल रहा हैं जिसका अकाट्य आकर्षण और भी बहुत अधिक है| मैं फेसबुक पर कभी आपके दर्शन नहीं कर पाऊँ तब भी मुझे अपने से दूर मत समझना| मैं जहाँ भी हूँ आपके साथ ही हूँ|
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अनुभव ........
अच्छा या बुरा मेरे साथ कभी भी कुछ भी नहीं हो सकता और कोई भी मेरे साथ कुछ भी नहीं कर सकता जब तक परमात्मा की स्वीकृति ना हो| जगन्माता निरंतर मेरी रक्षा कर रही हैं| मैं उनकी ममतामयी गोद में पूर्ण रूप से सुरक्षित हूँ| मेरे साथ क्या होता है इसका कोई महत्व नहीं है, पर उस अनुभव से मैं क्या बनता हूँ, महत्व सिर्फ उसी का है| हर कटु और मधुर अनुभव कुछ सीखने के लिए परमात्मा द्वारा दिया हुआ अवसर है| उनका प्रेमसिन्धु इतना विराट है जिसमें मेरी हिमालय जैसी भूलें भी एक कंकर-पत्थर से अधिक नहीं है| यह लौकिक जीवन एक माँगा हुआ बहुत ही अल्प समय है जिसमें किसी भी तरह की नकारात्मकता से बचना है|
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लक्ष्य ........
करोड़ों सूर्यों की ज्योति से भी अधिक आभासित मेरा लक्ष्य मेरे सामने है| इधर-उधर दायें-बाएँ कहीं अन्यत्र कुछ भी न देखते हुए जब तक मेरी दृष्टी मेरे सामने अपने लक्ष्य पर है मैं सही मार्ग पर हूँ, भटक नहीं सकता| उस लक्ष्य से विमुख होना ही पाप है, और उसको निरंतर सामने रखना ही पुण्य है|
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पुनश्चः आप को बहुत बहुत साभार धन्यवाद|
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ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

Monday, 5 September 2016

शिवलिंग की पूजा का रहस्य .....

शिवलिंग की पूजा का रहस्य .....
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मुझे मेरी देश-विदेश की यात्राओं में विधर्मी ही नहीं स्वधर्मी लोगों ने भी अज्ञानतावश या चाहे छेड़ने के लिए ही सही, अनेक बार चलाकर यह पूछा है कि आप हिन्दू लोग शिवलिंग की पूजा क्यों करते हो|
हिन्दू धर्म के विरुद्ध ईसाई धर्म प्रचारकों ने कई सौ वर्षों से सबसे बड़ा निंदा अभियान यह चला रखा है कि हिन्दू लोग अपने काल्पनिक पुरुष देवता शिव की जननेंद्रिय यानि शिश्न की पूजा करते हैं अतः हिन्दू धर्म अज्ञानी मूर्खों का धर्म है| उन में दुराग्रहता के कारण इतनी समझ या क्षमता नहीं होती कि वे तत्व की बात समझ सकें|
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यहाँ मैं मेरी सिमित व अल्प बुद्धि से जो भी भगवान ने मुझे दी है, अपने स्वाध्याय और अनुभव से अपनी क्षमतानुसार शिवलिंग की पूजा का रहस्य जो मैं समझ पाया हूँ, बताने का प्रयास कर रहा हूँ| वैसे तो भगवान शिव परम तत्व हैं, वे आंशिक रूप से अपना रहस्य किसी साधक को कृपा कर के स्वयं ही बोध करा सकते हैं| अपने आप उन्हें समझने का प्रयास मनुष्य की बुद्धि की क्षमता से परे है|
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शिवलिंग अनंत, सर्वव्यापी, परम चैतन्य या परम तत्व भगवन शिव का एक प्रतीक हैं जिसकी विधिवत साधना से शिवलिंग प्रत्यक्ष चैतन्य हो जाता है|
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जिसके अन्दर सबका विलय होता है उसे लिंग कहते हैं| स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में और कारण जगत का सभी आयामों से परे ..... तुरीय चेतना में विलय हो जाता है| उस तुरीय चेतना का प्रतीक हैं ..... शिवलिंग, जो साधक की कूटस्थ चेतना में स्वयं निरंतर जागृत रहता है|
उसके समक्ष साधना करने से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है| इसकी अनुभूति अधिकांश साधक करते हैं|
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भगवन शिव विध्वंस यानि विनाश के नहीं बल्कि परम चैतन्य के प्रतीक हैं|
इस पर आगे और प्रकाश डालने का प्रयास करता हूँ|
मैंने पुराणों के सन्दर्भ में पढ़ा था कि एक बार ऋषियों ने सुमेरु पर्वत पर ब्रह्मा जी से पूछा कि कौन सा तत्व अव्यय है| इस विषय पर कोई निष्कर्ष नहीं निकला तो ब्रह्माजी सहित यज्ञ के देवता क्रतु ने वेदों का आवाहन किया| चारों वेद प्रकट हुए और उन्होंने शिव को एकमात्र परम तत्व बताया|
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भगवान शिव दुःखतस्कर हैं| तस्कर का अर्थ होता है ... चोर जो दूसरों की वस्तु का हरण कर लेता है| भगवन शिब अपने भक्तों के दुःख कष्ट हर लेते हैं, अतः अनंत काल से वे हमारे उपास्य देवता रहे हैं| 'नमो वंचते परिवंचते स्तायुनां पतये नमो नमो निषंगिण इषुधिमते तस्कराणांपतये नमोनम:||' भक्तोंके कष्ट की तस्करी करते हैं शिवजी ।
वे जीवात्मा को संसारजाल, कर्मजाल और मायाजाल से मुक्त कराते हैं| जीवों को स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के तीन पुरों को ध्वंश कर महाचैतन्य में प्रतिष्ठित कराते है अतः वे त्रिपुरारी हैं|
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गहन ध्यान में सभी को एक विराट ज्योतिर्पुंज (सर्वव्यापी ज्योतिर्मय ब्रह्म) के दर्शन कूटस्थ में होते हैं जिसमें समस्त अस्तित्व का विलय हो जाता है| उन सर्वव्यापी ब्रह्म का प्रतीक ही शिवलिंग है|
उनकी साधना साधक स्थूल रूप से प्रतीकात्मक शिवलिंग के रूप में करते हैं| यह है शिवलिंग की पूजा का रहस्य|
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ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||
२४ जुलाई २०१४

