Tuesday, 27 November 2018

क्रीमिया प्रायदीप का वर्तमान विवाद और और उसके कारण :----

क्रीमिया प्रायदीप का वर्तमान विवाद और और उसके कारण :----
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पूर्वी यूरोप में रूस और युक्रेन के मध्य चल रहा विवाद एक ऐसी वास्तविकता है जिस की मेरे लिए कल्पना करना भी बड़ा कठिन है| पूर्व सोवियत संघ में रूस के बाद युक्रेन सबसे बड़ा और उपयोगी घटक था| रूस में उपजाऊ भूमि की बड़ी कमी थी जब कि युक्रेन पूरे सोवियत संघ के लिए एक अन्नदाता गणराज्य था| सोवियत संघ की सेनाओं और प्रशासन में कई बड़े बड़े अधिकारी और कर्मचारी युक्रेन के थे| युक्रेन और रूस के युवक युवतियों में विवाह बहुत सामान्य था| एक दूसरे के यहाँ उनके हजारों परिवार बसे हुए हैं| सोवियत संघ के विघटन के समय क्रीमिया युक्रेन के अधिकार में था जिस पर रूस ने सैनिक हस्तक्षेप के द्वारा नीचे लिखे कारण से अपने अधिकार में ले लिया| तब से कभी परम मित्र रहे दोनों गणराज्य अब एक दूसरे के शत्रु बन गए हैं|
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काला सागर के भीतर ही क्रीमिया प्रायदीप के उत्तर-पूर्व में एक छोटा सा भूमि से घिरा अज़ोव सागर है जिस में जाने का एकमात्र मार्ग "कर्च जलडमरूमध्य" है| उसके पास ही उत्पन्न हुआ एक विवाद बहुत अधिक गहरा गया है| अजोव सागर के उस भाग में जिसे रूस अपना मानता है, रूस द्वारा यूक्रेन के समुद्री जहाज जब्त करने और नाविकों को बंधक बनाने के मामले ने तूल पकड़ लिया है, और रूस की इस कार्रवाई का अमेरिका व यूरोपीय संघ ने विरोध कर चेतावनी दी है| यूक्रेन की संसद ने तनाव को देखते हुए सीमावर्ती इलाकों में मार्शल लॉ लागू किया है| संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की आपात बैठक बुलाई गई है, और अमेरिका ने कार्रवाई की चेतावनी दी है|
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यह क्षेत्र भारत से दूर अवश्य है पर वहाँ वहाँ होने वाली किसी भी घटना का भारत पर प्रभाव अवश्य पड़ता है| सन १८५३ में आरम्भ हुए क्रीमिया के युद्ध में ब्रिटेन का बहुत बुरा हाल हुआ था| इस के पश्चात भारतीयों में विश्वास उत्पन्न हुआ कि ब्रिटेन अजेय नहीँ है, और १८५७ में भारत का प्रथम स्वतंत्रता सग्राम हुआ|
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उस क्षेत्र में रोमानिया, युक्रेन, तुर्की और रूस में मेरा जाना दो-तीन बार हुआ है अतः उस पूरे क्षेत्र का भूगोल मेरे दिमाग में है|
मानचित्र में देखने के लिए निम्न लिंक को दबाएँ .....
https://www.google.com/…/data=!4m5!3m4!1s0x40eac2a37171b3f7…
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क्रीमिया का युद्ध जुलाई १८५३ से सितम्बर १८५५ तक काला सागर (Black Sea) के आसपास हुआ था, जिस में फ्रांस, ब्रिटेन, सारडीनिया, और तुर्की एक तरफ़ थे तथा रूस दूसरी तरफ़ था| क्रीमिया की लड़ाई को इतिहास के सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण तथा अनिर्णायक युद्धों में से एक माना जाता है जिस में बेहद खून खराबे के बाद भी नतीजा कुछ भी नहीं निकला था|
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क्रीमिया का संक्षिप्त वर्तमान इतिहास :--- १०,१०० वर्गमील में फैले क्रीमिया प्रायदीप का महत्त्व पूर्वी यूरोप में बहुत अधिक रहा है| यूनानी, स्किथी, गोथ, हूण, ख़ज़र, बुलगार, तुर्क, मंगोल और बहुत सी जातियों के साम्राज्यों ने समय समय पर क्रीमिया पर अधिकार किया है| कभी तातार मुसलमानों का यह क्षेत्र था जिन में से अधिकाँश को रूसी तानाशाह जोसेफ़ स्टालिन ने उजाड़ कर बलात् मध्य एशिया के वर्तमान तातारिस्तान गणराज्य में बसा दिया जो अब रूस का भाग है| अब यहाँ की जनसंख्या में १३% तातार मुसलमान हैं, और बाकी ८७% रूसी मूल के ईसाई हैं| क्रीमिया १८ वीं सदी से रूस का भाग था जिसे सन १८५४ में तत्कालीन रूसी राष्ट्रपति ख्रुश्चेव ने यूक्रेन को भेंट कर दिया था|
२६ फरवरी २०१४ को सशस्त्र रूसी समर्थकों ने क्रीमिया के सरकारी भवनों पर अधिकार कर के स्वयं को युक्रेन से मुक्त होने की घोषणा कर दी| २ मार्च २०१४ को रूस ने वहाँ अपनी सेना भेज दी जिस से पूरे विश्व में हलचल मच गयी| ६ मार्च २०१४ को क्रीमिया की संसद ने रूसी संघ में शामिल होने का प्रस्ताव पास कर दिया, जिस पर १८ मार्च २०१४ को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने हस्ताक्षर कर दिए| इस तरह क्रीमिया रूस का भाग बन गया|
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कृपा शंकर
२७ नवम्बर २०१८
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पुनश्चः :--- भूमध्य सागर से काला सागर में प्रवेश का एकमात्र मार्ग 'बास्फोरस' और 'दर्रा दानियल' है जो तुर्की के अधिकार में है| इस मार्ग को तुर्की बंद नहीं कर सकता क्योंकि बुल्गारिया, रोमानिया, माल्दोवा, युक्रेन, जॉर्जिया और रूस के क्रीमिया सहित क्षेत्र का अंतर्राष्ट्रीय व्यापार इसी मार्ग से होता है| इस से निकट के अन्य देशों जैसे अज़रबेजान व आर्मेनिया के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर भी इस क्षेत्र का प्रभाव पड़ता है| रूस की काला सागर स्थित नौसेना भी आणविक अस्त्रों से युक्त बहुत शक्तिशाली है| संकट की स्थिति में ये देश अपना पुराना द्वेष भुलाकर रूस के साथ हो जाएँगे क्योंकी तुर्की से इनकी पारंपरिक शत्रुता रही है|

बास्फोरस जलडमरूमध्य और दर्रा दानियल एशिया और योरोप को जोड़ते हैं| इस जलडमरूमध्य के दोनों ओर वर्तमान इस्ताम्बूल नगर है जो पहले कुस्तुन्तुनिया के नाम से जाना जाता था| योरोप का भारत से सारा व्यापार कुस्तुन्तुनिया के मार्ग से ही होता था| जब तुर्कों ने इस पर अपना अधिकार कर लिया उसके पश्चात् ही बाध्य होकर योरोप को जलमार्ग से भारत की खोज करनी पड़ी थी|

असुर राज (गुंडा राज) .....

असुर राज (गुंडा राज) .....
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इस पृथ्वी पर एक बहुत बड़ा अदृश्य असुर राज्य करता आया है और अभी भी कर रहा है| उसके साथ अनेक छुटभैया असुर भी हैं| उन सब से बचना ही इस द्वंद्वात्मक जीवन की सार्थकता है| यह असुर ही हमें अपना उपकरण बना कर ..... लोभी, लालची, कामुक और स्वार्थी बनाता है, वासना में धकेलता है, और सारी स्वार्थ और अहंकार की राजनीति करता है| हमें दिग्भ्रमित करने के लिए आजकल झूठे, सनसनीखेज व दुराग्रहपूर्ण समाचार देता है, और घृणा व अधर्म का प्रचार कर के भ्रम फैला रहा है| ये सब अदृश्य असुर और राक्षस ही हैं जो मनुष्यों को अपना उपकरण बना कर वर्त्तमान में "असहिष्णुता" और "खून खराबे" की बातें कर रहे हैं| इनका एकमात्र उद्देश्य भौतिक सत्ता प्राप्त करना है| ये देवत्व को नष्ट करना चाहते हैं| इनमें से कोई सा असुर जब मरता है तो तुरंत कोई दूसरा उसका स्थान ले लेता है|
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इनसे निपटने का एक ही मार्ग है और वह है ..... हम परमात्मा के प्रति खुलें और परमात्मा को भक्ति द्वारा अपने जीवन में प्रवाहित होने दें, और हर कदम पर इस आसुरी शक्ति का विरोध करें|
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रक्षा करो हे प्रभु मैं आपकी शरण में हूँ | रक्षा करो, रक्षा करो |
"सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते | अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद व्रतं ममः" ||
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सबको शुभ कामनाएँ| ॐ तत्सत् | ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२७ नवम्बर २०१८

साधना में आने वाली बाधाओं का निवारण .....

साधना में आने वाली बाधाओं का निवारण .....
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साधना में आ रही समस्त बाधाओं का एकमात्र कारण अज्ञान रूपी आवरण व विक्षेप है| इस का तुरंत और एकमात्र समाधान है ..... सत्संग, सत्संग और निरंतर सत्संग| अन्य कोई समाधान नहीं है| परमात्मा से परमप्रेम और उन का निरंतर स्मरण ..... सबसे बड़ा सत्संग है| कर्ताभाव को त्याग दो और बाधादायक किसी भी परिस्थिति को तुरंत नकार दो| एक सात्विक जीवन जीओ और आध्यात्मिक रूप से उन्नत लोगों के साथ रहो| अपने ह्रदय में पूर्ण अहैतुकी परम प्रेम के साथ अपने अस्तित्व को गुरु व परमात्मा के प्रति समर्पित करने का निरंतर अभ्यास करते रहो|
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हठयोग की कुछ मुद्राएँ, आसन और क्रियाएँ, साधना में बहुत अधिक सहायक हैं जिन्हें किसी दक्ष और अधिकृत योगाचार्य से ही सीखनी चाहिएँ, हर किसी से नहीं| साधना में दो बातें बहुत अधिक आवश्यक हैं ..... एक तो कमर सदा सीधी रहे, यानी मेरुदंड सदा उन्नत रहे, और साधना के समय नाक से सांस चलती रहे| कमर सीधी रहे इसके लिए पश्चिमोत्तानासन जैसे आसनों का अभ्यास है| नाक से सांस चलती रहे, इस के लिए हठयोग में अनेक उपाय हैं जैसे अनुलोम-विलोम प्राणायाम, नासिका से की जाने वाली जलनेति, जलधौती आदि| यदि नाक में कोई एलर्जी आदि की समस्या है तो इसका उपचार किसी अच्छे नाक-कान-गले के शल्य चिकित्सक से करवाएँ| जीभ को सदा ऊपर की ओर मोड़ कर रखने का प्रयास करते रहो| यदि संभव हो तो खेचरी मुद्रा का अभ्यास किसी अधिकृत दक्ष योगाचार्य के निर्देशन में कीजिये| खेचरी मुद्रा सिद्ध होने पर ध्यान खेचरी मुद्रा में ही कीजिये| खेचरी मुद्रा के इतने लाभ हैं कि यहाँ उन्हें बताने के लिए स्थान कम पड़ जाएगा|
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कोई भी साधना करने से पूर्व अपने गुरु और परमात्मा से उनके अनुग्रह के लिए प्रार्थना अवश्य करें| ऊनी कम्बल के आसन पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर बैठें| समय हो तो साधना से पूर्व हठयोग के कुछ आसन और प्राणायाम के अभ्यास अवश्य कर लीजिये| इस से नींद की झपकियाँ नहीं आयेंगी| शुभ कामनाएँ और नमन !
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवम्बर २०१८

सबसे बड़ी साधना और सबसे बड़ी सिद्धि :---

सबसे बड़ी साधना और सबसे बड़ी सिद्धि :---
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हमारे विचारों और हमारी बातों का दूसरों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, कोई हमारी बात सुनता नहीं है, इसका एकमात्र कारण हमारी व्यक्तिगत साधना में कमी होना है| हमारी व्यक्तिगत साधना अच्छी होगी तभी हमारे विचारों का प्रभाव दूसरों पर पड़ेगा, अन्यथा नहीं| हिमालय की कंदराओं में तपस्यारत संतों के सद्विचार और शुभ कामनाएँ मानवता का बहुत कल्याण करती हैं| इसीलिए हमारे यहाँ माना गया है कि आत्मसाक्षात्कार यानि ईश्वर की प्राप्ति ही सबसे बड़ी सेवा है जो हम दूसरों के लिए कर सकते हैं|
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अपने अहं यानि अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का गुरु-तत्व / परमात्मा में पूर्ण समर्पण, सबसे बड़ी साधना है| उनके श्रीचरणों में आश्रय मिलना, सबसे बड़ी सिद्धि है| सहस्त्रार, श्रीगुरू चरणों का स्थान है| वहाँ पर स्थिति, श्रीगुरु चरणों में आश्रय पाना है| यह सबसे बड़ी सिद्धि है जिसके आगे अन्य सब सिद्धियाँ गौण हैं|
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"कृष्णं वन्दे ज्गत्गुरुम्"| साकार रूप में भगवान श्रीकृष्ण इस काल के सबसे बड़े गुरु हैं| वे गुरुओं के भी गुरु हैं| उनसे बड़ा कोई अन्य गुरु नहीं है| गायत्री मन्त्र के सविता देव भी वे ही हैं, भागवत मन्त्र के वासुदेव भी वे ही है, और समाधि में ब्रह्मयोनी कूटस्थ में योगियों को दिखने वाले पंचकोणीय श्वेत नक्षत्र यानि पंचमुखी महादेव भी वे ही हैं|

उस पंचमुखी नक्षत्र का भेदन और उससे परे की स्थिति योगमार्ग की उच्चतम साधना है, जिसके पश्चात जीव स्वयं शिवभाव को प्राप्त होने लगता है और तभी उसे -- शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि --- का बोध होता है|
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जब ह्रदय में एक परम प्रेम जागृत होता है और प्रभु को पाने की अभीप्सा और तड़फ़ पैदा होती है तब भगवान किसी ना किसी सद्गुरु के रूप में निश्चित रूप से आकर मार्गदर्शन करते हैं| आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को नमन !
ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवम्बर २०१८

बाहर के विश्व में परिवर्तन लायेगा कौन ?.....

बाहर के विश्व में परिवर्तन लायेगा कौन ?.....
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कोई नहीं लायेगा| परिवर्तन लाने वाला सिर्फ परमात्मा है| हम निमित्त मात्र बन सकते हैं, कर्ता नहीं| कर्ता सिर्फ जगन्माता हैं| हम उनके उपकरण मात्र बन सकते हैं| हमारे प्रेम और समर्पण में पूर्णता हो, और कुछ भी नहीं चाहिए| जो करना है वह जगन्माता ही करेगी|
हम जंगल में जा रहे हैं और सामने से शेर आ जाए तो हम क्या करेंगे? जो करना है वह शेर ही करेगा, हम कर भी क्या सकते हैं?

शिवलिंग का अर्थ व आत्मलिंग की अनुभूतियाँ ..

