संसार में रहते हुए शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्म का पालन एक युद्ध ही है --
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प्रातःकाल उठते ही भगवती (जगन्माता) की अनुभूति प्राणतत्व के रूप में होती है, जो प्रेममय और आनंदमय कर देती है। उनका ध्यान बड़ा आनंददायक है, उस से बाहर निकलने का मन नहीं करता। लेकिन थोड़ी देर बाद जब संसार पकड़ लेता है, तब सांसारिक चेतना में आना ही पड़ता है। इसीलिए गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं --
"तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥८:७॥"
अर्थात् -- इसलिए, तुम सब काल में मेरा निरन्तर स्मरण करो; और युद्ध करो मुझमें अर्पण किये मन, बुद्धि से युक्त हुए निःसन्देह तुम मुझे ही प्राप्त होओगे॥
Therefore meditate always on Me, and fight; if thy mind and thy reason be fixed on Me, to Me shalt thou surely come.
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स्वनामधन्य भगवन आचार्य शंकर अपने भाष्य में कहते हैं --
"तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम् अनुस्मर यथाशास्त्रम्। युध्य च युद्धं च स्वधर्मं कुरु। मयि वासुदेवे अर्पिते मनोबुद्धी यस्य तव स त्वं मयि अर्पितमनोबुद्धिः सन् मामेव यथास्मृतम् एष्यसि आगमिष्यसि असंशयः न संशयः अत्र विद्यते।।किञ्च --,"
भावार्थ -- क्योंकि इस प्रकार अन्तकाल की भावना ही अन्य शरीर की प्राप्ति का कारण है -- इसलिये तूँ हर समय मेरा स्मरण कर और शास्त्राज्ञानुसार स्वधर्मरूप युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझ वासुदेव में जिसके मनबुद्धि अर्पित हैं ऐसा तू मुझमें अर्पित किये हुए मनबुद्धि वाला होकर मुझको ही अर्थात् मेरे यथाचिन्तित स्वरूप को ही प्राप्त हो जायगा इसमें संशय नहीं है।
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हम यह नश्वर देह नहीं, एक शाश्वत आत्मा हैं। आत्मा का स्वधर्म निरंतर परमात्मा का स्मरण है। भगवान श्रीकृष्ण हमें निरंतर अपने स्वधर्म के पालन करने, और स्वधर्म में ही मरने को कहते हैं।
ॐ तत्सत् !! सोहं !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥
कृपा शंकर
२४ सितंबर २०२३
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