Wednesday, 29 June 2016

शबद अनाहत बागा ....

शबद अनाहत बागा ......
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जब राम नाम यानि प्रणव की अनाहत ध्वनी अंतर में सुनाई देना आरम्भ कर दे तब पूरी लय से उसी में तन्मय हो जाना चाहिए| सदा निरंतर उसी को पूरी भक्ति और लगन से सुनना चाहिए| यह उच्चतम साधना है|
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भोर में मुर्गे की बाँग सुनकर निश्चिन्त होकर हम जान जाते हैं कि अब सूर्योदय होने ही वाला है, वैसे ही जब अनाहत नाद अंतर में बाँग मारना यानि सुनना आरम्भ कर दे तब सारे संशय दूर हो जाने चाहिएँ और जान लेना चाहिए कि परमात्मा तो अब मिलने ही वाले हैं| अवशिष्ट जीवन उन्हीं को केंद्र बिंदु बनाकर, पूर्ण भक्तिभाव से उन्हीं को समर्पित होकर व्यतीत करना चाहिए|
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कबीर दास जी के जिस पद की यह अंतिम पंक्ति है वह पूरा पद इस प्रकार है ....

"अवधूत गगन मंडल घर कीजै,
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंक नाल रस पीजै ||
मूल बाँधि सर गगन समाना, सुखमणि यों तन लागी |
काम क्रोध दोऊ भये पलीता, तहाँ जोगिणी जागी ||
मनवा जाइ दरीबै बैठा, मगन भया रसि लागा |
कहै कबीर जिय संसा नाँहीं, शबद अनाहद बागा ||"
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{{ गगन मंडल में घर करने का अर्थ है अपनी चेतना को समष्टि में विस्तृत कर दें| हम यह देह नहीं बल्कि परमात्मा की सर्वव्यापकता और पूर्णता हैं| जो इस चेतना में स्थित हैं वे अवधूत हैं| इसी भाव में स्थित होकर ध्यान करें|
खेचरी मुद्रा में सहस्त्रार से रस टपकता है जो अमृत है| उसका पान कर योगी की देह को अन्न जल की आवश्यकता नहीं होती|
बंक नाल सुषुम्ना नाड़ी है जिसमें जागृत होकर कुण्डलिनी ऊर्ध्वमुखी होती है|
मूलबंध .... गुदा और जननेन्द्रियों का संकुचन करना है|
सर गगन समाना अर्थात मेरुदंड को उन्नत रखकर ठुड्डी भूमि के समानांतर रखना|
सुखमणि ... आनंद की अनुभूति|
पलीता यानि बारूद में विस्फोट के लिए लगाई आग्नि| काम क्रोध जल कर भस्म हो गए हैं|
जोगिणी जागी अर्थात् कुण्डलिनी जागृत हुई|
दरीबा फारसी भाषा में उस स्थान को कहते थे जहाँ अनमोल मोती बिकते थे| पर कालान्तर में उसे पान खाकर गपशप करने वाले सार्वजनिक स्थान को कहा जाने लगा|
अनाहत शब्द बाँग दे रहा है अतः अब ईश्वर प्राप्ति में कोई संशय नहीं है| }}
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जब भी समय मिले एकांत में पवित्र स्थान में सीधे होकर बैठ जाएँ| दृष्टी भ्रूमध्य में हो, दोनों कानों को अंगूठे से बंद कर लें, छोटी अंगुलियाँ आँखों के कोणे पर और बाकि अंगुलियाँ ललाट पर| आरम्भ में अनेक ध्वनियाँ सुनाई देंगी| जो सबसे तीब्र ध्वनी है उसी को ध्यान देकर सुनते रहो| उसके साथ मन ही मन ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ या राम राम राम राम राम का मानसिक जाप करते रहो| ऐसी अनुभूति करते रहो कि मानो किसी जलप्रपात की अखंड ध्‍वनि के मध्य में यानि केंद्र में स्‍नान कर रहे हो| धीरे धीरे एक ही ध्वनी बचेगी उसी पर ध्यान करो और साथ साथ ओम या राम का निरंतर मानसिक जाप करते रहो| दोनों का प्रभाव एक ही है| कोहनियों के नीचे कोई सहारा लगा लो| कानों को अंगूठे से बंद कर के नियमित अभ्यास करते करते कुछ महीनों में आपको खुले कानों से भी वह प्रणव की ध्वनी सुनने लगेगी| यही नादों का नाद अनाहत नाद है|
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इसकी महिमा का वर्णन करने में वाणी असमर्थ है| धीरे धीरे आगे के मार्ग खुलने लगेंगे| प्रणव परमात्मा का वाचक है| यही भगवान श्रीकृष्ण की बांसुरी की ध्वनि है जिससे समस्त सृष्टि संचालित हो रही है| इस साधना को वे ही कर पायेंगे जिन के ह्रदय में परमात्मा के प्रति अहैतुकी परम प्रेम है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

Tuesday, 28 June 2016

चित्त को कहाँ लगाएँ ........

चित्त को कहाँ लगाएँ ........
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अलादीन ने चिराग को रगडा तो एक जिन्न प्रकट हुआ| जिन्न ने कहा मेरे आक़ा मुझे हुक्म दो मैं क्या काम करूँ| अलादीन जो भी आदेश देता, जिन्न उसे तुरंत पूरा कर देता| जिन्न ने यह भी कहा कि जब तक तुम मुझसे निरंतर काम करवाते रहोगे मैं तब तक तुम्हारे वश में हूँ, जब कोई काम नहीं रहेगा तब मैं गला घोट कर तुम्हारी ह्त्या कर दूंगा|
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मनुष्य का चित्त वही जिन्न है| इसे निरंतर कहीं ना कहीं लगाए रखना पड़ता है| खाली होते ही यह मनुष्य को वासनाओं के जाल में ऐसा फँसाता है जहाँ से बाहर निकलना अति दुर्धर्ष हो जाता है| इस चित्त की वृत्तियों के निरोध को ही योग साधना कहा गया है| इस की वृत्तियाँ अधोगामी हैं, जिन्हें साधना द्वारा ऊर्ध्वगामी बना देने पर यह मनुष्य को परमात्मा तक ले जाता है|
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भगवान श्रीकृष्ण जो साकार रूप में परम ब्रह्म हैं, का आदेश है ....
"मच्चितः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि |
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि ||"

अर्थात् मुझमें ही चित्त लगा चुकने पर तूँ मेरी कृपा से इस संसार रूपी दुर्ग के सारे संकटों को पार कर लेगा| पर यदि अहङ्कार के कारण मेरी बात नहीं मागेगा तो तू विनष्ट हो जायेगा|
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अतः चित्त का अधिष्ठान "सच्चिदानन्द ब्रह्म" ही है| सारी सृष्टि का एकमात्र प्रयोजन यही है कि हम सच्चिदानंद परमात्मा में स्थित हो जाएँ| सांसारिक भोगों के लिये यह संसार नहीं बनाया गया है, यह तो परमेश्वर के ज्ञान के लिये बनाया गया है|
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परमात्मा की सुन्दर सृष्टि को सब देखते हैं, पर उसे कोई नहीं देखता|
भगवान के अनुग्रह से ही हम इस मायावी संसार को पार कर सकते हैं, निज प्रयास से नहीं| दूसरे शब्दों में जब तक हम जीव की चेतना में हैं, माया का अनंत आवरण नहीं हटेगा| परमात्मा को समर्पित होने के बाद ही उनकी ही कृपा से यह अनंत मायाजाल दूर होगा| अनंत विघ्नों को कहाँ तक पार करेंगे?
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जहाँ अहंकार होगा वहाँ विनाश ही होगा| भगवान के वचन प्रमाण हैं| उनसे ऊपर कुछ नहीं है| अतः उनकी आज्ञा माननी ही पड़ेगी|
"निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्," स्वतन्त्रता सिर्फ परमात्मा में ही है, संसार में नहीं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||

माया के सबसे बड़े शस्त्र --- "प्रमाद" और "दीर्घसूत्रता" हैं .....

माया के सबसे बड़े शस्त्र --- "प्रमाद" और "दीर्घसूत्रता" हैं .....
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(१) ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार कहते हैं ...."प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि"| अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है|
अपने "अच्युत स्वरूप" को भूलकर "च्युत" हो जाना ही प्रमाद है और इसी का नाम "मृत्यु" है। जहाँ अपने अच्युत भाव से च्युत हुए, बस वहीँ मृत्यु है , इससे आगे मृत्यु कुछ नहीं है।
जब भगवान सनत्कुमार कहते हैं कि --- "प्रमादो वै मृत्युमहं ब्रवीमि" --- अर्थात् प्रमाद ही मृत्यु है तो उनकी बात पूर्ण सत्य है| भगवान सनत्कुमार ब्रह्मविद्या के आचार्य हैं और भक्तिसुत्रों के आचार्य देवर्षि नारद के गुरु हैं| उनका कथन मिथ्या नहीं हो सकता|
ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय |
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दुर्गा सप्तशती में 'महिषासुर' --- प्रमाद --- यानि आलस्य रूपी तमोगुण का ही प्रतीक है| आलस्य यानि प्रमाद को समर्पित होने का अर्थ है -- 'महिषासुर' को अपनी सत्ता सौंपना|
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(२) आत्मविस्मृति दीर्घसूत्रता के कारण ही होती है| यह दीर्घसूत्रता सब से बड़ा दुर्गुण है जो हमें परमात्मा से दूर करता है|

दीर्घसूत्रता का अर्थ है काम को आगे के लिए टालना| साधना में दीर्घसूत्रता यानि आगे टालने की प्रवृति साधक की सबसे बड़ी शत्रु है, ऐसा मेरा निजी प्रत्यक्ष अनुभव है|
सबसे बड़ा शुभ कार्य है --- भगवान की भक्ति, जिसे आगे के लिए नहीं टालना चाहिए| जो लोग कहते हैं कि अभी हमारा समय नहीं आया, उनका समय कभी नहीं आयेगा|
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जल के पात्र को साफ़ सुथरा रखने के लिए नित्य साफ़ करना आवश्यक है अन्यथा उस पर जंग लग जाती है| एक गेंद को सीढ़ियों पर गिराओ तो वह उछलती हुई क्रमशः नीचे की ओर ही जायेगी| वैसे ही मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ (जो वासनाओं के रूप में व्यक्त होती है) अधोगामी होती है, वे मनुष्य का क्रमशः निश्चित रूप से पतन करती हैं| उनके निरोध को ही 'योग' की साधना है|
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नित्य नियमित साधना अत्यंत आवश्यक है| मन में इस भाव का आना कि थोड़ी देर बाद करेंगे, हमारा सबसे बड़ा शत्रु है| यह 'थोड़ी देर बाद करेंगे' कह कर काम को टाल देते हैं वह 'थोड़ी देर' फिर कभी नहीं आती| इस तरह कई दिन और वर्ष बीत जाते हैं| जीवन के अंत में पाते हैं की बहुमूल्य जीवन निरर्थक ही नष्ट हो गया|
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अतः मेरे अनुभव से भी प्रमाद और दीर्घसूत्रता तमोगुण है| ये ही माया का सबसे बड़े हथियार है| यह माया ही है जिसे कुछ लोग 'शैतान' या 'काल पुरुष' कहते हैं| सृष्टि के संचालन के लिए माया भी आवश्यक है| पर इससे परे जाना ही हमारा प्राथमिक लक्ष्य है|
ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

"सर्वधर्म समभाव" की परिकल्पना एक झूठ है .....

"सर्वधर्म समभाव" की परिकल्पना एक झूठ है .....
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"सर्वधर्म समभाव" .... यह किसी हिन्दुद्रोही सेकुलर मार्क्सवादी विचारक के मस्तिष्क की कल्पना है| धर्म तो एक ही है, वह अनेक कैसे हो सकता है? धर्म है और अधर्म है| धर्म का अर्थ मजहब या पंथ नहीं है|
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यदि पंथों और मज़हबों की भी तुलना करें तो जिस भी पंथ या मज़हब की साधना पद्धति से दैवीय और मानवीय गुणों का सर्वाधिक विकास होगा, वह पंथ ही सर्वश्रेष्ठ होगा| यही सिद्ध कर सकता है कि सर्वश्रेष्ठ मार्ग कौन सा है और सर्वधर्म समभाव क्या है| जो पंथ मनुष्य को असत्य और अन्धकार में ले जाए, वह किसी का आदर्श कैसे हो सकता है?
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निष्पक्ष रूप से हर मज़हब/पंथ के दो दो व्यक्तियों को लिया जाए और उन्हें बाहरी प्रभाव से दूर एकांत में कुछ महीनों के लिए रखा जाए| सब से कहा जाए की एकांत में रहते हुए अपने अपने मजहब/पंथ की साधना करें| फिर उन पर निष्पक्ष अध्ययन और शोध किया जाए की किस पंथ वाले में करुणा, प्रेम, सद्भाव और आनंद आदि गुणों का सर्वाधिक विकास हुआ है| आज तक किसी भी पंथ की श्रेष्ठता और सर्वग्राह्यता पर कोई वैज्ञानिक शोध नहीं हुआ है जो होना ही चाहिए था|
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किसी का जो भी स्वभाविक गुण-दोष है वह भी उसका धर्म है| शरीर का भी धर्म है भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, सेहत आदि| इन्द्रियों के भी धर्म हैं| मन, बुद्धि और चित्त के भी धर्म हैं| मन को यदि अनियंत्रित छोड़ दिया जाए तो मन इतना अधिक भटका देता है कि उस भटकाव से बाहर आना अति कठिन हो जाता है| मन नियंत्रण में है तो वह हमारा परम मित्र है| यह मन का धर्म है| बुद्धि का धर्म विवेक है, अन्यथा तो यह कुबुद्धि है| चित्त स्वयं को श्वास-प्रश्वास और वासनाओं के रूप में व्यक्त करता है, यह उसका धर्म है| यही चित्त की वृत्ति है जिसके निरोध को योग कहा गया है| हमारा बल प्राणों का धर्म है| सब तरह की उलझनों को छोड़कर भगवान की शरण लेना ही सब धर्मों का परित्याग और शरणागति है| शरणागति भी बहुत बड़ा धर्म है|
किसी का जो भी सर्वश्रेष्ठ स्वाभाविक गुण है वह उसका स्वधर्म है, जिसमें निधन को श्रेय दिया गया है|
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स्वधर्म की चेतना अंतर में होती है| इसका उत्तर निष्ठावान को प्रत्यक्ष परमात्मा से मिलता है| बुद्धि से यह अगम है|
>"अपने आत्म-तत्व में स्थित होना ही स्वधर्म है|"<
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मैं अपने लघु आध्यात्मिक लेखों के साथ साथ प्रखर राष्ट्र भक्ति के ऊपर भी लिखता हूँ क्योंकि मेरे लिए भारतवर्ष ही सनातन धर्म है और सनातन धर्म ही भारत है| भारत के बिना आध्यात्म की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता| परमात्मा की सर्वाधिक अभिव्यक्ति भारत में ही हुई है|
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सनातन धर्म ही भारत का भविष्य है, और भारत का भविष्य ही इस पृथ्वी का भविष्य है| इस पृथ्वी का भविष्य ही इस सृष्टि का भविष्य है| भारत का पतन धर्म का पतन है और भारत का उत्थान धर्म का उत्थान है| भारत और आध्यात्म भी एक दूसरे के पूरक हैं|
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आप सब के हृदयों में स्थित परमात्मा को मैं नमन करता हूँ| मेरी शुभ कामनाएँ और अहैतुकी प्रेम को स्वीकार करें| धन्यवाद|

सत्य सनातन धर्म की जय | भारत माता की जय | ॐ नमः शिवाय ||

Monday, 27 June 2016

आध्यात्म में क्या सारे संकल्प वृथा है?