शिवलिंग का अर्थ व आत्मलिंग की अनुभूतियाँ ..
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शिव का अर्थ है ..... परम मंगल और परम कल्याणकारी|
लिंग का अर्थ है जिसमें सब का विलय हो जाता है|
शिवलिंग का अर्थ है वह परम मंगल और कल्याणकारी परम चैतन्य जिसमें सब का विलय हो जाता है| सारा अस्तित्व, सारा ब्रह्मांड ही शिव लिंग है| स्थूल जगत का सूक्ष्म जगत में, सूक्ष्म जगत का कारण जगत में और कारण जगत का सभी आयामों से परे .... तुरीय चेतना .... में विलय हो जाता है| उस तुरीय चेतना का प्रतीक हैं .... शिवलिंग, जो साधक के कूटस्थ यानि ब्रह्मयोनी में निरंतर जागृत रहता है| उस पर ध्यान से चेतना ऊर्ध्वमुखी होने लगती है|
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आत्मलिंग की अनुभूतियाँ .....
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आत्मलिंग की अनुभूतियाँ सिद्ध गुरु की परम कृपा से ही होती हैं| इन की एक बार अनुभूतियाँ हों तो पीछे मुड़कर न देखें और ईश्वर की साधना में जुट जाएँ| गुरुकृपा निरंतर हमारा मार्गदर्शन और रक्षा करेगी| यहाँ जो मैं लिख रहा हूँ वह गुरुकृपा से प्राप्त मेरा निजी अनुभव है| जितना लिखने की मुझे अंतर से अनुमति मिल रही है उतना लिखूंगा, उससे आगे मौन हो जाऊंगा|
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(१) हमारी सूक्ष्म देह के मूलाधार से सहस्त्रार तक एक ओंकारमय शिवलिंग है| मेरुदंड में सुषुम्ना के सारे चक्र उसी में हैं| मानसिक रूप से उसी में रहते हुए परमशिव अर्थात ईश्वर की कल्याणकारी ज्योतिर्मय सर्वव्यापकता का ध्यान करें| ध्यान भ्रूमध्य से आरम्भ करते हुए सहस्त्रार पर ले जाएँ और श्रीगुरुचरणों में आश्रय लेते हुए वहीं से करें| इस शिवलिंग में स्थिति सब तरह के विक्षेपों से हमारी रक्षा करती है|
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(२) दूसरा सूक्ष्मतर शिवलिंग आज्ञाचक्र से सहस्त्रार तक उत्तर-सुषुम्ना में है| यह सर्वसिद्धिदायक है| जो उच्चतम साधक हैं वे अपनी चेतना को सदा निरंतर इसी में रखते हैं| इसमें स्थिति सिद्ध गुरु की आज्ञा और कृपा से ही होती है|
आगे और भी बहुत कुछ है पर कुछ निषेधात्मक कारणों मैं उनकी सार्वजनिक चर्चा नहीं कर सकता|
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भगवान परमशिव दुःखतस्कर हैं| तस्कर का अर्थ होता है .... जो दूसरों की वस्तु का हरण कर लेता है| भगवन परमशिव अपने भक्तों के सारे दुःख और कष्ट हर लेते हैं| वे जीवात्मा को संसारजाल, कर्मजाल और मायाजाल से मुक्त कराते हैं| जीवों के स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह के तीन पुरों को ध्वंश कर महाचैतन्य में प्रतिष्ठित कराते है अतः वे त्रिपुरारी हैं| वे मेरे परम आराध्य देव हैं|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ नवम्बर २०१८

हिन्दू राष्ट्र का निर्माण हमारी आध्यात्मिक साधना पर निर्भर है .....

हिन्दू राष्ट्र का निर्माण हमारी आध्यात्मिक साधना पर निर्भर है|

भारतवर्ष का हिन्दू राष्ट्र बनना तो सुनिश्चित है पर इसके लिए शारीरिक और वैचारिक क्षमता के साथ साथ आध्यात्मिक शक्ति का होना भी परमावश्यक है| इसके लिए समाज के सभी घटकों को साधना तो करनी ही होगी| हमारी निष्ठापूर्ण साधना में यदि सत्यता होगी तो परमात्मा हम से हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करवा ही लेंगे| यह कार्य सिर्फ परमात्मा ही कर सकते हैं| वे ही हमें आवश्यक शक्ति और मार्गदर्शन देंगे और यह कार्य निश्चित रूप से होगा| अतः साधना द्वारा परमात्मा की कृपा प्राप्त करें, बाकी काम वे स्वयं ही करेंगे| हिन्दू राष्ट एक विचारपूर्वक किया हुआ संकल्प है|

ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२५ नबम्बर २०१८

ISKCON (इस्कोन) के पक्ष में .....

ISKCON (इस्कोन) के पक्ष में .....
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मैं सन १९८१ में पहली बार इटली गया था जो कट्टर रोमन कैथोलिक ईसाईयों का देश है| उनके प्रायः हर बड़े नगर में ISKCON द्वारा संचालित FM रेडियो स्टेशन हैं जो दिन में कई बार निश्चित समय पर कृष्ण भजन प्रसारित करते हैं| रोम के वेटिकन में सैंट पीटर्स के बाहर भी मुझे कृष्ण भक्ति का प्रचार करने वाले इस्कोन के सदस्य मिले हैं|
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सन १९८७-८८ की बात है| युक्रेन के ओडेसा नगर में मैं कहीं घूमने गया था| उस समय वहाँ साम्यवादी शासन था और किसी भी धर्म के पालन पर प्रतिबन्ध था| एक पार्क में से महामंत्र (हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे) की आवाज सुनाई दी| वहाँ जा कर देखा तो अनेक युवा लडके-लड़कियाँ साम्यवादी शासन को चुनौती देते हुए बड़े साहस से महामंत्र का जाप कर रहे थे|
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यूरोप के कई नगरों में मुझे इस्कोन के अनुयायी मिले हैं| एक बार मैं कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के एक नगर में था| एक ईसाई पादरी मेरा अच्छा मित्र बन गया था| मैनें उस से मुझे किसी हिन्दू मंदिर में ले चलने का आग्रह किया| अगले दिन मौसम बड़ा खराब था, बर्फ भी गिर रही थी और कुछ कुछ पानी के छींटे भी पड़ रहे थे| नियत समय पर वह पादरी आया और लगभग एक-डेढ़ घंटे कार चलाकर एक हिन्दू मंदिर में ले गया जो इस्कॉन का था| मंदिर की व्यवस्था देखकर वह पादरी बहुत प्रभावित हुआ| वहाँ के रेस्टोरेंट में मैंने उसे शुद्ध शाकाहारी भोजन खिलाया| कुछ दिनों के बाद उस पादरी की चिट्ठी आई| उसने बताया कि उसे शाकाहारी खाना बहुत अच्छा लगा और दुबारा वह अपनी पत्नी के साथ (प्रोटेस्टेंट पादरी विवाह करते हैं) वहाँ खाना खाने गया और दोनों को ही शाकाहारी खाना इतना अच्छा लगा कि वे शाकाहारी हो गए हैं|
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बहुत पहिले मुझे एक रूसी मित्र ने बताया था कि रूस की सरकार सबसे अधिक हरे-कृष्ण वालों से डरती है| उनको जेल में डालती है तो वहाँ वे लोग छूत की बीमारी की तरह फैलते हैं और वहाँ के सारे कैदी हरे कृष्णा हो जाते हैं|
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मेरा सगा भतीजा जो एक बहुत बड़ा इंजिनियर है, अचानक ही इस्कॉन में साधू बन गया| मैं उस से मिलने गया तो पाया कि उस से वरिष्ठ साधू तो बहुत अधिक उच्च शिक्षा प्राप्त इंजिनियर हैं|
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अपने अनुभवों से मैं ISKCON (इस्कॉन) का समर्थक हूँ, हालांकि मैं उनका भाग नहीं हूँ, मेरी स्वाभाविक रूचि वेदांत दर्शन में है|
सभी को धन्यवाद और नमन !
कृपा शंकर
२४ नवम्बर २०१८

सनातन हिंदुत्व की रक्षा करें .....

इस राष्ट्र की अस्मिता सनातन हिन्दू धर्म है| हिदुत्व ही इस राष्ट्र की पहिचान है|
सनातन हिन्दू धर्म ही भारत है और भारत ही सनातन हिन्दू धर्म है| अनगिनत युगों में मिले संस्कारों से यहाँ की संस्कृति का जन्म हुआ है| इस संस्कृति का आधार ही सनातन धर्म है| यदि यह संस्कृति और धर्म ही नष्ट हो गए तो यह राष्ट्र भी नष्ट हो जाएगा|
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हिंदुत्व क्या है? :----
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सनातन धर्म अपरिभाष्य है| जितना शब्दों में व्यक्त कर सकते हैं उसके अनुसार ...."जीवन में पूर्णता का सतत प्रयास, अपनी श्रेष्ठतम सम्भावनाओं की अभिव्यक्ति, परम तत्व की खोज, दिव्य अहैतुकी परम प्रेम, भक्ति, करुणा और परमात्मा को समर्पण ये सब सनातन हिन्दू धर्म और भारत की ही संस्कृति है|
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हमारे पर आक्रमण कैसे हो रहे हैं? :----
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धर्म-निरपेक्षता, सर्वधर्म समभाव और आधुनिकता आदि आदि नामों से हमारी अस्मिता पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं| भारत की शिक्षा और कृषि व्यवस्था को नष्ट कर दिया गया है| झूठा इतिहास पढ़ाया जा रहा है| पशुधन को कत्लखानों में कत्ल कर के विदेशों में भेजा जा रहा है| बाजार में मिलने वाला दूध असली नहीं है| दूध के पाउडर को घोलकर थैलियों में बंद कर असली दूध के नाम से बेचा जा रहा है| संस्कृति के नाम पर फूहड़ नाच गाने परोसे जा रहे हैं| हमारी कोई नाचने गाने वालों की संस्कृति नहीं है| हमारी संस्कृति -- ऋषियों मुनियों, महाप्रतापी धर्म रक्षक वीर राजाओं, ईश्वर के अवतारों, वेद वेदांगों, दर्शनशास्त्रों, धर्मग्रंथों और संस्कृत साहित्य की है| जो कुछ भी भारतीय है उसे हेय दृष्टी से देखा जा रहा है| विदेशी मूल्य थोपे जा रहे हैं| देश को निरंतर खोखला, निर्वीर्य और धर्महीन बनाया जा रहा है|
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हिंदुत्व की विशेषता :-----
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परोपकार, सब के सुखी व निरोगी होने और कल्याण की कामना हिन्दू धर्म व संस्कृति में ही है, अन्यत्र नहीं| अन्य मतावलम्बी सिर्फ अपने मत के अनुयाइयों के कल्याण की ही कामना करते हैं, उससे परे नहीं| औरों के लिए तो उनके मतानुसार अनंत काल तक नर्क की ज्वाला ही है और उनका ईश्वर भी मात्र उनके मतावलंबियों पर ही दयालू है| उनके ईश्वर की परिकल्पना भी एक ऐसे व्यक्ति की है जो अति भयंकर और डरावना है जो उनके मतावलम्बियों को तो सुख ही सुख देगा और दूसरों को अनंत काल तक नर्क की अग्नि में तड़फा कर आनंदित होगा| पर पीड़ा से आनंदित होने वाले ईश्वर से भय करना व अन्य मतावलंबियों को भयभीत और आतंकित करना ही उनकी संस्कृति है|
समुत्कर्ष, अभ्युदय और नि:श्रेयस की भावना ही सनातन हिदू धर्म का आधार हैं| अन्य संस्कृतियाँ इंद्रीय सुख और दूसरों के शोषण की कामना पर ही आधारित हैं|
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इन पंक्तियों के लेखक ने प्रायः पूरे विश्व की यात्राएँ की हैं और वहाँ के जीवन को प्रत्यक्ष देखा है| जो कुछ भी लिख रहा है वह अपने अनुभव से लिख रहा है|
धर्मनिरपेक्षतावादियों, सर्वधर्मसमभाववादियों और अल्पसन्ख्यकवादियों से मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि आपकी धर्मनिरपेक्षता, सर्वधर्मसमभाववाद और अल्पसंख्यकवाद तभी तक है जब तक भारत में हिन्दू बहुमत है| हिन्दुओं के अल्पमत में आते ही भारत, भारत ना होकर अखंड पकिस्तान हो जाएगा, और आपका वही हाल होगा जो पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दुओं का हुआ है| यह अनुसंधान का विषय है कि वहाँ के मन्दिर और वहाँ के हिन्दू कहाँ गए? क्या उनको धरती निगल गई या आसमान खा गया? आपके सारे के सारे उपदेश और सीख क्या हिन्दुओं के लिए ही है? यह भी अनुसंधान का विषय है कि भारत के भी देवालय और मंदिर कहाँ गए? यहाँ की तो संस्कृति ही देवालयों और मंदिरों की संस्कृति थी| सन १९७१ में पाकिस्तानी सेना ने बांग्लादेशी हिन्दुओं को बड़ी हैवानियत के साथ मौत के घाट उतार दिया| तक़रीबन 30 लाख हिन्दुओं को एक महीने में क़त्ल कर दिया| 40 लाख हिन्दू महिलाओं का बलात्कार किया गया| इतना भयावह नरसंहार किया गया जिसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि ५ करोड़ बंगलादेशी हिन्दू अभी तक लापता हैं| सच बात है अगर एक बार मुस्लिम बहुसंख्यक हो गये तो फिर मुस्लिम राष्ट्र बनाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं| तब हिन्दुओं का सामूहिक नर-संहार निश्चित है|
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सनातन धर्म ही भारत का भविष्य है| सनातन धर्म ही भारत की राजनीति हो सकती है| भारत का भविष्य ही विश्व का भविष्य है| भारत की संस्कृति और हिन्दू धर्म का नाश ही विश्व के विनाश का कारण होगा| क्या पता उस विनाश का साक्षी होना ही हमारी नियति हो| जयशंकर प्रसाद जी के शब्दों में --
"हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर,
बैठ शिला की शीतल छाँह|
एक व्यक्ति भीगे नयनों से,
देख रहा था प्रलय अथाह|"
हो सकता है कि उस व्यक्ति की पीड़ा ही हमारी पीड़ा हो, और उसकी नियति ही हमारी नियति हो|
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मेरे ह्रदय की यह पीड़ा समस्त राष्ट्र की पीड़ा है जिसे मैंने व्यक्त किया है| मुझे तो पता है की मुझे क्या करना है, और वह करने का प्रयास कर रहा हूँ| मुझे किसी को और कुछ भी नहीं कहना है| यह मेरे ह्रदय की अभिव्यक्ति मात्र है| किसी से मुझे कुछ भी नहीं लेना देना है| सिर्फ एक प्रार्थना मात्र है आप सब से कि अपने देश भारत के धर्म और संस्कृति की रक्षा करें|
वन्दे मातरम| भारत माता कीजय|
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ॐ सहना भवतु, सहनो भुनक्तु सहवीर्यं करवावहै ।
तेजस्वीनावधीतमस्तु माविद्विषावहै ॥ ॐ शांति:! शांति: !! शांति !!
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वन्दे मातरम्।
सुजलां सुफलां मलय़जशीतलाम्,
शस्यश्यामलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।१।।
शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्,
सुखदां वरदां मातरम् । वन्दे मातरम् ।।२।।
कोटि-कोटि कण्ठ कल-कल निनाद कराले,
कोटि-कोटि भुजैर्धृत खरकरवाले,
के बॉले माँ तुमि अबले,
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीम्,
रिपुदलवारिणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।३।।
तुमि विद्या तुमि धर्म,
तुमि हृदि तुमि मर्म,
त्वं हि प्राणाः शरीरे,
बाहुते तुमि माँ शक्ति,
हृदय़े तुमि माँ भक्ति,
तोमारेई प्रतिमा गड़ि मन्दिरे-मन्दिरे। वन्दे मातरम् ।।४।।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी,
कमला कमलदलविहारिणी,
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्,
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्,
सुजलां सुफलां मातरम्। वन्दे मातरम् ।।५।।
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्,
धरणीं भरणीं मातरम्। वन्दे मातरम् ।।६।।

वेदों के चार महावाक्य .....

