Tuesday 19 March 2019

विचित्र विदाई ...

विचित्र विदाई .... (गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस से संकलित) .....
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लंका के युद्ध के पश्चात भगवान श्रीराम जब बापस अयोध्या आये तब ब्रह्मानंद में मग्न ये सारे वानर वहीं बैठ गए, बापस जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे| इस तरह छः महीने व्यतीत हो गए| वे लोग अपने घर ही भूल गए| स्वप्न में भी उन्हें अपने घर की याद नहीं आती थी| 
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तब एक दिन भगवान श्रीराम ने सबको अपने पास बुलाया| सब ने आदर साहिर सर नवाया| भगवान श्रीराम ने सबको अपने पास बैठाकर कोमल वचन बड़े प्रेम से कहे कि तुम लोगों ने मेरी बड़ी सेवा की है| मुँह पर किस प्रकार तुम्हारी बड़ाई करूँ? मेरे हित के लिए तुम लोगों ने घरों को तथा सब प्रकार के सुखों को त्याग दिया| इससे तुम मुझे अत्यंत ही प्रिय लग रहे हो| छोटे भाई, राज्य, संपत्ति, जानकी, अपना शरीर, घर, कुटुम्ब और मित्र .... ये सभी मुझे प्रिय हैं, परंतु तुम्हारे समान नहीं| मैं झूठ नहीं कहता, यह मेरा स्वभाव है| सेवक सभी को प्यारे लगते हैं, यह नीति (नियम) है| (पर) मेरा तो दास पर (स्वाभाविक ही) विशेष प्रेम है| हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ, वहाँ दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्वव्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यंत प्रेम करना|
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प्रभु के वचन सुनकर सब के सब प्रेममग्न हो गए| हम कौन हैं और कहाँ हैं? यह देह की सुध भी भूल गई| वे प्रभु के सामने हाथ जोड़कर टकटकी लगाए देखते ही रह गए| अत्यंत प्रेम के कारण कुछ कह नहीं सकते| प्रभु ने उनका अत्यंत प्रेम देखा, (तब) उन्हें अनेकों प्रकार से विशेष ज्ञान का उपदेश दिया| प्रभु के सम्मुख वे कुछ कह नहीं सकते। बार-बार प्रभु के चरणकमलों को देखते हैं| तब प्रभु ने अनेक रंगों के अनुपम और सुंदर गहने-कपड़े मंगवाये| सबसे पहले भरतजी ने अपने हाथ से सँवारकर सुग्रीव को वस्त्राभूषण पहनाये| 
फिर प्रभु की प्रेरणा से लक्ष्मणजी ने विभीषणजी को गहने-कपड़े पहनाए, जो श्री रघुनाथजी के मन को बहुत ही अच्छे लगे| अंगद बैठे ही रहे, वे अपनी जगह से हिले तक नहीं| उनका उत्कट प्रेम देखकर प्रभु ने उनको नहीं बुलाया| जाम्बवान्‌ और नील आदि सबको श्री रघुनाथजी ने स्वयं भूषण-वस्त्र पहनाए| वे सब अपने हृदयों में श्री रामचंद्रजी के रूप को धारण करके उनके चरणों में मस्तक नवाकर चले गए|
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तब अंगद उठकर सिर नवाकर, नेत्रों में जल भरकर और हाथ जोड़कर अत्यंत विनम्र तथा मानो प्रेम के रस में डुबोए हुए (मधुर) वचन बोले .....हे सर्वज्ञ! हे कृपा और सुख के समुद्र! हे दीनों पर दया करने वाले! हे आर्तों के बंधु! सुनिए! हे नाथ! मरते समय मेरा पिता बालि मुझे आपकी ही गोद में डाल गया था| अतः हे भक्तों के हितकारी! अपना अशरण-शरण विरद (बाना) याद करके मुझे त्यागिए नहीं| मेरे तो स्वामी, गुरु, पिता और माता सब कुछ आप ही हैं| आपके चरणकमलों को छोड़कर मैं कहाँ जाऊँ? हे महाराज! आप ही विचारकर कहिए, प्रभु (आप) को छोड़कर घर में मेरा क्या काम है? हे नाथ! इस ज्ञान, बुद्धि और बल से हीन बालक तथा दीन सेवक को शरण में रखिए| मैं घर की सब नीची से नीची सेवा करूँगा और आपके चरणकमलों को देख-देखकर भवसागर से तर जाऊँगा| ऐसा कहकर वे श्री रामजी के चरणों में गिर पड़े (और बोले-) हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए| हे नाथ! अब यह न कहिए कि तू घर जा|