मनुष्य का जन्म अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए ही होता है ....

मनुष्य का जन्म अपने प्रारब्ध कर्मों का फल भोगने के लिए ही होता है ....
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संचित कर्मों में से प्रारब्ध ..... जन्म से पहिले ही बन जाता है| यहाँ हम जो भी जीवन जी रहे हैं ..... सारे दुःख-सुख ..... वे सब अपने ही प्रारब्ध कर्मों का फल है| किसी अन्य पर दोषारोपण गलत है| हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं|
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यह कर्म फल भोगते भोगते हम और भी नए कर्मों की सृष्टि कर लेते हैं जो संचित हो जाते हैं| उनका फल भी कभी ना कभी तो भुगतना ही पड़ता है| यह एक अंतहीन चक्र है| इस अंतहीन चक्र से मुक्ति पाना ही मोक्ष है| इसका उपाय भी परमात्मा कृपा कर के किसी सद्गुरु के माध्यम से अवगत करा देते हैं|
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कुछ महान जीवनमुक्त आत्माएँ करुणावश परोपकार के लिए स्वेच्छा से जन्म लेती हैं| वे कर्म बंधनों से मुक्त होती है| वे स्वेच्छा से आती हैं और स्वेच्छा से ही जाती हैं|
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यह देह भी हमें मिली है तो अपने कर्मों का फल भोगने के लिए ही मिली है| हम अपने कर्म फलों से मुक्त होने का प्रयास करें| हम अपनी पहिचान भौतिक शरीर से करते हैं पर भौतिक शरीर के साथ साथ सूक्ष्म और कारण शरीर भी हमारी अभिव्यक्ति के एक माध्यम मात्र हैं| हम ये शरीर नहीं हैं| ये शरीर एक वाहन हैं जिन पर हम अपनी लोकयात्रा कर रहे हैं| ये शरीर हमारे उपकरण मात्र हैं जिनको धारण करने का उद्देश्य तो भगवत्कृपा से ही समझ में आ सकता है|
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प्रकृति में कुछ भी निरुद्देश्य नहीं है| लोकयात्रा हेतु यह जो देहरुपी वाहन मिला हुआ है, उसका एक उद्देश्य है, और वह एकमात्र उद्देश्य है ..... परमात्मा की प्राप्ति|
कर्मफलों से मुक्त होने का एक ही उपाय है, और वह है ----- भगवान की पराभक्ति, शरणागति और समर्पण| अन्य कोई उपाय नहीं है|
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इस देह में रहते हुए हम विद्यार्जन करते हैं| यदि उस अर्जित विद्या के उपयोग से हमारा चरित्र निर्माण नहीं हो सकता तो वह विद्या निरर्थक ही नहीं , अविद्या है और नाशकारी है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

या तो मैं गलत समय पर इस संसार में हूँ, या गलत स्थान पर हूँ .....

या तो मैं गलत समय पर इस संसार में हूँ, या गलत स्थान पर हूँ .....
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जैसा स्वभाव भगवान ने मुझे दिया है, उसके अनुसार तो इस संसार में मैं बिलकुल अनुपयुक्त यानि misfit हूँ| परमात्मा की परम कृपा से ही अब तक की यात्रा की है, इसमें मेरी कोई महिमा नहीं है| संभवतः परमात्मा को मुझ पर विश्वास यानि भरोसा था इसीलिए उन्होंने मुझे यहाँ भेज रखा है| विश्वासघात तो मैं परमात्मा से कर नहीं सकता, पर एक प्रार्थना अवश्य कर सकता हूँ कि ......
हे प्रभु, जहाँ भी तुमने मुझे रखा है, वहीँ तुम्हें आना ही पडेगा| तुम्हें यहीं आना पडेगा| ॐ ॐ ॐ ||

गणेश चतुर्थी की शुभ कामनाएँ .......

ॐ नमस्ते गणपतये | त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि | ॐ ॐ ॐ !!
गणेश चतुर्थी की शुभ कामनाएँ .......
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आज भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी के दिन, पंच प्राण रूपी गणों के ओंकार रूप में अधिपति भगवान श्रीगणेश को रिद्धि-सिद्धि सहित नमन ! सभी श्रद्धालुओं को भी नमन ! भगवान श्रीगणेश ओंकार रूप में हमारे चैतन्य में नित्य विराजमान रहें |
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भारत में अंग्रेजी शिक्षा प्रचलित होने से पूर्व बालकों का अध्ययन गणेश चतुर्थी के दिन से ही आरम्भ होता था| मुझे भी अतीत की कुछ स्मृतियाँ हैं| गणेश चतुर्थी के दिन हमें धुले हुए साफ़ वस्त्र पहिना कर पाठशाला भेजा जाता था| गले में दो डंके भी लटका कर ले जाते थे| विद्यालयों में लडड्ड बाँटे जाते थे| अब वो अतीत की स्मृतियाँ हैं| आधुनिक अंग्रेजी अध्यापकों व विद्यार्थियों को गणेश चतुर्थी का कोई ज्ञान नहीं है| हमारी संस्कृति के अच्छे दिन कभी न कभी फिर बापस लौटेंगे|
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ॐ सहनाववतु सहनो भुनक्तु सहवीर्यंकरवावहे तेजस्वी नावधितमस्तु मा विद्विषामहे || ॐ शांति शांति शांति ||

संत की पहिचान .......