वेदान्त में वेदों के चार महावाक्यों का बड़ा महत्व है .....
(१) 'प्रज्ञानं ब्रह्म' -------- (ऐतरेय उपनिषद) --------- ऋग्वेद,
(२) 'अहम् ब्रह्मास्मि' --- (बृहदारण्यक उपनिषद) --- यजुर्वेद,
(३) 'तत्वमसि' ---------- (छान्दोग्य उपनिषद्) ------- सामवेद,
(४) 'अयमात्माब्रह्म' ----- (मांडूक्य उपनिषद) --------अथर्व-वेद |
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इन के शाब्दिक अर्थ पर मत जाइए, इनका तात्विक अर्थ परमात्मा की कृपा से ही समझ में आ सकता है| इन महावाक्यों को आधार बना कर हमारे महान ऋषियों ने तपस्या की और महान बने| वे महावाक्य हमारे भी जीवन का आधार बनें| इनके दर्शन ऋषियों को गहन समाधि में हुए| इनकी समाधि भाषा है जिसे कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही समझा सकता है|

साधन चतुष्टय :-----

साधन चतुष्टय :-----
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'ब्रह्मसूत्र शंकरभाष्य' में तथा 'विवेक चूडामणि' ग्रंथ में आचार्य शंकर इन की चर्चा करते हैं| वेदान्त दर्शन में प्रवेश के लिए इन चारों साधनों की योग्यता होनी अनिवार्य है| किसी भी मार्ग के साधक हों, इनकी योग्यता के बिना मार्ग प्रशस्त नहीं होता| ये चारों साधन हैं .....
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(१) नित्यानित्य वस्तु विवेक : --- अर्थात् नित्य एवं अनित्य तत्त्व का विवेक ज्ञान| सबसे पहले साधक अपने से अधिक उन्नत सज्जन पुरुषों व महात्माओं का सत्संग करे| 'बिनु सत्संग विवेक न होई| राम कृपा बिनु सुलभ न सोई||' अर्थात बिना सत्संग के विवेक नही मिलता, प्रभु कृपा के बिना सत्संग नही मिलता| सज्जन पुरुषों का सत्संग करने से पाप नष्ट होता है, कुसंस्कार नष्ट होता है, उत्तम संस्कार प्राप्त होता है, और नित्य-अनित्य का विवेक मिलता है| सत्संग के द्वारा ही विवेक प्राप्त होता है, यह विवेक मनुष्य की पहली योग्यता है|
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(२) इहमुत्रार्थ भोगविराग :--- जागतिक एवं स्वार्गिक दोनों प्रकार के भोग-ऐश्वर्यों से अनासक्ति| जब मनुष्य की विवेक शक्ति पूर्ण रूप से जागृत हो जाती है तब उसे संसार से वैराग्य हो जाता है, और संसार के विषय भोगों की आसक्ति नष्ट हो जाती है, तब मनुष्य संसार के विषय भोगों में लिप्त नही होता, निष्काम भाव से कर्म करता है और कर्म-फल के बंधन से मुक्त हो जाता है| यह वैराग्य मनुष्य की दूसरी योग्यता है|
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(३) शमदमादि षट् साधन सम्पत् :----
शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति, तितिक्षा, ये छः साधन हैं| वैराग्य होने के बाद शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति और तितिक्षा .... इन छः गुणों का होना बड़ा आवश्यक है| मैं यहाँ विस्तार से संमझा नहीं पाऊंगा| किसी विद्वान् महात्मा से इनको समझ लें|
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(४) मुमुक्षत्व :--–
मोक्षानुभूति की उत्कण्ठ अभिलाषा| ही मुमुक्षत्व है| जब साधक शम दमादि षट सम्पत्तियों के द्वारा जितेंद्रिय हो जाता है, तब मुमुक्षुत्व मिलता है|
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उपरोक्त चारों साधन .... "साधन-चतुष्टय" कहलाते हैं| ये चारों साधन ही साधक को वेदान्त दर्शन का अधिकारी बनाते हैं| इस छोटे से लेख में इनको ठीक से समझा पाना असंभव है| मुमुक्षु को चाहिए कि वह विद्वान् संत-महात्माओं का सत्संग करे और उन से ही इस विषय का ज्ञान प्राप्त करे| सभी को धन्यवाद !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
२३ नवम्बर २०१८

आध्यात्मिक साधनाओं का आरम्भ .....

आध्यात्मिक साधनाओं का आरम्भ .....
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हे विश्व के अमृत पुत्रो, श्रुति भगवती हमें "शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः" कह कर संबोधित करती है| हम सब परमात्मा के अमृतपुत्र हैं|
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सारी आध्यात्मिक साधनाओं का आरम्भ कृष्ण यजुर्वेद से होता है| तत्पश्चात तो उसका सिर्फ विस्तार ही विस्तार है| कृष्ण यजुर्वेद के श्वेताश्वतरोपनिषद में सनातन हिन्दू धर्म का सारा साधना पक्ष और ज्ञानयोग दिया हुआ है| इस उपनिषद् के छओं अध्यायों में जगत के मूल कारण, ॐकार-साधना, परमात्म-तत्व से साक्षात्कार, ध्यानयोग, प्राणायाम, जगत की उत्पत्ति, जगत के संचालन और विलय का कारण, विद्या-अविद्या, जीव की नाना योनियों से मुक्ति के उपाय, और परमात्मा की सर्वव्यापकता का वर्णन किया गया है| सारी आध्यात्मिक साधनाएँ यहीं से आरम्भ होती हैं| यह उपनिषद् अपने दूसरे अध्याय में हम सब को अमृत पुत्र कहता है| हम सब परमात्मा के अमृतपुत्र हैं|
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स्वयं को पापी कहना सबसे बड़ा पाप है| जो भी शिक्षा हमें जन्म से पापी होना सिखाती है वह वेदविरुद्ध होने के कारण विष के समान त्याज्य है| सिर्फ वेद ही प्रमाण हैं| कोई भी पौराणिक या आगम शास्त्रों की शिक्षा भी यदि वेदविरुद्ध है तो वह त्याज्य है| कुछ मंदिरों में आरती के बाद " पापोऽहं पापकर्माऽहं पापात्मा पापसंभवः" जैसा अभद्र मंत्रपाठ करते हैं, मैं उस पर ध्यान नहीं देता क्योंकि मेरी दृष्टी में यह मन्त्र वेदविरुद्ध है|
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ईसाईयत यानि ईसाई पंथ का मुख्य आधार मूल-पाप यानि Original Sin का सिद्धांत है अतः वह वेदविरुद्ध, अमान्य और त्याज्य है| सारी ईसाईयत Original Sin के सिद्धांत पर खड़ी है जो खोखला और झूठा सिद्धांत है| ईसाई पंथ दो सिद्धांतों पर एक खडा है .... पहला तो है Original Sin, और दूसरा है Resurrection| इनके बिना यह पंथ आधारहीन है| दोनों ही झूठे हैं|
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श्रुति भगवती तो ऋग्वेद में कहती है ..... "अहं इन्द्रो न पराजिग्ये" अर्थात मैं इंद्र हूँ, मेरा पराभव नहीं हो सकता| वेदों के चार महावाक्य हैं ....
(१) प्रज्ञानं ब्रह्म --- (ऐतरेय उपनिषद) --- ऋग्वेद,
(२) अहम् ब्रह्मास्मि --- (बृहदारण्यक उपनिषद) --- यजुर्वेद,
(३) तत्वमसि --- (छान्दोग्य उपनिषद्) --- सामवेद,
(४) अयमात्माब्रह्म --- (मांडूक्य उपनिषद) ---अथर्व-वेद |
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हम महान ऋषियों की संतानें हैं, अतः जिन महावाक्यों को आधार बना कर हमारे हमारे महान ऋषियों ने तपस्या की और महान बने वे महावाक्य हमारे भी जीवन का आधार बनें| इन्हें परमात्मा की कृपा द्वारा ही समझा जा सकता है क्योंकि इनके दर्शन ऋषियों को गहन समाधि में हुए| इनकी समाधि भाषा है| इन्हें कोई श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य ही समझा सकता है|
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सारे उपनिषद् हमें प्रणव यानि ओंकार पर ध्यान करने का आदेश देते हैं| गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण का भी यही आदेश और उपदेश है| हमारे शास्त्रों में कहीं भी मनुष्य को जन्म से पापी नहीं कहा गया है| अतः हम स्वधर्म पर अडिग रहें और स्वधर्म का पालन करें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ नवम्बर २०१८

मृत देह का अंतिम संस्कार और आगे के सारे कर्मकांड बहुत अधिक मंहगे होते हैं ....

जब कोई भी प्रारब्धवश या अपना समय आने पर अपनी देह का त्याग करता है, सांसारिक भाषा में कहें तो .... मरता है, तब उसके परिवार जनों को बहुत अधिक कष्ट होता है| मृत देह का अंतिम संस्कार और आगे के सारे कर्मकांड बहुत अधिक मंहगे होते हैं| गरीब लोगों को तो बहुत अधिक कष्ट होता है| वे कहीं से भी रुपया लेकर कर्मकांड करते हैं और कर्ज के नीचे दब जाते हैं| इस का कोई न कोई समाधान तो अवश्य हो सकता ही है| वह क्या हो सकता है इस पर समाज के कर्णधारों को विचार करना चाहिए|
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देहरादून के ब्रह्मलीन स्वामी ज्ञानानंद गिरी महाराज ने मुझे अपने एक गुजराती साधक मित्र के बारे में बताया था जो गुजरात के जूनागढ़ जिले के एक छोटे से गाँव में रहते थे| उन्होंने जब देहत्याग किया तब स्वतः ही उनकी मृत देह बिस्तर पर ही जल कर भस्म हो गयी और राख में परिवर्तित हो गयी| न तो बिस्तर जला और चद्दर पर कोई निशान तक नहीं पड़ा| कहते हैं कि कबीर जब मरे तो उनकी मृत देह फूलों में परिवर्तित हो गयी थी|
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भौतिक विज्ञान में सिद्धांत रूप से यह संभव है यदि हम किसी विद्या से अणुओं की संरचना को परिवर्तित कर सकें| हर पदार्थ अणुओं से बना है, एक पदार्थ की दूसरे पदार्थ से भिन्नता इसी पर निर्भर है कि उस के अणु में कितने इलेक्ट्रान हैं| अंततः अणु भी ऊर्जा से ही निर्मित हैं| इस ऊर्जा के पीछे भी परमात्मा का एक विचार और संकल्प है| परमात्मा के उस विचार यानी संकल्प से जुड़ कर किसी भी भौतिक रचना को परिवर्तित किया जा सकता है| वाराणसी में स्वामी विशुद्धानंद सरस्वती नाम के संत हुए हैं जिनमें यह सिद्धि थी कि वे सूर्य की किरणों से एक पदार्थ को दूसरे पदार्थ में परिवर्तित कर दिया करते थे| वे गंधबाबा के नाम से प्रसिद्ध थे, जिसको भी आशीर्वाद देते उसके हाथों में मनचाहे फूलों की गंध आने लगती थी| परमहंस योगानंद ने अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक 'योगी कथामृत' में उनके ऊपर एक पूरा अध्याय ही लिखा है| गंधबाबा के बारे में महामहोपाध्याय पंडित गोपीनाथ कविराज ने, और अँगरेज़ पत्रकार पॉल ब्रंटन ने भी अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक "इन सर्च ऑफ़ सीक्रेट इंडिया" में खूब लिखा है|
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मेरे यह सब लिखने का अभिप्राय यह है कि ऐसी कोई विद्या अवश्य ही होगी जिसका प्रयोग करने पर व्यक्ति अपनी मृत देह के अणुओं की संरचना को विखंडित कर सके ताकि उसके परिवार जनों को कोई आर्थिक कष्ट न हो|
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सभी को धन्यवाद ! ॐ नमो नारायण !
कृपा शंकर
२२ नवम्बर २०१८

Tuesday, 20 November 2018

(पुनर्प्रस्तुत). भारत में कभी भी "सती-प्रथा" नहीं थी .....

(पुनर्प्रस्तुत). भारत में कभी भी "सती-प्रथा" नहीं थी .....
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भारत में तथाकथित "सती प्रथा" पर एक बहुत बड़े ऐतिहासिक शोध की आवश्यकता है| हम जो पढ़ रहे हैं वह अंग्रेजों और उनके मानस-पुत्रों का लिखा हुआ इतिहास है जो सत्य नहीं है| इस इतने बड़े असत्य का कारण क्या था इस पर यहाँ कुछ प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है|
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अंग्रेज जब भारत छोड़कर गए तब उन्होंने अपने समय के यथासंभव सारे दस्तावेज, वे सारे सबूत जला कर नष्ट कर दिए जो उनके द्वारा किये हुए जनसंहार, अत्याचार और भारतीयों को बदनाम करने के लिए किये गए कार्यों को सिद्ध कर सकते थे| उन्होंने करोड़ों लोगों की हत्याएँ कीं, दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न कर करोड़ों को भूख से मरने को विवश किया और हिंदुत्व को बदनाम करने व भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए अनेक दुष्कृत्य किये जैसे भारत की शिक्षा व्यवस्था व कृषि प्रणाली को नष्ट करना, हिन्दू धर्मग्रंथों को प्रक्षिप्त करवाना, झूठा इतिहास लिखवाना, आदि आदि| भारत को बहुत धूर्तता, निर्दयता और क्रूरता से बुरी तरह उन्होंने लूटा| पश्चिम की सारी समृद्धि भारत से लूटे हुए धन के कारण ही है| मूल रूप से वे समुद्री लुटेरे थे और भारत में लुटेरों के रूप में लूटने के उद्देश्य से ही आये थे|
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भारत में अंग्रेज़ी शासन स्थापित करने के पश्चात अँगरेज़ शासकों के समक्ष सबसे बड़ी समस्या थी अँगरेज़ सिपाहियों, कर्मचारियों और अधिकारियों को छुट्टी पर इंग्लैंड बापस जाने से रोकना| वे किसी भी कीमत पर उन्हें यहीं रोकना चाहते थे| इसके लिए उन्होंने भारत में अँगरेज़ कर्मचारियों, अधिकारियों और सिपाहियों के लिए वैश्यालय स्थापित किये| भारत के इतिहास में कभी भी व्यवस्थित रूप से वैश्यावृति नहीं थी, वेश्यालयों की तो भारत में कभी कल्पना भी नहीं की गयी थी|
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अंग्रेजों ने सबसे पहिले अपना शासन वर्त्तमान कोलकाता से आरम्भ किया था अतः अपना शासन स्थापित होते ही उन्होंने कोलकाता के सोनागाछी में एशिया का सबसे बड़ा वैश्यालय स्थापित किया| उनकी सबसे बड़ी छावनी भी बंगाल में ही हुआ करती थी| अब उन्हें वैश्या महिलाओं की आवश्यकता थी, अतः उन्होंने अपने शासन के आरम्भ में बंगाल में किसी भी विधवा हुई महिला को बलात बन्दूक की नोक पर अपहृत कर के वैश्या बनने को बाध्य करना आरम्भ कर दिया| बाद में वे विधिवत रूप से गुपचुप छद्म रूप से भारतीय युवतियों का अपहरण करने लगे और उन्हें वैश्या बनने को बाध्य करने लगे| यह कार्य उन्होंने अति निर्दयता और क्रूरता से किया|
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एक बात पर गौर कीजिये कि तथाकथित सती प्रथा वहीं थी जहां अंग्रेजों की छावनियाँ थीं, अन्य कहीं भी नहीं| इसकी प्रतिक्रया यह हुई कि अपनी रक्षा के लिए हिन्दू समाज ने बाल विवाह आरम्भ कर दिए और विधवाओं की अँगरेज़ सिपाहियों से रक्षा के लिए विधवा दहन आरम्भ कर दिये| पर्दा प्रथा भी यहीं से चली|
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इससे पूर्व भारत में अरब, फारस और मध्य एशिया से आये लुटेरों ने भी यही कार्य किया था पर उन्होंने कभी वैश्यालय स्थापित नहीं किये| वे अपने साथ महिलाओं को तो लाये नहीं थे अतः उन्होंने हिन्दुओं की ह्त्या कर के उनकी महिलाओं का अपहरण कर के उनके साथ अपने घर बसाए| जिन हिन्दुओं की वे ह्त्या करते थे उनकी भूमि और महिलाओं पर अपना अधिकार कर लेते थे|
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अंग्रेजों ने फिर मुम्बई में फारस रोड़ पर और जहाँ जहाँ भी वे गए, वहाँ वहाँ अपने सिपाहियों और कर्मचारियों के लिए वैश्यालय स्थापित किये|
हिन्दू महिलाएँ इन विदेशी आक्रमणकारियों से अपनी रक्षा के लिए ही आत्मदहन को बाध्य होने लगीं|
यह था भारत में तथाकथित सती प्रथा यानि महिला दहन का कारण|
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भारत में राजा राममोहन रॉय को बहुत बड़ा समाज सुधारक बताया जाता है, जो वास्तव में एक झूठ है| निःसंदेह वे बहुत बड़े विद्वान् थे पर अंग्रेजी शासन के सबसे बड़े समर्थक भी थे| अंग्रेजी शासन, अंग्रेजी भाषा एवं अंग्रेजी सभ्यता की प्रशंसा जितनी उन्होंने की उतनी शायद ही किसी अन्य भारतीय ने की होगी| उन्होने स्वतंत्रता आन्दोलन में कोई प्रत्यक्ष भाग नहीं लिया, और उनकी अन्तिम सांस भी ब्रिटेन में ही निकली|
अंग्रेजों ने पुरष्कार में उन्हें बहुत बड़ी जमींदारी दी थी, अतः अपनी जमींदारी को चमकाते हुए भारतीय समाज में हीन भावना भरने का ही कार्य उन्होंने किया| वे अंग्रेजों के अदृष्य सिपाही थे| भारत में अंग्रेजी राज्य और गुलामी को स्थापित करने में उनका बहुत बड़ा योगदान था| वे कभी अंग्रेजों की कूटनीति को समझ नहीं सके और भारत का सही मार्गदर्शन नहीं कर पाए|
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भारत का वर्त्तमान इतिहास भारत के शत्रुओं ने ही लिखा है, जिस पर एक बहुत बड़े शोध और पुनर्लेखन की आवश्यकता है| भारत में सतीप्रथा नाम की कोई प्रथा थी ही नहीं| यह अंग्रेजों और उनके मानसपुत्रों द्वारा फैलाया गया झूठ है कि भारत में कोई सतीप्रथा नाम की कुप्रथा थी| भारत में मध्यकाल में जिन लाखों क्षत्राणियों ने जौहर किया था वह उन्होंने विदेशी अधर्मी आक्रान्ताओं से अपनी रक्षा के लिए किया| आज़ादी के बाद भारत में दो चार घटनाएँ हुईं उनके पीछे का कारण अज्ञान और अशिक्षा ही हो सकता है, अन्य कुछ नहीं|
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भारत का भविष्य बहुत उज्जवल है| एक पुनर्जागरण आरम्भ हो रहा है| आगे आने वाला समय अच्छा ही अच्छा होगा| एक आध्यात्मिक क्रांति का भी आरम्भ हो चुका है और भविष्य में भारत एक आध्यात्मिक राष्ट्र होगा|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२० नवम्बर २०१६
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प्रख्यात वैदिक विद्वान श्री अरुण उपाध्याय जी की टिप्पणी :---
"सती प्रथा जहां भी हुयी वह विदेशियों के अत्याचार से बचने के लिये हुई थी। बंगाल में भी मुस्लिम शासकों के समय सती प्रथा आरम्भ हुयी तथा अंग्रेजी शासन में बहुत बढ़ गयी। अंग्रेज अपने विलास के लिये स्त्रियों का अपहरण करते थे तथा लगान वसूलने के लिये १० लाख से अधिक लोगों की कृरतापूर्वक हत्या की। इसकाम के लिये न्यायालय बना रखे थे जबकि कोई कानून नहीं बना था। उनमें दो जज विलियम जोन्स तथा एरिक पार्जिटर ने इतिहास में कई जालसाजियां की जो भारतीय इतिहासकारों के लिये वेदव्यास हैं और असली वेदव्यास काल्पनिक हो गये हैं। इसके अतिरिक्त हजारों बुनकरों के हाथ काट दिये तो उन परिवारों की असहाय स्त्रियों का क्या हाल होगा? राम मोहन राय की विद्वत्ता इतनी ही थी कि बिना पढ़े सभी भारतीय शास्त्रों की निन्दा करें। अंग्रेजों ने अपने इस प्रिय इसाई शिष्य को लन्दन में दफनाया था।"

