Monday, 29 May 2017

"Indian Education Act 1858" द्वारा भारत का विनाश .....

"Indian Education Act  1858" द्वारा भारत का विनाश .....

1858 में Indian Education Act बनाया गया। इसकी ड्राफ्टिंग 'लोर्ड मैकोले' ने की थी। लेकिन उसके पहले उसने यहाँ (भारत) के शिक्षा व्यवस्था का सर्वेक्षण कराया था, उसके पहले भी कई अंग्रेजों ने भारत के शिक्षा व्यवस्था के बारे में अपनी रिपोर्ट दी थी। अंग्रेजों का एक अधिकारी था G.W.Litnar और दूसरा था Thomas Munro, दोनों ने अलग अलग इलाकों का अलग-अलग समय सर्वे किया था। 1823 के आसपास की बात है ये Litnar , जिसने उत्तर भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा है कि यहाँ 97% साक्षरता है और Munro, जिसने दक्षिण भारत का सर्वे किया था, उसने लिखा कि यहाँ तो 100 % साक्षरता है, और उस समय जब भारत में इतनी साक्षरता है और मैकोले का स्पष्ट कहना था कि भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो इसकी "देशी और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था" को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह "अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था" लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से हिन्दुस्तानी लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे और मैकोले एक मुहावरा इस्तेमाल कर रहा है:
"कि जैसे किसी खेत में कोई फसल लगाने के पहले पूरी तरह जोत दिया जाता है वैसे ही इसे जोतना होगा और अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी।"
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इसलिए उसने सबसे पहले गुरुकुलों को गैरकानूनी घोषित किया, जब गुरुकुल गैरकानूनी हो गए तो उनको मिलने वाली सहायता जो समाज के तरफ से होती थी वो गैरकानूनी हो गयी, फिर संस्कृत को गैरकानूनी घोषित किया और इस देश के गुरुकुलों को घूम घूम कर ख़त्म कर दिया उनमे आग लगा दी, उसमें पढ़ाने वाले गुरुओं को उसने मारा-पीटा, जेल में डाला।
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1850 तक इस देश में '7 लाख 32 हजार' गुरुकुल हुआ करते थे और उस समय इस देश में गाँव थे '7 लाख 50 हजार', मतलब हर गाँव में औसतन एक गुरुकुल और ये जो गुरुकुल होते थे वो सब के सब आज की भाषा में 'Higher Learning Institute' हुआ करते थे उन सबमे 18 विषय पढाया जाता था और ये गुरुकुल समाज के लोग मिल के चलाते थे न कि राजा, महाराजा, और इन गुरुकुलों में शिक्षा निःशुल्क दी जाती थी।
इस तरह से सारे गुरुकुलों को ख़त्म किया गया और फिर अंग्रेजी शिक्षा को कानूनी घोषित किया गया और कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे 'फ्री स्कूल' कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने के यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं और मैकोले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है वो, उसमें वो लिखता है कि:
"इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे और इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा, इनको अपने मुहावरे नहीं मालूम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी।"
उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है और उस एक्ट की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रोब पड़ेगा, अरे हम तो खुद में हीन हो गए हैं जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा।
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लोगों का तर्क है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, दुनिया में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है। इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईशा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे। ईशा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी। अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी, समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी। संयुक्त राष्ट संघ जो अमेरिका में है वहां की भाषा अंग्रेजी नहीं है, वहां का सारा काम फ्रेंच में होता है।
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जो समाज अपनी मातृभाषा से कट जाता है उसका कभी भला नहीं होता और यही मैकोले की रणनीति थी।
- स्व॰ श्री राजीव भाई
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टिप्पणी :- भारत का प्राण भारत की शिक्षा और कृषि व्यवस्था थी| नर-पिशाच अंग्रेजों नें दोनों को ही नष्ट कर दिया| इसीलिए भारत अभी तक उन्नति नहीं कर पाया है|

३० मई २०१३

कश्मीर की समस्या और एक सामान्य नागरिक की सोच ......