संत की पहिचान .......
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यह लेख लिखने की मेरी बिलकुल भी इच्छा नहीं थी, पर फिर भी किसी प्रेरणावश लिख रहा हूँ| हम लोग इतने भोले हैं कि बिना परखे ही किसी को भी संत कह देते हैं|
किन्हीं राजनीतिक परिस्थितियों में या किसी संस्था द्वारा समारोह मनाकर घोषित किये जाने पर, हमारा धर्मांतरण करने वाला क्या कोई संत बन जाता है ?
जो हमारी जड़ें खोदता है, और हमारी अस्मिता पर ही मर्मान्तक प्रहार करता है, क्या ऐसा व्यक्ति कोई संत हो सकता है ?
जो हमारी आस्था को खंडित करता है व हमारे लोगों का धर्मांतरण करता है ऐसा व्यक्ति संत नहीं हो सकता| ऐसे ही कोई आत्म-घोषित भी संत नहीं होता|
मरते हुए विवश व असहाय व्यक्ति को बाध्य कर के अपने मत में सम्मिलित करने वाले क्या संत होते हैं?

यहाँ मैं संतों के कुछ लक्षण लिख रहा हूँ ....
(1) संतों में कुटिलता का अंशमात्र भी नहीं होता ......
संत जैसे भीतर से हैं, वैसे ही बाहर से होते है| उनमें छल-कपट नहीं होता|
(2) संत सत्यनिष्ठ होते हैं ......
चाहे निज प्राणों पर संकट आ जाए, संत कभी असत्य नहीं बोलते| वे किसी भी परिस्थिति में झूठ नहीं बोलेंगे| रुपये-पैसे माँगने वे चोर बदमाशों के पास नहीं जायेंगे| वे पूर्णतः परमात्मा पर निर्भर होते हैं|
(3) संत समष्टि के कल्याण की कामना करते हैं, न कि सिर्फ अपने मत के अनुयायियों की|
(4) उनमें प्रभु के प्रति अहैतुकी प्रेम लबालब भरा होता है| उनके पास जाते ही कोई भी उस दिव्य प्रेम से भर जाता है|
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संत दादूदयाल जी के पट्ट शिष्य सुन्दर दास जी ने संत-असंत के अनेक लक्षणों का विस्तृत व स्पष्ट वर्णन अपनी वाणी में किया है|
मेरा निवेदन है कि आँख मींच कर हम किसी को संत न माने, चाहे भारत सरकार उसे वोटों की राजनीति के कारण संत मानती हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ !!

आध्यात्म में कोई भी उपलब्धी अंतिम नहीं होती ....

आध्यात्म में कोई भी उपलब्धी अंतिम नहीं होती .....
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जिसे हम खजाना मानकर खुश होते हैं, कुछ समय पश्चात पता लगता है कि वह कोई खजाना नहीं बल्कि कंकर पत्थर का ढेर मात्र था|
आध्यात्मिक अनुभूतियाँ अनंत हैं| जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं, पीछे की अनुभूतियाँ महत्वहीन होती जाती हैं| यहाँ तो बस एक ही काम है कि बढ़ते रहो, बढ़ते रहो और बढ़ते रहो| पीछे मुड़कर ही मत देखो|
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अन्य कुछ भी मत देखो, कहीं पर भी दृष्टी मत डालो; सिर्फ और सिर्फ हमारा लक्ष्य ही हमारे सामने निरंतर ध्रुव तारे की तरह चमकता रहे| फिर चाहे कितना ही अन्धकार हो, परमात्मा की कृपा से हमें मार्ग दिखाई देता रहेगा|
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एक बार किसी साधक से किसी ने पूछा --- क्या तुम भगवान में विश्वास करते हो?
उस साधक का उत्तर था --- नहीं, भगवान मुझमें विश्वास करते हैं इसीलिए मैं यहाँ हूँ|
उन्हें विश्वास था कि मैं उनकी बाधाओं को पार कर सकता हूँ तभी ये सब बाधाएँ हैं|
मैं उनके साथ विश्वासघात नहीं कर सकता|
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ॐ तत्सत ! ॐ ॐ ॐ !!

लोक देवता गौरक्षक वीर तेजाजी ........