आध्यात्म में क्या सारे संकल्प वृथा है?
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हम जब एक संकल्प करते हैं तब बीस नए विकल्प जन्म ले लेते हैं| मैं इतने नाम-जप करूँगा, इतने घंटे ध्यान करूँगा, इतने पुण्य करूँगा, आदि आदि ..... क्या ये सब संकल्प फलीभूत होते हैं? मेरे विचार से तो नहीं|
जहाँ अहंकार आ जाता है वहाँ सफलता कठिनतम और संदिग्ध हो जाती है|
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इसकी अपेक्षा भगवान से ही प्रार्थना करना और विवेक-बुद्धि से सब कुछ उन्हीं पर छोड़ना ही अधिक सार्थक होगा| सारे कर्म और उनके फल भगवान को ही समर्पित कर देने चाहिएँ, तभी सफलता मिलेगी| कर्ताभाव और कर्मफल की कामना दोनों ही त्याज्य हैं| अहङ्कार वृत्ति हमारा स्वरूप नहीं है, शुद्ध ईश्वर ही हमारा स्वरूप है| मैंने यह किया, मैंने वह किया, इस तरह की सोच हमारा अहंकार मात्र है|
सही सोच तो यह है कि भगवान ने मेरे माध्यम से यह किया, मैं तो निमित्त मात्र था|
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जिसने इस सृष्टि को रचा, जो इसकी रक्षा कर रहा है और इसे जो इसे धारण किये हुए है, वह ही एकमात्र सहारा है| वह ही कर्ता और भोक्ता है| ॐ ॐ ॐ ||

भारत की राष्ट्रभाषा 'संस्कृत' हो .....

भारत की राष्ट्रभाषा 'संस्कृत' हो .....
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यूरोप में 24 आधिकारिक भाषाएँ हैं जो सभी पूर्ण रूप से विकसित हैं| वहाँ बालकों को अपनी मातृभाषा में ही पढाया जाता है|, जिससे उनमें मौलिकता, स्वाभिमान और राष्ट्रीय गौरव की भावना बनी रहती है| ऊँची से ऊँची पढाई भी वहाँ उनकी मातृभाषा में ही है|
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हमारे लिए यह डूब मरने की और शर्म की बात है कि हमें अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाकर उनकी मौलिकता समाप्त करनी पड़ रही है|
हमसे अच्छा तो इजराइल है जिसकी कुल आबादी दिल्ली के बराबर है पर वहाँ की सारी पढाई हिब्रू भाषा में है जिसे मृत भाषा घोषित कर दिया गया था| इससे उनका राष्ट्रीय स्वाभिमान इतना जागृत हो गया है कि चारों ओर से शत्रु राष्ट्रों से घिरे होकर भी वे शान से जी रहे है|
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हमारा अधिकाँश प्राचीन साहित्य संस्कृत भाषा में है| यदि भारत की राष्ट्रभाषा स्वतन्त्रता के समय से ही संस्कृत कर दी जाती तो आज भारत विश्व का सबसे अग्रणी राष्ट्र होता|

क्या मैं यह देह हूँ ? क्या पूर्ण समष्टि ही मेरी देह नहीं है ? ....

क्या मैं यह देह हूँ ? क्या पूर्ण समष्टि ही मेरी देह नहीं है ? .....
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जब मैं इस तथाकथित मेरी देह को देखता हूँ तब स्पष्ट रूप से यह बोध होता है कि यह मूल रूप से एक ऊर्जा-खंड है, जो पहले अणुओं का एक समूह बनी, फिर पदार्थ बनी| फिर इसके साथ अन्य सूक्ष्मतर तत्वों से निर्मित मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार आदि जुड़े| इस ऊर्जा-खंड के अणु निरंतर परिवर्तनशील हैं|
इस ऊर्जा-खंड ने कैसे जन्म लिया और धीरे धीरे यह कैसे विकसित हुआ इसके पीछे परमात्मा का एक संकल्प और विचार है| ये सब अणु और सब तत्व भी एक दिन विखंडित हो जायेंगे| पर मेरा अस्तित्व फिर भी बना रहेगा|
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अब यह प्रश्न उठता है कि मैं कौन हूँ ? क्या मैं यह शरीर हूँ ?
>>>>> निश्चित रूप से मैं यह शरीर रूपी-ऊर्जा खंड नहीं हूँ <<<<<
फिर मैं कौन हूँ ?
यह सत्य है कि मैं परमात्मा के मन का एक विचार हूँ जिसे परमात्मा ने पूर्ण स्वतंत्रता दी है|
>>>> मैं परमात्मा का अमृत पुत्र हूँ| मैं और मेरे पिता एक हैं| मैं यह देह नहीं हूँ, बल्कि परमात्मा का एक संकल्प हूँ| परमात्मा की अनंतता मेरी ही अनंतता है, उनका प्रेम ही मेरा भी प्रेम है, और उनकी पूर्णता मेरी भी पूर्णता है| <<<<<
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"मैं" अपरिछिन्न और अपरोक्ष केवल एक हूँ, मेरे सिवाय अन्य किसी का अस्तित्व नहीं है| जो ब्रह्म है वह ही इस सम्पूर्णता के साथ व्यक्त हुआ है| मैं उसके साथ एक हूँ अतः निश्चित रूप से मैं यह देह नहीं अपितु प्रत्यगात्मा विकार-रहित ब्रह्म हूँ| मैं धर्म और अधर्म से परे जीवन-मुक्त और विदेह-मुक्त हूँ|
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यह मेरा अंतर्भाव है| यदि मैं स्वयं को देह मानता हूँ तो यह मेरा अहंकार होगा| मैं सर्वव्यापि आत्म-तत्व हूँ जो सत्य है| जो कुछ भी सृष्ट हुआ है, और जो कुछ भी सृष्ट होगा, वह मैं ही हूँ| पूरी समष्टि भी मैं हूँ, और जो समष्टि से परे है, वह भी मैं ही हूँ| मैं पूर्ण हूँ और परमात्मा के साथ एक हूँ|
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शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | अयमात्मा ब्रह्म | ॐ ॐ ॐ ||

Sunday, 26 June 2016

साधना का मार्ग कठिनाइयों ही कठिनाइयों से भरा है| इसका तुरंत प्राथमिक उपचार यह है .....

साधना का मार्ग कठिनाइयों ही कठिनाइयों से भरा है|
इसका तुरंत प्राथमिक उपचार यह है .....
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(1) अपने परिवेश को बदलो| जिन परिस्थितियों और जैसे वातावरण में आप रह रहे हैं, उसे बदलो| कुसंग का त्याग करो और सत्संग करो| चित्त में निरंतर परमात्मा का स्मरण प्रयासपूर्वक करते रहो| यही सबसे बड़ा सत्संग है|
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(2) कर्ताभाव का त्याग करो| सदा यह ध्यान रखो कि गुरु और परमात्मा स्वयं आपके माध्यम से साधना कर रहे हैं| सारा श्रेय और सारा फल उन्हीं को अर्पित कर दो| ध्यान के समय ह्रदय में अपने इष्ट का और सहस्त्रार में गुरु का बोध निरंतर रखो| अपनी सारी कठिनाइयाँ उन्ही को सौंप दो| कोई कामना न रहे|
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अतःकरण का शुद्ध हो जाना ही परमेश्वर की प्रसन्नता है| अन्तःकरण की शुद्धता ही सबसे बड़ी सिद्धि है|

ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

Friday, 24 June 2016

सारे शिव संकल्प प्रत्यक्ष शिव ही हैं .........

तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु .....
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सारे शिव संकल्प प्रत्यक्ष शिव ही हैं .........
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जब भी भगवान कि गहरी स्मृति आये और भगवान पर ध्यान करने कि प्रेरणा मिले तब समझ लेना कि प्रत्यक्ष भगवान वासुदेव वहीँ खड़े होकर आदेश दे रहे हैं| उनके आदेश का पालन करना हमारा परम धर्म है|
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जब भी भगवान से किसी भी समय कोई भी शुभ कार्य करने की प्रेरणा मिले तो वह शुभ कार्य तुरंत आरम्भ कर देना चाहिए| सारी शुभ प्रेरणाएँ भगवान के द्वारा ही मिलती हैं|

जब भी मन में उत्साह जागृत हो उसी समय शुभ कार्य प्रारम्भ कर देना चाहिये| भगवान ने जो आदेश दे दिया उसका पालन करने में किसी भी तरह के देश-काल शौच-अशौच का विचार करने की आवश्यकता नहीं है|
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सबसे बड़ा और सबसे बड़ा महत्वपूर्ण शुभ कार्य है ---- भगवान का ध्यान|
शुभ कार्य करने का उत्साह भगवान् की विभूति ही है| निरंतर भगवान का ध्यान करो| कौन क्या कहता है और क्या नहीं कहता है इसका कोई महत्व नहीं है|
हम भगवान कि दृष्टी में क्या हैं ---- महत्व सिर्फ इसी का है|
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय |
ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||
‪#‎कृपाशंकर‬ ‪#‎शिवसंकल्प‬

हर मनुष्य समझदार होकर अपने मत / पंथ / मजहब / Religion का चुनाव स्वयं करे .......

क्या कभी यह सम्भव होगा कि हर मनुष्य समझदार होकर अपने मत / पंथ / मजहब / Religion का चुनाव स्वयं करे ? 
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कोई ईसाई के घर में जन्मा तो ईसाई हो गया, मुसलमान के घर में जन्मा तो मुसलमान हो गया, यहूदी के घर जन्मा तो यहूदी, हिन्दू के घर जन्मा तो हिन्दू, बौद्ध के घर जन्मा तो बौद्ध हो गया ........... क्या यह पागलपन नहीं है?
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क्या कभी ऐसी व्यवस्था हो सकती है कि व्यक्ति समझदार होकर अपने मत/पंथ यानि Religion का चुनाव स्वयं करे?
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किसी भी Religion की श्रेष्ठता का क्या मापदंड हो सकता है?
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कोई शिशु समझदार तो होता ही नहीं है, उससे पूर्व ही उस पर मुखौटे ओढा दिए जाते हैं तुम फलाँ फलाँ हो| क्या यह कृत्रिमता नहीं है? मनुष्य जन्म लेता है तब कोरा कागज़ होता है, अकेला होता है, उसे जब भीड़ के साथ जोड़ दिया जाता है तब उसकी आत्मा खो जाती है|
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कम से कम समझदार होने पर हर मनुष्य को यह अवसर मिलना चाहिए कि वह यह निर्णय ले सके कि कौन सा मत/पंथ/सिद्धान्त/Religion उसके लिए सर्वाधिक अनुकूल और सर्वश्रेष्ठ है| फिर उसके निर्णय में किसी अन्य को बाधा नहीं बनना चाहिए|

ॐ तत्सत् ॐ ॐ ॐ ||
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पुनश्चः .... इस विषय पर देश-विदेश में मेरी अनेक प्रबुद्ध स्वतंत्र विचारकों से चर्चा हुई है| सबने सहमति व्यक्त की है| कई तरह तरह के विचित्र उत्तर मुझे लोगों से मिले हैं| धीरे धीरे जैसे जैसे मनुष्य की चेतना विकसित होगी, मानव जाति इसी दिशा में आगे बढ़ेगी|

Thursday, 23 June 2016

क्या भगवान के भक्त चोर है ? क्या भगवान भी चोरों के चोर हैं

क्या भगवान के भक्त चोर है ? क्या भगवान भी चोरों के चोर हैं ?
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(१) भगवान का एक नाम "हरि" है जिसका अर्थ हरने वाला यानि चोर है|
"हरति पापानि भक्तानां मनांसि वा इति हरि:।"
भगवान अपने भक्तों के मन के सारे पाप हर लेते हैं, अतः उनका एक नाम "हरि" है|
भक्त को तो पता ही नहीं चलता कि उसके पापों की चोरी भी हो गयी है| अतः ऐसे चोर से पूज्य और कौन हो सकता है जो चोरी की इच्छा को ही चुरा लेते हैं|
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(२) गोपाल सहस्त्रनाम में भगवान को "चोरजारशिखामणि" अर्थान चोरों का सरदार कहा गया है|
चोर :-- "चोरयति सर्वविषयाभिलाषम् भक्तानाम् इति |
(चोर :-- जो भक्तों की सम्पूर्ण विषयों की अभिलाषा को चुरा लेते हैं)
जार:-- जारयति संसारबीजम् अविद्याम् इति|"
(जार :-- जो भजनपरायण की संसारकारणीभूता अविद्या को जला देते हैं वे जार हैं)

इन चोर और जारों के जो शिखामणि अर्थात् सर्वश्रेष्ठ हैं । वे भगवान् श्रीब्रजेन्द्रनन्दन ही चोरजारशिखामणि हैं।
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(३) चोर का लक्षण :--
"अतिभक्तिश्चौरलक्षणम् |"
अर्थात जिसने भक्ति का अतिक्रमण कर दिया उसे अतिभक्ति कहते हैं। यही चोर का लक्षण है।
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जब से भगवान ने हमारा ह्रदय (दिल) ही चुरा लिया है तब से हमारा ह्रदय उनका ह्रदय ही हो गया है| अब हमारे पास बचा ही क्या है ? अपना कहने को कुछ भी नहीं रहा है| सब कुछ उन्हीं का हो गया है| उनका ह्रदय जो सब हृदयों का ह्रदय है, वह ही अब हमारा घर हो गया है|
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अब किसको नमन करें ? जब से सर झुका है तब से झुका ही हुआ है, और उठता ही नहीं है |
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श्री हरि | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||

प्रेम मुदित मन से कहो ...राम राम राम ....