कश्मीर की समस्या और एक सामान्य नागरिक की सोच ......
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कुछ दिनों पहिले मैनें दो लेख लिखे थे कि कश्मीर की समस्या राजनीतिक नहीं बल्कि मज़हबी है| इसका समाधान हो सकता है पर चीन, अमेरिका और पश्चिमी देश कभी भी नहीं चाहेंगे कि कश्मीर की समस्या का कोई समाधान हो, क्योंकि इसके पीछे उनके व्यवसायिक और राजनीतिक हित हैं| कश्मीर की समस्या भी वास्तव में नेहरू को मोहरा बनाकर ब्रिटेन और अमेरिका ने ही उत्पन्न की है, ऐसी मेरी सोच है|
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कश्मीर की समस्या ब्रिटेन ने अपने ही ख़ास आदमी हमारे प्रथम प्रधान मंत्री श्री नेहरु जी के माध्यम से उत्पन्न की जिनको उन्होंने सत्ता सौंपी थी| नेहरु जी की कमजोरी एक सुन्दर ब्रिटिश महिला के प्रति थी, और अन्य सुन्दर महिलाओं के प्रति भी जिसका अनुचित लाभ ब्रिटेन ने भरपूर उठाया और सता हस्तांतरण के पश्चात भी भारत में वही हुआ जो ब्रिटेन चाहता था|
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अमेरिका का स्वार्थ यह था की वह पाक अधिकृत कश्मीर के गिलगित में अपना सैनिक अड्डा स्थापित करना चाहता था जहाँ से वह चीन और मध्य एशिया पर दृष्टि रख सके| वह सैनिक अड्डा उसने स्थापित कभी का कर भी लिया है|
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चीन का स्वार्थ एक तो यह था कि कश्मीरी लद्दाख के अक्साई चिन क्षेत्र पर उसका पूर्ण अधिकार हो ताकि सिंकियांग और तिब्बत के मध्य दूरी न रहे| और दूसरा यह कि पाक अधिकृत कश्मीर के माध्यम से पकिस्तान होते हुए वह अरब सागर तक पहुँच सके|
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जब १९४८ में जब भारतीय सेना जीतने लगी तब ब्रिटेन ने नेहरू जी को बहला-फुसला कर मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में भिजवाया और जनमत संग्रह का फैसला करवा दिया| जनमत संग्रह का निर्णय सशर्त था कि पहले पकिस्तान पूरा कश्मीर खाली करेगा, उस पर भारत का अधिकार होगा, और फिर जनमत संग्रह संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी में होगा| अगर पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर खाली करता तो अमेरिका को गिलगिट से अपना सैनिक अड्डा भी हटाना पड़ता जो अमेरिकी हितों के विरुद्ध था| अतः अमेरिका ने सदा पकिस्तान का साथ दिया और भारत को डराने धमकाने के लिए पाकिस्तान का प्रयोग किया| पाकिस्तान ने भारत से जो युद्ध किये हैं वे सब अमेरिका की सहमती और सहायता से ही किये हैं|
नेहरू जी को भारतीय सेना से अधिक अंग्रेजों यानि ब्रिटेन पर भरोसा था, अतः सदा उन्होंने वही किया जो ब्रिटेन चाहता था| अनुच्छेद ३७० को संविधान में जोड़ना भी उनकी एक भयानक गलती थी|
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कश्मीर में अल्पसंख्यक सुविधाएँ सिर्फ मुसलमानों को प्राप्त हैं, हिदुओं को नहीं जो वास्तव में अल्प-संख्यक हैं| कश्मीर को अब छः टुकड़ों में बाँट देना चाहिए ..... (१) जम्मू, (२) लद्दाख, (३) कश्मीर घाटी, (४) कश्मीर घाटी से बाहर का क्षेत्र, (५) पाक अधिकृत कश्मीर और (६) चीन अधिकृत कश्मीर| हिन्दुओं और बौद्धों को अल्प-संख्यक सुविधाएँ दी जाएँ|
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जब तक पकिस्तान और चीन, पाक-अधिकृत कश्मीर को खाली नहीं करते तब तक कश्मीर में जनमत संग्रह नहीं हो सकता| चीन और पाक कभी भी अधिकृत क्षेत्र को खाली नहीं करेंगे|
वैसे जनमत संग्रह हो भी जाए तो वह भारत के ही पक्ष में होगा क्योंकि पूरे कश्मीर में बहुमत शिया मुसलमानों का है जो पाकिस्तान विरोधी हैं| सिर्फ कश्मीर घाटी में ही सुन्नी बहुमत है|
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अब भारत सरकार कानूनी रूप से यह तय करे कि कौन अल्प-संख्यक है और कौन बहु-संख्यक| धारा ३७० समाप्त कर सेवानिवृत सैनिको और अन्य सभी समर्थवान भारतीयों को वहाँ बसाया जाए| कश्मीरी हिन्दुओं को एक सुरक्षित क्षेत्र दिया जाये| कश्मीर को विशेष आर्थिक पैकेज न दिए जाएँ| अपना कमाओ और खाओ| तुष्टिकरण की नीति समाप्त हो| अंततः पकिस्तान को तो तोड़ना ही पड़ेगा जो एक दुष्ट राष्ट्र है|
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मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ, एक सामान्य नागरिक हूँ| जैसी मेरी बुद्धि थी और जैसा मुझे समझ में आया वैसा लेख मैनें लिख दिया| बड़े बड़े राजनेता और विशेषज्ञ हैं जो इस मामले को सुलाझायेगे| बाकी जैसी प्रभु की इच्छा|
अब इस विषय पर और कुछ लिखने के लिए मेरे पास नहीं है| आगे और नहीं लिखूंगा|
इति| ॐ ॐ ॐ ||