लोक देवता गौरक्षक वीर तेजाजी ........
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राजस्थान में अनेक वीरों को आज भी लोक देवता के रूप में पूजा जाता है| इनमें प्रमुख हैं ---- पाबूजी, गोगाजी, रामदेवजी, तेजाजी, हडबुजी और महाजी| इन सब ने धर्मरक्षार्थ बड़े भीषण युद्ध किये और कीर्ति अर्जित की|
कुछ दिनों पूर्व गोगानवमी पर वीर गोगा जी (गोगा राव चौहान) पर प्रस्तुति दी थी जिसमें बताया था कि किस तरह उन्होंने सोमनाथ मंदिर के विध्वंश के लिए जा रहे महमूद गज़नवी का मार्ग अवरूद्ध कर दिया था और धर्म रक्षार्थ उससे युद्ध करते हुए अपना बलिदान दिया|
आज तेजा दशमी पर तेजा जी पर यह प्रस्तुति देकर बता रहे हैं कि अपने वचन और गौ रक्षा के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया और लोक देवता बने|
ग्याहरवीं सदी के अंत का समय था| उत्तर पश्चिम भारत में नागवंशियों के छोटे बड़े शासन थे| ये लोग ‘नाग देवता’ को अपने वंश का प्रतीक मानते थे, जैसे अन्य शासक सूर्य, चन्द्र या मीन को मानते थे| इनमें चौहान, परिहार, परमार, सांखला, तंवर, गहलोत आदि प्रमुख थे| लेकिन बड़े ही लोकतांत्रिक ढंग से ये शासन चलते थे| राजा भी सामान्य जन की तरह काम करता था| पद योग्यता के आधार पर समाज द्वारा दिया जाता था और सम्मान का सूचक था| जरूरत पड़ने पर राजा के नेतृत्व में लड़ाई लड़ी जाती थी| कभी कई समूह मिलकर लड़ते थे| और कभी कभी ये समूह आपस में भी लड़ लेते थे|
बाद में जब सुल्तानी शासन आया तो कई नागवंशी शासकों ने वचन के कारण राज छोड़ दिया और कृषि व अन्य कार्य करने लग गए| इनमें से आज अधिकतर जाट कहलाते हैं| नागौर जिले का नाम इन्हीं नागवंशियों के शासन के कारण है जो आज भी उस शासन की याद दिलाता है|
नागवंशी शासन के समय में नागौर के पास खरनाल के शासक ताहड़ देव चौहान (धोलिया) के घर तेजाजी अवतरित हुए| यह विक्रम सम्वत 1130 थी और दिन था, मार्गशीर्ष महीने के शुक्ल पक्ष चतुर्दशी का| छः भाइयों में सबसे छोटे तेजाजी ही थे|
वैसे तेजाजी शिवभक्त थे और गाँव के शिव मंदिर में घंटों ध्यान करते थे|
बड़े होने पर तेजाजी को मां ने हल जोतने का कहा तो वे ना नुकुर करते रहे और कहते रहे कि उनकी अभी खेलने कूदने की उम्र है| पर मां की जिद के आगे उन्हें खेत जोतने जाना पड़ा| मां का कहना था कि तेजाजी के हाथ से बोये जाने पर खेत में मोती पैदा हो जायेंगे| आज भी उसी विश्वास के साथ किसान तेजाजी के नाम से खेती प्रारंभ करता है|
तेजाजी का विवाह बचपन में ही हो गया था| कार्तिक पूर्णिमा के पुष्कर के मेले में ही सगाई हुई और विवाह भी हो गया| उनके ससुर अजमेर जिले के रूपनगढ़ के पास पनेर के शासक थे| वे झांझर गोत्र के थे| पर बाद में किसी बात को लेकर दोनों परिवारों में अनबन हो गई थी| इस कारण गौना नहीं हुआ था|
तेजाजी ने तय किया कि वे अब किसी भी हाल में पेमल को लेकर आयेंगे| वे पहले बहन राजल को लेकर आये और फिर पंडित जी से मुहूर्त पूछने गए तो उन्होंने समय प्रतिकूल बताया| कई दूसरे अपशगुन भी हुए पर तेजाजी इन सबकी अनदेखी करते हुए पनेर अपनी प्रिय घोड़ी लीलण पर सवार होकर चल दिए| बारिश का समय था और बहते नदी नाले सामने थे पर लीलण अपने सवार को पनेर की सरहद तक ले ही गई|
पनेर के पनघट पर तेजाजी जब महिलाओं से अपने ससुर का पता पूछते हैं तो बात गाँव में फ़ैल जाती है| पेमल को खबर लगते ही वह श्रृंगार कर अपनी भाभी के साथ पनघट पहुँचती हैं| तेजाजी को घर चलने का आमंत्रण दिया जाता है| तेजाजी आग्रह मानकर जैसे ही घर में लीलण के साथ प्रवेश करते हैं, गायें बिदक जाती हैं| ऐसे में दूध दूह्ती पेमल की मां गायों को भड़काने वाले सवार को काले सांप से डसे जाने की बद्दुआ देती है| तेजाजी इस व्यवहार को सहन नहीं कर पाते हैं और वापस लौटने लगते हैं| पेमल दुखी हो जाती है| वह तेजाजी से मां के व्यवहार के लिए माफी मांगती है और कहती हैं कि यह सब अनजाने में हुआ है| वह तेजाजी को अपने बाग़ में बने महल में रूकने को राजी कर लेती हैं|
तेजाजी और पेमल बातें कर रहे होते हैं कि दूर से एक महिला के रोने की आवाज आती है|
बाहर देखने पर पता चला कि पेमल की सहेली लाछां गुर्जरी है| वह बताती है कि उसकी गायें मीणा छीनकर ले गए हैं| उन दिनों गाय महँगा धन था और अक्सर गायें लूटकर ले जाने का अपराध होता था| लाछां ने बताया कि गाँव का कोई भी व्यक्ति उसकी मदद नहीं कर पाया है सब लुटेरों से मिल गए हैं और साजिश कर ली गई है|