अफगानिस्तान में भारत की उपस्थिति भारत की एक कूटनीतिक परीक्षा है .....

एक बात अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की कर रहा हूँ जो भारत के लिए बहुत खतरनाक है, वह है अफगानिस्तान में खूंखार आतंकी संगठन ISIS (इस्लामिक स्टेट) का बड़ी तेज़ी से फ़ैलाव| अफगानिस्तान पर जब पूर्व सोवियत संघ ने अधिकार कर लिया था वह भारत के हित में एक बहुत ही महत्वपूर्ण और अच्छी घटना थी| पर भारत की तत्कालीन सरकार ने इसका समर्थन नहीं किया| भारत की तत्कालीन सरकार की सहानुभूति दुर्भाग्य से पकिस्तान से अधिक थी| पाकिस्तान के विरुद्ध पूर्व सोवियत संघ का उपयोग किया जा सकता था| पकिस्तान की सीमाओं पर सोवियत संघ की उपस्थिति पाकिस्तान के अस्तित्व को ही मिटा सकती थी|
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अमेरिका ने सोवियत संघ को अफगानिस्तान से हटाने के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंक दी| अमेरिका ने ही तालिबान को जन्म दिया, और पाकिस्तान को खूब आर्थिक और सैन्य सहायता दी| इसका परिणाम हुआ कि एक लम्बे युद्ध के उपरांत सोवियत संघ को अफगानिस्तान से हटना पड़ा और वहाँ तालिबान का भारत विरोधी शासन स्थापित हुआ जो अंततः अमेरिका का भी घोर विरोधी हो गया| अमेरिका को वहाँ अपनी सेना भेज कर तालिबानी शासन को हटाना ही पड़ा| अमेरिका के हज़ारों सैनिक मरे और बहुत अधिक खर्चा हुआ| अंततः अमेरिका को भी वहाँ से हटना ही पड़ा| इस का सबसे अधिक लाभ पाकिस्तान को हुआ| इस बीच इस कारण व कुछ अन्य कारणों से सोवियत संघ का भी विघटन हो गया था|
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वर्तमान में स्थिति यह है कि अफगानिस्तान भारत का एक मित्र देश है जहाँ भारत ने अनेक महत्वपूर्ण योजनाओं में बहुत अधिक निवेश कर रखा है| पर यह पकिस्तान को स्वीकार्य नहीं है| पाकिस्तान की तालिबान से भी नहीं बन रही है, इसका कारण यह है कि पकिस्तान की सहानुभूति ISIS (इस्लामिक स्टेट) से अधिक है| 'इस्लामिक स्टेट' और तालिबान एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन चुके हैं, उनमें सैंकड़ों झड़पें हो चुकी हैं जिन में उन के हज़ारों लड़ाके मारे गए हैं| पकिस्तान भारत के विरुद्ध इस्लामिक स्टेट के लड़ाकों का प्रयोग करना चाहेगा|
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राजनीति में कोई स्थाई शत्रु-मित्र नहीं होते| तालिबान जो कल तक रूस का परम शत्रु था, आज रूस का मित्र है| तालिबान और रूस में तीन वर्ष पूर्व ताजिकिस्तान में शिखर वार्ता भी हो चुकी है| रूस कभी भी यह सहन नहीं करेगा कि इस्लामिक स्टेट का प्रभाव किसी मध्य एशिया के देश में फैले| अब रूस तालिबान की सहायता से इस्लामिक स्टेट को समाप्त कर देना चाहता है| अगर इस्लामिक स्टेट अफगानिस्तान में शक्तिशाली हो जाता है तो यह भारत, ईरान और रूस के लिए बड़ा खतरा होगा| अमेरिका की नीति अफगानिस्तान में विफल रही है और रूस इसका अब पूरा लाभ उठाएगा| क्रीमिया और सीरिया में भी रूस के विरुद्ध अमेरिकी नीति विफल रही है| अफगानिस्तान में रूस निश्चित रूप से 'इस्लामिक स्टेट' के खात्मे के लिए दखल देगा| मध्य एशिया के देश रूस के साथ हैं| इस कार्य के लिए रूस तालिबान की सहायता ले सकता है|
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भारत को भी यह सुनिश्चित करना होगा कि इस्लामिक स्टेट, अफगानिस्तान में अपना अड्डा न बनाए| इस्लामिक स्टेट एक विकराल दैत्य है, जो भारत के लिए बहुत खतरनाक है|अफगानिस्तान में भारत की उपस्थिति भारत की एक कूटनीतिक परीक्षा है|
कृपा शंकर
१९ नवम्बर २०१८

हे परमात्मा, आप बने रहो और यह मोटर साइकिल प्रेम से चलाते रहो .....

हे परमात्मा, आप बने रहो और यह मोटर साइकिल प्रेम से चलाते रहो .....
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इस देह में इन फेफड़ों व नासिकाओं से भगवान सांस ले रहे हैं, इस ह्रदय में धड़क रहे हैं, इन पैरों से चल रहे हैं, इन आँखों से देख रहे हैं, इन हाथों से कार्य कर रहे हैं, यह पूरी देह रूपी मोटर-साइकिल उन्हीं की है| यह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार भी उन्हीं का है| मेरा कुछ होने का आभास एक भ्रम है| हे प्रभु, आप बने रहो..... इसके अतिरक्त मुझे कुछ आता-जाता नहीं है| आप यह मोटर-साइकिल प्रेम से चलाते रहो|

दुनियाँ का सबसे बड़ा झूठ :--

दुनियाँ का सबसे बड़ा झूठ :-- 

"सर्वधर्म समभाव" ये शब्द किसी महाकुटिल घोर धूर्त नास्तिक के मन की कल्पना है जो हिन्दुओं को मुर्ख बनाने के लिए की गयी है| जो लोग ऐसा कहते हैं वे या तो धूर्त हैं या मुर्ख जिन्होनें किसी भी धर्म का अध्ययन नहीं किया है| वास्तविकता तो यह है कि सारे मज़हब ही आपस में लड़ना सिखाते हैं| विश्व में जितनी भी लडाइयाँ चल रही हैं वे मज़हब के नाम पर ही चल रही हैं| यदि सभी धर्म समान ही होते हैं, तो फिर धर्मांतरण और विध्वंश की क्या आवश्यकता थी और है?

ड्रग्स का दुष्प्रभाव :---

ड्रग्स का दुष्प्रभाव :--- 

पिछले बीस वर्षों में अमेरिका में जितने भी बड़े पैमाने पर हत्याकांड हुए उन सब के कारणों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन किया गया तो पाया गया कि सारे हत्यारे मन को प्रभावित करने वाले ड्रग्स (powerful psychotropic drugs) यानि घने नशे के आदि थे| सारे हत्यारे या तो ड्रग्स के आदि थे या ह्त्या के समय ड्रग्स के प्रभाव में थे|

सिंगापुर, मलयेशिया, और इंडोनेशिया में अति अति अल्प मात्रा में भी ड्रग्स के मिलने पर मृत्यु-दंड की सजा है| जापान और अमेरिका जैसे देशों में उम्र-कैद की सजा है| विश्व में ड्रग्स की तस्करी सबसे बड़ा घोषित अपराध है|

भारत में ड्रग्स के धंधे को पूरी सख्ती से पूरी तरह बंद कर के युवा पीढी को बर्बाद होने से बचाया जाए|

राम नाम की महिमा :---

राम नाम की महिमा :---
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"बंदउँ नाम राम रघुवर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
महामंत्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराउ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेई पिय संग भवानी॥
हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥"
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"राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे| सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने||"
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"विष्णोरेकैकनामानि सर्ववेदाधिकं मतम्| तादृङ् नामसहस्रेण रामनाम समं मतम्||"
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"रमन्ते योगिनोSनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि| इति रामपदेनासौ परम् ब्रह्माभिधीयते||"
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"र" अग्निबीज है जो शोक, मोह, और कर्मबंधनों का दाहक है|
"आ" सूर्यबीज है जो ज्ञान का प्रकाशक है|
"म" चंद्रबीज है जो मन को शांति व शीतलता दायक है|
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"राम" नाम और "ॐ" का महत्व एक ही है| "राम" नाम तारक मन्त्र है, और "ॐ" अक्षर ब्रह्म है| दोनों का फल एक ही है|
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राम राम राम !!

Thursday, 15 November 2018

यह समष्टि ही परमात्मा है, उस से जुड़ना ही साध्य है .....

यह समष्टि ही परमात्मा है, उस से जुड़ना ही साध्य है .....
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यह समष्टि यानि सम्पूर्ण अस्तित्व ही परमात्मा है, यही नारायण है, यही परमशिव है, यही सब कुछ है| हम उस महासागर के जल की एक बूँद हैं| जब तक हम उस महासागर से पृथक हैं तब तक नाशवान हैं, पर उस महासागर से जुड़कर स्वयं भी महासागर हैं| उस अनंतता से जुड़ना ही साध्य है, यही साधना है|
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भगवान् उसी साधक को प्राप्त होते हैं जिसे वे स्वयं स्वीकार कर लेते हैं| वे उसी को स्वीकार करते हैं जो सिर्फ उन को ही स्वीकार करता है यानि उन को ही प्राप्त करना चाहता है, कुछ अन्य नहीं| महत्व उनको पाने की अभीप्सा का है, अन्य किसी चीज का नहीं| आध्यात्मिक साधनाएँ यदि उनको पाने की अभीप्सा बढ़ाती हैं तभी सार्थक हैं, अन्यथा निरर्थक हैं|
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भगवान कहते हैं .....
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्| मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः||४:११||
अर्थात् जो भक्त जिस प्रकार से जिस प्रयोजन से जिस फलप्राप्ति की इच्छा से मुझे भजते हैं उनको मैं उसी प्रकार से भजता हूँ, अर्थात् उनकी कामना के अनुसार ही फल देकर मैं उनपर अनुग्रह करता हूँ|
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असली भक्त को तो मोक्ष की इच्छा भी नहीं हो सकती, वह प्रभु को ही पाना चाहता है, अतः प्रभु भी उसे ही पाना चाहते हैं| एक ही साधक को एक साथ "मुमुक्षुत्व" और "फलार्थित्व" नहीं हो सकते| जो फलार्थी हैं उन्हें फल मिलता है, और जो मुमुक्षु हैं उन्हें मोक्ष मिलता है| इस प्रकार जो जिस तरह से भगवान को भजते हैं उनको भगवान भी उसी तरह से भजते हैं| भगवान में कोई राग-द्वेष नहीं होता, जो उनको जैसा चाहते हैैं, वैसा ही अनुग्रह वे भक्त पर करते हैं| भगवान वरण करने से प्राप्त होते हैं, किसी अन्य साधन से नहीं|
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जैसे एक स्त्री और एक पुरुष सिर्फ एक दूसरे को ही पति-पत्नी के रूप में स्वीकार करते हैं, तभी वे एक-दूसरे के होते हैं, वैसे ही जो सिर्फ भगवान को ही वरता है, भगवान भी उसे ही वरते हैं| सिर्फ कामना करने मात्र से ही भगवान किसी को नहीं मिलते|
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भगवान कहते हैं .....
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌ | व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ||२:४४||
अर्थात् जो मनुष्य इन्द्रियों के भोग तथा भौतिक ऎश्वर्य के प्रति आसक्त होने से ऎसी वस्तुओं से मोहग्रस्त हो जाते है, उन मनुष्यों में भगवान के प्रति दृढ़ संकल्पित बुद्धि नहीं होती है||
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भगवान आगे और भी कहते हैं .....
त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन | निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌ ||२:४५||
अनन्याश्िचन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते| तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्||९:२२||
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज| अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः||१८:६६||
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सबका सार यही है कि कोई भी किसी भी तरह की कामना नहीं होनी चाहिए, सिर्फ परमात्मा को उपलब्ध होने की ही गहनतम अभीप्सा हो, तभी भगवान प्राप्त होते हैं|
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हम अपने अनंताकाश में कालातीत ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार कर सकें, यही भगवान से प्रार्थना है| यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः || जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं धर्म है, वहीं जय है| धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो|
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"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम||१८:७८||
(जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं पर श्री विजय विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है||) हर हर महादेव !
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हे प्रभु, एक बार हमारी ओर निहारिये तो अवश्य | आपकी कृपादृष्टि के अतिरिक्त हमें अन्य कुछ भी नहीं चाहिए|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१६ नवम्बर २०१८

कुछ पुरानी स्मृतियाँ .....

