Tuesday, 20 September 2016

एक महान गृहस्थ योगी .......

एक महान गृहस्थ योगी .......
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योगिराज श्री श्री श्यामाचरण लाहिडी महाशय का जन्म सन ३० सितम्बर १८२८ ई. को कृष्णनगर (बंगाल) के समीप धुरनी ग्राम में हुआ था| इनके परम शिवभक्त पिताजी वाराणसी में आकर बस गए थे| श्यामाचरण ने वाराणसी के सरकारी संस्कृत कोलेज में शिक्षा प्राप्त की| संस्कृत के अतिरिक्त अंग्रेजी, बंगला, उर्दू और फारसी भाषाएं सीखी|
श्रीमान नागभट्ट नाम के एक प्रसिद्ध शास्त्रज्ञ महाराष्ट्रीय पंडित से उन्होंने वेद, उपनिषद और अन्य शास्त्रों व धर्मग्रंथों का अध्ययन किया|
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पं.देवनारायण सान्याल वाचस्पति की पुत्री काशीमणी से इनका १८ वर्ष की उम्र में विवाह हुआ| २३ साल की उम्र में इन्होने सरकारी नौकरी कर ली| उस समय सरकारी वेतन अत्यल्प होता था अतः खर्च पूरा करने के लिये नेपाल नरेश के वाराणसी अध्ययनरत पुत्र को गृहशिक्षा देते थे|
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बाद में काशीनरेश के पुत्र और अन्य कई श्रीमंत लोगों के पुत्र भी इनसे गृहशिक्षा लेने लगे| हिमालय में रानीखेत के समीप द्रोणगिरी पर्वत की तलहटी में इनको गुरुलाभ हुआ| इनके गुरू हिमालय के अमर संत महावतार बाबाजी थे जो आज भी सशरीर जीवित हैं और अपने दर्शन उच्चतम विकसित आत्माओं को देते हैं| गुरू ने इनको आदर्श गृहस्थ के रूप में रहने का आदेश दिया और ये गृहस्थी में ही रहकर संसार का कार्य करते हुए कठोर साधना करने लगे|
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पर जैसे फूलों की सुगंध छिपी नहीं रह सकती वैसे ही इनकी प्रखर तेजस्विता छिपी नहीं रह सकी और मुमुक्षुगण इनके पास आने लगे| ये सब को गृहस्थ में ही रहकर साधना करने का आदेश देते थे क्योंकि गृहस्थाश्रम पर ही अन्य आश्रम निर्भर हैं| हालाँकि इनके शिष्यों में अनेक प्रसिद्ध सन्यासी भी थे जैसे स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरी, स्वामी केशवानंद ब्रह्मचारी, स्वामी प्रणवानंद गिरी, स्वामी केवलानंद, विशुद्धानंद सरस्वती, बालानंद ब्रह्मचारी आदि|
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कश्मीर नरेश, काशी नरेश और बर्दवान नरेश भी इनके शिष्य थे| इसके अतिरिक्त उस समय के अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति जो कालांतर में प्रसिद्ध योगी हुए भी इनके शिष्य थे जैसे पंचानन भट्टाचार्य, भूपेन्द्रनाथ सान्याल, काशीनाथ शास्त्री, नगेन्द्रनाथ भादुड़ी, प्रसाद दास गोस्वामी, रामगोपाल मजूमदार आदि| सामान्य लोगों के लिये भी इनके द्वार खुले रहते थे| वाराणसी के वृंदाभगत नाम के इनके एक शिष्य डाकिये ने योग की परम सिद्धियाँ प्राप्त की थीं|
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लाहिड़ी महाशय ने न तो किसी संस्था की स्थापना की, न कोई आश्रम बनवाया और न कभी कोई सार्वजनिक प्रवचन दिया और न कभी किसी से कुछ रुपया पैसा लिया| अपने घर की बैठक में ही साधनारत रहते थे और अपना खर्च अपनी अत्यल्प पेंशन और बच्चों को गृहशिक्षा देकर पूरा करते थे|
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गुरूदक्षिणा में मिले सारे रूपये हिमालय में साधुओं को उनकी आवश्यकता पूर्ति हेतु भिजवा देते थे| इनके घर में शिवपूजा और गीतापाठ नित्य होता था| शिष्यों के लिये नित्य गीतापाठ अनिवार्य था|.
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अपना सारा रुपया पैसा अपनी पत्नी को दे देते थे, अपने पास कुछ नहीं रखते थे| अपनी डायरी बंगला भाषा में नित्य लिखते थे| शिष्यों को दिए प्रवचनों को इनके एक शिष्य भूपेन्द्रनाथ सान्याल बांगला भाषा में लिपिबद्ध कर लेते थे| उनका सिर्फ वह ही साहित्य उपलब्ध है|
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सन २६ सितम्बर १८९५ ई. को इन्होने देहत्याग किया और इनका अंतिम संस्कार एक गृहस्थ का ही हुआ| शरीर छोड़ते समय तीन विभिन्न स्थानों पर एक ही समय में इन्होने अपने तीन शिष्यों को सशरीर दर्शन दिए और अपने प्रयाण की सूचना दी| इनके देहावसान के ९० वर्ष बाद इनके पोते ने इनकी डायरियों के आधार पर इनकी जीवनी लिखी| इनके कुछ साहित्य का तो हिंदी, अंग्रेजी और तेलुगु में अनुवाद हुआ है, बाकी बंगला भाषा में ही है|
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"Always remember that you belong to no one, and no one belongs to you. Reflect that some day you will suddenly have to leave everything in this world – so make the acquaintanceship of God now. Prepare yourself for the coming astral journey of death by daily riding in the balloon of God-perception. Through delusion you are perceiving yourself as a bundle of flesh and bones, which at best is a nest of troubles. Meditate unceasingly, that you may quickly behold yourself as the Infinite Essence, free from every form of misery. Cease being a prisoner of the body; using the secret key of Kriya, learn to escape into Spirit."
~ Sri Sri Shyama Charan Sri Lahiri Mahasaya

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