२९ मई २०१७

मेरे से बाहर कोई समस्या नहीं है, सारी समस्या मैं स्वयं हूँ .....

मेरे से बाहर कोई समस्या नहीं है, सारी समस्या मैं स्वयं हूँ .....
यह समस्या अति विकट है| हे कर्णधार, इस समस्या का हल तुम्ही हो |
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"दीनदयाल सुने जब ते, तब ते मन में कछु ऐसी बसी है |
तेरो कहाये कै जाऊँ कहाँ, अब तेरे ही नाम की फ़ेंट कसी है ||
तेरो ही आसरो एक मलूक, नहीं प्रभु सो कोऊ दूजो जसी है |
ए हो मुरारी ! पुकारि कहूँ, मेरी नहीं, अब तेरी हँसी है ||"
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सभी समस्याएँ प्राणिक (Vital) और मानसिक (Mental) धरातल पर उत्पन्न होती हैं| उन्हें वहीं पर निपटाना होगा| पर वहाँ माया का साम्राज्य इतना प्रबल है जिसे भेदना हमारे लिए बिना हरिकृपा के असम्भव है|
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हमारी एकमात्र समस्या है ..... परमात्मा से पृथकता|
यह बिना शरणागति और समर्पण के दूर नहीं होगी| इस विषय पर बहुत अधिक लिख चुका हूँ, अब और लिखने की ऊर्जा नहीं है| परमात्मा का ध्यान और चिंतन भी सत्संग है| हमें चाहिए सिर्फ सत्संग, सत्संग और सत्संग|
यह निरंतर सत्संग मिल जाए तो सारी समस्याएँ सृष्टिकर्ता परमात्मा की हो जायेंगी|
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हे प्रभु, तुम्हारे चरणों में पूर्ण प्रीति बनी रहे इसके अतिरिक्त अब अन्य कोई इच्छा नहीं है| तुम्हें निवेदन तो कर दिया है पर यह अर्जी भी कभी ना कभी तो स्वीकार करनी ही पड़ेगी| 'आशा' पिशाचिन नहीं पालना चाहता, अतः ना भी करें तो कोई बात नहीं|
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हे प्रभु, आप के भक्तों की आप से कोई पृथकता नहीं हो, आप के वे पूर्ण उपकरण हों, और आपसे पृथक वे अन्य कुछ भी ना हों|
जिस पर भी उन की दृष्टी पड़े वह परम प्रेममय हो निहाल हो जाये| वे जहाँ भी जाएँ वहीं आपके प्रेम की चेतना सब में जागृत हो जाये| आपकी उपस्थिति से जड़ वस्तु भी चैतन्य हो जाये|
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आप के भक्तों में किसी भी तरह का कोई आवेग ..... भूख, प्यास, विषाद, भ्रम, बुढ़ापा और मृत्यु ना हो| वे सब प्रकार की अवस्थाओं ---- जन्म, स्थिति, वृद्धि, परिवर्तन, क्षय और विनाश से परे हों|