लाछां का रोना तेजाजी से नहीं देखा गया और उन्होंने मीणाओं से गायें वापस लाने का वादा कर दिया| उधर पेमल धर्म संकट में थीं| एक तरफ बरसों बाद पति से मिलन हो रहा था तो दूसरी तरफ एक असहाय सहेली का दुःख था| पेमल ने भी तेजाजी के वादे से खुद को जोड़ा और युद्ध में साथ जाने की जिद करने लगी| तेजाजी ने उन्हें समझाकर रोका और अपने अभियान के लिए उसी समय चल दिए|
तेज गति से लीलण बढ़ रही थी कि तेजाजी को रास्ते में आग में जलता काला नाग दिखाई दिया| दयालु तेजाजी ने भाले से नाग को आग से बाहर निकाला तो नाग देवता नाराज हो गए| बोले कि मैं इस योनि से छुटकारा पा रहा था और आपने व्यवधान कर दिया| तेजाजी हैरान थे कि अब प्रायश्चित कैसे किया जाए ? नागराज बोले कि आपको डसने से ही हिसाब बराबर होगा| तेजाजी ने वचन दे दिया पर उस समय तक मोहलत माँगी, जब तक वे लाछां की गायें लौटा दें| नाग देवता ने इस वचन के साक्षी के बारे में जानना चाहा तो तेजाजी ने खेजड़े और सूरज को साक्षी बताया| नागराज मान गए|
भीषण युद्ध हुआ| मीणा दुहाई देते रहे कि उन्होंने कभी तेजाजी की मां को बहन माना था पर मामा की एक नहीं सुनी गई और तेजाजी ने युद्ध में गायें मीणों से छीन लीं| घायल तेजाजी लाछां को गायें लौटाकर अपना वादा निभाने नागदेवता की बाम्बी की तरफ चल दिए| नागराज ने वचन के पक्के तेजाजी को देखा तो पसीज गए और बहाने करने लगे. बोले कि आपका तो पूरा शरीर घायल है, मेरे डसने के लिए कोई कुंवारी जगह नहीं बची है| तेजाजी बोले कि आप मेरी जीभ को डस लीजिये, यह किसी भी घाव से अछूती है| नागराज मजबूर हो गए पर तेजाजी को वरदान दे गए| एक अबला की निस्वार्थ मदद करने वाले वीर और वचन के पक्के तेजाजी को उन्होंने अमरत्व की आशीष दी|
तेजाजी के देवलोक होने की खबर देने के लिए लीलण उनके गाँव खरनाल चल दी और यह खबर देने के बाद लीलण अपने सवार की याद में चल बसी| तेजाजी की बहन भुन्गरी भी भाई के विछोह को सहन नहीं कर पाई और देह त्याग दी| पेमल भी तेजाजी के साथ ही देवलोक चली गईं|
उस दिन वि.सं. 1160 के भादों महीने की शुक्ल पक्ष की दशमीं थी. इसे तेजा दशमीं कहते हैं.
तेजाजी लोकदेव हो गए. उनके निस्वार्थ बलिदान की कहानी समूचे उत्तर पश्चिम भारत में फ़ैल गई.
तेजाजी राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात प्रान्तों में लोकदेवता के रूप में पूजे जाते हैं। किसान वर्ग अपनी खेती की खुशहाली के लिये तेजाजी को पूजता है।
तेजाजी ने ग्यारवीं शदी में गायों की डाकुओं से रक्षा करने में अपने प्राण दांव पर लगा दिये थे। वीर तेजाजी का जाटों में महत्वपूर्ण स्थान है। तेजाजी सत्यवादी और दिये हुये वचन पर अटल थे। उन्होंने अपने आत्म - बलिदान तथा सदाचारी जीवन से अमरत्व प्राप्त किया था। उन्होंने अपने धार्मिक विचारों से जनसाधारण को सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया और जनसेवा के कारण निष्ठा अर्जित की। तेजाजी के मंदिरों में निम्न वर्गों के लोग पुजारी का काम करते हैं। उन्होंने जनसाधारण के हृदय में हिन्दू धर्म के प्रति लुप्त विश्वास को पुन: जागृत किया।
तेजाजी के भारत मे अनेक मंदिर हैं। तेजाजी के मंदिर राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, गजरात तथा हरयाणा में हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री पी.एन. ओक का दावा है कि ताजमहल शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजो महालय है| आगरा मुख्यतः जाटों की नगरी है| जाट लोग भगवान शिव को तेजाजी के नाम से जानते हैं| The Illustrated Weekly of India के जाट विशेषांक (28 जून, 1971) के अनुसार जाट लोगों के तेजा मंदिर हुआ करते थे| अनेक शिवलिंगों में एक तेजलिंग भी होता है जिसके जाट लोग उपासक थे| इस वर्णन से भी ऐसा प्रतीत होता है कि ताजमहल भगवान तेजाजी का निवासस्थल तेजोमहालय था। श्री पी.एन. ओक अपनी पुस्तक Tajmahal is a Hindu Temple Palace में 100 से भी अधिक प्रमाण एवं तर्क देकर दावा करते हैं कि ताजमहल वास्तव में शिव मंदिर है जिसका असली नाम तेजोमहालय है।
धन्य है वीर प्रसूता भारत माँ जिसने हर काल खंड में असंख्य वीरों को जन्म दिया|
जय जननी, जय भारत|