प्रेम मुदित मन से कहो ...राम राम राम ....
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सारी सृष्टि राममय है| इस राममय सृष्टि को देखने का एक तरीका यह भी है ..... मुदित होकर सब में राम के दर्शन करो, सब को प्रसन्नता से देखो और सब के सुख की कामना मन ही मन करो| किसी को भी कष्ट में देखो तो करुणावश मन ही मन 'राम' से उसके कल्याण की कामना करो| सब को देखकर प्रसन्न होवो और किसी की निंदा मत करो|
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आप सब से जुड़े हुए हो| आपसे पृथक कोई नहीं है| आप ही हैं जो दूसरों के रूप में व्यक्त हो रहे हो| सारी सृष्टि आप ही का प्रतिबिम्ब है| ॐ ॐ ॐ ||
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प्रेम मुदित मन से कहो राम राम राम,
राम राम राम, श्री राम राम राम ||१||
पाप कटें दुःख मिटें लेत राम नाम |
भव समुद्र सुखद नाव एक राम नाम ||२||
परम शांति सुख निधान नित्य राम नाम |
निराधार को आधार एक राम नाम ||३||
संत हृदय सदा बसत एक राम नाम |
परम गोप्य परम इष्ट मंत्र राम नाम ||४||
महादेव सतत जपत दिव्य राम नाम |
राम राम राम श्री राम राम राम ||५||
मात पिता बंधु सखा सब ही राम नाम |
भक्त जनन जीवन धन एक राम नाम ||६||

अहंकार व ब्रह्मभाव में अंतर ....

अहंकार व ब्रह्मभाव में अंतर ....
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ब्राह्मी चेतना से युक्त जब कोई योग साधक "शिवोSहम् शिवोSहम् अहम् ब्रह्मास्मि" कहता है तब यह उसकी अहंकार की यात्रा यानि कोई ego trip नहीं है| यह उसका वास्तविक अंतर्भाव है|
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शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि को निज स्वरुप समझना ही अहंकार है|
वास्तव में 'अहं' केवल सर्वव्यापि आत्म-तत्व का नाम है जिसे हम नहीं समझते इसलिए अपने शरीर, मन और बुद्धि आदि को ही हम स्वयं मान लेते हैं| यही अहंकार है|
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अहं ब्रह्मास्मि यानि मैं ब्रह्म हूँ यह कहना अहंकार नहीं है|
अहंकार है स्वयं को यह देह, मन, और बुद्धि समझ लेना|
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हम परमात्मा के अंश हैं, परमात्मा के अमृतपुत्र हैं, और सच्चिदानंद के साथ एक हैं| यह होते हुए भी स्वयं को शरीर समझते हैं, यह अहंकार है|
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शरीर के धर्म हैं ..... भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी आदि| प्राणों का धर्म है बल आदि| मन का धर्म है राग-द्वेष, मद यानि घमंड आदि| चित्त का धर्म है वासनाएँ आदि| इन सब को अपना समझना अहंकार है|
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आत्मा का धर्म है ... परमात्मा के प्रति अभीप्सा और परम प्रेम| यही हमारा सही धर्म है| और भी आगे बढ़ें तो परमात्मा की सर्वव्यापकता के साथ एक होकर कह सकते हैं ..... शिवोंहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि |
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यह अनुभूति का विषय है, बुद्धि का नहीं, अतः इस विषय पर और अधिक लिखने की मेरी क्षमता नहीं है|
आप सब निजात्माओं में व्यक्त परमात्मा को मेरा नमन |
गुरु ॐ | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | अयमात्मा ब्रह्म |
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् || ॐ ॐ ॐ ||

कृपाशंकर‬ 23June2016‬

यह संसार ऐसे ही चलता रहेगा ..........

यह संसार ऐसे ही चलता रहेगा ..........
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हमारी इस लोकयात्रा का आरम्भ परमात्मा से हुआ है, और अंत भी परमात्मा में ही होगा| प्रभु की यही इच्छा है, और उनकी इस लीला का उद्देश्य भी यही है|
हमारा अस्तित्व सिर्फ दो कारणों से है ......
(1) पहला कारण है ----- परमात्मा की इच्छा |
(2) दूसरा कारण है ----- पूर्व जन्म के कर्मफलों को भोगने की बाध्यता|
अन्य कोई कारण नहीं हो सकता|
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अपने ह्रदय से पूछें कि हमारा यहाँ अस्तित्व क्यों है, हमारा कर्तव्य और दायीत्व क्या है| ह्रदय सदा सही उत्तर देगा| बुद्धि भ्रमित कर सकती है पर ह्रदय नहीं| हृदय कभी झूठ नहीं बोलता|
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मृत्यु अंतिम सत्य नहीं है| मृत्यु का कोई अस्तित्व नहीं है| सब एक रूपान्तरण है|
अनेक रहस्य हैं जो बुद्धि द्वारा अगम हैं|
सब अतृप्त वासनाओं और अपूर्ण संकल्पों से पुनर्जन्म होता है|
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फिर हम मुक्त कैसे हों ?
>>> परम प्रेम यानि पूर्ण भक्ति को जागृत कर गहन ध्यान साधना द्वारा परमात्मा की शरणागति और समर्पण ही जीवन के उद्देश्य को पूर्ण कर आवागमन से मुक्ति प्रदान कर सकता है|
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यह एक ऐसा रहस्य है जिसको समझना बुद्धि से परे है| पर भगवान ने गहन जिज्ञासा दी है अतः सोचना ही पड़ता है| कुछ रहस्य ऐसे हैं जिन्हें सृष्टिकर्ता ही जानता है| अतः प्रेमपूर्वक शरणागति, समर्पण और भक्ति के अतिरिक्त और कुछ भी हमारी तो समझ से परे है| हे प्रभु, आपकी इच्छा पूर्ण हो|
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किन्हीं अनजान लोगों ने स्वामी रामतीर्थ से पूछाः
"आप देवों के देव हैं ?"
"हाँ|"
"आप ईश्वर हैं ?"
"हाँ, मैं ईश्वर हूँ.... ब्रह्म हूँ|"
"सूरज, चाँद, तारे आपने बनाये ?"
"हाँ, जब से हमने बनाये हैं तबसे हमारी आज्ञा में चल रहे हैं|"
"आप तो अभी आये| आप की उम्र तो तीस-इक्कतीस साल की है |"
"तुम इस विषय में बालक हो| मेरी उम्र कभी हो नहीं सकती| मेरा जन्म ही नहीं तो मेरी उम्र कैसे हो सकती है ? जन्म इस शरीर का हुआ| मेरा कभी जन्म नहीं हुआ|"
न मे मृत्युशंका न में जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्मः|
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ||
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | शिवोहं शिवोहं अयमात्माब्र्ह्म ||
ॐ ॐ ॐ ||
कृपाशंकर‬ 22June2016‬

नित्य गीता पाठ का महत्व .......

नित्य गीता पाठ का महत्व .......

" गीता पाठ समायुक्तो मृतो मानुषतां वृजेत् |
गीताभ्यासःपुनः कृत्वा लभते मुक्तिमुत्तमाम् || " (गीता महात्म्य)
अर्थात् .....
गीता-पाठ करनेवाला (अगर मुक्ति होनेसे पहले ही मर जाता है,तो) मरने पर फिर मनुष्य ही बनता है और फिर गीता अभ्यास करता हुआ उत्तम मुक्तिको प्राप्त कर लेता है |

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वर्षों पहिले मैंने एक नियम बनाया था .... गीता का एक पूरा अध्याय या क्रमशः कम से कम पाँच श्लोक अर्थ सहित नित्य पाठ करने का| पर इसे मेरा दुर्भाग्य कहिये या तमोगुण का प्रभाव कि वह नियम छूट गया| मुझे इससे बड़ी ग्लानि होती थी और बार बार प्रेरणा भी मिलती थी नित्य गीतापाठ की, पर वह नियम दुबारा प्रारम्भ नहीं हो पाया जिससे मुझे बड़ी अशांति रहती थी|
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प्रभु की कृपा थी कि कल शाम को जोधपुर से स्वामी मृगेंद्र सरस्वती जी (सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र) का अचानक फोन आया और वे गीता की महिमा बताने लगे, जिसे बताते बताते उन्होंने नित्य गीता पाठ का आदेश भी दे दिया और उसकी एक नई विधी भी बता दी|
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उन्होंने आदेश दिया कि गीता पाठ से पूर्व और पश्चात वैदिक शान्तिपाठ करना है और पिछले दिन जो पाठ किया उसकी भी पुनरावृति करनी है व अर्थ समझने के लिए शंकर भाष्य का मनन करना है|
अब इतने महान संत की अवज्ञा तो कर नहीं सकते अतः उनकी आज्ञा को शिरोधार्य कर लिया|
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मेरी दृष्टी में गीता भारत का प्राण है| सनातन हिन्दू संस्कृति का आधार ही गौ, गंगा, गीता और गायत्री है| गीता में सम्पूर्ण वेदों का सार निहित है| गीता की महत्ता को शब्दों में वर्णन करना असम्भव है क्योंकि यह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली है| गीता पाठ का महत्व उतना ही है जितना नित्य संध्या का|
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स्वयं भगवान श्रीकृष्ण इसका महत्व बताते हुए कहते हैं .... कि जो पुरुष प्रेमपूर्वक निष्काम भाव से इसे भक्तों को पढ़ाएगा अर्थात् उनमें गीता का प्रचार करेगा वह निश्चय ही मुझको (परमात्मा) प्राप्त होगा ।
जो पुरुष स्वयं इस जीवन में गीता शास्त्र को पढ़ेगा अथवा सुनेगा वह सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाएगा|
अतः गीता का नित्य पाठ परम कल्याणकारी है|
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स्वामी रामसुखदास जी तो अपने हर प्रवचन से पूर्व इन श्लोकों का नित्य पाठ करते थे ....
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् | देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतनामीश्वरो$पि सन् |
प्रकृतिं स्वामधिष्ठायसम्भवाम्यात्ममायया ||
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः |
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन||
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः |
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ||
वसुदेव सुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् | देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम् ||

मेरी दृष्टी में योग का सार .........

मेरी दृष्टी में योग का सार .........
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अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस पर सभी का अभिनन्दन और शुभ कामनाएँ !
योग है ....जीवात्मा का परमात्मा से मिलन, महाशक्ति कुण्डलिनी का परमशिव से मिलन | मार्ग है .... प्रेम, प्रेम प्रेम प्रेम परमप्रेम और साधना |
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(1) स्वाध्याय ....
जितना आवश्यक हो उतना ही स्वाध्याय करो, अधिक नहीं | यानि पढो पर सिर्फ प्रेरणा प्राप्त करने के लिए ही | अधिक अध्ययन की आवश्यकता नहीं है |
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(2) खूब ध्यान करो .....
ध्यान के लिए शक्तिशाली देह, दृढ़ मनोबल, प्राण ऊर्जा और आसन की दृढ़ता चाहिए | साथ साथ परमात्मा से परम प्रेम, और शुद्ध आचार-विचार भी चाहिए |
किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य योगी से प्राणायाम, प्रत्याहार और धारणा के साथ साथ ध्यान की विधि सीख लें | प्रभु कृपा से यम नियम भी अपने आप सिद्ध हो जायेंगे | योग मार्ग में सर्वप्रथम और सबसे महत्व पूर्ण सिद्धि है .... "अंतःकरण की पवित्रता" | अंतःकरण पवित्र होगा तभी ह्रदय में प्रभु आयेंगे |
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(3) सर्वदा निरंतर परमात्मा का चिंतन करो ....
हर समय भगवान को अपनी स्मृति में रखो | सबसे बड़ी आवश्यकता भगवान की भक्ति है जिसके बिना कोई योगी नहीं हो सकता |

जिनके एक भृकुटी विलास मात्र से हज़ारों करोड़ ब्रह्मांडों की सृष्टि, स्थिति और विनाश हो सकता है, वे जब आपके ह्रदय में होंगे तो क्या संभव नहीं है|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ! अयमात्मा ब्रह्म ! ॐ ॐ ॐ !!

