Saturday 18 June 2016

मन को जीते बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती .....

विद्या और ज्ञान तो वह है जो परमात्मा का बोध करा दे, बाकि सब तो अविद्या और अज्ञान ही है| जो सब तरह के राग, द्वेष, अहंकार, मन की दासता, व सभी विषयों से आसक्ति मिटा कर अंतःकरण पर विजय दिला दे, और जो पुनश्चः हमें अपने सच्चिदानंद स्वरुप में स्थित करा दे वही ज्ञान है|
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परमात्मा के स्थायी और पूर्ण बोध के अतिरिक्त अन्य कोई भी स्पृहा न हो|
कहाँ हम अपने सच्चिदानंद स्वरुप से पतित होकर मन और वासनाओं के दास हो गये हैं! जो यह ज्ञान दे वही गुरु है| आजकल ऐसे श्रौत्रीय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य कहाँ मिलते हैं? भगवान श्री कृष्ण सब गुरुओं के गुरु हैं| अतः उन्हीं को अपना सर्वस्व मानकर उन्हीं की ध्यान साधना में शरणागत होकर अपना जीवन समर्पित कर देना ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ होगा| यह उनका दिया हुआ वचन है कि वे अपने शरणागत की रक्षा करेंगे, अतः चिंता की कोई बात नहीं है| निराकार रूप में भी वे ही परम ब्रह्म हैं|
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हम यह देह नहीं हैं, हम सच्चिदानंद परमात्मा के अंश हैं| समुद्र की एक बूँद महासागर को समर्पित होकर महासागर ही बन जाती है| वैसे ही अपनी सम्पूर्ण चेतना परमात्मा को समर्पित कर हम भी परम कल्याणकारक शिवस्वरुप ब्रह्म बन जाते हैं|
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अपने आत्मस्वरूप में स्थित कैसे हों, हमारे लिए यही विचारणीय और पुरुषार्थ का विषय है| यही हमारी एकमात्र समस्या है| बाकी सब समस्याएँ भगवान की हैं|


किसी भी नए साधक के लिए ध्यान साधना का आरम्भ आचार्य मधुसुदन सरस्वती द्वारा लिखे भगवान के इसी रूप से हो तो वह सर्वश्रेष्ठ होगा ....
"वंशीविभूषित करान्नवनीरदाभात्,
पीताम्बरादरूण बिम्बफला धरोष्ठात्, |
पूर्णेंदु सुन्दर मुखादरविंदनेत्रात्,
कृष्णात्परं किमपि तत्वमहं न जाने ||"
ॐ ॐ ॐ |

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