Monday 5 June 2017

जगन्माता .......

जगन्माता .......
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एक शिशु अपनी माता के अतिरिक्त अन्य किसी को भी नहीं जानता| उसकी माँ ही उसके लिए सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ और सब कुछ है| वह अपनी माँ के अतिरिक्त अन्य किसी की चिंता भी नहीं करता और एक मात्र माँ को ही पहचानता है| माँ भी उसकी निरंतर चिंता करती है| परमात्मा भी सर्वप्रथम हमारी माँ ही है| सृष्टिकर्ता और सृष्टिपालक के मातृरूप को नमन|
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वैसे तो परमात्मा ..... माता, पिता, बन्धु, सखा और सर्वस्व है पर माँ के रूप में उसकी अभिव्यक्ति सर्वाधिक प्रिय है| माँ के रूप में जितनी करुणा और प्रेम व्यक्त हुआ है वह अन्य किसी रूप में नहीं| अतः परमात्मा का मातृरूप ही सर्वाधिक प्रिय है| माँ का प्रेममय ह्रदय एक महासागर की तरह इतना विस्तृत है कि उसमें हमारी हिमालय सी भूलें भी एक छोटे से कंकर पत्थर से अधिक नहीं प्रतीत होतीं|
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ह्रदय की भावनाओं को व्यक्त करना चाहूँ तो मातृरूप में भी परमात्मा को कोई मानवी आकार नहीं दे सकता| जगत्जननी माँ ही मेरे ह्रदय का सम्पूर्ण प्रेम है जिसको पूर्ण रूप से पाने के अतिरिक्त अन्य कोई उद्देश्य जीवन का हो ही नहीं सकता|
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जीवन में यदि कुछ प्राप्त करने योग्य है तो वे जगन्माता ही हैं, जिनसे परे कुछ भी नहीं है| मेरा स्थान उनके ह्रदय में निरंतर है| उनसे प्रेम ही जीवन की सबसे बड़ी और एकमात्र उपलब्धि है|
उनके प्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं चाहिए| ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
०६ जून २०१३

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