कुछ पुरानी स्मृतियाँ .....

मैंने कभी भी अपनी स्वयं की फोटो और जहाँ जहाँ भी मैं गया, वहाँ के चित्र कभी संभाल कर नहीं रखे| कई एल्बम बनाए पर वे सभी इधर-उधर दब कर ही गुम हो गए| सभी चित्र मेरी स्मृति में तो हैं पर कभी भी उन को महत्त्व नहीं दिया| विश्व के कई देशों में जाने का अवसर मिला और कई बड़े महत्वपूर्ण स्थान देखे जैसे चीन की दीवार, कनाडा का नियाग्रा फॉल, ऑस्ट्रेलिया का ग्रेट बैरियर रीफ, मिश्र के पिरामिड, पनामा नहर, स्वेज़ नहर आदि आदि|

सबसे सुन्दर दृश्य जो मेरे दिमाग में अंकित हैं वे हैं कनाडा के नियाग्रा फॉल के और वहाँ पास में ही सैंट लॉरेंस नदी में नौकायन के समय के; व ऑस्ट्रेलिया में ग्रेट बैरियर रीफ के| अब तो पूरा विश्व मुझे परमात्मा का रूप ही दिखाई देता है| पूरी पृथ्वी इस दिमाग में है और चेतना में सारा ब्रह्मांड| हिमालय के भी कुछ आश्रमों में में साधना के उद्देश्य से गया हूँ| वहाँ के भौतिक सौन्दर्य पर कभी ध्यान नहीं दिया, चेतना में परमात्मा के सिवाय कुछ आया ही नहीं| 

अब लगता है कि यह पृथ्वी बहुत छोटी है| पूरे ब्रह्मांड में परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है| सारा ब्रह्मांड ही परमात्मा है| किसी भी वस्तु, व्यक्ति व स्थान का महत्त्व अब समाप्त हो रहा है| सब कुछ परमात्मा है, परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है ..... वासुदेवः सर्वम् इति | भगवान वासुदेव से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है|
अब धीरे धीरे हर बाहरी गतिविधि से विमुख होकर सत्संग व ध्यान साधना में ही अवशिष्ट जीवन बिता देने के अतिरिक्त अन्य कोई अभिलाषा नहीं है| आप सब निजात्माओं को नमन !
१५ नवम्बर २०१८

Wednesday, 14 November 2018

ह्रदय में सच्चा प्रेम होने पर कोई नियम बाधक नहीं होता .....

ह्रदय में सच्चा प्रेम होने पर कोई नियम बाधक नहीं होता .....
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जब भी किसी को भगवान को पाने की अभीप्सा होती है तब भगवान निश्चित रूप से किसी न किसी माध्यम से उस का मार्गदर्शन और सहायता करते हैं| कोई आवश्यक नहीं है कि प्रत्यक्ष रूप से किसी देहधारी महात्मा के माध्यम से ही कोई साधक मार्गदर्शन प्राप्त करे, सूक्ष्म जगत के किसी देवता, महात्मा या गहन प्रेरणा द्वारा भी भगवान मार्गदर्शन कर सकते हैं| कुछ बातें मुझे लिखने की अनुमति नहीं है, पर सूक्ष्म जगत की आत्माओं द्वारा भगवान की प्रेरणा से साधकों को सहायता व मार्गदर्शन मिलता है, इसकी मुझे अनुभूतियाँ हैं| योगमार्ग के आचार्यों ने कूटस्थ को गुरु माना है जो साक्षात नारायण है| गुरु परम्पराओं का मैं पूर्ण सम्मान करता हूँ पर सबसे बड़े गुरु तो भगवान स्वयं हैं| वे किसी भी परम्परा से परे हैं|
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सच्चे गुरु दुर्लभ नहीं हैं पर वे किसी को भी उसकी पात्रता होने पर ही मिलते हैं| प्रकृति के अपने मापदंड हैं, अपने नियम हैं| सृष्टि अपने नियमों से चलती है पर भगवान सब नियमों से परे हैं, उन्हें हम किसी नियम में नहीं बाँध सकते| ह्रदय में सच्चा प्रेम होने पर कोई नियम बाधक नहीं होता|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ नवम्बर २०१८

वासुदेवः सर्वम् इति .....

वासुदेवः सर्वम् इति .....
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सभी संत-महात्माओं की बात सादर स्वीकार्य है पर भगवान श्रीकृष्ण ने जो कह दिया वह अंतिम प्रमाण है| उससे आगे और कहीं कोई कुछ भी स्वीकार्य नहीं है|
श्रीभगवान कहते हैं .....
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||
अर्थात ..... बहुत जन्मों के अन्त के जन्म में तत्त्वज्ञान को प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है- इस प्रकार मुझे भजता है, वह महात्मा अति दुर्लभ है|
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गुरुकृपा से अब यह कुछ कुछ समझ में आ रहा है| पिछले ३९ वर्षों से मुझे लगातार यही "वासुदेवः सर्वम् इति" का एक ही पाठ पढ़ाया जा रहा है जिसे समझने में बुद्धि अब कुछ कुछ समर्थ हुई है|
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हीन भावना व अपराध बोध से मुक्ति भी गीता के ज्ञान से मिल जाती है| संसार सागर से तरने का उपाय भी गीता में ही मिल जाता है| सब तरह के भय, कायरता और बुराइयों से मुक्ति का उपाय भी गीता से मिल जाता है| गीता भारत का प्राण है|
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इस देह के अंत समय में भी चेतना में गीता के भगवान वासुदेव श्रीकृष्ण ही रहें| और कुछ भी अभिलाषा नहीं है| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१४ नवम्बर २०१८

बाल दिवस .....

बाल दिवस ..... आज १४ नवम्बर को बाल दिवस है जो जवाहरलाल नेहरु के जन्मदिवस पर मनाया जाता है| पहले मैं सोचता था कि जवाहरलाल नेहरु अपने बचपन में कोई महान बालक रहा होगा, पर वास्तविकता तो कुछ और ही निकली| जवाहरलाल नेहरु के जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है जो बालकों का आदर्श बने| यह 'नेहरु' शब्द कैसे बना इसके बारे में दो मत हैं|
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(१) कुछ कश्मीरी ब्राह्मण मुग़ल बादशाह अकबर को विष्णु का अवतार मानते थे और अपने व्रत का पारन अकबर का दर्शन करने के बाद ही करते थे| अकबर अपनी ड्योढी में बैठकर उनको दर्शन देता था| इन कश्मीरी ब्राह्मणों ने अकबर के मन में यह भावना बैठा दी कि वह भगवान है| वह इन कश्मीरी ब्राह्मणों से बहुत प्रसन्न था और उन को दर्शनी बिराहमन कहता था पर वे कोई फारसी नाम चाहते थे अतः अकबर ने उनको "निहारू" नाम दिया जिसका अर्थ होता है निहारने वाला| यह निहारू शब्द ही अपभ्रंस होकर नेहरु बन गया|
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(२) दूसरा मत है कि १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की विफलता के पश्चात अंग्रेज़ी फ़ौज मुग़ल खानदान के सभी लोगों को निर्दयता से फांसी दे रही थी| मुग़ल खानदान का पुरुष, स्त्री या बालक कोई भी मिलता, अंग्रेजी फौज उसे उसी समय पास के किसी भी पेड़ पर फांसी लगा देती| दिल्ली के प्रायः हर वृक्ष पर लाशें लटकी हुई थीं| दि्ल्ली का एक मुग़ल कोतवाल घियासुद्दीन गाज़ी ब्राह्मण का वेश बनाकर आगरा की ओर भाग रहा था| रास्ते में अंग्रेजी फौज ने उससे नाम पूछा तो उसने अपना नाम पंडित गंगाधर बताया| वह बच गया और आगरा में किसी नहर के किनारे जा बसा| उसके वंशज 'नहरवा' और फिर 'नेहरू' कहलाये| ये लोग बाद में इलाहाबाद में रहने लगे| ये नेहरु लोग दिखावे के लिए हिन्दू कश्मीरी ब्राह्मण थे पर वास्तव में अन्दर से मुसलमान थे|
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नेहरु के जीवन में ऐसा कुछ भी आदर्श नहीं था जो उसे महान बनाए| वह एक फर्जी पंडित, गोमांसभक्षी, परस्त्रीगामी और अत्यधिक कामुक और लम्पट व्यक्ति था जो सिफलिस नाम की एक गन्दी से गन्दी यौन संक्रमित बीमारी से मरा जो अनेक तरह की अनेक स्त्रियों के साथ सम्भोग के कारण होती है|
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बालदिवस उन महान बालकों के जन्मदिवस पर मनाया जाना चाहिए और उन बालकों को याद करना चाहिये जिन्होने देश या धर्म के लिये कुछ न कुछ अच्छा काम किया हो| हमारे देश में वीर हकीकत राय, गोरा और बादल, तथा 'गुरु गोबिन्द सिहं के सुपुत्रों' जैसे अनेक वीर बालक हुये हैं|

मेरे जीवन की सारी आध्यात्मिक साधनाओं का सार "है" शब्द है ...

मेरे जीवन की सारी आध्यात्मिक साधनाओं का सार "है" शब्द है ...
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भगवान इसी समय, स्थायी रूप से हर समय, यहीं पर और सर्वत्र "है"| भगवान "है"| इस "है" से अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है, सब कुछ इसी "है" शब्द में है, इस से बाहर कुछ भी नहीं है| यह "है" शब्द कोई सैद्धांतिक कल्पना नहीं, बल्कि मेरे पूरे जीवन की आध्यात्मिक साधना के अनुभवों का निचोड़ है| इस "है" शब्द के साथ प्रणव यानि "ॐ" को और जोड़ लो तो "हं" (मानसिक उच्चारण में "हौं" हो जाता है)| इसी में सारी सृष्टि समाहित है| इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है| "स" का अर्थ है "वह"| इन्हीं दो शब्दों से एक शब्द बनता है .... "हंसः" या "सोहं"| यही अजपा-जप है, यही हंस-गायत्री है, यही सारी आध्यात्मिक साधनाओं का सार और आधार है|
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भगवान की प्रेरणा से मैं जो कुछ भी लिख रहा हूँ यदि इसमें कोई अनुचित है या पाप है तो वह मेरी जिम्मेदारी है| अतः निश्चिन्त रहें, आपको कोई पाप-पुण्य या दोष नहीं लगेगा| मैं जिस चेतना में लिख रहा हूँ, उस चेतना में भगवान मेरे साथ हैं, और उन्हीं की कृपा से मैं यह सब लिख पा रहा हूँ| कोई पाप या पुण्य है तो वह परमात्मा का है, किसी अन्य का नहीं|
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हम यह शरीर नहीं हैं| यह शरीर तो इस लोकयात्रा के लिए मिला हुआ मात्र एक वाहन है जिस पर हम यह लोकयात्रा कर रहे हैं| यह शरीर एक "मोटर साइकिल" है जो हमें भगवान ने दी है| इस "मोटर साइकिल" के साथ हमारी चेतना जुड़ी हुई है| समय के साथ यह "मोटर साइकिल" तो यहीं रह जायेगी, पर इसके माध्यम से किये हुए सारे अच्छे-बुरे कर्मों का फल हमारी चेतना के साथ ही जुड़ा रहेगा|
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हम यह शरीर नहीं हैं, तो हैं कौन? कर्ता कौन है? हम क्या हैं? समर्पण क्या है? निष्कामता क्या है? :---
एक अनंत ज्योतिर्मय विस्तार है जिसमें सारी सृष्टि समाई हुई है| ये चांद-तारे, ये ग्रह-नक्षत्र और सारी आकाशगंगाएँ उसी ज्योतिर्मय विस्तार में हैं| उस के अतिरिक्त अन्य कोई या कुछ भी नहीं है| यह ज्योतिर्मय विस्तार ही परमात्मा है, और वही हम हैं| हम उस से पृथक नहीं हैं| स्वयं को यह शरीर मानना और इस शरीर की सुविधाओं को जोड़ने के लिए ही दिन-रात लगे रहना ..... सारे पापों का की जड़ है|
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(अभी मुझे इतना ही लिखने की प्रेरणा मिल रही है| यह लेख अधूरा है, जिसे कभी बाद में पूरा करूंगा).
आप सब को शुभ कामनाएँ और नमन|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१२ नवम्बर २०१८

प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सभी भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि .....

प्रथम विश्व युद्ध में मारे गए सभी भारतीय सैनिकों को श्रद्धांजलि .....
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आज से पूरे एक-सौ वर्ष पूर्व ११ नवम्बर १९१८ को प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हुआ, जो २८ जुलाई १९१४ को आरम्भ हुआ था| भारत उस समय पराधीन था| इस युद्ध में ब्रिटिश आंकड़ों के अनुसार मारे गए सभी ७४,१८७ भारतीय सिपाहियों को श्रद्धांजलि| भगवान उन सब को सद्गति दे|
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वे तो बेचारे अपनी आजीविका के लिए ब्रिटिश-भारतीय सेना में भर्ती हुए थे जिन्हें ब्रिटिश हितों की रक्षा के लिए युद्ध की आग में ईंधन की तरह झोंक दिया गया और वे विदेशी धरती पर ही मारे गए| उनका कोई अंतिम संस्कार भी नहीं हुआ| जयपुर राज्य के शेखावाटी क्षेत्र (जहाँ मैं रहता हूँ) के ही लगभग ७००० सिपाही इस युद्ध में मारे गए थे|
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इस युद्ध में दस लाख से अधिक भारतीय सेना ने भाग लिया जो ब्रिटेन के आधीन थी| ६२,००० से अधिक सिपाही तो युद्ध के मोर्चे पर ही मारे गए, और ६७,००० से अधिक घायल हुए| ब्रिटिश आंकड़ों के अनुसार कुल ७४,१८७ भारतीय ब्रिटिश सिपाही इस युद्ध में मरे| ये जर्मनी के विरुद्ध पूर्वी अफ्रिका और पश्चिमी यूरोप में मारे गए थे|

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एक बात जो बताई नहीं जाती और छिपाई गयी है वह यह कि प्रथम और द्वितीय दोनों विश्वयुद्धों में सबसे अधिक सैनिक भारत के ही मारे गए थे| भारत चूंकि ब्रिटेन के आधीन था अतः असहाय था इसलिए भारत के सैनिकों को बलि के बकरों यानि युद्ध में चारे के रूप में मरवाया गया था|
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काश ! प्रथम विश्व युद्ध में भाग लेने वाले भारत के उन दस लाख सिपाहियों में समाज और राष्ट्र की चेतना होती और उनकी बंदूकों का मुंह अंग्रेजों की ओर मुड़ गया होता ! द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद आज़ाद हिन्द फौज द्वारा यही हुआ और अंग्रेजों को भारत छोड़कर भागना पडा| दुर्भाग्य से भारत को आज़ाद कराने का श्रेय आज़ाद हिन्द फौज को नहीं मिला और भारत की सत्ता अंग्रेजों के मानस पुत्रों के हाथ ही आ गयी|
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उन सभी दिवंगत सैनिकों को श्रद्धांजलि !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
११ नवम्बर २०१८

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निम्न डॉ.विवेक आर्य के लेख से लिया गया है :---

