मिले ना रघुपति बिन अनुरागा, किये जोग जप ताप विरागा .....
---------------------------------------------------------------
संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है ---
"मिले ना रघुपति बिन अनुरागा, किये जोग जप ताप विरागा"||
बिना प्रेम के प्रभु नहीं मिलते, चाहे कोई जितना भी योग, जप, तप कर ले और वैराग्य भी क्यों ना हो| भक्ति का अर्थ है ..... परम प्रेम|
.
प्रेम में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| वही प्रेम जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचता है उसे परा भक्ति कह सकते हैं| प्रेम के मार्ग में आने वाले माया के हर आवरण और विक्षेप की निवृति के लिए शरणागत भी होना पड़ता है| शरणागति भी बिना प्रेम के नहीं होती|
.
अतः निरंतर दिन रात हर समय अपने प्रेमास्पद को प्रेम करें और प्रेम के मार्ग में आने वाली हर बाधा को विष की तरह त्याग दें और आगे बढ़ते रहें| प्रभु से प्रेम, प्रेम और प्रेम|
हम स्वयं ही वह परम प्रेम बनें| प्रेम की उच्चतम अभिव्यक्ति हुई है श्रीराधा जी और श्री हनुमान जी में| उनके ह्रदय में जो प्रेम था उसका दस लाखवाँ भाग भी यदि हमारे में हो तो प्रभु कहीं दूर नहीं है|
.
हर साधक को साधना क्षेत्र में सफलता के लिए अहैतुकी परम प्रेम का विकास करना पड़ता है| परम प्रेम में कोई अपेक्षा या माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| समर्पण ही आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है|
.
आप सब मनीषियों को मेरा सप्रेम सादर प्रणाम ! सब में प्रभु की पराभक्ति जागृत हो | आप सब परमात्मा की दिव्यतम अभिव्यक्तियाँ हैं |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
---------------------------------------------------------------
संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है ---
"मिले ना रघुपति बिन अनुरागा, किये जोग जप ताप विरागा"||
बिना प्रेम के प्रभु नहीं मिलते, चाहे कोई जितना भी योग, जप, तप कर ले और वैराग्य भी क्यों ना हो| भक्ति का अर्थ है ..... परम प्रेम|
.
प्रेम में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| वही प्रेम जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुंचता है उसे परा भक्ति कह सकते हैं| प्रेम के मार्ग में आने वाले माया के हर आवरण और विक्षेप की निवृति के लिए शरणागत भी होना पड़ता है| शरणागति भी बिना प्रेम के नहीं होती|
.
अतः निरंतर दिन रात हर समय अपने प्रेमास्पद को प्रेम करें और प्रेम के मार्ग में आने वाली हर बाधा को विष की तरह त्याग दें और आगे बढ़ते रहें| प्रभु से प्रेम, प्रेम और प्रेम|
हम स्वयं ही वह परम प्रेम बनें| प्रेम की उच्चतम अभिव्यक्ति हुई है श्रीराधा जी और श्री हनुमान जी में| उनके ह्रदय में जो प्रेम था उसका दस लाखवाँ भाग भी यदि हमारे में हो तो प्रभु कहीं दूर नहीं है|
.
हर साधक को साधना क्षेत्र में सफलता के लिए अहैतुकी परम प्रेम का विकास करना पड़ता है| परम प्रेम में कोई अपेक्षा या माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है| समर्पण ही आध्यात्मिक साधना का लक्ष्य है|
.
आप सब मनीषियों को मेरा सप्रेम सादर प्रणाम ! सब में प्रभु की पराभक्ति जागृत हो | आप सब परमात्मा की दिव्यतम अभिव्यक्तियाँ हैं |
ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
No comments:
Post a Comment