हम सब आपके साथ एक हों और आपके पूर्ण पुत्र हों| आपकी जय हो|
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>>>> हम साधना करते हैं, मंत्रजाप करते हैं, पर हमें सिद्धि नहीं मिलती इसका मुख्य कारण है.... असत्यवादन| झूठ बोलने से वाणी दग्ध हो जाती है और किसी भी स्तर पर मन्त्रजाप का फल नहीं मिलता| इस कारण कोई साधना सफल नहीं होती|
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>>>> सत्य और असत्य के अंतर को शास्त्रों में, और विभिन्न मनीषियों ने स्पष्टता से परिभाषित किया है| सत्य बोलो पर अप्रिय सत्य से मौन अच्छा है| प्राणरक्षा और धर्मरक्षा के लिए बोला गया असत्य भी सत्य है, और जिस से किसी की प्राणहानि और धर्म की ग्लानी हो वह सत्य भी असत्य है|

>>>> जिस की हम निंदा करते हैं उसके अवगुण हमारे में भी आ जाते हैं|
जो लोग झूठे होते हैं, चोरी करते हैं, और दुराचारी होते हैं, वे चाहे जितना मंत्रजाप करें, और चाहे जितनी साधना करें उन्हें कभी कोई सिद्धि नहीं मिलेगी|
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ॐ तत्सत् | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२९ मई 2016

Sunday, 28 May 2017

साधक कौन ?.....

साधक कौन ?.....
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किसी भी आध्यात्मिक साधना में किसी भी साधक को सिर्फ एक चौथाई यानि २५% भाग ही साधना का करना पड़ता है|
करुणावश उतना ही २५% भाग सद् गुरु महाराज अपने शिष्य के लिए स्वयं करते हैं,
बाकी का ५०% भाग कृपा कर के भगवान स्वयं करते हैं|
पर साधक का जो २५% भाग है, उसका शत प्रतिशत तो साधक को स्वयं ही पूरी निष्ठा से करना पड़ता है|
पारस पत्थर तो लोहे को सोना बनाता हैं, पर सद् गुरु महाराज तो शिष्य को अपने जैसा ही बना लेते हैं|
अतः पूर्ण रूप से समर्पित होकर पूरी निष्ठा से गुरु प्रदत्त साधना करनी चाहिए|
दीक्षा लेकर भी जो गुरु को दिए वचन को न निभाए वह निश्चित रूप से पाप का भागी है|


ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

सप्त व्याह्रतियों के साथ ब्रह्मगायत्री मन्त्र और प्राणायाम की साधना ---


सप्त व्याह्रतियों के साथ ब्रह्मगायत्री मन्त्र और प्राणायाम की साधना ----------
(गायत्री साधना की यौगिक व तांत्रिक विधि)
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(संशोधित व पुनर्प्रस्तुत लेख)