प्रथम विश्व युद्ध में आधिकारिक रूप से 1215318 भारतीय सैनिकों ने भाग लिया जिनमें से 101439 मारे गए। 64350 घायल हुए जिनमें से अनेक की मृत्यु बाद में उन्हीं घावों के कारण हुई, 3762 लापता हुए अथवा युद्धबंदी हुए। आपको जानकर अचरज होगा कि युद्ध सम्बंधित अंग्रेजों द्वारा लिखित पुस्तकों में भारतीयों के योगदान चंद शब्दों में अथवा फुटनोट में केवल खानापूर्ति के लिए प्रस्तुत किया गया हैं। यहाँ तक की बीबीसी द्वारा प्रथम विश्व युद्ध पर 12 भागों में बनाई गई 23 घंटे 30 मिनट की डॉक्यूमेंट्री में भारतीयों को एक मिनट से भी कम समय दिया गया। अकेले पंजाब क्षेत्र से उन दिनों 470000 सैनिक लोग अंग्रेज सेना में शामिल हुए जिनमें से 70000 गैर सैनिक थे।
2. अधिकांश भारतीय सैनिक ऐसे विदेशी मोर्चों पर लड़े जहाँ का उन्होंने कभी नाम तक नहीं सुना था। न उनके पास जर्मन फौज के समान आधुनिक हथियार थे। न ही सर्दियों के कपड़े थे। अफ्रीका की गर्मी से लेकर यूरोप की कड़कड़ाती ठण्ड में सैनिकों को लड़ना पड़ा। आवश्यक संसाधनों से विहीन होते हुए भी सिख, गोरखा, बलूच, पंजाबी, कुमायूं, गढ़वाली, पठान,राजपूत, जाट, डोगरा, मराठा और मद्रास रेजिमेंट के अनेक सैनिकों ने अपनी बहादुरी और शौर्य की ऐसी गाथाएं लिखी। जो इतिहास में अपन विशेष महत्व रखती हैं। जिन सैनिकों की युद्ध में वीरगति हुई उन्हें से अनेकों को अंतिम सम्मान तक नहीं मिला। उनकी लाशें या तो युद्धक्षेत्र में ही दबा दी गई अथवा पशुओं का ग्रास बनी।
3. केवल सैनिक ही नहीं भारत देश के बाहर जब इतनी बड़ी सेना लड़ रही हो तो देश के संसाधन जैसे अन्न, गोला-बारूद, राशन, युद्ध सामग्री, कपड़े ,घोड़े से लेकर धन को भी विदेश भेजा गया। 1914 में भारत से युद्ध के नाम पर 100 मिलियन पौंड की राशि भी ब्रिटेन भेजी गई। इसके अतिरिक्त अन्य राशि भी भेजी गई जिसका कुल जोड़ उस काल में 146.2 मिलियन पौण्ड बैठता था। उस काल में भारत में न केवल अकाल पड़ा था, अपितु इन्फ्लुएंजा का भी देशव्यापी प्रकोप था। गरीबी, अशिक्षा से ग्रस्त देश में पहले से ही कठिन परिस्थितियां थी। ऐसे में देश पर युद्ध के नाम पर अतिरिक्त कर भी अंग्रेजों ने लाद दिया था।
4. सन 1914 से 1916 तक सेना में भारतीयों ने प्रवेश अपनी इच्छा से लिया। 1917 से अंग्रेजों ने जोर-जबरदस्ती करना आरम्भ कर दिया। पंजाब के तत्कालीन गवर्नर डायर ने 2 लाख लोगों की सेना में भर्ती का संकल्प लिया। उसके संकल्प के कारण स्थानीय जमींदारों और लम्बरदारों ने प्रजा पर अत्याचार आरम्भ कर दिया। उन परिवारों की सूची बनाई गई जिनके पास एक से अधिक युवा लड़के थे। धन-बल का भर्ती के लिए प्रयोग किया गया। जिन किसानों ने अपने बेटों को देने से मना कर दिया उन पर भारी कर लगा दिया गया। यह कर 300% तक भी गया। अटक और मियांवाली के किसान भाग कर नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस चले गये ताकि भर्ती से बच सके। मुल्तान में खेतिहर किसानों के भर्ती न होने पर खेतों को पानी तक रोक दिया गया। ऐसे अनेक अत्याचार उस काल में किये गए। एक सिपाही को 11 रुपये मासिक, एक तोपची को 14 रुपये और एक घोड़े के साथ 34 रुपये मासिक दिए जाते थे।
5. युद्ध क्षेत्र में बिमारियों की भरमार थी। बड़ी संख्या में सिपाही बीमारी से हताहत हो जाते थे। जत्थे के जत्थे एक ही बीमारी से एकसाथ ग्रस्त हो जाते थे। इनका नाम भी उस बीमारी के नाम से हो जाता था जैसे खसरा जत्था, काली खांसी जत्था, स्कारलेट बुखार जत्था, ट्रेंच बुखार जत्था आदि। अनेक सिपाहियों की मृत्यु तो रात में बर्फ में जम जाने से भी हो जाती थी। अंग्रेज सैनिक जहाँ कुछ दिनों के युद्ध के पश्चात छुट्टी पर चले जाते थे वहीं भारतीय सैनिकों को कभी कोई छुट्टी नहीं मिलती थी। एक तो वे अपने घरों से बहुत दूर थे। दूसरे उन्हें वापिस भारत लाने के लिए समुद्री जहाज उपलब्ध नहीं थे। तीसरे भेदभाव के चलते अंग्रेज उन्हें केवल युद्ध में लगाए रखना चाहता था। युद्धरत सैनिक अपनी मातृभाषा जैसे हिंदी, उर्दू, गुरुमुखी आदि में जो खत अपने परिवार को लिखते थे। वे सभी खत सीधे घर नहीं जाते थे। उनका न केवल अंग्रेज लोग अनुवाद करवाते थे अपितु उनमें से अनेकों को नष्ट कर दिया जाता था। युद्ध की कठिन परिस्थितियों, युद्धनीति, अंग्रेज महिलाओं के विषय में जानकारी, युद्ध क्षेत्र में शत्रु की बमवर्षा से लेकर संसाधनों की घोर कमी, बिमारियों , जर्मन सैनिकों की प्रशंसा , भारतीय सैनिकों का अंग्रेजों के प्रति विरोध आदि के विषय में अगर कोई जानकारी होती तो उसे छुपा लिया जाता था। ऐसे अनेक खत थे जिनमें लिखा था कि शत्रु की गोलीबारी ऐसे होती है, जैसा वर्षा हो रही हो। लाशों के ढेर मक्की की फसल के समान युद्धक्षेत्र में लगे हुए है। अंग्रेज नर्स भारतीय सैनिकों की चिकित्सा सेवा नहीं करती थी। क्यूंकि अंग्रेजों को लगता था कि उनकी जाति श्रेष्ठ है और काले भारतीयों की उनसे कोई तुलना नहीं हैं। उन्हें यह किसी भी प्रकार से स्वीकार नहीं था कि किसी भारतीय सैनिक का किसी गोरी महिला से किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध स्थापित हो।
6. अफ्रीका से लौटकर आये महात्मा गाँधी की भूमिका विश्व युद्ध के सम्बन्ध में जानना अत्यंत आवश्यक है। यह सत्य है कि अंग्रेजों ने विश्व युद्ध भारत के सैनिक और संसाधनों के बल पर लड़ा। अगर भारत का साथ अंग्रेजों को न मिलता तो उनकी जर्मन के आगे हार सुनिश्चित थी। ऐसी परिस्थिति में भारत स्वत: ही स्वतंत्र हो जाता। मगर महात्मा गाँधी को अंग्रेजों ने युद्ध में साथ देने के बदले एक वायदा दिया कि बदले में भारतीयों को शासन में भागीदारी दी जाएगी। यह अधिकार कनाडा, ऑस्ट्रेलिया जैसे कामनवेल्थ देशों को मिले अधिकारों के जैसा होगा। मगर हुआ बिलकुल विपरीत। युद्ध समाप्त होने पर अंग्रेज अपने वायदे को भूल गए। उन्होंने भारतीयों के अधिकार देने के विपरीत उस काल का सबसे विवादित काला कानून रौलेट एक्ट दिया। जिसमें किसी को कभी भी बिना कारण बताये कितने भी समय के लिए राष्ट्रद्रोह के लिए हिरासत में लिया जा सकता था। इस कानून के विरोध में हुई जनसभा पर निरीह भीड़ पर गोलीबारी कर डायर ने 1919 में जलियांवाला कांड को अंजाम दिया था। भारतीयों के घावों पर नमक लगाते हुए नग्रेजों ने इस अत्याचार के लिए उसे सम्मानित किया था। महात्मा गाँधी की असफलताओं की लम्बी सूची में यह यह एक ओर असफलता थी।
इन उदहारणों से यह स्पष्ट होता है कि सोने की चिड़िया कहलाने वाले हमारे देश को अंग्रेजों ने किस प्रकार से खोखला कर दिया। उस काल में अंग्रेजों की नौकरी करने वाले भारतीयों को आर्यसमाज के शीर्घ नेता स्वामी श्रद्धानन्द कहा करते थे कि
" क्या तुम चंद रुपयों के लिए गोरे साहिब को सल्यूट करते हो। क्या तुम्हारा आत्म-स्वाभिमान समाप्त हो चूका है?"
यही प्रश्न अंग्रेजों के हिमायती साम्यवादी से भी है जो इन सत्य तथ्यों को कभी स्वीकार नहीं करते।
[यह लेख संक्षिप्त रूप में दिया गया है। हिंदुस्तान टाइम्स दिनांक 11 नवंबर, दिल्ली, अंग्रेजी संस्करण के आधार पर यह सामग्री लिखी गई है।]

Saturday, 10 November 2018

त्याग किस का और कैसे करें (क्या अभी भी कोई उम्मीद बाकी है?) .....

त्याग किस का और कैसे करें (क्या अभी भी कोई उम्मीद बाकी है?) .....
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व्यक्ति भावावेश में आकर त्याग करने का निश्चय तो कर लेता है, पर बाद में उसका चित्त उठ आता है और किन्तु-परन्तु के अनेक विचार आने लगते हैं और त्याग पता नहीं कहाँ चला जाता है| इस तरह के कई मामले देखे हैं|
वास्तव में त्याग भगवान की परम कृपा से ही होता है, सिर्फ संकल्प शक्ति से नहीं| त्याग से ही परम शांति मिलती है|
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गीता के अनुसार चार चीजों का त्याग होता है :---
(१) जो प्राप्त नहीं है उसकी कामना|
(२) जो प्राप्त है उसकी ममता|
(३) निर्वाह की स्पृहा, यानि जीवन यापन की चिंता|
(४) अहंकार और अपेक्षा|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः| निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति||२:७१||"

भावार्थ : जो मनुष्य समस्त भौतिक कामनाओं का परित्याग कर इच्छा-रहित, ममता-रहित और अहंकार-रहित रहता है, वही परम-शांति को प्राप्त कर सकता है||
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जिस भी साधक को यह त्याग सिद्ध हो जाए तो उसे स्थितप्रज्ञ होने में देरी नहीं लगती| वह ब्राह्मी स्थिति को भी प्राप्त कर सकता है| भगवान कहते हैं.....
"एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति| स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति||२:७२||
भावार्थ : हे पार्थ! यह आध्यात्मिक जीवन (ब्रह्म की प्राप्ति) का पथ है, जिसे प्राप्त करके मनुष्य कभी मोहित नही होता है, यदि कोई जीवन के अन्तिम समय में भी इस पथ पर स्थिति हो जाता है तब भी वह भगवद्‍प्राप्ति करता है||
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इसका अर्थ है अभी भी उम्मीद बाकी है| निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है| भगवान से प्रार्थना करेंगे तो वे अपनी कृपा अवश्य करेंगे|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० नवम्बर २०१८

अपने शिवत्व की ओर हम निरंतर अग्रसर रहें ....

पूर्णता शिव में है, जीव में नहीं.
अपने शिवत्व की ओर हम निरंतर अग्रसर रहें .....
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भगवान भुवन-भास्कर आदित्य की तरह हम अपने पथ पर चलते रहें| अपनी विफलताओं व सफलताओं की परवाह न करें, उनका आना-जाना एक अवसर था कुछ सिखाने के लिए| हमारा कार्य सिर्फ चलते रहना है क्योंकि ठहराव मृत्यु और चलते रहना ही जीवन है| इस यात्रा में वाहन यह देह पुरानी और जर्जर हो जायेगी तो दूसरी देह मिल जायेगी, पर अपनी यात्रा को मत रोकें, चलते रहें, चलते रहें, चलते रहें, तब तक चलते रहें, जब तक अपने लक्ष्य परमात्मा को न पा लें|
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अंशुमाली मार्तंड भगवान सूर्य अपनी दिव्य आभा और प्रकाश के साथ जब अपने पथ पर अग्रसर होते हैं, तब उन्हें क्या इस बात की चिंता होती है कि मार्ग में क्या घटित हो रहा है? निरंतर अग्रसर वे ही इस साधना पथ पर हमारे परम आदर्श हैं जो सदा प्रकाशमान और गतिशील हैं|
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हमारे कूटस्थ आत्मसूर्य की आभा निरंतर सदा हमारे समक्ष रहे, वास्तव में वह आत्मसूर्य हम स्वयं ही हैं| उस ज्योतिषांज्योति आत्मज्योति के चैतन्य को निरंतर प्रज्ज्वलित रखें और अपने सम्पूर्ण अस्तित्व को उसी में विलीन कर दें| वह कूटस्थ ही परमशिव है, वही नारायण है, वही विष्णु है, वही परात्पर गुरु है और वही परमेष्ठी परब्रह्म हमारा वास्तविक अस्तित्व है|
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जो नारकीय जीवन हम जी रहे हैं उससे तो अच्छा है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दें| या तो यह देह ही रहेगी या लक्ष्य की प्राप्ति ही होगी जो हमारे जीवन का सही और वास्तविक उद्देश्य है| भगवान हमें सदा सफलता दें|
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ॐ तत्सत् ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० नवम्बर २०१८

यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः :----

यतः कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जयः :----

देश में कई तरह के विवाद चल रहे हैं| मेरी सोच स्पष्ट है, किसी भी तरह का कोई भ्रम या कोई शंका नहीं है| जो राष्ट्र और धर्म के पक्ष में है उसका मैं समर्थक हूँ| जहाँ अधर्म है और जिस से राष्ट्र का अहित है, उसका मैं विरोध करता हूँ| अंततः एक ही बात कहूंगा कि धर्म की जय हो और अधर्म का नाश हो|

"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः| तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवानीतिर्मतिर्मम||१८:७८||
(जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं पर श्री विजय विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है||) हर हर महादेव !

क्या "राम नाम सत्" और "ॐ तत्सत्" दोनों का अर्थ एक ही है ? .....