आने वाले विनाश के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं ...

आने वाले विनाश के लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं ....
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जो विनाशकाल आ रहा है उसके बीज तो हमने ही बोये हैं| वर्षा न होने की जिम्मेदारी पूरी मनुष्य जाति पर है| विश्व के अधिकाँश वर्षावन हमने अपने लोभ की पूर्ति के लिए नष्ट कर दिए हैं जो पूरे विश्व को प्राणवायू देते हैं|
मध्य और दक्षिण अमेरिका के अमेज़न के वन का अधिकाँश भाग जो पृथ्वी पर सबसे अधिक प्राणवायू उत्पन्न करता है नष्ट कर दिया गया है| अमेज़न के वन में पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की सर्वाधिक प्रजातियाँ निवास करती हैं| पूरी पृथ्वी पर जितने वृक्ष हैं उनका 20 प्रतिशत तो सिर्फ अमेज़न के वन में ही था| और पृथ्वी पर जितने प्रकार के पशु-पक्षी हैं उनका 10 प्रतिशत भी सिर्फ अमेज़न में ही था|
इसी प्रकार दक्षिण-पूर्वी एशिया के सघन वर्षा वनों का भी भयानक विनाश हुआ है| मध्य-पश्चिमी अफ्रीका के सघन वर्षा वन भी मनुष्य के लालच की बली चढ़ गए हैं| भारत के पश्चिमी घाट और बंगाल-आसाम में भी घने वर्षा वन अब नहीं रहे हैं|
ऑस्ट्रेलिया के उत्तर में ग्रेट बैरियर रीफ का तेजी से क्षरण हो रहा है| अंटार्कटिक में बर्फ से बना एक बहुत विशाल भूखंड पिंघल कर टूट कर अलग हो गया जिससे लाखों पक्षी मर गए| आर्कटिका में बर्फ पिन्घ्ले लगी है| हिमालय के ग्लेशियर भी धीरे धीरे पिंघलने लगे हैं| समुद्र का जलस्तर बढेगा और अनेक तटीय क्षेत्र जलमग्न हो जायेंगे|
मनुष्य का आचार-विचार भी बहुत अधिक प्रदूषित हो गया है| मनुष्य का लोभ और अहंकार ही इस सभ्यता को शीघ्र नष्ट कर देगा| महाविनाश के बाद जो भी लोग बचेंगे उनसे एक नई सभ्यता का जन्म होगा|
महाविनाश अब अधिक दूर नहीं है|

क्या परमात्मा को जाना जा सकता है ? .....

क्या परमात्मा को जाना जा सकता है ? .....
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बाल्यकाल से ही मैं यही सुनता आया हूँ कि ईश्वर की खोज ही मनुष्य जीवन का प्रथम, अंतिम और एकमात्र उच्चतम उद्देश्य है| सौभाग्य से घर-परिवार से भी ऐसे ही संस्कार मिले| भक्ति का वातावरण भी खूब मिला| पूर्व जन्मों के अनेक पुण्यों का भी उदय हुआ| इस मामले में मैं स्वयं को परम भाग्यशाली मानता हूँ कि परमात्मा के प्रति प्रेम और उन्हें उपलब्ध होने की जिज्ञासा मेरे सहज स्वभाव में ही थी, जो कि एक दुर्लभतम भाव है| सदा से ही दो तरह की प्रकृतियाँ साथ में थीं एक तो निम्न प्रकृति थी जो निरंतर विषयों की ओर खींचती, और दूसरी एक उच्च प्रकृति थी जो सदा परमात्मा की ओर आकर्षित करती| इन दोनों के बीच सदा द्वंद्व चलता रहा|
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अब तक तो मैं यही मानता आ रहा था कि जीवन का एकमात्र उद्देश्य ईश्वर की प्राप्ति ही है| पर जैसे जैसे आध्यात्मिक परिपक्वता बढती गयी वैसे वैसे जीवन का दृष्टिकोण भी बदलता गया| अब बात दूसरी है|
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खोजा तो उसको जाता है जिसको हमने कभी खोया हो| परमात्मा हमें सदा ही प्राप्त हैं| सारी सृष्टी उनकी समग्रता और उनके मन की एक कल्पना मात्र है| सारा अस्तित्व ही परमात्मा है| हमारी चेतना अज्ञानान्धकार रुपी माया के आवरण से घिरी हुई है| आवश्यकता उस आवरण को भेदने की है| जब वह अज्ञानान्धकार रूपी माया का आवरण हटेगा तब जो कुछ भी होगा वह परमात्मा ही परमात्मा होगा|
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पहली बात तो यह है कि परमात्मा कोई विषय नहीं है जिसको जानने का प्रयत्न करें| परमात्मा किसी भी तरह के ज्ञान की सीमा से परे हैं| हम उन्हें किसी भी तरह के ज्ञान में नहीं बाँध सकते क्योंकि वे रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श से परे होने के कारण बुद्धि द्वारा अगम्य हैं| सिर्फ श्रुतियां ही प्रमाण हैं|
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जिस तरह एक नमक का कोई पुतला महासागर में डूब कर महासागर ही बन जाता है, जल का एक बुलबुला महासागर में मिल कर महासागर ही बन जाता है वैसे ही परमात्मा में पूर्ण रूपेण समर्पित होकर ही परमात्मा को जाना जा सकता है| Be still and know that I am God. जो उसे जानता है वह कहता नहीं है और जो कहता है वह उसे जानता नहीं है|
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आत्मानुसंधान करते करते व्यक्ति परमात्मा को उपलब्ध हो ही जाता है| और वैसे भी हम उसे उपलब्ध ही हैं| वह कौन है जो हमारे ह्रदय में धड़क रहा है, हमारी आँखों से देख रहा है, हमारे पैरों से चल रहा है, और देह की हर गतिविधि का संचालन कर रहा है? वह परमात्मा ही है|
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परमात्मा की प्राप्ति सर्वप्रथम माता-पिता के रूप में होती है| माता-पिता दोनों परमात्मा ही हैं| फिर भाई-बहिनों, सगे-सम्बन्धियों, शत्रु-मित्रों और सभी के रूपों में परमात्मा ही आते हैं| यह सारी समष्टि परमात्मा ही है| परमात्मा के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है| आप स्वयं भी यह देह नहीं अपितु परमात्मा ही हैं|
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आप सब में हृदयस्थ परमात्मा को प्रणाम !
ॐ तत्सत् ! अयमात्मा ब्रह्म !
ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||

हमारा उच्चतम दायीत्व .....

हमारा उच्चतम दायीत्व .....
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हमारा उच्चतम दायीत्व परमात्मा के प्रति समर्पण है|
सृष्टि कि प्रत्येक शक्ति का स्त्रोत परमात्मा है| इस जन्म से पूर्व भी हमारा उन्हीं का साथ था और इस जन्म के पश्चात भी उन्हीं का साथ रहेगा| उनका साथ शाश्वत है|
>
भौतिक मृत्यु के साथ सांसारिक दायीत्व समाप्त हो जाते हैं पर परमात्मा को उपलब्ध होने तक उनके प्रति दायीत्व बना ही रहता है| जब तक हम उन्हें उपलब्ध नहीं होते, हमारे ह्रदय की तड़फ बनी ही रहेगी| वे ही हमारे सम्बन्धी, शत्रु और मित्र हैं|
>
सबसे बड़ी सेवा जो हम समाज, राष्ट्र और दूसरों के लिए कर सकते हैं, वह है परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण| हम स्वयं परमात्मा को उपलब्ध हो कर के, उस उपलब्धि के द्वारा बाहर के विश्व को एक नए साँचे में ढाल सकते हैं| सर्वप्रथम हमें स्वयं को परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित होना होगा|
फिर हमारा किया हुआ हर संकल्प पूरा होगा| तब प्रकृति की हरेक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य होगी| जिस प्रकार एक इंजन अपने ड्राइवर के हाथों में सब कुछ सौंप देता है, एक विमान अपने पायलट के हाथों में सब कुछ सौंप देता है वैसे ही हमें अपनी सम्पूर्ण सत्ता परमात्मा के हाथों में सौंप देनी चाहिए|
>
जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, भगवान उन्हें वो ही चीज देते हैं जिसे वे माँगते हैं| परन्तु जो लोग अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते, उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं, उस व्यक्ति का हर संकल्प पूरा होता है|
>
अपने लिए हमें कोई कामना नहीं रखनी चाहिये, जिससे परमात्मा हमारे माध्यम से कार्य कर सकें| परमात्मा एक प्रवाह हैं| उन्हें अपने भीतर प्रवाहित होने दें| सारे अवरोध नष्ट कर दें| हमारी एकमात्र कामना होनी चाहिए परमात्मा को उपलब्ध होना, अर्थात परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण|
>
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ
कृपाशंकर‬

परमात्मा अपरिभाष्य है ...

परमात्मा किसी भी तरह के ज्ञान की सीमा से परे हैं| हम उन्हें किसी भी तरह के ज्ञान में नहीं बाँध सकते क्योंकि वे रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श से परे होने के कारण बुद्धि द्वारा अगम्य हैं| सिर्फ श्रुतियां ही प्रमाण हैं|
जिसका अंतःकरण शुद्ध है, वही सिद्ध महात्मा है| अंतःकरण की शुद्धि ही सिद्धि है| अज्ञान की निवृत्ति ही ब्रह्म की प्राप्ति है|

पं.राम प्रसाद बिस्मिल

फाँसी पर ले जाते समय बड़े जोर से कहा .....
.........."वन्दे मातरम ! भारतमाता की जय !"
और शान्ति से चलते हुए कहा .....
"मालिक तेरी रज़ा रहे और तू ही तू रहे,
बाकी न मैं रहूँ न मेरी आरजू रहे|
जब तक कि तन में जान रगों में लहू रहे,
तेरा ही जिक्र और तेरी जुस्तजू रहे||"


फाँसी के तख्ते पर खड़े होकर आपने कहा .....
"I wish the downfall of British Empire! अर्थात मैं ब्रिटिश साम्राज्य का पतन चाहता हूँ!"
उसके पश्चात यह शेर कहा --
"अब न अह्ले-वल्वले हैं और न अरमानों की भीड़,
एक मिट जाने की हसरत अब दिले-बिस्मिल में है |"

फिर ईश्वर का ध्यान व प्रार्थना की और यह मन्त्र ---
"ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानी परासुवः यद् भद्रं तन्न आ सुवः"
पढ़कर अपने गले में अपने ही हाथों से फाँसी का फंदा डाल दिया|
रस्सी खींची गयी| पं.रामप्रसाद जी फाँसी पर लटक गये, आज जिनका ११९वाँ जन्मदिवस है|

"तेरा गौरव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें न रहें"
उन्हीं के इन शब्दों में भारत माँ के इन अमर सुपुत्र को श्रद्धांजलि|
जय जननी जय भारत | ॐ ॐ ॐ ||

पुनश्चः : >>> हिजड़ों को क्या समझ में आये आर्य वीरों की यशोगाथा !
हे पराशक्ति ! भारतवर्ष अब भ्रष्ट, कामचोर, राष्ट्र-धर्मद्रोही, झूठे और रिश्वतखोर कर्मचारियों व अधिकारियों का देश हो गया है ! इन सब का समूल नाश कर !
हे वीर प्रसूति वीरों को जन ! ॐ ॐ ॐ ||

जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं .........

हमारा जीवन ही प्रभु की चेतना से भरा हुआ हो, जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं .........
>
प्रातःकाल भोर में उठते ही परमात्मा को पूर्ण ह्रदय से पूर्ण प्रेममय होकर नमन करें, और संकल्प करें ....... "आज का दिन मेरे इस जीवन का सर्वश्रेष्ठ दिन होगा| मेरा प्रभु को समर्पण बीते हुए कल से बहुत अधिक अच्छा होगा| आज के दिन प्रभु की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति मुझमें होगी| आज की ध्यान साधना बीते हुए कल से और भी अधिक अच्छी होगी|"
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साधना की गहनता और दीर्घता से कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिए .......
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सदा ब्रह्मानंद में निमग्न रहने वाले योगी रामगोपाल मजूमदार ने बालक मुकुंद लाल घोष (जो बाद में परमहंस योगानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए) से कहा .......

"20 वर्ष तक मैं हिमालय की एक निर्जन गुफा में नित्य 18 घंटे ध्यान करता रहा| उसके पश्चात मैं उससे भी अधिक दुर्गम गुफा में चला गया| वहां 25 वर्ष तक नित्य 20 घंटे ध्यान में मग्न रहता| मुझे नींद की आवश्यकता नहीं पडती थी, क्योंकि मैं सदा ईश्वर के सान्निध्य में रहता था| ............ फिर भी ईश्वर की कृपा प्राप्त होने का विश्वास नहीं है|................. "
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परमात्मा अनंत रूप है| एक जीवन के कुछ वर्ष उसकी साधना में बीत जाना कोई बड़ी बात नहीं है| हमारा जीवन ही प्रभु की चेतना से भरा हुआ हो| जीवन में परमात्मा ही परमात्मा हो, अन्य कुछ भी नहीं|
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उस अनंत के स्वामी के दर्शन समाधी में अवश्य होंगे| उसकी कृपा भी अवश्य होगी| उसके आनंद सागर में स्थिति भी अवश्य होगी| उसके साथ स्थायी मिलन भी अवश्य होगा| जितना हम उसके लिए बेचैन हैं, उससे अधिक वह भी हमारे लिए व्याकुल है|

ॐ ॐ ॐ || ॐ गुरु ! ॐ गुरु ! ॐ गुरु !

शैवागम ..........