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अंगद के विनम्र वचन सुनकर करुणा की सीमा प्रभु श्री रघुनाथजी ने उनको उठाकर हृदय से लगा लिया| प्रभु के नेत्र कमलों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया| तब भगवान्‌ ने अपने हृदय की माला, वस्त्र और मणि (रत्नों के आभूषण) बालि पुत्र अंगद को पहनाकर और बहुत प्रकार से समझाकर उनकी विदाई की| भक्त की करनी को याद करके भरतजी छोटे भाई शत्रुघ्नजी और लक्ष्मणजी सहित उनको पहुँचाने चले| अंगद के हृदय में थोड़ा प्रेम नहीं है (अर्थात्‌ बहुत अधिक प्रेम है)| वे फिर-फिरकर श्री रामजी की ओर देखते हैं और बार-बार दण्डवत प्रणाम करते हैं| मन में ऐसा आता है कि श्री रामजी मुझे रहने को कह दें| वे श्री रामजी के देखने की, बोलने की, चलने की तथा हँसकर मिलने की रीति को याद कर-करके सोचते हैं| किंतु प्रभु का रुख देखकर, बहुत से विनय वचन कहकर तथा हृदय में चरणकमलों को रखकर वे चले| अत्यंत आदर के साथ सब वानरों को पहुँचाकर भाइयों सहित भरतजी लौट आए|
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तब हनुमान्‌जी ने सुग्रीव के चरण पकड़कर अनेक प्रकार से विनती की और कहा- हे देव! दस (कुछ) दिन श्री रघुनाथजी की चरणसेवा करके फिर मैं आकर आपके चरणों के दर्शन करूँगा| (सुग्रीव ने कहा-) हे पवनकुमार! तुम पुण्य की राशि हो (जो भगवान्‌ ने तुमको अपनी सेवा में रख लिया)| जाकर कृपाधाम श्री रामजी की सेवा करो| सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े| अंगद ने कहा- हे हनुमान्‌ ! सुनो ..... मैं तुमसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभु से मेरी दण्डवत्‌ कहना और श्री रघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना|
ऐसा कहकर बालिपुत्र अंगद चले, तब हनुमान्‌जी लौट आए और आकर प्रभु से उनका प्रेम वर्णन किया। उसे सुनकर भगवान्‌ प्रेममग्न हो गए|
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(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! श्री रामजी का चित्त वज्र से भी अत्यंत कठोर और फूल से भी अत्यंत कोमल है| तब कहिए, वह किसकी समझ में आ सकता है? फिर कृपालु श्री रामजी ने निषादराज को बुला लिया और उसे भूषण, वस्त्र प्रसाद में दिए (फिर कहा-) अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा स्मरण करते रहना और मन, वचन तथा कर्म से धर्म के अनुसार चलना| तुम मेरे मित्र हो और भरत के समान भाई हो| अयोध्या में सदा आते-जाते रहना| यह वचन सुनते ही उसको भारी सुख उत्पन्न हुआ| नेत्रों में (आनंद और प्रेम के आँसुओं का) जल भरकर वह चरणों में गिर पड़ा| फिर भगवान्‌ के चरणकमलों को हृदय में रखकर वह घर आया और आकर अपने कुटुम्बियों को उसने प्रभु का स्वभाव सुनाया| श्री रघुनाथजी का यह चरित्र देखकर अवधपुरवासी बार-बार कहते हैं कि सुख की राशि श्री रामचंद्रजी धन्य हैं|
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श्रीरामचंद्रजी के राज्य पर प्रतिष्ठित होने पर तीनों लोक हर्षित हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे। कोई किसी से वैर नहीं करता| श्री रामचंद्रजी के प्रताप से सबकी विषमता (आंतरिक भेदभाव) मिट गई| सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर हुए सदा वेद मार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं| उन्हें न किसी बात का भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है|
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भगवान श्रीराम की जय ! इस धरा पर उनका राज्य एक बार फिर से स्थापित हो| जय श्रीराम!

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