क्या "राम नाम सत्" और "ॐ तत्सत्" दोनों का अर्थ एक ही है ? .....
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:"ॐ तत्सत्" शब्द परमात्मा की ओर किया गया एक निर्देश है| इस का प्रयोग गीता के हरेक अध्याय के अंत में किया गया है ....."ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुन ... ."
इस शब्द का विशेष प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के सत्रहवें अध्याय के २३ वें श्लोक में किया है .....
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः| ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा||१७:२३||
इस का भावार्थ है ..... सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है|
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ईसाई मत में इसी की नक़ल कर के "Father Son and the Holy Ghost" की परिकल्पना की गयी है| गहराई से यदि चिन्तन किया जाए तो "Father Son and the Holy Ghost" का अर्थ भी वही निकलता है जो "ॐ तत्सत्" का अर्थ है|
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कल ६ नवम्बर को मैनें राम नाम के ऊपर एक लिखा था जिसमें वह कारण बताया था कि मृतक की शवयात्रा में "राम नाम सत्" का उद्घोष क्यों करते हैं| उस लेख की टिप्पणी में भुवनेश्वर के प्रख्यात वैदिक विद्वान् माननीय श्री अरुण उपाध्याय जी ने बड़े संक्षेप में एक बड़ी ज्ञान की बात कह कर सप्रमाण सिद्ध कर दिया कि "राम नाम सत्" और "ॐ तत्सत्" इन दोनों का अर्थ भी एक ही है, अतः यह लेख मुझे लिखना पड़ रहा है|
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जब प्राण की गति होती है, जैसे शरीर से बाहर निकला, तो वह "ॐ" से "रं" हो जाता है ..... प्राणो वै रं, प्राणे हि इमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ते (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१२/१)| किसी व्यक्ति को निर्देश (तत् = वह) करने के लिये उसका नाम कहते हैं| अतः ॐ तत् सत् का ’राम नाम सत्'’ भी हो जाता है|
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एक समय सनकादि योगीश्वरों, ऋषियों और प्रह्लाद आदि महाभागवतों ने श्रीहनुमानजी से पूछा ..... हे महाबाहु वायुपुत्र हनुमानजी ! आप यह बतलानेकी कृपा करें कि वेदादि शास्त्रों, पुराणों तथा स्मृतियों आदि में ब्रह्मवादियों के लिये कौन सा तत्त्व उपदिष्ट हुआ है, विष्णुके समस्त नामों में से तथा गणेश, सूर्य, शिव और शक्ति .... इनमें से वह तत्त्व कौन-सा है ?
इस पर हनुमानजी बोले – हे मुनीश्वरो ! आप संसारके बन्धन का नाश करने वाली मेरी बातें सुनें | इन सब वेदादि शास्त्रोंमें परम तत्त्व ब्रह्मस्वरूप तारक ही है । राम ही परम ब्रह्म हैं | राम ही परम तपःस्वरूप हैं | राम ही परमतत्त्व हैं | वे राम ही तारक ब्रह्म हैं --
भो योगीन्द्राश्चैव ऋषयो विष्णुभक्तास्तथैव च ।
शृणुध्वं मामकीं वाचं भवबन्धविनाशिनीम् ।।
एतेषु चैव सर्वेषु तत्त्वं च ब्रह्मतारकम् ।
राम एव परं ब्रह्म राम एव परं तपः ।।
राम एव परं तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्म तारकम् ।।
(रामरहस्योपनिषद्)
(‘कल्याण’ पत्रिका; वर्ष – ८८, संख्या – ४ : गीताप्रेस, गोरखपुर)
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गीता में "ॐ तत्सत्" का अर्थ .....
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गीता के सत्रहवें अध्याय के अंतिम छः श्लोक "ॐ तत्सत्" का अर्थ बतलाते हैं....
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ (२३)
भावार्थ : सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। (२३)
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌॥ (२४)
भावार्थ : इस प्रकार ब्रह्म प्राप्ति की इच्छा वाले मनुष्य शास्त्र विधि के अनुसार यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाओं का आरम्भ सदैव "ओम" (ॐ) शब्द के उच्चारण के साथ ही करते हैं। (२४)
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥ (२५)
भावार्थ : इस प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से अनेकों प्रकार से यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाऎं "तत्‌" शब्द के उच्चारण द्वारा की जाती हैं। (२५)
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ (२६)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! इस प्रकार साधु स्वभाव वाले मनुष्यों द्वारा परमात्मा के लिये "सत्" शब्द ‍का प्रयोग किया जाता है तथा परमात्मा प्राप्ति के लिये जो कर्म किये जाते हैं उनमें भी "सत्‌" शब्द का प्रयोग किया जाता है। (२६)
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ॥ (२७)
भावार्थ : जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। (२७)
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌ ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ (२८)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है। (२८)
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हरि: ॐ तत् सत् !
७ नवम्बर २०१८
(यह लेख मैनें स्वयं के आनंद के लिए ही लिखा है| इसे लिख कर मुझे बहुत आनंद प्राप्त हुआ है| कोई आवश्यक नहीं है कि यह लेख दूसरों को भी अच्छा लगे| सभी पाठकों को धन्यवाद!)

दीपावली पर सभी श्रद्धालुओं को शुभ कामनाएँ और नमन .....

दीपावली पर सभी श्रद्धालुओं को शुभ कामनाएँ और नमन !
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मेरे प्रिय निजात्मगण, आप सब परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ साकार अभिव्यक्तियाँ हैं, आप सब मेरे प्राण हैं, मैं आप सब को नमन करता हूँ| आज दीपावली का उत्सव है| यह हर व्यक्ति के विवेक और दृष्टिकोण पर निर्भर है कि वह इस उत्सव को किस प्रकार मनाये| दीपावली की रात्री में अधिकाँश श्रद्धालु जगन्माता के महालक्ष्मी रूप की आराधना करते हैं| इसमें भी दो अलग अलग दृष्टिकोण हैं| अधिकाँश में से अधिकाँश लोगों के लिए महालक्ष्मी धन देने वाली देवी है, और कुछ के लिए सब प्रकार के सर्वश्रेष्ठ गुण प्रदान करने वाली| इसी तरह जगन्माता का महाकाली का रूप है जिस की भी आराधना आज की रात्री में अनेक लोग करते हैं| अधिकाँश लोगों के लिए महाकाली सिद्धियाँ प्रदान करने वाली देवी हैं, कुछ के लिए आध्यात्म में बाधक सब प्रकार के विकारों, बाधाओं और अज्ञानता का नाश करने वाली देवी| कुछ लोग दीपावली जूआ खेल कर और शराब पीकर मनाते हैं, और कुछ लोग मंत्रसिद्धि के लिए| कुछ लोग श्रीकृष्ण की आराधना करते है, कुछ लोग शिव की, और कुछ लोग अपने अपने गुरु के रूप का ध्यान करते हैं| सब का अलग अलग दृष्टिकोण और सोच है|
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मैं न तो किसी को कोई सलाह दूंगा क्योंकि यह मेरा कार्य नहीं है| मैं सिर्फ अपने विचारों और भावों को ही व्यक्त करने के लिए अंतर्प्रेरणा से इस मंच पर हूँ| मैं यहाँ यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मैं न तो किसी से कोई सहानुभूति प्राप्त करना चाहता हूँ, और न कोई अन्य लाभ| किसी से मुझे कुछ भी जो कुछ भी मिल सकता है, वह सब मुझे पहले से ही परमात्मा से प्राप्त है, अतः किसी से कुछ भी लेना-देना नहीं है|
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सबसे पहले तो मैं यह बता देना चाहता हूँ कि यह आध्यात्मिक यात्रा कोई फूलों की सेज नहीं है, अपितु एक कंटकाकीर्ण अति दुर्गम मार्ग है जिस में खांडे की धार पर चलना पड़ता है| इस में शक्ति और ऊर्जा का जो एकमात्र स्त्रोत है वह है "भक्ति" यानि परमात्मा के प्रति परमप्रेम और समर्पण| इस मार्ग में हमें सब कुछ खोना पड़ता है, हर तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है, और कई बार तो मरणान्तक पीड़ा तक भी सहन करनी पड़ती है| पाने को तो इस में कुछ भी नहीं है, सिर्फ खोना ही खोना है| एकमात्र लाभ जो है वह है ईश्वर-लाभ| पर उसको पाते पाते यानि वहाँ तक पहुँचते पहुँचते व्यक्ति वीतराग हो जाता है, कोई राग-द्वेष और अहंकार नहीं बचता और सांसारिक भोग महत्वहीन हो जाते हैं| श्रुति भगवती इसी के लिए कहती हैं .... "उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत| क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति||" (कठोपनिषद्, १/३/१४)| श्रृति के वचन अंतिम प्रमाण और अंतिम आदेश हैं| इस पर किसी को कोई भी संदेह नहीं होना चाहिए|
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साधकों के लिए दीपावली की रात्रि का अत्यधिक महत्त्व है| दीपावली की रात्री को व्यर्थ की गपशप, इधर-उधर घूमने-फिरने, पटाखे फोड़ने, जूआ खेलने, शराब पीने, अदि में समय नष्ट नहीं करें| सब को पता होना चाहिए कि इस रात्री को समय का कितना बड़ा महत्त्व है| साधना की दृष्टी से चार रात्रियाँ बड़ी महत्वपूर्ण होती हैं ..... (१) कालरात्रि (दीपावली), (२) महारात्रि (शिवरात्रि), (३) दारुण रात्रि (होली), और (४) मोहरात्रि (कृष्ण जन्माष्टमी)| कालरात्रि (दीपावली) का आध्यात्मिक महत्व बहुत अधिक है| अपनी अपनी गुरु परम्परानुसार खूब जप तप व साधना इस रात्रि को अवश्य करनी चाहिए| कुछ समझ में नहीं आये तो राम नाम का खूब जप करें जो बहुत अधिक शक्तिशाली व परम कल्याणकारी है| राम नाम तारक मन्त्र है, जो सर्वसुलभ सर्वदा सब के लिए उपलब्ध है| जो योगमार्ग के साधक हैं, उन्हें इस कालरात्री में अनंत परमाकाश में ज्योतिर्मय कूटस्थ अक्षर ब्रह्म का ध्यान कालातीत अवस्था की प्राप्ति के लिए अवश्य करना चाहिए| शुद्ध आचार-विचार, और ब्रह्मचर्य का पालन करें|
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सभी को सभी को दीपावली की शुभ कामनाएँ और नमन!
हरि ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
०७ नवम्बर २०१८

छोटी दीपावली की शुभ कामनाएँ .....

छोटी दीपावली की शुभ कामनाएँ .....
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आज छोटी दीपावली है जिसे "नर्क चतुर्दशी" व "रूप चतुर्दशी" भी कहते हैं| नरकासुर नाम का एक राक्षस था, जिसने सोलह हजार एक सौ महिलाओं को बंदी बना रखा था| जब उसका अत्याचार बहुत अधिक बढ़ गया तब देवता और ऋषिमुनि भगवान श्रीकृष्ण की शरण में गए और उन्हें युद्ध के लिए मनाया| भयंकर युद्ध हुआ जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कुछ समय के लिए मूर्छित हो गए| सारथी के रूप में गयी उनकी पत्नी सत्यभामा ने नरकासुर के साथ भयंकर युद्ध किया और उसका वध कर दिया| उस दिन कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी थी, अतः इस दिन को नरकासुर चतुर्दशी या #नर्क_चतुर्दशी भी कहते हैं|
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रन्तिदेव एक पुण्यात्मा राजा थे| उन्होंने अनजाने में भी कोई पाप नहीं किया था, लेकिन जब मृत्यु का समय आया तो उन्हें नर्क में ले जाने उनके सामने यमदूत आ खड़े हुए| यमदूतों को सामने देख राजा अचंभित हुए और बोले मैंने तो कभी कोई पाप-कर्म ही नहीं किया फिर आप लोग मुझे लेने क्यों आए हो? पुण्यात्मा राजा की अनुनय भरी वाणी सुनकर यमदूतों ने कहा हे राजन् एक बार आपके द्वार से एक भूखा ब्राह्मण लौट गया था यह उसी पापकर्म का फल है| राजा रंतिदेव ने प्रायश्चित करने के लिए समय माँगा तो यमदूतों ने उन्हें एक वर्ष का जीवन और दे दिया| राजा ने कार्तिक माह की कृष्ण चतुर्दशी का व्रत किया और ब्राह्मणों को भोजन करवाकर अपनी भूल के लिए क्षमा माँगी| इस प्रकार राजा पाप मुक्त हुए और उन्हें विष्णु लोक में स्थान प्राप्त हुआ| इस प्रकार इस दिन व्रत रखने की परम्परा पड़ी|
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इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठकर उबटन या तेल लगाकर स्नान करने का बड़ा महात्म्य है| फिर मंदिर में जाना बड़ा पुण्यदायक है| इससे पाप कटता है और रूप सौन्दर्य की प्राप्ति होती है| सर्वाधिक मोहक रूप तो सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण का है| इस दिन उन की उपासना से वैसा ही रूप हमें भी प्राप्त होता है| इस लिए इस दिन को रूप_चतुर्दशी भी कहते हैं|
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छोटी_दीपावली की शुभ कामनाएँ !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
६ नवम्बर २०१८

तारक मन्त्र "राम" नाम सत्य है (रामनाम का महत्त्व) ....

तारक मन्त्र "राम" नाम सत्य है (रामनाम का महत्त्व) ....
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"र" अग्निबीज है जो शोक, मोह, और कर्मबंधनों का दाहक है|
"आ" सूर्यबीज है जो ज्ञान का प्रकाशक है|
"म" चंद्रबीज है जो मन को शांति व शीतलता दायक है|
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"राम" नाम और "ॐ" का महत्व एक ही है| "राम" नाम तारक मन्त्र है, और "ॐ" अक्षर ब्रह्म है| दोनों का फल एक ही है|
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विशेष :----- यह मैं पहिले भी लिख चुका हूँ| "राम" नाम के जाप और "ॐ" यानि ओंकार के ध्यान से एक रक्षा कवच का निर्माण होता है जो हमारी रक्षा करता है| मृत्यु एक अटल सत्य है| जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु भी होगी ही| जब किसी की शव यात्रा जा रही होती है तब मृतक के परिजन "राम नाम सत्य है" कहते हुए ही जाते हैं| ऐसी मान्यता है कि भौतिक मृत्यु के उपरांत जीवात्मा की उसके पुण्यों/पापों के अनुसार गति होती है| अधिकाँश मनुष्यों के अच्छे पुण्य नहीं होते अतः वे अपनी मृत देह के आसपास भटकते रहते हैं, और अपनी वासना की पूर्ति हेतु औरों की देह में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं| राम का नाम लेने से उपस्थित लोगों के ऊपर एक रक्षा-कवच का निर्माण होता है जो उनकी रक्षा करता है|
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राम का नाम न केवल सत्य है, बल्कि भारतीय जन मानस में रचा बसा भी है| यही कारण है कि परस्पर अभिवादन में 'राम-राम', कोई त्रुटि होने पर क्षोभ व्यक्त करने के लिए भी 'राम राम', आश्चर्य प्रकट करने के लिए 'हे राम', संकटग्रस्त होने पर सहायता की अपेक्षा में भी 'हे राम' और अंतिम यात्रा में तो "राम नाम सत्य है" कहते ही हैं|
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राम नाम जीवन का मंत्र है, मृत्यु का नहीं| राम, भगवान शिव के आराध्य हैं| राम ही हमारे जीवन की ऊर्जा हैं| जो रोम रोम में बसे हुए हैं वे राम है| जिसमें योगिगण निरंतर रमण करते हैं वे राम हैं| ‘रा’ शब्द परिपूर्णता का बोधक है और ‘म’ शब्द परमेश्वर का वाचक है| चाहे निर्गुण हो या सगुण, "राम" शब्द एक महामंत्र है|
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राम नाम निर्विवाद रूप से सत्य है| राम नाम के निरंतर जाप से सद्गति प्राप्त होती है|
राम राम राम राम राम राम राम राम !! जय श्रीराम ! जय श्रीराम ! जय श्रीराम !
कृपा शंकर
६ नवम्बर २०१८

भारत का संविधान और न्याय-व्यस्था भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए है, न कि विदेशी आतंकी लुटेरों के अधिकारों की रक्षा के लिए .....

भारत का संविधान और न्याय-व्यस्था भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए है, न कि विदेशी आतंकी लुटेरों के अधिकारों की रक्षा के लिए| बाबर नाम के एक विदेशी आतंकी लुटेरे आतताई ने पाँच लाख से अधिक भारतीयों की ह्त्या करवा कर, हज़ारों भारतीय महिलाओं का बलात्कार करवा कर, पूरे भारत देश को आतंकित कर के, भारत के पवित्रतम स्थान राम मंदिर को भग्न कर के एक विवादित ढांचा राममंदिर के भग्नावशेषों से ही वहीं खड़ा किया था|
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बाबर कोई भारतीय नहीं बल्कि मध्य एशिया के उज़बेकिस्तान नाम के देश से आया हुआ एक निकृष्टतम चोर दुर्दांत अत्याचारी और आतंकी लुटेरा था|
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भारत के संविधान और उच्चतम न्यायालय का यह उद्देश्य नहीं है कि वे बाबर या अन्य किसी विदेशी लुटेरे के अधिकारों की रक्षा करे| यह संविधान और न्याय-व्यवस्था भारतीयों के अधिकारों की रक्षा के लिए है न कि विदेशी आतंकी लुटेरों की|
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समाज की सुरक्षा के लिए चोरी, डकैती, ह्त्या आदि को अपराध माना गया है| लूटी हुई संपत्ति उसके स्वामी को बापस दिलवाना न्यायालय का दायित्व है|
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लाखों भारतीयों की ह्त्या कर के राम मंदिर लूटा व तोड़ा गया था| राम मंदिर के मालिकों को मंदिर बापस करने के बदले .....
(१) लुटेरों को लूट की संपत्ति पर तीस पीढ़ियों का अधिकार मानना,
(२) लूटमार और लुटेरों का सम्मान करना,
करोड़ों भारतीयों और भारत की अस्मिता का अपमान है|
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श्रीराम पूरे भारत के और हम सब के प्राण हैं| कृपया इसे अधिक से अधिक साझा और कॉपी/पेस्ट करें| धन्यवाद ! जय श्रीराम !