शैवागम‬ दर्शन के मूल वक्ता हैं स्वयं पशुपति भगवान शिव|
इसके श्रोता थे ऋषि दुर्वासा| शैवागम दर्शन के आचार्य भी दुर्वाषा ऋषि ही हैं|


इस दर्शन के अनुसार पदार्थ के तीन भेद होते हैं ----- पशु, पाश और पशुपति|
यह बहुत गहन दर्शन है इसलिय विस्तार भय से इसकी गहराई में न जाकर इसका परिचय मात्र यहाँ दे रहा हूँ|

जो पाश द्वारा आबद्ध है वह पशु है| पाशनाच्च पशवः| जीवात्मा अर्थात क्षेत्रज्ञ को ही पशु कहते हैं जो जन्म से नाना प्रकार के पाशों यानि बंधनों में बंधा रहता है| जब तक जीव सब प्रकार के पाशों यानि बंधनों से मुक्त न होकर अपने वास्तविक स्वरूप को प्राप्त नहीं होता, वह पशु ही है|

पाश शब्द का और पशुपति का अर्थ भी यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसे सब समझते है|

पशुपति सर्व समर्थ, नित्य, निर्गुण, सर्वव्यापी, स्वतंत्र, सर्वज्ञ, ऐश्वर्यस्वरुप, नित्यमुक्त, नित्यनिर्मल, अपार ज्ञान शक्ति के अधिकारी, क्रियाशक्तिसम्पन्न, परम दयावान शिव महेश्वर हैं|
शिवस्वरूप परमात्मा ही पशुपति के नाम से जाने जाते हैं| सृष्टि, स्थिति, विनाश, तिरोधान और अनुग्रह इनके पांच कर्म हैं|
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विद्या, क्रिया, योग और चर्या (आचरण) ये चार प्रकार की साधनाएँ हैं| शिष्य के देह में जो आध्यात्मिक चक्र हैं उन पर जन्म-जन्मान्तर के कर्मफल वज्रलेप की तरह चिपके हुए हैं| इस लिए जीव को शिव का बोध नहीं होता| गुरु शिष्य के चित्त में प्रवेश कर के उस आवरण को गला देते हैं| जब शिष्य के अंतर में दिव्य चेतना स्फुरित होती है तब वह साक्षात शिव भाव को प्राप्त होता है|
गुरु की चैतन्य शक्ति के बिना यह संभव नहीं है|
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उत्पलाचार्य प्रणीत "ईश्वरप्रत्यभिज्ञा", और लक्ष्मणाचार्य प्रणीत "शारदातिलक" ग्रन्थ, शैव साधना के प्रामाणिक ग्रन्थ हैं|
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शिष्य चाहे कितना भी पतित हो, सद्गुरु उसे ढूंढ निकालते हैं| फिर चेला जब तक अपनी सही स्थिति में नहीं आता, गुरु को चैन नहीं मिलता है| इसी को दया कहते हैं| यही गुरु रूप में शिवकृपा है|
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कश्मीर की महान शैव परंपरा के भी अनेक महान ग्रन्थ हैं| ये सब पहले नेपाल के राज दरबार में सुरक्षित थे| अब पता नहीं उनकी क्या स्थिति है| जिस प्रकार दुर्वासा ऋषि समस्त शैवागमों के आचार्य हैं, वैसे ही अगस्त्य ऋषि शाक्तागमों के प्रवर्तक | बिना राज्य के सहयोग के प्राचीन ग्रन्थों का संरक्षण अति कठिन है| भगवान शिव से प्रार्थना है की वे सब जीवों पर कृपा करें और अपना बोध सब को कराएं|

शिवमस्तु| ॐ तत्सत| ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !
कृपाशंकर‬

कहीं हम भटक तो नहीं रहे हैं ? .....

भगवान की भक्ति, अहैतुकी प्रेम, शरणागति और समर्पण आदि और वेदांत व योग दर्शन की बड़ी बड़ी बातें सुनने में और चर्चा करने में बहुत मीठी और अमृत के समान लगती हैं| पर व्यवहारिक रूप से करने में साधना पक्ष अति कठिन और विष के समान लगता है| यह बात दूसरी है कि साधना का परिणाम अमृत जैसा होता है|
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परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग ऐसा है जिसमें साधना तो करनी ही पड़ती है जो अत्यधिक कष्टमय परिश्रम है| गुरु तो मार्गदर्शन करते हैं, पर चलना तो स्वयं को ही पड़ता है| इसमें कोई लघुमार्ग यानि Short cut नहीं है|
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प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठना, संध्या, नामजप, अष्टांग योग आदि में बहुत अधिक उत्साह और ऊर्जा चाहिए| कहीं हम साधना के स्थान पर आध्यात्मिक/धार्मिक मनोरंजन में न फँस जाएँ|
अतः सतर्क रहें|
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सभी को शुभ कामनाएँ| ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !
सभी का कल्याण हो | ॐ ॐ ॐ ||

निकट भविष्य में भारतवर्ष निश्चित रूप से एक घोषित हिन्दू राष्ट्र होगा ...

निकट भविष्य में भारतवर्ष निश्चित रूप से एक घोषित हिन्दू राष्ट्र होगा ...
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महाराष्ट्र के परात्पर गुरु डा.जयंत आठवले जैसे महान तपस्वी गृहस्थ संत और उनके डा.चारुदत्त पिंगले जैसे अनेक गृहस्थ तपस्वी शिष्यों, और पूरे भारत के अनेक विरक्त तपस्वी साधू-संतों का ---- साधना द्वारा भारतवर्ष को हिन्दू राष्ट्र बनाने का संकल्प पूर्ण हो, यह मेरी जगन्माता से प्रार्थना है| अनेक साधक अपनी आध्यात्मिक साधना द्वारा भारतवर्ष को धर्म आधारित हिन्दू राष्ट्र बनाने को कृतसंकल्प हैं|
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भारत में सनातन धर्म आधारित राज्य व्यवस्था हो और सनातन धर्म ही भारत की राजनीति हो ----- उनके इस संकल्प में मैं मेरा भी यही संकल्प जोड़ता हूँ| असत्य और अन्धकार की शक्तियों का पूर्ण पराभव हो, सनातन धर्म की सम्पूर्ण विश्व में पुनर्स्थापना हो, और भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखण्डता के सिंहासन पर बिराजमान हो --- यही हमारी कामना है|
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अगर ईश्वर और धर्म का अस्तित्व है तो हमारा यह संकल्प अवश्य पूर्ण होगा|
सनातन धर्म और संस्कृति पर जो मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं उनका प्रतिकार करने के लिए भारत का हिन्दू राष्ट्र होना और सनातन धर्म आधारित राज्य व्यवस्था अति आवश्यक है|

जय जननी, जय भारत | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा .......

साकार रूप में परमात्मा मेरे समक्ष सर्वप्रथम माता-पिता के रूप में आये| मेरे माता और पिता दोनों साक्षात् परमात्मा थे| कोई कुछ भी कहे पर मेरे लिए वे साक्षात् उमा-महेश्वर थे|

फिर वे सभी सम्बन्धियों के रूप में, सभी मित्रों और परिचितों के रूप में आये|
सारे तथाकथित शत्रु-मित्र, परिचित और अपरिचित सभी उसी परमात्मा के रूप हैं|
सारी सृष्टि, सम्पूर्ण अस्तित्व परमात्मा का ही रूप है| मेरा होना या न होना भी परमात्मा का ही रूप है| परमात्मा से पृथक कुछ भी नहीं है|


परमात्मा‬ को निराकार या साकार किसी भी रूप में सीमित नहीं किया जा सकता|

वर्तमान चेतना में अब यदि कुछ भी साध्य है तो वह है उनकी सर्वव्यापकता, परम प्रेम, आनंद और समर्पण|

ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव !

आज हमें एक ब्रह्मशक्ति की आवश्यकता है....

भारत में आसुरी शक्तियों को पराभूत करने के लिए हमें साधना द्वारा दैवीय शक्तियों को जागृत कर उनकी सहायता लेनी ही होगी| आज हमें एक ब्रह्मशक्ति की आवश्यकता है| जब ब्रह्मत्व जागृत होगा तो क्षातृत्व भी जागृत होगा| अनेक लोगों को इसके लिए साधना करनी होगी, अन्यथा हम लुप्त हो जायेंगे|
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युवा वर्ग को चाहिए कि वे अपनी देह को तो शक्तिशाली बनाए ही, बुद्धिबल और विवेक को भी बढ़ाएँ|
उपनिषद तो स्पष्ट कहते हैं --- "नायमात्मा बलहीनेनलभ्यः|" यानी बलहीन को परमात्मा नहीं मिलते|

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उपनिषदों का ही उपदेश है --- "अश्मा भव, पर्शुर्भव, हिरण्यमस्तृताम् भव|"
यानी तूँ पहिले तो चट्टान की तरह बन, चाहे कितने भी प्रवाह और प्रहार हों पर अडिग रह|
फिर तूँ परशु की तरह तीक्ष्ण हो, कोई तुझ पर गिरे वह भी कटे और तूँ जिस पर गिरे वह भी कटे|
पर तेरे में स्वर्ण की पवित्रता भी हो, तेरे में कोई खोट न हो|
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हमारे शास्त्रों में कहीं भी कमजोरी का उपदेश नहीं है|
हमारे तो आदर्श हनुमानजी हैं जिनमें अतुलित बल भी हैं और ज्ञानियों में अग्रगण्य भी हैं|
धनुर्धारी भगवान श्रीराम और सुदर्शनचक्रधारी भगवन श्रीकृष्ण हमारे आराध्य देव हैं|
हम शक्ति के उपासक हैं, हमारे हर देवी/देवता के हाथ में अस्त्र शस्त्र हैं|
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भारत का उत्थान होगा तो एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति से ही होगा जो हमें ही जागृत करनी होगी|

ॐ ॐ ॐ ||

वीर शैव मत ...........

वीर शैव मत पर श्री Jaganath Karanje द्वारा पूछे जाने पर जितना मुझे इसके बारे में ज्ञान है वह प्रस्तुत कर रहा हूँ| मैं न तो इस मत का अनुयायी हूँ और ना ही कोइ विद्वान| जितना एक जिज्ञासु को पता हो सकता है उतना ही पता है| सिद्धांतों की गहराई में न जाकर जो ऊपरी सतह है उसी की चर्चा कर रहा हूँ|
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इस सम्प्रदाय का नाम "वीरशैव", भगवन शिव के गण 'वीरभद्र' के नाम पर पड़ा है जिन्होंने रेणुकाचार्य के रूप में अवतृत होकर वीरपीठ की स्थापना की और इस मत को प्रतिपादित किया|
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स्कन्द पुराण के अंतर्गत शंकर संहिता और माहेश्वर खंड के केदारखंड के सप्तम अध्याय में दिए हुए सिद्धांत और साधन मार्ग ही वीर शैव मत द्वारा स्वीकार्य हैं|
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इस मत के अनुयायियों का मानना है कि ------ वीरभद्र, नंदी, भृंगी, वृषभ और कार्तिकेय ---- इन पाँचों ने पांच आचार्यों के रूप में जन्म लेकर इस मत का प्रचार किया| इस मत के ये ही जगत्गुरू हैं| इन पांच आचार्यों ने भारत में पांच मठों की स्थापना की|
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(1) भगवान रेणुकाचार्य ने वीरपीठ की स्थापना कर्णाटक में भद्रा नदी के किनारे मलय पर्वत के निकट रम्भापुरी में की|
(2) भगवान दारुकाचार्य ने सद्धर्मपीठ की स्थापना उज्जैन में महाकाल मन्दिर के निकट की|
(3) भगवान एकोरामाराध्याचार्य ने वैराग्यपीठ की स्थापना हिमालय में केदारनाथ मंदिर के पास की|
(4) भगवान पंडिताराध्य ने सूर्यपीठ की स्थापना श्रीशैलम में मल्लिकार्जुन मंदिर के पास की|
(5) भगवान विश्वाराध्य ने ज्ञानपीठ की स्थापना वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर के पास की| इसे जंगमवाटिका या जंगमवाड़ी भी कहते हैं|
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वीरशैव मत की तीन शाखाएँ हैं ------- (1) लिंगायत, (2) लिंग्वंत, (३) जंगम|
सन 1160 ई. में वीरशैव सम्प्रदाय के एक ब्राह्मण परिवार में आचार्य बासव का जन्म हुआ| उन्होंने भगवान शिव की गहन साधना की और भगवान शिव का साक्षात्कार किया| उन्होंने इसी सम्प्रदाय में एक और उप संप्रदाय --- जंगम -- की स्थापना की| जंगम उपसंप्रदाय में शिखा, यज्ञोपवीत, शिवलिंग, व रुद्राक्ष धारण और भस्म लेपन को अनिवार्य मानते हैं|
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वीरशैव के अतिरिक्त अन्य भी अनेक महान शैव परम्पराएँ हैं| सब के दर्शन अति गहन हैं| सब में गहन आध्यात्मिकता है अतः उन पर इन मंचों पर चर्चा करना असंभव है| कौन सी परंपरा किस के अनुकूल है इसका निर्णय तो स्वयं सृष्टिकर्ता परमात्मा या उनकी शक्ति माँ भगवती ही कर सकती है|
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कुछ शैवाचार्यों के अनुसार सभी शैवागमों के आचार्य दुर्वासा ऋषि हैं| इति|

ॐ स्वस्ति ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ शिव शिव शिव शिव शिव !

माँ ...