आध्यात्म में पढो कम, और ध्यान अधिक करो ......

आध्यात्म में पढो कम, और ध्यान अधिक करो ......
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हम जितना समय पढने में लगाते हैं, उससे चार गुना अधिक समय पूर्ण प्रेम से परमात्मा के ध्यान में व्यतीत करना चाहिए| ध्यान का आरम्भ नाम-जप से होता है| जप-योग का अभ्यास करते करते, यानि जप करते करते, ध्यान अपने आप होने लगेगा| पूरी सृष्टि ओंकार का यानि राम नाम का जाप कर रही है| हमें उसे निरंतर सुनना और उसी में लीन हो जाना है| अतः पढो कम, और ध्यान अधिक करो| उतना ही पढो जिससे प्रेरणा और शक्ति मिलती हो| पढने का उद्देश्य ही प्रेरणा और शक्ति प्राप्त करना है| साथ भी उन्हीं लोगों का करो जो हमारी साधना में सहायक हों, यही सत्संग है| साधना भी वही है, जो हमें निरंतर परमात्मा का बोध कराये|
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सृष्टि निरंतर गतिशील है| कहीं भी जड़ता नहीं है| जड़ता का आभास माया का आवरण है| यह भौतिक विश्व जिन अणुओं से बना है उनका निरंतर विखंडन और नवसृजन हो रहा है| यह विखंडन और नवसृजन की प्रक्रिया ही नटराज भगवान शिव का नृत्य है|
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वह परम चेतना जिससे समस्त ऊर्जा और सृष्टि निर्मित हुई है वे शिव हैं| सारी आकाश गंगाएँ, सारे नक्षत्र अपने ग्रहों और उपग्रहों के साथ अत्यधिक तीब्र गति से परिक्रमा कर रहे हैं| सृष्टि का कहीं ना कहीं तो कोई केंद्र है, वही विष्णु नाभि है और जिसने समस्त सृष्टि को धारण कर रखा है वे विष्णु हैं|
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उस गति की, उस प्रवाह की और नटराज के नृत्य की भी एक ध्वनी हो रही है जिसकी आवृति हमारे कानों की सीमा से परे है| वह ध्वनी ही ओंकार रूप में परम सत्य 'राम' का नाम है| उसे सुनना और उसमें लीन हो जाना ही उच्चतम साधना है| समाधिस्थ योगी जिसकी ध्वनी और प्रकाश में लीन हैं, और सारे भक्त साधक जिस की साधना कर रहे हैं, वह 'राम' का नाम ही है जिसे सुनने वालों का मन उसी में मग्न हो जाता है|
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जिनका मुझसे मतभेद हैं, वे अपने मत पर स्थिर रहे हैं| कोई आवश्यक नहीं है कि वे मुझसे सहमत ही हों| कई लोग मेरे विचारों से आक्रामक और हिंसक होकर अपशब्दों पर उतर जाते हैं, वे कृपा कर के मुझे क्षमा करे मुझसे कोई संपर्क न रखें| मुझे उनकी आवश्यकता नहीं है|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन ! ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

Saturday, 3 September 2016

जन्मदिवस पर बधाइयों के लिए धन्यवाद .......

Dear friends, I thank you very much for your unconditional love and good wishes on the 68th birthday of this physical body vehicle or the sailing boat on which I am sailing across the ocean of this life. For me this body is nothing more than a sailing boat. The helmsman is my Guru and the favorable wind is God's grace. I am not this body but an eternal infinite consciousness. My age is only one, and that is infinity. Many many thanks. My best unconditional divine love to you all.
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प्रिय मित्रो, मैं आप के अहैतुकी दिव्य प्रेम और शुभ कामनाओं के लिए आप सब .
का आभारी हूँ| आप सब ने मेरे इस देहरूपी वाहन या नौका के 68वें जन्म दिवस पर शुभ सन्देश भेजे हैं| जिस नौका पर मैं इस भव सागर को पार कर रहा हूँ उसके कर्णधार मेरे गुरू हैं और अनुकूल वायु परमात्मा की कृपा है| मैं यह देह नहीं अपितु अनंत शाश्वत चैतन्य हूँ| मेरी आयु मात्र एक है और वह है अनन्तता| आप सब को मेरा अहैतुकी परम प्रेम| ॐ ॐ ॐ ||

मेरी आयु अनंत है (My age is infinity) .....

मेरी आयु अनंत है (My age is infinity) .....
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मेरी आयु अनंत है| परमात्मा की इच्छा से लोकयात्रा हेतु यह देह मिली| अब तक पता नहीं कितनी देहों में जन्मा और मरा हूँ| जीवन की यह यात्रा अब तक तो प्रारब्धानुसार चली, पर आगे मेरी कोई कामना ना हो, यही प्रार्थना है| कोई पृथक कामना, अभिलाषा या किसी संकल्प का कोई अवशेष ना रहे, और जीवन प्रभु को पूर्णतः समर्पित हो बस यही आशीर्वाद चाहते हुए आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम करता हूँ|
(हमारे परिवार में तो यह जन्मदिवस भारतीय तिथि से भाद्रपद अमावस्या को ही मनाया जाता है| पर जिन्हें भारतीय तिथियों का ज्ञान नहीं है वे मित्र ३ सितम्बर को ही मानेंगे)
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ॐ नम: शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नम: शिवाय च शिवतराय च ||
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् | उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ||
ॐ पूर्णमदः पूणमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ||
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||

परम तत्व रूप में सद्गुरुदेव ही मेरी गति और मेरे आश्रय हैं ......

