Thursday 8 September 2016

लक्ष्य प्राप्ति हेतु हमें परिस्थितियों से ऊपर उठना ही पड़ेगा, दूसरा कोई विकल्प नहीं है .....

लक्ष्य प्राप्ति हेतु हमें परिस्थितियों से ऊपर उठना ही पड़ेगा,
दूसरा कोई विकल्प नहीं है .....
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किसी अन्य को दोष देना व्यर्थ है| दुर्बलता स्वयं में ही होती है| बाहर की समस्त समस्याओं का समाधान स्वयं के भीतर ही है| अपनी विफलताओं के लिए हर समय परिस्थितियों को दोष देना उचित नहीं है| हम कभी स्वयं को परिस्थितियों का शिकार न समझें| इससे कोई लाभ नहीं होगा, बल्कि परिस्थितियाँ और भी विकट होती जाएँगी|
अच्छी सकारात्मक सोच के मित्रों के साथ रहें| सब मित्रों का एक परम मित्र परमात्मा है जिसकी शरण लेने से सोच भी बदलेगी और परिस्थितियाँ भी बदलेंगी|
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मेरा अब तक का अनुभव यही है कि जैसा हम सोचते हैं और जैसे लोगों के साथ रहते हैं, वैसी ही परिस्थितियों का निर्माण हमारे चारों ओर हो जाता है| पर अपने प्रारब्ध कर्मों के फलस्वरूप जो भी परिस्थितियाँ हमें मिली हैं, उन से ऊपर हमें उठना ही होगा| अन्य कोई विकल्प नहीं है|
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सद्साहित्य के अध्ययन और परमात्मा के नियमित ध्यान से विपरीत से विपरीत परिस्थितियों से जूझने और उनसे ऊपर उठने की शक्ति मिलती है|
जीवन के रणक्षेत्र में आहें भरना और स्वयं पर तरस खाना एक कमजोर मन की कायरता ही है| जो साहस छोड़ देते हैं वे अपने अज्ञान की सीमाओं में बंदी बन जाते हैं| जीवन अपनी समस्याओं से ऊपर उठने का एक निरंतर संघर्ष ही है|
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हमें हर समस्या का समाधान करने का और हर विपरीत परिस्थिति से ऊपर उठने के लिए संघर्ष करने का परमात्मा द्वारा दिया हुआ एक पावन दायित्व है जिससे हम बच नहीं सकते| यह हमारे विकास के लिए प्रकृति द्वारा बनाई गई एक आवश्यक प्रक्रिया है जिसका होना अति आवश्यक है| हमें इसे भगवान का अनुग्रह मानना चाहिए| बिना समस्याओं के कोई जीवन नहीं है| यह हमारी मानसिक सोच पर निर्भर है कि हम उनसे निराश होते हैं या उत्साहित होते हैं|
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जब हम परिस्थितियों के सामने समर्पण कर देते हैं या उनसे हार मान जाते हैं, तब हमारे दुःखों और दुर्भाग्य का आरम्भ होता है|, इसमें किसी अन्य का क्या दोष ??? नियमों को न जानने से किये हुए अपराधों के लिए किसी को क्या क्षमा मिल सकती है? नियमों को न जानना हमारी ही कमी है|
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हमें चाहिए कि हम निरंतर परमात्मा को अपने ह्रदय में रखें और अपने सारे दुःख-सुख, सारे संचित और प्रारब्ध कर्मों के फल व कर्ताभाव अपने प्रियतम मित्र परमात्मा को सौंप दें| इस दुःख, पीड़ाओं, कष्टों और त्रासदियों से भरे महासागर को पार करने के लिए अपनी जीवन रूपी नौका की पतवार उसी परम मित्र को सौंप कर निश्चिन्त हो जाएँ|
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यह संसार ..... आत्मा से परमात्मा के बीच की यात्रा में एक रंगमंच मात्र है| इस रंगमंच पर अपना भाग ठीक से अदा नहीं करने तक बार बार यहीं लौट कर आना पड़ता है| माया के आवरण से परमात्मा दिखाई नहीं देते| यह आवरण विशुद्ध भक्ति से ही हटेगा जिसके हटते ही इस नाटक का रचेता सामने दिखाई देगा| सारे विक्षेप भी भक्ति से ही दूर होंगे|
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प्रभु के श्रीचरणों में शरणागति और पूर्ण समर्पण ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है| गहन से गहन निर्विकल्प समाधी में भी आत्मा को वह तृप्ति नहीं मिलती जो विशुद्ध भक्ति में मिलती है| .मनुष्य जीवन की उच्चतम उपलब्धि ..... पराभक्ति ही है|
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हे प्रभु हमारा यह देह रुपी साधन सदा स्वस्थ और शक्तिशाली रहे, हमारा ह्रदय पवित्र रहे, व मन सब प्रकार की वासनाओं से मुक्त रहे| हमें सदा के लिए अपनी शरण में ले लो| हर प्रकार की परिस्थितियों से हम ऊपर उठें और स्वयं की कमजोरियों के लिए दूसरों को दोष न दें| हमें अपनी शरण में लो ताकि हमारा समर्पण पूर्ण हो|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

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