हमारे विचार, सोच और भावनाएँ ही हमारे "कर्म" हैं, दोष विषय वासनाओं में नहीं, अपितु उनके चिंतन में है .....
यह सृष्टि द्वैत से बनी है| सृष्टि के अस्तित्व के लिए विपरीत गुणों का होना अति आवश्यक है| प्रकाश का अस्तित्व अन्धकार से है और अन्धकार का प्रकाश से|
मनुष्य जैसा और जो कुछ भी सोचता है वह ही "कर्म" बनकर उसके खाते में जमा हो जाता है|
यह सृष्टि हमारे विचारों से ही बनी है| हमारे विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर व्यक्त हो रहे हैं|
ये ही हमारे कर्मों के फल हैं|
परमात्मा की सृष्टि में कुछ भी बुरा या अच्छा नहीं है| कामना ही बुरी है|
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -- "ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।"
विषय मिलने पर विषय का प्रयोग आसक्ति को पैदा नहीं करेगा। परन्तु जब हम विषय को मन में सोचते हैं तो उसके प्रति कामना जागृत होगी|
यह कामना ही हमारा "बुरा कर्म" है, और निष्काम रहना ही "अच्छा कर्म" है|
हम बुराई बाहर देखते हैं, अपने भीतर नहीं|
हम विषयों को दोष देते है| पर दोष विषयों में नहीं बल्कि उनके चिंतन में है|
कामनाएं कभी पूर्ण नहीं होतीं|
उनसे ऊपर उठने का एक ही उपाय है, और वह है --------- "निरंतर हरि का स्मरण|"
सांसारिक कार्य भी करते रहो पर प्रभु को समर्पित होकर|
"मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि|"
अपने आप को ह्रदय और मन से मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर जाएगा|
इस समर्पण पर पूर्व में प्रस्तुति दी जा चुकी है|
आगे और लिखना मेरी सीमित और अल्प क्षमता से परे है| मेरे में और क्षमता नहीं है|
और अब आप कुछ भी अर्थ लगा लो, यह आप पर निर्भर है|
यह कोई उपदेश नहीं है, स्वयं को व्यक्त करने का मेरा स्वभाव है|
सभी को शुभ कामनाएँ| ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
13 सितम्बर 2014
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -- "ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।"
विषय मिलने पर विषय का प्रयोग आसक्ति को पैदा नहीं करेगा। परन्तु जब हम विषय को मन में सोचते हैं तो उसके प्रति कामना जागृत होगी|
यह कामना ही हमारा "बुरा कर्म" है, और निष्काम रहना ही "अच्छा कर्म" है|
हम बुराई बाहर देखते हैं, अपने भीतर नहीं|
हम विषयों को दोष देते है| पर दोष विषयों में नहीं बल्कि उनके चिंतन में है|
कामनाएं कभी पूर्ण नहीं होतीं|
उनसे ऊपर उठने का एक ही उपाय है, और वह है --------- "निरंतर हरि का स्मरण|"
सांसारिक कार्य भी करते रहो पर प्रभु को समर्पित होकर|
"मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि|"
अपने आप को ह्रदय और मन से मुझे दे देने से तूँ समस्त कठिनाइयों और संकटों को मेरे प्रसाद से पार कर जाएगा|
इस समर्पण पर पूर्व में प्रस्तुति दी जा चुकी है|
आगे और लिखना मेरी सीमित और अल्प क्षमता से परे है| मेरे में और क्षमता नहीं है|
और अब आप कुछ भी अर्थ लगा लो, यह आप पर निर्भर है|
यह कोई उपदेश नहीं है, स्वयं को व्यक्त करने का मेरा स्वभाव है|
सभी को शुभ कामनाएँ| ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
13 सितम्बर 2014
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