परम तत्व रूप में सद्गुरुदेव ही मेरी गति और मेरे आश्रय हैं ......
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उन से अधिक मेरे लिए कुछ भी नहीं है| मैं उन को किसी भी सांसारिक नाम और रूप के बंधन मे नहीं बाँध सकता| वे सब सांसारिक नाम-रूपों से परे हैं|
वे अनादि और सर्वव्यापी हैं| वे ही परमशिव हैं, वे ही विष्णु हैं और वे ही परम ब्रह्म हैं|
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नाद और ज्योति के रूप में वे निरंतर मेरे कूटस्थ में बिराजमान हैं|
मैं अपना सम्पूर्ण अस्तित्व उनको समर्पित करता हूँ|
कूटस्थ चैतन्य में निरंतर स्थिति ही मेरी साधना है|
कोई वियोग और भेद ना रहे, बस यही मेरी प्रार्थना है|
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शिवनेत्र होकर शाम्भवी मुद्रा में प्रणव की ध्वनि को अंतर में सुनते हुए उसी में लिपटी हुई सर्वव्यापी ज्योतिर्मय अंतर्रात्मा का चिंतन करते रहने पर विद्युत् की चमक के समान देदीप्यमान ब्रह्मज्योति ध्यान में प्रकट होती है|
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यह ब्रह्मज्योति अविनाशी है| लघुत्तम जीव से लेकर ब्रह्मा तक का नाश हो सकता है पर इस ज्योतिर्मय ब्रह्म का कभी नाश नहीं होता| यही कूटस्थ है, और इसकी चेतना ही कूटस्थ चैतन्य है|
ॐ तत्सत् | ॐ गुरु ! जय गुरु ! ॐ ॐ ॐ ||
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अथातोऽद्वयतारकोपनिषदं व्याख्यास्यामो यतये
जितेन्द्रियाय शमदमादिषड्‌गुणपूर्णाय ॥ १ ॥
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चित्स्वरूपोऽहमिति सदा भावयन् सम्यक् निमीलिताक्षः
किंचिद् उन्मीलिताक्षो वाऽन्तर्दृष्ट्या भ्रूदहरादुपरि
सचिदानन्दतेजःकूटरूपं परं ब्रह्मावलोकयन् तद्‌रूपो भवति ॥ २ ॥
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गर्भजन्मजरामरणसंसारमहद्‌भयात् संतारयति तस्मात्तारकमिति ।
जीवेश्वरौ मायिकाविति विज्ञाय सर्वविशेषं नेति
नेतीति विहाय यदवशिष्यते तदद्वयं ब्रह्म ॥ ३ ॥
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तत्सिद्ध्यैः लक्ष्यत्रयानुसंधानं कर्तव्यः ॥ ४ ॥
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अन्तर्लक्ष्यलक्षणम् -
देहामध्ये ब्रह्मनाडी सुषुम्ना सूर्यरूपिणी पूर्णचन्द्राभा वर्तते । सा तु मूलाधारादारभ्य ब्रह्मरन्ध्रगामिनी भवति । तन्मध्ये तडित्कोटिसमानकान्त्या मृणालसूत्रवत् सूक्ष्माङ्‌गी कुण्डलिनीति प्रसिद्धाऽस्ति । तां दृष्ट्वा मनसैव नरः सर्वपापविनाशद्वारा मुक्तो भवति । फालोर्ध्वगललाटविशेषमंडले निरन्तरं तेजस्तारकयोगविस्फारणेन पश्यति चेत् सिद्धो भवति । तर्जन्यग्रोन्मीलितकर्णरन्धद्वये तत्र फूत्कारशब्दो जायते । तत्र स्थिते मनसि चक्षुर्मध्यगतनीलज्योतिस्स्थलं विलोक्य अन्तर्दृष्ट्या निरतिशयसुखं प्राप्नोति । एवं हृदये पश्यति । एवं अन्तर्लक्ष्यलक्षणं मुमुक्षुभिरुपास्यम् ॥ ५ ॥
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बहिर्लक्ष्यलक्षणम् -
अथ बहिर्लक्ष्यलक्षणम् । नासिकाग्रे चतुर्भिः षड्‌भिरष्टभिः दशभिः द्वादशभिः क्रमाद् अङ्‌गुलान्ते नीलद्युतिश्यामत्वसदृग्रक्तभङ्‌गीस्फुरत् पीतशुक्लवर्णद्वयोपेतं व्योम यदि पश्यति स तु योगी भवति । चलदृष्ट्या व्योमभागवीक्षितुः पुरुषस्य दृष्ट्यग्रे ज्योतिर्मयूखा वर्तन्ते । तद्दर्शनेन योगी भवति । तप्तकाञ्चनसंकाशज्योतिर्मयूखा अपाङ्‌गन्ते भूमौ वा पश्यति तद्‍दृष्टिः स्थिरा भवति । शीर्षोपरि द्वादशाङ्‍गुलसमीक्षितुः अमृतत्वं भवति । यत्र कुत्र स्थितस्य शिरसि व्योमज्योतिर्दृष्टं चेत् स तु योगी भवति ॥ ६ ॥
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मध्यलक्ष्यलक्षणम् -
अथ मध्यलक्ष्यलक्षणं प्रातश्चित्रादिर्णाखण्डसूर्यचक्रवत् वह्निज्वालावलीवत् तद्विहीनान्तरिक्षवत् पश्यति । तदाकाराकारितया अवतिष्ठति । तद्‌भूयोदर्शनेन गुणरहिताकाशं भवति । विस्फुरत् तारकाकारदीप्यमानागाढतमोपमं परमाकाशं भवति । कालानलसमद्योतमानं महाकाशं भवति । सर्वोत्कृष्टपरमद्युतिप्रद्योतमानं तत्त्वाकाशं भवति । कोटिसूर्यप्रकाशवैभवसंकाशं सूर्याकाशं भवति । एवं बाह्याभ्यन्तरस्थ-व्योमपञ्चकं तारकलक्ष्यम् । तद्दर्शी विमुक्तफलः तादृग् व्योमसमानो भवति । तस्मात् तारक एव लक्ष्यं अनमस्कफलप्रदं भवति ॥ ७ ॥
