Saturday 10 November 2018

क्या "राम नाम सत्" और "ॐ तत्सत्" दोनों का अर्थ एक ही है ? .....

क्या "राम नाम सत्" और "ॐ तत्सत्" दोनों का अर्थ एक ही है ? .....
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:"ॐ तत्सत्" शब्द परमात्मा की ओर किया गया एक निर्देश है| इस का प्रयोग गीता के हरेक अध्याय के अंत में किया गया है ....."ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुन ... ."
इस शब्द का विशेष प्रयोग भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के सत्रहवें अध्याय के २३ वें श्लोक में किया है .....
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः| ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा||१७:२३||
इस का भावार्थ है ..... सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है|
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ईसाई मत में इसी की नक़ल कर के "Father Son and the Holy Ghost" की परिकल्पना की गयी है| गहराई से यदि चिन्तन किया जाए तो "Father Son and the Holy Ghost" का अर्थ भी वही निकलता है जो "ॐ तत्सत्" का अर्थ है|
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कल ६ नवम्बर को मैनें राम नाम के ऊपर एक लिखा था जिसमें वह कारण बताया था कि मृतक की शवयात्रा में "राम नाम सत्" का उद्घोष क्यों करते हैं| उस लेख की टिप्पणी में भुवनेश्वर के प्रख्यात वैदिक विद्वान् माननीय श्री अरुण उपाध्याय जी ने बड़े संक्षेप में एक बड़ी ज्ञान की बात कह कर सप्रमाण सिद्ध कर दिया कि "राम नाम सत्" और "ॐ तत्सत्" इन दोनों का अर्थ भी एक ही है, अतः यह लेख मुझे लिखना पड़ रहा है|
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जब प्राण की गति होती है, जैसे शरीर से बाहर निकला, तो वह "ॐ" से "रं" हो जाता है ..... प्राणो वै रं, प्राणे हि इमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ते (बृहदारण्यक उपनिषद्, ५/१२/१)| किसी व्यक्ति को निर्देश (तत् = वह) करने के लिये उसका नाम कहते हैं| अतः ॐ तत् सत् का ’राम नाम सत्'’ भी हो जाता है|
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एक समय सनकादि योगीश्वरों, ऋषियों और प्रह्लाद आदि महाभागवतों ने श्रीहनुमानजी से पूछा ..... हे महाबाहु वायुपुत्र हनुमानजी ! आप यह बतलानेकी कृपा करें कि वेदादि शास्त्रों, पुराणों तथा स्मृतियों आदि में ब्रह्मवादियों के लिये कौन सा तत्त्व उपदिष्ट हुआ है, विष्णुके समस्त नामों में से तथा गणेश, सूर्य, शिव और शक्ति .... इनमें से वह तत्त्व कौन-सा है ?
इस पर हनुमानजी बोले – हे मुनीश्वरो ! आप संसारके बन्धन का नाश करने वाली मेरी बातें सुनें | इन सब वेदादि शास्त्रोंमें परम तत्त्व ब्रह्मस्वरूप तारक ही है । राम ही परम ब्रह्म हैं | राम ही परम तपःस्वरूप हैं | राम ही परमतत्त्व हैं | वे राम ही तारक ब्रह्म हैं --
भो योगीन्द्राश्चैव ऋषयो विष्णुभक्तास्तथैव च ।
शृणुध्वं मामकीं वाचं भवबन्धविनाशिनीम् ।।
एतेषु चैव सर्वेषु तत्त्वं च ब्रह्मतारकम् ।
राम एव परं ब्रह्म राम एव परं तपः ।।
राम एव परं तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्म तारकम् ।।
(रामरहस्योपनिषद्)
(‘कल्याण’ पत्रिका; वर्ष – ८८, संख्या – ४ : गीताप्रेस, गोरखपुर)
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गीता में "ॐ तत्सत्" का अर्थ .....
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गीता के सत्रहवें अध्याय के अंतिम छः श्लोक "ॐ तत्सत्" का अर्थ बतलाते हैं....
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ (२३)
भावार्थ : सृष्टि के आरम्भ से "ॐ" (परम-ब्रह्म), "तत्‌" (वह), "सत्‌" (शाश्वत) इस प्रकार से ब्रह्म को उच्चारण के रूप में तीन प्रकार का माना जाता है, और इन तीनों शब्दों का प्रयोग यज्ञ करते समय ब्राह्मणों द्वारा वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करके ब्रह्म को संतुष्ट करने के लिये किया जाता है। (२३)
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपः क्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्तः सततं ब्रह्मवादिनाम्‌॥ (२४)
भावार्थ : इस प्रकार ब्रह्म प्राप्ति की इच्छा वाले मनुष्य शास्त्र विधि के अनुसार यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाओं का आरम्भ सदैव "ओम" (ॐ) शब्द के उच्चारण के साथ ही करते हैं। (२४)
तदित्यनभिसन्दाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्चविविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥ (२५)
भावार्थ : इस प्रकार मोक्ष की इच्छा वाले मनुष्यों द्वारा बिना किसी फल की इच्छा से अनेकों प्रकार से यज्ञ, दान और तप रूपी क्रियाऎं "तत्‌" शब्द के उच्चारण द्वारा की जाती हैं। (२५)
सद्भावे साधुभावे च सदित्यतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ (२६)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! इस प्रकार साधु स्वभाव वाले मनुष्यों द्वारा परमात्मा के लिये "सत्" शब्द ‍का प्रयोग किया जाता है तथा परमात्मा प्राप्ति के लिये जो कर्म किये जाते हैं उनमें भी "सत्‌" शब्द का प्रयोग किया जाता है। (२६)
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते ।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्यवाभिधीयते ॥ (२७)
भावार्थ : जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। (२७)
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्‌ ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥ (२८)
भावार्थ : हे पृथापुत्र अर्जुन! बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है। (२८)
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हरि: ॐ तत् सत् !
७ नवम्बर २०१८
(यह लेख मैनें स्वयं के आनंद के लिए ही लिखा है| इसे लिख कर मुझे बहुत आनंद प्राप्त हुआ है| कोई आवश्यक नहीं है कि यह लेख दूसरों को भी अच्छा लगे| सभी पाठकों को धन्यवाद!)

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