वैसे तो परमात्मा --- माता. पिता, बन्धु, सखा और सर्वस्व है पर माँ के रूप में उसकी अभिव्यक्ति सर्वाधिक प्रिय है| माँ के रूप में जितनी करुणा और प्रेम व्यक्त हुआ है वह अन्य किसी रूप में नहीं| अतः परमात्मा का मातृरूप ही सर्वाधिक प्रिय है| माँ का प्रेममय ह्रदय एक महासागर की तरह इतना विस्तृत है कि उसमें हमारी हिमालय सी भूलें भी एक कंकर पत्थर से अधिक नहीं प्रतीत होतीं|
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ह्रदय की भावनाओं को व्यक्त करना चाहूँ तो मातृरूप में भी परमात्मा को कोई मानवी आकार नहीं दे सकता| जगत्जननी माँ हमारे ह्रदय का सम्पूर्ण प्रेम है जिसे पाना ही हमारे जीवन का लक्ष्य हो सकता है|
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माँ के अनेक रूप हैं पर जब साकार सौम्य रूपों की बात करते हैं तो माँ सीता जी का ही मूर्त रूप सामने आता है| हनुमान जी सीता जी की खोज में लंका गए थे, मार्ग में अनेक बाधाएँ आईं| पर सब को पार करते हुए माँ सीता जी को खोज ही लिया| हमारा जीवन भी माँ सीता जी की ही खोज है, उन्हें पाने की अभीप्सा है|
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सीता तत्व हमारे लिए जीवन की पूर्णता है, जिसे पाने के बाद और कुछ भी प्राप्य नहीं है|
वे पूर्ण प्रकाशमय प्रेममय वह अनंत हैं जिसमें सारी सृष्टि समाई है, जिसके परे अन्य कुछ भी नहीं है|
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जगन्माता ..... जीवन में यदि कुछ प्राप्त करने योग्य है तो वे ही हैं| उनसे परे कुछ भी नहीं है|
हमारा स्थान उनके ह्रदय में है| उनका साक्षात्कार, उनका प्रेम हमारे पृथक अस्तित्व की सबसे बड़ी उपलब्धि है| उनको उपलब्ध होना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार और परम कर्तव्य है|
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माँ, तुन्हारी जय हो, हमारा समर्पण स्वीकार करो|
ॐ ॐ ॐ ||

साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण ..... इन सब में भेद करना मात्र अज्ञानता है ...

साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण .......... इन सब में भेद करना मात्र अज्ञानता है|
इस सृष्टि में कुछ भी निराकार नहीं है| जो भी सृष्ट हुआ है वह साकार है|
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एक बालक चौथी कक्षा में पढ़ता है, और एक बालक बारहवीं में पढता है, सबकी अपनी अपनी समझ है| जो जिस भाषा और जिस स्तर पर पढता है उसे उसी भाषा और स्तर पर पढ़ाया जाता है| जिस तरह शिक्षा में क्रम होते हैं वैसे ही साधना और आध्यात्म में भी क्रम हैं| एक सद्गुरू आचार्य को पता होता है कि किसे क्या उपदेश और साधना देनी है, वह उसी के अनुसार शिष्य को शिक्षा देता है|
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जो लोग समाज में बड़े आक्रामक होकर मूर्ति पूजा का विरोध करते हैं, वे भी या तो अपने गुरु के भौतिक चेहरे का ध्यान करते हैं, या किसी मन्त्र का जप करते हैं| क्या यह साकार साधना नहीं है?
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वेदांत में जो ब्रह्म है, जिसे परब्रह्म भी कहते हैं, साकार रूप में वे ही भगवान श्रीकृष्ण हैं| उनकी शिक्षाएँ श्रुतियों का सार है|
किसी भी तरह के वाद-विवाद में न पड़ कर अपना समय नष्ट न करें और उसका सदुपयोग परमात्मा के अपने प्रियतम रूप के ध्यान में लगाएँ|
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ॐ तत्सत् | ॐ शिव ! ॐ शिव ! ॐ शिव !

गुरु चरणों में आश्रय और सच्ची गुरु दक्षिणा .....

गुरु चरणों में आश्रय और सच्ची गुरु दक्षिणा .....
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गुरु तो वे हैं जो सब प्रकार का अज्ञानान्धकार दूर करते हैं| वे सब नाम-रूपों से परे हैं| अंततः वे एक अनुभूति हैं, कूटस्थ ब्रह्म हैं|
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सहस्त्रार में सहस्त्रदल कमल में परम ज्योतिर्मय गुरु का निरंतर ध्यान ही सर्वश्रेष्ठ गुरु-दक्षिणा है| हमारे सर्वस्व पर सिर्फ उन्हीं का अधिकार है| वे ही इस देह रूपी नौका के कर्णधार हैं| सहस्त्रार में उनकी चेतना में निरंतर बने रहना ही वास्तव में गुरु-चरणों में आश्रय है|
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ॐ गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ ! गुरु ॐ !

यथा ब्रज गोपिकानाम् ....

"यथा ब्रज गोपिकानाम्"
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कभी कभी ईश्वर से विछोह भी अच्छा है क्योंकि उसमें मिलने का आनंद समाया होता है| मिलने में वियोग की पीड़ा भी होती है|
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वह स्थिति सब से अच्छी है जहाँ ना कोई मिलना है और ना कोई विछुड़ना| क्योंकि की जो मिलता और विछुड़ता है वह तो आप स्वयं ही हो| आपसे पृथक कुछ है ही नहीं|
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कभी जब आप एक अति उत्तुंग पर्वत के शिखर से नीचे की गहराई में झांकते हो तो वह डरावनी गहराई भी आपमें झाँकती है| ऐसे ही जब आप नीचे से अति उच्च पर्वत को घूरते हो तो वह पर्वत भी आपको घूरता है| जिसकी आँखों में आप देखते हो वे आँखें भी आपको देखती हैं| जिससे भी आप प्रेम या घृणा करते हो उससे वैसी ही प्रतिक्रिया कई गुणा होकर आपको ही प्राप्त होती है|
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वैसे ही जब आप प्रभु को प्रेम करते हो तो वह प्रेम अनंत गुणा होकर आपको ही प्राप्त होता है| वह प्रेम आप स्वयं ही हो| प्रभु में आप समर्पण करते हो तो प्रभु भी आपमें समर्पण करते हैं| जब आप उनके शिवत्व में विलीन हो जाते हो तो आप में भी वह शिवत्व विलीन हो जाता है और आप स्वयं साक्षात् शिव बन जाते हो| जहाँ ना कोई क्रिया-प्रतिक्रिया है, ना कोई मिलना-बिछुड़ना, जहाँ कोई अपेक्षा या माँग नहीं है, जो बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा से भी परे है, वह असीमता, अनंतता व सम्पूर्णता आप स्वयं ही हो|
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आपका पृथक अस्तित्व उस परम प्रेम और परम सत्य को व्यक्त करने के लिए ही है|
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ॐ शिव | शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि | ॐ ॐ ॐ ||

मेरा अपना स्वराज्य ......

मेरा अपना स्वराज्य .....
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परमात्मा का दिया हुआ एक मेरा अपना स्वराज्य है जिसमें किसी का भी हस्तक्षेप नहीं है| मैं अपने राज्य में बहुत सुखी हूँ| उस साम्राज्य में सारी सृष्टि .... सारी आकाश गंगाएँ, सारे चाँद, तारे, नक्षत्र और परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्तियाँ हैं| जो भी सृष्ट हुआ है, वह सब उस साम्राज्य के भीतर है| उस से बाहर कुछ भी नहीं है|
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वह साम्राज्य भाव-जगत से भी परे कूटस्थ चैतन्य का है| जगन्माता के रूप में परमात्मा स्वयं उसका संचालन और रक्षा कर रहे हैं|
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उस साम्राज्य में सिर्फ प्रेम ही प्रेम और आनंद ही आनंद है| परमात्मा सदा मुझे उसी चेतना में रखे जहाँ समस्त सृष्टि मेरा परिवार है, और समस्त ब्रह्मांड मेरा घर| वही मेरा संसार है| मेरा केंद्र सर्वत्र है, पर परिधि कहीं भी नहीं|
वहाँ कोई अन्धकार नहीं है, सर्वत्र प्रकाश ही प्रकाश है|

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ॐ तत्सत् | ॐ श्री गुरवे नमः | ॐ ॐ ॐ ||

ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत परमात्मा है ......

ज्ञान का एकमात्र स्त्रोत है ---- 'परमात्मा'|
पुस्तकों से ज्ञान नहीं मिलता है| पुस्तकों से सूचना मात्र मिलती है|
ज्ञान बाहर नहीं है|
समस्त ज्ञान आपके स्वयं के भीतर है जो परमात्मा की कृपा से ही अनावृत होता है|
ॐ तत्सत्|

पूर्णता कहाँ है ?

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

पूरे जीवन में मैं अब तक अपने से बाहर ही पूर्णता ढूंढता रहा पर पूर्णता का कहीं आभास भी नहीं मिला| पर अब लग रहा है कि -------- पूर्णता कहीं मिलेगी तो अंतर में ही मिलेगी|
अब तक मिली तो नहीं है पर लग रहा है कि अवश्य ही मिल जाएगी|
पर अंतर से कोई बहुत सारी शर्तें थोप रहा है| लगता है पूर्णता ही अपनी कीमत माँग रही है| निःशुल्क तो कुछ भी नहीं है|
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अतः आप सब से यही कह सकता हूँ कि पूर्णता को ढूंढें तो अवश्य पर उसकी कीमत भी चुकाने को तैयार रहें|
चलो बता ही देता हूँ कि इसकी क्या कीमत है|
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इसकी कीमत है ------- "प्रभु के प्रति अहैतुकी सम्पूर्ण समर्पण"
यानि Total unconditional surrender to the Divine.

ॐ तत्सत | ॐ शांति शांति शांति ||

Sunday, 19 June 2016

परस्त्री और पर धन की कामना, दूसरो का अहित और अधर्म की बाते सोचना हमारे मन के पाप हैं, जिनका दंड भुगतना ही पड़ता है..

परस्त्री और पर धन की कामना, दूसरो का अहित और अधर्म की बाते सोचना हमारे मन के पाप हैं, जिनका दंड भुगतना ही पड़ता है|
ऐसे ही असत्य और अहंकार युक्त वचन, पर निंदा, हिंसा, अभक्ष्य भक्षण, और व्यभिचार हमारे शरीर के पाप हैं, जिनका भी दंड भुगतना ही पड़ता है|
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वर्तमान समय में अन्नदान, जलदान और वृक्षारोपण परम पुण्यदायी हैं|
ॐ ॐ ॐ ||

'वयं तव' (हम तुम्हारे हैं) .....

'वयं तव' (हम तुम्हारे हैं) .....
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जब हम अपने प्रेम को व्यक्त करते हुए इस निर्णय पर पहुँच जाते हैं कि हे प्रभु हम सदा सिर्फ तुम्हारे हैं, तब माँगने के लिए बाकी कुछ भी नहीं रह जाता|
कुछ माँगना ही क्यों? प्रेम में कोई माँग नहीं होती, सिर्फ समर्पण होता है|
कुछ माँगना एक व्यापार होता है, देना ही सच्चा प्रेम है|
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'वयं तव' ..... एक सिद्ध वेदमन्त्र है|
इस स्वयंसिद्ध वाणी में साधना की चरम सच्चाई निहित है|
यह भाव ..... परम भाव है|
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मनुष्य के जीवन का केंद्र बिंदु परब्रह्म परमात्मा है जिसमें शरणागति और समर्पण अनिवार्य है| जिस क्षण जीवन के हर कर्म के कर्ता परब्रह्म परमात्मा बन जायेंगे, उसी क्षण से हमारा अस्तित्व मात्र ही इस सृष्टि के लिए वरदान बन जायेगा
यह उच्चतम भाव है|
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मनुष्य की देह का केंद्र नाभि है| जब नाभि अपने केंद्र से हट जाती है तब देह की सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाती है| वैसे ही जब हम अपने जीवन के केंद्रबिंदु परमात्मा को अपने जीवन से हटा देते हैं तब हमारा जीवन भी गड़बड़ा जाता है|
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भगवान के पास सब कुछ है, पर एक चीज नहीं है, जिसके लिए वे भी तरसते हैं|
हमारे पास जो कुछ भी है वह भगवान का ही दिया हुआ है| हमारे पास अपना कहने के लिए सिर्फ एक ही चीज है, जिसे हम भगवान को अर्पित कर सकते हैं, और वह है हमारा अहैतुकी पूर्ण परम प्रेम| भगवान सदा हमारे प्रेम के लिए तरसते हैं| अपना समस्त अहंभाव, अपनी पृथकता का बोध, अपना पूर्ण प्रेम परमात्मा को समर्पण कर दीजिये| यही जीवन की सार्थकता है|
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भक्त और भगवान..... एक दुसरे में डूबे हुए ..... दोनों कितने प्यारे हैं ..... बिना एक दूसरे के दोनों अधूरे हैं ..... जीवन कैसा भी हो, सौंदर्य यही है ..... सचमुच... जीवन यही है|
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हम तुम्हारे हैं, मैं तुम्हारा हूँ | यह कभी ना भूलें |
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ||

सुना है तुम पतित-पावन, परम दयालू और भक्तवत्सल हो .....

सुना है तुम पतित-पावन, परम दयालू और भक्तवत्सल हो .....
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बस यही सुनकर मैं निराश नहीं हुआ हूँ, अन्यथा अन्यत्र कोई आशा की किरण जीवन में नहीं है| तुम नाथों के नाथ हो, इसलिए तुम्हारी शरणागति में आया कोई कभी अनाथ नहीं हो सकता| समस्त महिमा तुम्हारी ही है, मेरा तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है और कुछ भी नहीं है|
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मेरी अति घोर पतित निम्न-प्रकृति से अधिक पतित अन्य कुछ भी नहीं है, पर उससे मुक्ति भी तुम ही निश्चित रूप से दिलाओगे, क्योंकि तुम पतित-पावन और परम दयालू हो| मेरी निम्न-प्रकृति ही मेरी एकमात्र बाधा है, उससे मुक्ति दिलाओ| मैं तुम्हारी शरणागत हूँ| त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम् |
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तुम वांछा कल्पतरु हो| तुम्हारी चरण सन्निधि में शरणागति और सम्पूर्ण समर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई कामना कभी ह्रदय में उत्पन्न ही ना हो| सब कुछ तुम्हारा है, मेरा कुछ भी नहीं| मैं भी तुम्हारा ही हूँ और सदा तुम्हारा ही रहूँगा| मेरा सम्पूर्ण प्रेम तुम्हें अर्पित है, स्वीकार करो|
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त्राहिमाम् त्राहिमाम् त्राहिमाम् | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मनुष्य की निम्न प्रकृति है .......

