भगवान मुझ पर अपनी परम कृपा करें। मेरे हृदय की पीड़ा शांत हो ---
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स्वयं में अपूर्णता का जरा सा भी बोध बड़ा पीड़ादायक होता है। भगवान अपनी परम कृपा कर के मुझे सब कामनाओं से निःस्पृहता प्रदान कर अपने ही स्वरूप में स्थित करें। तभी मेरे हृदय की पीड़ा शांत होगी। तब तक यह जीवन कष्टमय और अशांत ही रहेगा।
गीता में भगवान बाह्य चिंतन को छोड़कर केवल आत्मा में ही स्थित होने को कहते हैं। साथ साथ यह भी बता रहे हैं कि जब तक भोगों की तृष्णा है, तब तक यह संभव नहीं है।
निःस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा॥६:१८॥"
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भगवान कहते हैं --
"यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः॥६:१९॥"
इसका भावार्थ होगा कि जैसे वायुरहित स्थान में रखे हुये दीपक की लौ विचलित नहीं होती, वैसी ही हमारे चित्त की गति हो। (भगवान यही अपेक्षा मुझ से रखते हैं)
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हे प्रभु, आपकी जय हो। अपनी परम कृपा करो। मैं कभी तत्व से विचलित न होऊँ, सदा निरंतर आप में स्थित रहूँ, और विषय-वासनाओं का चिंतन भूल से भी न हो।
"नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये,
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे,
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥"
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ॐ तत्सत् !! सोहं !! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय॥
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये॥ श्रीमते रामचंद्राय नमः॥
कृपा शंकर
२५ सितंबर २०२३
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