धनतेरस की शुभ कामनाएँ .....

धनतेरस की शुभ कामनाएँ .....
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सबसे बड़ा धन अच्छा स्वास्थ्य है| धनतेरस के दिन दीप जला कर भगवान से अच्छे स्वास्थ्य की प्रार्थना करें| बेकार में प्रचलित रीति-रिवाजों का अन्धानुशरण करते हुए सोना-चांदी आदि खरीदने के लिए न दौड़ें, और अपने बड़े परिश्रम से कमाए धन को नष्ट न करें| अपने स्वास्थ्य की रक्षा करें|
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कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन भगवान धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस या धनत्रयोदशी के नाम से जाना जाता है| इस दिन को राष्ट्रीय आयुर्वेद दिवस के रूप में मनाया जाता है| धन्वन्तरि देवताओं के चिकित्सक हैं और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्वपूर्ण होता है| इसका लौकिक धन-संपत्ति या रुपये-पैसे से कोई सम्बन्ध नहीं है| लोग इस दिन सोने-चांदी के आभूषण, बर्तन, भूमि, वस्त्र आदि जमकर खरीदते हैं, या नए भवन का निर्माण आरम्भ करते हैं| यह एक अन्धानुशरण की गलत परम्परा सी पड़ गयी है जिसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है|
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धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था| भगवान धन्वन्तरि चूंकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा पड़ गयी है| कहीं कहीं एक गलत और झूठी लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें तेरह गुणा वृद्धि होती है|
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धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार यमराज से एक यमदूत ने पूछा कि अकाल-मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है| इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगण मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं|
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धन्यवाद ! धन तेरस की शुभ कामनाएँ !
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ नवम्बर २०१८

आधी रात का सूर्य .....

आधी रात का सूर्य .....
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आधीरात को उगने वाले सूर्य को कुछ समय के लिए देखने की एक ४० वर्ष पुरानी स्मृति है मुझे| सन १९७८ में एक बार नोर्वे के उत्तरी भाग में कुछ दिनों के लिए जाने का अवसर मिला था जहाँ से आधी रात के सूर्य की भूमि (Land of midnight sun) आरम्भ होती है| वहाँ से उत्तर में उत्तरी ध्रुव क्षेत्र है|

आधीरात को सूर्य का उगना ..... आर्कटिक वृत्त के उत्तरी भाग में, और अंटार्कटिक वृत्त के दक्षिणी भाग में वहाँ के स्थानीय ग्रीष्मकाल में होने वाली एक प्राकृतिक घटना होती है| इसको देखने बहुत लोग आते हैं|

वहाँ आधी रात को सूर्य कुछ देर तक ही दिखाई देता है फिर तरह तरह का प्रकाश पूरे आकाश में छा जाता है|
मुझे अब तो विश्वास भी नहीं होता कि जीवन में मैनें भी कभी आधी रात का सूर्योदय देखा है| पर यह सत्य है|

एक अवधूत संत स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्र सरस्वती ......

एक अवधूत संत स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्र सरस्वती ......
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स्वामी सदाशिव ब्रह्मेन्द्र सरस्वती एक अवधूत संत थे जिन्होनें संन्यास ग्रहण के पश्चात अपने पूरे जीवनकाल में कभी कोई वस्त्र नहीं पहना, और सदा ध्यानमग्न रहते थे| सदाशिव ब्रह्मेन्द्र को अपने ज्ञान की तीव्रता होने के कारण आरम्भ में तर्क करने का स्वभाव था| अपने तर्कों से वे बड़े बड़े विद्वानों को निरुत्तर कर देते थे| कई विद्वानों ने उनकी शिकायत उनके गुरु स्वामी परमशिवेंद्र सरस्वती से की| गुरुदेव ने सदाशिव ब्रह्मेन्द्र को बुलाकर कहा कि तुम तो सब के मुंह बंद कर देते हो पर तुम स्वयं चुप कब रहोगे? उसी क्षण से सदाशिव ब्रह्मेन्द्र ने आजीवन मौन धारण का व्रत ले लिया|
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वे बिना किसी से कोई बात किये अवधूतावस्था में कावेरी नदी के तट पर घुमते रहते| अधिकाँश समय तो ध्यानमग्न ही रहते| लोगों ने उनके गुरु से उनकी शिकायत की तो गुरु ने यही कहा कि .... "जाने कब मैं भी इतना भाग्यशाली बनूँ|" सदाशिव ब्रह्मेन्द्र ने वेदान्त पर कई पुस्तकें लिखीं और अनेक काव्य रचनाएँ कीं|
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उनके चमत्कारों पर अनेक किस्से दक्षिण भारत में प्रचलित हैं| परमहंस योगानंद ने भी अपनी विश्वप्रसिद्ध पुस्तक "योगी कथामृत" में उनके बारे में बहुत कुछ लिखा है|
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उनका जन्म मदुराई में अठारहवीं शताब्दी में श्रीवत्स गौत्र के श्री मोक्षसोमसुन्दर और श्रीमती पार्वती के घर हुआ था| माता-पिता ने उनका नाम शिवरामकृष्ण रखा था| उनके माता-पिता भगवान रामनाथस्वामी (रामेश्वरम) के भक्त थे| रामेश्वरम भगवान शिव की कृपा से ही उनका जन्म हुआ था|
हमारी भारतभूमि धन्य है जिसने ऐसे महान संतों को जन्म दिया|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
४ नवम्बर २०१८

मनुष्य का मन भी एक गिद्ध है .....

जैसे गिद्ध, चील-कौए, और लकड़बघ्घे मृत लाशों को ही ढूँढ़ते रहते हैं और अवसर मिलते ही उन पर टूट पड़ते है, वैसे ही मनुष्य का मन भी एक गिद्ध है जो दूसरों को लूटने, ठगने और विषय-वासनाओं की पूर्ति के अवसर ढूँढ़ता रहता है और अवसर मिलते ही उन पर टूट पड़ता है|

मनुष्य के वेश में भी बहुत सारे परभक्षी घुमते हैं जिन की गिद्ध दृष्टी दूसरों से घूस लेने, दूसरों को ठगने, लूटने और वासनापूर्ति को ही लालायित रहती है| ऐसे लोग बातें तो बड़ी बड़ी करते हैं पर अन्दर ही अन्दर उन में कूट कूट कर हिंसा, लालच, कुटिलता व दुष्टता भरी रहती है| मनुष्य के रूप में ऐसे परभक्षी चारों ओर भरे पड़े हैं| भगवान की परम कृपा ही उन से हमारी रक्षा कर सकती है, अन्य कुछ भी नहीं|

हे प्रभु, हम अपने विचारों के प्रति सदा सजग रहें और हमारा मन निरंतर आपकी चेतना में रहे| सब तरह के कुसंग, बुरे विचारों और प्रलोभनों से हमारी रक्षा करो|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ नवम्बर 2018

Sunday, 4 November 2018

यह सृष्टि परमात्मा की है, मेरी नहीं .....

यह सृष्टि परमात्मा की है, मेरी नहीं .....
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यह सृष्टि परमात्मा की है, मेरी नहीं अतः मैं इसका जिम्मेदार नहीं हूँ| भगवान अपनी सृष्टि चलाने में सक्षम हैं अतः उन्हें मेरे सुझाव या सलाह की कोई आवश्यकता नहीं है| संसार में हो रही बुराइयों का कारण या जिम्मेदार मैं नहीं हूँ, अतः मैं इनका शिकार न बनूँ| विश्व में हो रहे घटनाक्रम का नियंत्रण मेरे हाथ में नहीं है, अतः मुझे इन के परिणामों की चिंता भी नहीं करनी चाहिए| 
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चारों ओर छाये हुए नकारात्मक तामसी विचारों, संकल्पों व भावनाओं से मैं अत्यधिक आहत था| ये मुझे दुखी और बहुत अधिक प्रभावित कर रहे थे| भगवान से मैनें प्रार्थना की जिसके परिणामस्वरूप मुझे प्रेरणा मिल रही है कि संसार में अत्यधिक तामस और नकारामकता है, पर मुझे इनका भाग नहीं बनना चाहिए? मैं ही अपना सबसे बड़ा मित्र हूँ और शत्रु भी, पर क्या बनना है इसका निर्णय मेरा ही होगा, किसी अन्य का नहीं| मुझ द्वारा संपादित कर्म ही नहीं, विचारों व भावनाओं का स्वामी भी मुझे ही बनना है, ऐसी भगवान की ही इच्छा है|
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भगवान की इच्छा है कि मैं वह कार्य ही करूँ जिसके लिए उन्होंने मुझे यहाँ भेजा है| क्या करना है? यह मुझे स्वयं भगवान द्वारा अच्छी तरह समझाया जा चुका है| कोई संदेह या शंका नहीं है| अतः मुझे अन्यत्र कहीं दृष्टी भी नहीं डालनी है| मेरा लक्ष्य सदा मेरे सामने रहे, यही भगवान चाहते हैं| मुझे भगवान की इच्छा का ही पालन करना है|
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ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३ नवम्बर २०१८

Thursday, 1 November 2018

(वासुदेवः सर्वम् इति) सब नामरूपों से परे भगवान वासुदेव ही सर्वस्व हैं .....

(वासुदेवः सर्वम् इति) सब नामरूपों से परे भगवान वासुदेव ही सर्वस्व हैं .....
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हम उन्हें प्रेम से कुछ भी कहें, वे भगवान सब नामरूपों से परे हैं| मैं उन्हें "परमशिव" कहता हूँ, वे ही मेरे सर्वस्व हैं| अगर किसी से मिलना ही हो तो मैं ऐसे ही लोगों से मिलता हूँ जो निरंतर भगवान का स्मरण करते हैं, अन्यथा मुझे अकेले ही रहना अच्छा लगता है| जिनके हृदय में भगवान नहीं है ऐसे लोगों से मैं दूर रहता हूँ| सामाजिकता के नाते ही समाज में अनेक लोगों से मिलना पड़ता है| पर स्वतंत्र इच्छा से मैं हर किसी से नहीं मिलता| स्वतंत्र इच्छा से मैं उन्हीं से मिलता हूँ जिनके जीवन में .. "वासुदेवः सर्वम्" है|
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गीता में भगवान कहते हैं .....
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते| वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः||७:१९||
इसका भावार्थ है .....
बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि यह सब वासुदेव है ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है|
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उन के समान या उन से अधिक और कोई भी नहीं है| एक लाख में से कोई दो या तीन व्यक्ति ही ऐसे होते हैं जो अपने पूर्ण ह्रदय से भगवान से प्रेम करते हैं| जो निरंतर भगवान का स्मरण करते हैं ऐसे सभी महात्माओं को मैं नमन करता हूँ| ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवम्बर २०१८

सब फालतू बातें छोड़कर आइये अब एक लम्बी यात्रा की तैयारी करें .....

सब फालतू बातें छोड़कर आइये अब एक लम्बी यात्रा की तैयारी करें .....
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मैं जो लिखने जा रहा हूँ वह पूरी सत्यनिष्ठा और पूर्ण ह्रदय से लिख रहा हूँ जिसका परमात्मा साक्षी हैं| इस समय मैं एक अति दिव्य चेतना में हूँ और भगवान की प्रेरणा मेरे साथ है| हमारी यात्रा बहुत लम्बी है, न तो सांसारिक जन्म उसका आरम्भ है, और न ही सांसारिक मृत्यु उसका अंत| उसकी तैयारी हमें इसी क्षण से करनी चाहिए|
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गीता के अध्याय ८ अक्षरब्रह्मयोग में भगवान कहते हैं .....
"यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्‌| तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः||८:६||
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च| मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌||८:७||
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना| परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌||८:८||
कविं पुराणमनुशासितार-मणोरणीयांसमनुस्मरेद्यः| सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात्‌||८:९||
प्रयाण काले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव| भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्‌- स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम्‌||८:१०||"
इसका भावार्थ निम्न है .....
"हे कुन्तीपुत्र! मनुष्य अंत समय में जिस-जिस भाव का स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उसी भाव को ही प्राप्त होता है, जिस भाव का जीवन में निरन्तर स्मरण किया है|
इसलिए हे अर्जुन! तू हर समय मेरा ही स्मरण कर और युद्ध भी कर, मन-बुद्धि से मेरे शरणागत होकर तू निश्चित रूप से मुझको ही प्राप्त होगा|
हे पृथापुत्र! जो मनुष्य बिना विचलित हुए अपनी चेतना (आत्मा) से योग में स्थित होने का अभ्यास करता है, वह निरन्तर चिन्तन करता हुआ उस दिव्य परमात्मा को ही प्राप्त होता है|
मनुष्य को उस परमात्मा के स्वरूप का स्मरण करना चाहिये जो कि सभी को जानने वाला है, पुरातन है, जगत का नियन्ता है, सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म है, सभी का पालनकर्ता है, अकल्पनीय-स्वरूप है, सूर्य के समान प्रकाशमान है और अन्धकार से परे स्थित है|
जो मनुष्य मृत्यु के समय अचल मन से भक्ति मे लगा हुआ, योग-शक्ति के द्वारा प्राण को दोनों भौंहौं के मध्य में पूर्ण रूप से स्थापित कर लेता है, वह निश्चित रूप से परमात्मा के उस परम-धाम को ही प्राप्त होता है|"
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यह उपदेश सार है जिसका अर्थ बड़ा स्पष्ट है| अब इसे किस रूप में समझें यह समझने वाले की समस्या है| यही मुक्ति का मार्ग है| ब्रह्मचर्य का अर्थ ब्रह्म का आचरण है| हमारा आचरण ब्रह्ममय हो यही ब्रह्मचर्य है| इसी क्षण से हमें उस आचरण को अपनाना पड़ेगा| मेरे द्वारा जो लिखा जा रहा है वह तो एक संकेत मात्र है जिसका अनुसंधान हमें स्वयं स्वाध्याय द्वारा करना होगा|
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आगे भगवान कहते हैं .....
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च| मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्‌||८:१२||
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्‌| यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्‌||८:१३||
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः| तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः||८:१४||
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्‌| नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः||८:१५||
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन| मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते||८:१६||
इसका भावार्थ निम्न है ....
"शरीर के सभी द्वारों को वश में करके तथा मन को हृदय में स्थित करके, प्राणवायु को सिर में रोक करके योग-धारणा में स्थित हुआ जाता है|
इस प्रकार ॐकार रूपी एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण करके मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मनुष्य मेरे परम-धाम को प्राप्त करता है|
हे पृथापुत्र अर्जुन! जो मनुष्य मेरे अतिरिक्त अन्य किसी का मन से चिन्तन नहीं करता है और सदैव नियमित रूप से मेरा ही स्मरण करता है, उस नियमित रूप से मेरी भक्ति में स्थित भक्त के लिए मैं सरलता से प्राप्त हो जाता हूँ|
मुझे प्राप्त करके उस मनुष्य का इस दुख-रूपी अस्तित्व-रहित क्षणभंगुर संसार में पुनर्जन्म कभी नही होता है, बल्कि वह महात्मा परम-सिद्धि को प्राप्त करके मेरे परम-धाम को प्राप्त होता है|
हे अर्जुन! इस ब्रह्माण्ड में निम्न-लोक से ब्रह्म-लोक तक के सभी लोकों में सभी जीव जन्म-मृत्यु को प्राप्त होते रह्ते हैं, किन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मुझे प्राप्त करके मनुष्य का पुनर्जन्म कभी नहीं होता है|"
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यह यात्रा कहीं बाहर नहीं हमारे सूक्ष्म देह के मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी में है| इसी क्षण हम भगवान को अपने हृदय में बैठाकर पूर्ण प्रेम से उन्हें अपने जीवन का केंद्रबिंदु बनाकर उन्हें अपना पूर्ण प्रेम देंगे तो उनके अनुग्रह से हमें निश्चित रूप से मार्गदर्शन प्राप्त होगा|
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आप सब दिव्य महान आत्माओं को नमन ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ नवम्बर २०१८