Monday, 12 September 2016

धर्म की अवधारणा का क्षरण ही वर्त्तमान दुःखद परिस्थितियों का कारण है .....

धर्म की अवधारणा का क्षरण ही वर्त्तमान दुःखद परिस्थितियों का कारण है .....
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एक यक्ष प्रश्न सभी भारतीयों से है कि जो भारतीय समाज शान्तिप्रिय था उसमें अचानक ही असहिष्णुता, असंतोष, ईर्ष्या, द्वेष, और लूट- पाट बढ़ने लगी है | इसका मूल कारण क्या है?
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जहां तक मेरी सोच है, पहिले लोगों की आवश्यकता कम थी| थोड़े में ही गुज़ारा कर लेते थे| लोग अपरिग्रह को धर्म मानते थे और संतोष को धन; इसलिए सुखी थे|
अब दिखावे की प्रवृति बढ़ गयी है, टेलिविज़न आने के बाद से लोगों में मेलजोल कम हो हो गया है| समाचारपत्रों और टेलिविज़न में विज्ञापनों को देखकर अधिक से अधिक और पाने की चाह बढ़ गयी है| "धर्म" की अवधारणा का बोध भी कम हो गया है| इसलिए लूट-खसोट और चोरी बढ़ गयी है|
धर्म की अवधारणा का क्षरण ही वर्त्तमान दुःखद परिस्थितियों का कारण है|
क्या हम वास्तव में प्रगति कर रहे हैं?
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कृपा शंकर
13 सितम्बर 2014

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