परमात्मा के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा मनुष्य की निम्न-प्रकृति है जो अवचेतन मन में राग-द्वेष और अहंकार के रूप में व्यक्त होती है| इससे निपटना मनुष्य के वश की बात नहीं है, चाहे कितनी भी दृढ़ इच्छा शक्ति और संकल्प हो|
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जहाँ राग-द्वेष व अहंकार होगा वहीं काम, क्रोध और लोभ भी स्वतः ही बिना बुलाये आ जाते हैं| ये मनुष्य को ऐसे चारों खाने चित्त पटकते हैं कि वह असहाय हो जाता है|
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बिना वीतराग हुए आध्यात्मिक प्रगति असम्भव है जिस के लिए परमात्मा की कृपा अत्यंत आवश्यक है| बिना प्रभुकृपा के एक कदम भी आगे बढना असम्भव है| यहीं भगवान की भक्ति, शरणागति और समर्पण काम आते हैं|
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ ॐ ॐ ||

योग साधना का उद्देश्य है --- परम शिवभाव को प्राप्त करना .....

योग साधना है सूक्ष्म देह में मूलाधारस्थ कुण्डलिनी महाशक्ति को जागृत कर उसका सहस्त्रार में परमशिव से एकाकार करना यानि जोड़ना | यह कुण्डलिनी जागृत होकर साधक को ही जागृत करती है | योग साधना का उद्देश्य है .... परम शिवभाव को प्राप्त करना |
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चित्तवृत्ति निरोध एक साधन है साध्य नहीं| चित्त स्वयं को दो रूपों --- वासनाओं व श्वाश-प्रश्वाश के रूप में व्यक्त करता है| वासनाएँ तो अति सूक्ष्म हैं जो पकड़ में नहीं आतीं| अतः आरम्भ में गुरु-प्रदत्त बीज मन्त्रों के साथ श्वाश पर ध्यान किया जाता है| इससे मेरुदंड में प्राण शक्ति का आभास होता है जिसके नियंत्रण से वासनाओं पर नियंत्रण होता है| आगे का मार्ग बहुत लम्बा है जिस पर साधक गुरुकृपा से अग्रसर होता रहता है|
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योगी वही हो सकता जो स्वभाव से ही योगी हो ......
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भगवन श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है .....
"तपस्विभ्योधिको योगी ज्ञानिभ्योsपि मतोsधिक:|
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्मात् योगी भवार्जुन:||"
तपस्वी, ज्ञानी और कर्मशील से भी अधिक योगी का महत्व बताकर भगवन श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योगी बनने का उपदेश दिया है| अब प्रश्न यह उठता है की योगी कैसे बना जाए|
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योगी गुरु की कृपा के बिना कभी कोई योगी नहीं बन सकता है| वास्तविक आध्यात्मिक जीवन को पाने के लिए हरेक साधक को हर क्षण गुरु प्रदत्त साधना के सहारे जीना आवश्यक है|
जब एक बार स्वभाव में योग साधना बस जाये तो गुरुशक्ति ही साधक को साधना के चरम उत्कर्ष पर पहुँच देती है| इसके लिए आवश्यक है गुरु पर अटल विश्वाश और पूर्ण आत्मसमर्पण| स्वभाव है स्व का भाव |
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सुषुम्ना पथ के न खुलने तक अर्थात सुषुम्ना पथ पर प्राण वायु के गमनागमन न होने तक कोई भी व्यक्ति योगी नहीं बन सकता है|
श्वास-प्रश्वाश भौतिक रूप से तो नाक से ही चलता है पर उसकी अनुभूति मेरुदंड में होती है| श्वाश-प्रश्वाश तो एक प्रतिक्रिया है, क्रिया नहीं| प्राण तत्व जो मेरुदंड में संचारित होता है, उसी की प्रतिक्रया है सांस|

इति | शिवमस्तु | ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय !

भगवान ही हमारे एकमात्र आश्रय है .........

सुख की खोज हमारे जीवन का लक्ष्य नहीं है| हमारा एकमात्र लक्ष्य है .... परब्रह्म परमेश्वर को खोजना व उन्हें व्यक्त करना| यही भगवान की सेवा है|
हानि-लाभ, सुख-दुःख और जन्म-मरण .... इन सब का कारण हमारे स्वयं के विचारों व भावों के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है|
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हमारे विचार, सोच और भाव ही हमारे कर्म हैं| ये सब मायावी दलदल है| जितना निकलने का प्रयास करते हैं, उतना ही फँसते जाते हैं| दूसरा कोई हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता| अपने शत्रु और मित्र हम स्वयं हैं|
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हर संकल्प, हर इच्छा या कामना पूर्ण अवश्य होती है पर साथ में दुःखदायी कर्मों की सृष्टि भी कर देती है| ये ही पाप-पुण्य हैं| सृष्टि की रचना ही ऐसी है|
हमारे मनीषियों ने काम (कामना), क्रोध, लोभ, मोह, मद (अहंकार) और मत्सर्य (ईर्ष्या) को नर्क के द्वार बतलाये हैं, जो सत्य है|
अतः हमारा हर संकल्प .... शिव संकल्प हो| समष्टि के प्रति कल्याण की शुभ कामना ही हमारा कल्याण करेगी|
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इस मायावी दलदल से निकलने का एक ही मार्ग है और वह है ---- परमात्मा को समपर्ण, पूर्ण समर्पण| वहीँ यह भाव काम आता है कि मैं तुम्हारा हूँ|
अपने अच्छे-बुरे सब कर्म भगवान को बापस सौंप दो| उन्हें ही जीवन का कर्ता बनाओ| किसी के प्रति द्वेष, घृणा और क्रोध मत रखो| सबके कल्याण की कामना करो, उनकी शरण लो और उन्हें ही समर्पित होने की साधना करो| कल्याण होगा| हमारा आश्रय भगवान ही हैं| उन्हें किसी भी नाम से पुकारो| वे सदा हमारे ह्रदय में हैं और हम सदा उनके ह्रदय में हैं| यह सारा ब्रह्मांड हमारा घर है और सारी सृष्टि हमारा परिवार| यह उन्हीं की अभिव्यक्ति है और हम उन्हीं के हैं|
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सीमित व अशांत मन से ही सारे प्रश्नों का जन्म होता है| जब मन शांत व विस्तृत होता है तब सारे प्रश्न तिरोहित हो जाते हैं| चंचल प्राण ही मन है| प्राणों में जितनी स्थिरता आती है, मन उतना ही शांत और विस्तृत होता है| प्राणों में स्थिरता आती है प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से|
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अहंकार एक अज्ञान है| यह अज्ञान भी ध्यान साधना द्वारा ही दूर होता है| कोई भी साधना हो वह तभी सफल होती है जब ह्रदय में भक्ति (परम प्रेम) और अभीप्सा हो| इनके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमो भगवते वासुदेवाय | ॐ शिव | ॐ ॐ ॐ ||

परमात्मा के बारे में क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?

हम विश्व यानि परमात्मा की सृष्टि के बारे में अनेक धारणाएँ बना लेते हैं .........
फलाँ गलत है और फलाँ अच्छा, क्या हमारी इन धारणाओं का कोई महत्व या औचित्य है ?
ईश्वर कि सृष्टि में अपूर्णता कैसे हो सकती है जबकि ईश्वर तो पूर्ण है ?
क्या हमारी सोच ही अपूर्ण है ?
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हे प्रभु, तुम्हें इसी क्षण यहाँ आना ही पडेगा जहाँ तुमने मुझे रखा है| न तो तुम्हारी माया को और न तुम्हें ही जानने या समझने की कोई इच्छा है| अब तुम और छिप नहीं सकते| तुम्हें इसी क्षण यहाँ अनावृत होना ही पड़ेगा|
मेरा समर्पण पूर्ण हो| आपकी जय हो|

हमारा उच्चतम दायीत्व .....

हमारा उच्चतम दायीत्व परमात्मा के प्रति समर्पण है|
सृष्टि कि प्रत्येक शक्ति का स्त्रोत परमात्मा है| इस जन्म से पूर्व भी हमारा उन्हीं का साथ था और इस जन्म के पश्चात भी उन्हीं का साथ रहेगा| उनका साथ शाश्वत है|
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भौतिक मृत्यु के साथ सांसारिक दायीत्व समाप्त हो जाते हैं पर परमात्मा को उपलब्ध होने तक उनके प्रति दायीत्व बना ही रहता है| जब तक हम उन्हें उपलब्ध नहीं होते, हमारे ह्रदय की तड़फ बनी ही रहेगी| वे ही हमारे सम्बन्धी, शत्रु और मित्र हैं|
>
सबसे बड़ी सेवा जो हम समाज, राष्ट्र और दूसरों के लिए कर सकते हैं, वह है परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण| हम स्वयं परमात्मा को उपलब्ध हो कर के, उस उपलब्धि के द्वारा बाहर के विश्व को एक नए साँचे में ढाल सकते हैं| सर्वप्रथम हमें स्वयं को परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित होना होगा|
फिर हमारा किया हुआ हर संकल्प पूरा होगा| तब प्रकृति की हरेक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य होगी| जिस प्रकार एक इंजन अपने ड्राइवर के हाथों में सब कुछ सौंप देता है, एक विमान अपने पायलट के हाथों में सब कुछ सौंप देता है वैसे ही हमें अपनी सम्पूर्ण सत्ता परमात्मा के हाथों में सौंप देनी चाहिए|
>
जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, भगवान उन्हें वो ही चीज देते हैं जिसे वे माँगते हैं| परन्तु जो लोग अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते, उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं, उस व्यक्ति का हर संकल्प पूरा होता है|
>
अपने लिए हमें कोई कामना नहीं रखनी चाहिये, जिससे परमात्मा हमारे माध्यम से कार्य कर सकें| परमात्मा एक प्रवाह हैं| उन्हें अपने भीतर प्रवाहित होने दें| सारे अवरोध नष्ट कर दें| हमारी एकमात्र कामना होनी चाहिए परमात्मा को उपलब्ध होना, अर्थात परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण|
>
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

गायत्री मन्त्र पर परिचयात्मक एक लघु लेख .

प्राचीन भारत ने ही विश्व को सब कुछ दिया| दुर्भाग्य से भारत के सेकुलरवादी लोग भारत के प्राचीन गौरव को छिपा रहे हैं| शिक्षा, संस्कृति, स्वास्थ्य, चिकित्सा, समाजविज्ञान, कृषि और पशुपालन सब प्राचीन भारत की ही देन है| प्राचीन काल से ही समस्त भौतिक और आध्यात्मिक ज्ञान भारत ने ही विश्व को दिया था अतः भारत जगद्गुरु था| भारत के लोग देवता कहलाते थे|
इन सब के मूल में थी भारत की संस्कृति| भारतीय संस्कृति को भी शक्ति कहाँ से मिलती थी इसको यदि एक ही शब्द में समझना चाहें तो वह है ..... "गायत्री मन्त्र" ....| भारतीय संस्कृति को समझने के लिए गायत्री मन्त्र को समझना आवश्यक है| गायत्री मन्त्र ही तत्व-ज्ञान और ब्रह्म-विद्या का स्त्रोत है|
गायत्री और सावित्री एक ही ब्रह्मशक्ति के नाम हैं| इस संसार में सत-असत जो कुछ हैं, वह सब ब्रह्मस्वरूपा गायत्री ही है| जिस प्रकार पुष्पों का सार मधु, दूध का सार घृत और रसों का सार पय है, उसी प्रकार गायत्री मन्त्र समस्त वेदों का सार है| गायत्री वेदों की जननी और पाप-विनाशिनी हैं, गायत्री-मन्त्र से बढ़कर अन्य कोई पवित्र मन्त्र पृथ्वी पर नहीं है| इस मन्त्र के देवता 'सविता' हैं| गायत्री-मन्त्र सभी वैदिक संहिताओं में प्राप्त होता है| गायत्री मन्त्र के दर्शन अनेक ऋषियों को हुए| गायत्री मन्त्र अनादि काल से है| इस पर बहुत अधिक शोध की आवश्यकता है|
वेद अपौरुषेय हैं, उन्हें बिना परमात्मा की कृपा के नहीं समझा जा सकता|
प्राचीन ऋषि लोग गायत्री मन्त्र को जपने से पूर्व ... भू र्भुवः स्वः , इन तीन व्याहृतियों को उच्चारित कर लेते थे| इन्हें महाव्याहृति भी कहा जाता है| ऋषिगण ॐ कार का उच्चारण कर उसी में समाहित (ध्यानमग्न) हो जाते थे|
इसलिए भगवान मनु ने 'स प्रणव व्याहृति' के संग गायत्री पाठ का परामर्श दिया है जिसका अन्य भी शास्त्रकारों ने समर्थन किया है|

Saturday, 18 June 2016

सबसे बड़ी सेवा, सबसे बड़ा कर्तव्य, और मोक्ष की अवधारणा ......

