Tuesday 20 September 2016

बाहरी व भीतरी पवित्रता दोनों ही आवश्यक हैं .....

बाहरी व भीतरी पवित्रता दोनों ही आवश्यक हैं .....
--------------------------------------------------
शौचाचार (बाहरी व भीतरी पवित्रता) हमारे मानस को प्रभावित करता है, अतः यह अति आवश्यक है| योगदर्शन के नियमों में यह पहला नियम है|
हमारा बाहरी परिवेश तो शुद्ध और पवित्र हो ही, पर भीतरी परिवेश भी शुद्ध होना चाहिए| इस विषय में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है कि हमारा मन कैसे पवित्र हो?
.
अन्न से हमारा मन बनता है| अतः जो भी हम खाते हैं उसकी पवित्रता अति आवश्यक है| वह साधन भी पवित्र होना चाहिए जिससे हम अन्न का उपार्जन करते हैं| हम अधर्म से कमाए हुए रुपयों से खाद्य सामग्री क्रय करते हैं, जिसे खाकर हमारा जीवन अशांत और दुखी होता है| हमारी अशांति का यह मुख्य कारण है|
.
दान में भी हम अधर्म से उपार्जित धन देते हैं, अतः उससे कोई पुण्य नहीं मिलता|
.
झूठ बोलने से हमारी वाणी दग्ध हो जाती है| उस वाणी (चाहे वह किसी भी स्तर पर हो) से की हुई प्रार्थना, स्तुति और जप निष्फल होते हैं|
.
हमारे समस्त दोषों का कारण हमारा अज्ञान है| कामनाएँ और वासनाएँ भी अज्ञान से ही जन्म लेती हैं, जो समस्त बंधनों का कारण हैं| इन कामनाओं और वासनाओं को ही अब्राहमिक मतों (यहूदी, ईसाईयत और इस्लाम) में "शैतान" कहा गया है| शैतान कोई बाहरी शक्ति नहीं अपितु हमारी कामनाएँ ही है| यह अज्ञान, ज्ञान से ही मिटता है| ज्ञान से हटी हुई चीज ही मिथ्या होती है, इसीलिए सांसारिक बंधनों को मिथ्या कहते हैं|
.
धर्म का आचरण हमें करना ही पडेगा, तभी तो हम धर्म की रक्षा कर पायेंगे| अपने बच्चों को भी धर्माचरण सिखाना पड़ेगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
.
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!

No comments:

Post a Comment