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द्विविधं तारकम् -
तत्तारकं द्विविधं पूर्वार्धं तारकं उत्तरार्धं अमनस्कं चेति । तदेष श्लोको भवति । तद्योगं च द्विधा विद्धि पूर्वोत्तरविधानतः । पूर्वं तु तारकं विद्यात् अमनस्कं तदुत्तरमिति ॥ ८ ॥
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तारकयोगसिद्धिः -
अक्ष्यन्तस्तारयोः चन्द्रसूर्यप्रतिफलनं भवति । तारकाभ्यां सूर्यचंद्रमण्डलदर्शनं ब्रह्माण्डमिव पिण्डाण्डशिरोमध्यस्थाकाशे रवीन्दुमण्डलद्वितयमस्तीति निश्चित्य तारकाभ्यां तद्दर्शनम् । अत्रापि उभयैक्यदृष्ट्या मनोयुक्तं ध्यायेत् । तद्योगाभावे इंद्रियप्रवृत्तेरनवकाशात् । तस्माद अन्तर्दृष्ट्या तारक एवानुसंधेयः ॥ ९ ॥
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मूर्तामूरभेदेन द्विविधमनुसन्धेयम् -
तत्तारकं द्विविधं, मूर्तितारकं अमूर्तितारकं चेति । यद् इंद्रियान्तं तत् मूर्तिमत् । यद् भ्रूयुगातीतं तत् अमूर्तिमत् । सर्वत्र अन्तःपदार्थ- विवेचने मनोयुक्ताभ्यास इष्यते । तारकाभ्यां तदूर्ध्वस्थसत्त्वदर्शनात् मनोयुक्तेन अन्तरीक्षणेन सच्चिदानन्दस्वरूपं ब्रह्मैव । तस्मात् शुक्लतेजोमयं ब्रह्मेति सिद्धम् । तद्‌ब्रह्म मनःसहकारिचक्षुषा अन्तर्दृष्ट्या वेद्यं भवति । एवं अमूर्तितारकमपि । मनोयुक्तेन चक्षुषैव दहरादिकं वेद्यं भवति । रूपग्रहणप्रयोजनस्य मनश्चक्षुरधीनत्वात् बाह्यवदान्तरेऽपि आत्ममनश्चक्षुःसंयोगेनैव रूपग्रहणकार्योदयात् । तस्मात् मनोमयुक्ता अन्तर्दृष्टितारकप्रकाशाय भवति ॥ १० ॥
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तारकयागस्वरूपम् -
भूयुगमध्यबिले दृष्टिं तद्‍द्वारा ऊर्ध्वस्थितजेज आविर्भूतं तारकयोगो भवति । तेन सह मनोयुक्तं तारकं सुसंयोज्य प्रयत्‍नेन भ्रूयुग्मं सावधानतया किंचित् ऊर्ध्वं उत्क्षेपयेत् । इति पूर्वतारकयोगः । उत्तरं तु अमूर्तिमत् अमनस्कं इत्युच्यते । तालुमूलोर्ध्वभागे महान् ज्योतिर्मयूखो वर्तते । तद्योगिभिर्ध्येयम् । तस्मात् अणिमादि सिद्धिर्भवति ॥ ११ ॥
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शाम्भवीमुद्रा -
अन्तर्बाह्यलक्ष्ये दृष्टौ निमेषोन्मेषवर्जितायां सत्यां शांभवी मुद्रा भवति । तन्मुद्रारूढज्ञानिनिवासात् भूमिः पवित्रा भवति । तद्‍दृष्ट्वा सर्वे लोकाः पवित्रा भवन्ति । तादृशपरमयोगिपूजा यस्य लभ्यते सोऽपि मुक्तो भवति ॥ १२ ॥
अन्तर्लक्ष्यविकल्पाः -
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अन्तर्लक्ष्यज्वलज्योतिःस्वरूपं भवति । परमगुरूपदेशेन सहस्रारे जलज्ज्योतिर्वा बुद्धिगुहानिहितचिज्ज्योतिर्वा षोडशान्तस्थ तुरीयचैतन्यं वा अन्तर्लक्ष्यं भवति । तद्दर्शनं सदाचार्यमूलम् ॥ १३ ॥
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आचार्यलक्षणम् -
आचार्यो वेदसम्पन्नो विष्णुभक्तो विमत्सरः ।
योगज्ञो योगनिष्ठश्च सदा योगात्मकः शुचिः ॥ १४ ॥
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गुरुभक्तिसमायुक्तः पुरुषज्ञो विशेषतः ।
एवं लक्षणसंपन्नो गुरुरित्यभिधीयते ॥ १५ ॥
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गुशब्दस्त्वन्धकारः स्यात् रुशब्दस्तन्निरोधकः ।
अंधकारनिरोधित्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥ १६ ॥
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गुरुरेव परं ब्रह्म गुरुरेव परा गतिः ।
गुरुरेव परा विद्या गुरुरेव परायणम् ॥ १७ ॥
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गुरुरेव पराकाष्ठा गुरुरेव परं धनम् ।
यस्मात्तदुपदेष्टासौ तस्मात्-गुरुतरो गुरुरिति ॥ १८ ॥
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ग्रन्थाभ्यासफलम् -
यः सकृदुच्चारयति तस्य संसारमोचनं भवति । सर्वजन्मकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति । सर्वान् कामानवाप्नोति । सर्वपुरुषार्थ सिद्धिर्भवति । य एवं वेद । इति उपनिषत् ॥