यह निश्चित रूप से मेरा मत है कि जब भारतवर्ष की अस्मिता सनातन धर्म पर इतने कुटिल. क्रूर और मर्मान्तक प्रहार हो रहे हैं तब व्यक्तिगत मोक्ष और कल्याण की कामना धर्म नहीं हो सकती| मोक्ष की हमें व्यक्तिगत रूप से कोई आवश्यकता नहीं है| आत्मा तो नित्य मुक्त है, बंधन केवल भ्रम मात्र हैं|
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मोक्ष की अवधारणा ..........
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(1) उपनिषदों में अद्वैतानुभूती से प्राप्त आनंद की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनंद में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है| वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन, द्वारा अविद्याकृत नानात्व का विनाश कर ब्रह्मस्वरूप आत्मसाक्षात्कार करना होताहै| मुमुक्षु "तत्वमसि" से "अहंब्रह्मास्मि" की ओर बढ़ता है| यहाँ आत्मसाक्षात्कार को ही मोक्ष माना गया है| वेदांत में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है|
(2) भक्ति में भगवान का सान्निध्य और शरणागति द्वारा समर्पण ही मोक्ष है|
(3) सांसारिक लोग समझते हैं कि संसार से मुक्ति ही मोक्ष है| संसार में आवागमन, जन्म-मरण और इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष माना जाता है, और इसे अंतिम परिणिति मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है|
पर संसार से मुक्ति असम्भव है| जीव उच्चतर लोकों व सूक्ष्मतर देहों में जा सकता है पर रहेगा सृष्टि के घेरे में ही| जब पुण्य/पाप क्षीण हो जायेंगे तब बापस तो आना ही पड़ेगा| मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है|
(4) जब तक देह बोध है तब तक देह व उससे जुड़ी हर वस्तु से मोह भी बना ही रहेगा| व्यष्टि की चेतना से मुक्त होकर जब प्राणी समष्टि की चेतना से युक्त हो जाता है, तब वह सब तरह के मोह से मुक्त हो जाता है| सब तरह के मोह का क्षय ही मोक्ष है|
पर ऐसी स्थिति आती है गहन साधना और जीवन्मुक्त सिद्ध गुरु की कृपा से| इसके लिए साधना द्वारा सब प्रकार के संचित कर्मों से मुक्त और सब ऋणों से उऋण भी होना पड़ता है| धर्म और राष्ट्र का भी एक ऋण होता है हर व्यक्ति पर| धर्माचरण हमारा सबसे बड़ा दायीत्व है| भगवान भी धर्म की रक्षा के लिए अवतृत होते हैं|
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सबसे बड़ी सेवा और सबसे बड़ा कर्तव्य .....
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सबसे बड़ी सेवा जो हम समाज, राष्ट्र और दूसरों के लिए कर सकते हैं, वह है परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण| हम स्वयं परमात्मा को उपलब्ध हो कर के, उस उपलब्धि के द्वारा बाहर के विश्व को एक नए साँचे में ढाल सकते हैं| सर्वप्रथम हमें स्वयं को परमात्मा के प्रति पूर्णतः समर्पित होना होगा|
फिर हमारा किया हुआ हर संकल्प पूरा होगा| तब प्रकृति की हरेक शक्ति हमारा सहयोग करने को बाध्य होगी| जिस प्रकार एक इंजन अपने ड्राइवर के हाथों में सब कुछ सौंप देता है, एक विमान अपने पायलट के हाथों में सब कुछ सौंप देता है वैसे ही हमें अपनी सम्पूर्ण सत्ता परमात्मा के हाथों में सौंप देनी चाहिए|
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मुट्ठी भर संकल्पवान लोग जिनकी अपने लक्ष्य में दृढ़ आस्था है , इतिहास की धारा को बदल सकते हैं| एक दृढ़ संकल्पवान व्यक्ति का संकल्प पूरे विश्व को बदल सकता है| आप का दृढ़ संकल्प भी भारत के अतीत के गौरव और सम्पूर्ण विश्व में सनातन हिन्दू धर्म को पुनर्प्रतिष्ठित कर सकता है|
भारत की सभी समस्याओं का निदान हमारे भीतर है|
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जो लोग भगवान से कुछ माँगते हैं, भगवान उन्हें वो ही चीज देते हैं जिसे वे माँगते हैं| परन्तु जो लोग अपने आप को दे देते हैं और कुछ भी नहीं माँगते, उन्हें वे अपना सब कुछ दे देते हैं, उस व्यक्ति का हर संकल्प पूरा होता है|
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अपने लिए हमें कोई कामना नहीं रखनी चाहिये, जिससे परमात्मा हमारे माध्यम से कार्य कर सकें| उन्हें अपने भीतर प्रवाहित होने दें| सारे अवरोध नष्ट कर दें| हमारी एकमात्र कामना होनी चाहिए परमात्मा को उपलब्ध होना, अर्थात परमात्मा के प्रति पूर्ण समर्पण|
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सारी सृष्टि का भविष्य इस पृथ्वी पर निर्भर है, इस पृथ्वी का भविष्य भारतवर्ष पर निर्भर है, और भारतवर्ष का भविष्य सनातन हिन्दू धर्म पर निर्भर है, सनातन हिन्दू धर्म का भविष्य आप के संकल्प पर निर्भर है| और भी स्पष्ट शब्दों में आप पर ही पूरी सृष्टि का भविष्य निर्भर है|
धर्मविहीन राष्ट्र और समाज से इस सृष्टि का ही विनाश निश्चित है|
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भारत माँ अपने पूर्ण वैभव के साथ पुनश्चः अखण्डता के सिंहासन पर निश्चित रूप से बिराजमान होगी| भारत के घर घर में वेदमंत्रों की ध्वनियाँ गूंजेगीं| पूरा भारत पुनश्चः अखंड हिन्दू राष्ट्र होगा और धर्म आधारित राज्य सत्ता होगी| ब्रह्मतेजमय एक प्रचंड आध्यात्मिक शक्ति भारतवर्ष का अभ्युत्थान करेगी| यह कार्य सांसारिक राजनीतिक लोगों द्वारा संभव नहीं है|
कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं होगा| राम राज्य फिर से स्थापित होगा|
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वह दिन देखने को हम जीवित रहें या ना रहें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता| अनेक बार जन्म लेना पड़े तो भी यह कार्य संपादित होते हुए ही हम देखेंगे| इसमें मुझे कोई भी संदेह नहीं है|
अब आवश्यकता है सिर्फ अपन सब के विचारपूर्वक किये हुए सतत संकल्प और प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण की|
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पूरी सृष्टि में परमात्मा की सबसे अधिक अभिव्यक्ति भारतवर्ष में ही हुई है| भारत से सनातन हिन्दू धर्म नष्ट हुआ तो इस विश्व का विनाश भी निश्चित है| वर्त्तमान अन्धकार का युग समाप्त हो चुका है| बाकि बचा खुचा अन्धकार भी शीघ्र दूर हो जाएगा| अतीत के कालखंडों में भी अनेक बार इस प्रकार का अन्धकार छाया है पर विजय सदा सत्य की ही रही है|
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परमात्मा के एक संकल्प से यह सृष्टि बनी है| आप भी एक शाश्वत आत्मा हैं| आप भी परमात्मा के एक दिव्य अमृत पुत्र हैं| जो कुछ भी परमात्मा का है वह आपका ही है| आप कोई भिखारी नहीं हैं| परमात्मा को पाना आपका जन्मसिद्ध अधिकार है| आप उसके अमृत पुत्र हैं|
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जब परमात्मा के एक संकल्प से इस विराट सृष्टि का उद्भव और स्थिति है तो आपका संकल्प भी भारतवर्ष का अभ्युदय कर सकता है क्योंकि आप स्वयं परमात्मा के अमृतपुत्र हैं| जो भगवान् का है वह आप का ही है| आपके विशुद्ध अस्तित्व और प्रभु में कोई भेद नहीं है| आप स्वयं ही परमात्मा हैं जिसके संकल्प से धर्म और राष्ट्र का उत्कर्ष हो रहा है| आपका संकल्प ही परमात्मा का संकल्प है|
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वर्तमान में जब धर्म और राष्ट्र के अस्तित्व पर मर्मान्तक प्रहार हो रहे है तब व्यक्तिगत कामना और व्यक्तिगत स्वार्थ हेतु साधना उचित नहीं है|
जो साधना एक व्यक्ति अपने मोक्ष के लिए करता है वो ही साधना यदि वो धर्म और राष्ट्र के अभ्युदय के लिए करे तो निश्चित रूप से उसका भी कल्याण होगा| धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करता है| हमारा सर्वोपरि कर्त्तव्य है धर्म और राष्ट्र की रक्षा|
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धर्म कि रक्षा धर्माचरण द्वारा ही हो सकती है| आप धर्म की रक्षा करेंगे तो धर्म भी आप की रक्षा करेगा| धर्म की रक्षा आप का सर्वोपरि कर्तव्य है
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एक छोटा सा संकल्प रूपी योगदान आप कर सकते हैं| जब भी समय मिले शांत होकर सीधे बैठिये| दृष्टि भ्रूमध्य में स्थिर कीजिये| अपनी चेतना को सम्पूर्ण भारतवर्ष से जोड़ दीजिये| यह भाव कीजिये कि आप यह देह नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतवर्ष हैं| एक दिव्य अनंत प्रकाश की कल्पना कीजिये जो आपका अपना ही प्रकाश है| आप स्वयं ही वह प्रकाश हैं| वह प्रकाश ही सम्पूर्ण भारतवर्ष है| उस प्रकाश को और भी गहन से गहनतम बनाइये| अब यह भाव रखिये कि आपकी हर श्वास के साथ वह प्रकाश और भी अधिक तीब्र और गहन हो रहा है और सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड और सृष्टि को आलोकित कर रहा है| आप में यानि भारतवर्ष में कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं है| यह भारतवर्ष का ही आलोक है जो सम्पूर्ण सृष्टि को ज्योतिर्मय बना रहा है| इस ज्योतिर्मय ब्रह्म की भावना को दृढ़ से दृढ़ बनाइये| नित्य इसकी साधना कीजिये|
पृष्ठभूमि में ओंकार का जाप भी करते रहिये| आपको धीरे धीरे स्पष्ट रूप से प्रकाश भी दिखने लगेगा और ओंकार की ध्वनी भी सुनने लगेगी|
सदा यह भाव रखें की आप ही सम्पूर्ण भारतवर्ष हैं और आप निरंतर ज्योतिर्मय हो रहे हैं|
कहीं भी कोई असत्य और अन्धकार नहीं है|
आप की रक्षा होगी| भगवन आपके साथ है|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

मन को जीते बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती .....

विद्या और ज्ञान तो वह है जो परमात्मा का बोध करा दे, बाकि सब तो अविद्या और अज्ञान ही है| जो सब तरह के राग, द्वेष, अहंकार, मन की दासता, व सभी विषयों से आसक्ति मिटा कर अंतःकरण पर विजय दिला दे, और जो पुनश्चः हमें अपने सच्चिदानंद स्वरुप में स्थित करा दे वही ज्ञान है|
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परमात्मा के स्थायी और पूर्ण बोध के अतिरिक्त अन्य कोई भी स्पृहा न हो|
कहाँ हम अपने सच्चिदानंद स्वरुप से पतित होकर मन और वासनाओं के दास हो गये हैं! जो यह ज्ञान दे वही गुरु है| आजकल ऐसे श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य कहाँ मिलते हैं? भगवान श्री कृष्ण सब गुरुओं के गुरु हैं| अतः उन्हीं को अपना सर्वस्व मानकर उन्हीं की ध्यान साधना में शरणागत होकर अपना जीवन समर्पित कर देना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा| यह उनका दिया हुआ वचन है कि वे अपने शरणागत की रक्षा करेंगे, अतः चिंता की कोई बात नहीं है| निराकार रूप में भी वे ही परम ब्रह्म हैं|
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हम यह देह नहीं हैं, हम सच्चिदानंद परमात्मा के अंश हैं| समुद्र की एक बूँद महासागर को समर्पित होकर महासागर ही बन जाती है| वैसे ही अपनी सम्पूर्ण चेतना परमात्मा को समर्पित कर हम भी परम कल्याणकारक शिवस्वरुप ब्रह्म बन जाते हैं|
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अपने आत्मस्वरूप में स्थित कैसे हों, हमारे लिए यही विचारणीय और पुरुषार्थ का विषय है| यही हमारी एकमात्र समस्या है| बाकी सब समस्याएँ भगवान की हैं|


किसी भी नए साधक के लिए ध्यान साधना का आरम्भ आचार्य मधुसुदन सरस्वती द्वारा लिखे भगवान के इसी रूप से हो तो वह सर्वश्रेष्ठ होगा ....
"वंशीविभूषित करान्नवनीरदाभात्,
पीताम्बरादरूण बिम्बफला धरोष्ठात्, |
पूर्णेंदु सुन्दर मुखादरविंदनेत्रात्,
कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने ||"
ॐ ॐ ॐ |

हम कभी भी अकेले नहीं हैं ......

हम कभी अकेले हो ही नहीं सकते | भगवान सदा हमारे साथ हैं | उस अदृष्य मित्र की परम प्रेममय उपस्थिति को सदा अनुभूत करना ही सर्वाधिक आनंददायक है|

परमात्मा अपरिभाष्य है ...

परमात्मा किसी भी तरह के ज्ञान की सीमा से परे हैं| हम उन्हें किसी भी तरह के ज्ञान में नहीं बाँध सकते क्योंकि वे रूप, रस, गंध, शब्द और स्पर्श से परे होने के कारण बुद्धि द्वारा अगम्य हैं| सिर्फ श्रुतियां ही प्रमाण हैं|

जिसका अंतःकरण शुद्ध है, वही सिद्ध महात्मा है| अंतःकरण की शुद्धि ही सिद्धि है| अज्ञान की निवृत्ति ही ब्रह्म की प्राप्ति है|