 (निम्न प्रस्तुति व्यक्तिगत सत्संगों से प्राप्त ज्ञान, साधना के निजी अनुभवों और कुछ कुछ स्वाध्याय पर आधारित है)
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भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को 'गायत्री छन्दसामहम्' अर्थात छंदों में गायत्री कहा है|
गायत्री मन्त्र को ही सावित्री मन्त्र भी कहते है| महाभारत में गायत्री मंत्र की महिमा कई स्थानों पर गाई गयी है।
भीष्म पितामह युद्ध के समय जब शरशय्या पर पड़े होते हैं तो उस समय अन्तिम उपदेश के रूप में युधिष्ठिर आदि को गायत्री उपासना की प्रेरणा देते हैं। भीष्म पितामह का यह उपदेश महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 150 में दिया गया है .........
''जो व्यक्ति गायत्री का जप करते हैं उनको धन, पुत्र, गृह सभी भौतिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं| उनको राजा, दुष्ट, राक्षस, अग्नि, जल, वायु और सर्प किसी से भय नहीं लगता| जो लोग इस उत्तम मन्त्र गायत्री का जप करते हैं, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चारों वर्ण एवं चारों आश्रमों में सफल रहते हैं| जिस स्थान पर गायत्री का पाठ किया जाता है, उस स्थान में अग्नि काष्ठों को हानि नहीं पहुँचाती है, बच्चों की आकस्मिक मृत्यु नहीं होती, न ही वहाँ अपङ्ग रहते हैं|
जो लोग गायत्री का जप करते हैं उन्हें किसी प्रकार का कष्ट एवं क्लेश नहीं होता है तथा वे जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करते हैं| गौवों के बीच गायत्री का पाठ करने से गौवों का दूध अधिक पौष्टिक होता है| घर हो अथवा बाहर, चलते फिरते सदा ही गायत्री का जप किया करें| गायत्री से बढ़कर कोई जप नहीं है|"
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गायत्री का दूसरा नाम सावित्री सविता की शक्ति ब्रह्मशक्ति होने के कारण ही रखा गया है|
इस मन्त्र का देवता सविता (सूर्य) है| वेद मंत्रों की अधिष्ठात्री देवी वही है| इसी से उसे सावित्री कहते हैं|
यो देवः सवितास्माकं धियो धर्मादिगोचरः| प्रेरयेत् तस्य यद् भर्गः तं वरेण्यमुषास्महे||
‘जो सविता देव हमारी बुद्धि को धर्म में प्रेरित करता है उसके श्रेष्ठ भर्ग (तेज) की हम उपासना करते हैं।
सर्व लोकप्रसवनात् सविता स तु कीर्त्यते। यतस्तद् देवता देवी सावित्रीत्युच्यते ततः।।-अमरकोश
‘‘वे सूर्य भगवान समस्त जगत को जन्म देते हैं इसलिए ‘सविता’ कहे जाते हैं। गायत्री मन्त्र के देवता ‘सविता’ हैं इसलिए उसकी दैवी-शक्ति को ‘सावित्री’ कहते हैं|’’
ब्रह्म तेज और सविता एक ही हैं| गायत्री को तेजस्विनी कहा गया है| सविता तेज का प्रतीक है| अस्तु सविता का तेज और गायत्री के भर्ग को एक ही समझा जाना चाहिए|
गायत्री मन्त्र के देवता सविता हैं और साधक उनकी भर्गः ज्योति का ध्यान करते हैं जो आज्ञा चक्र से ऊपर सहस्त्रार में या उससे भी ऊपर दिखाई देती है|
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वेसे तो वेद की महिमा अनन्त है, किंतु महर्षि विश्वामित्र जी के द्वारा दृष्ट ऋग्वेद के तृतीय मण्डल के 62वें सूक्त का दसवाँ मन्त्र 'ब्रह्म गायत्री-मन्त्र' के नाम से विख्यात है, जो इस प्रकार है ----
"तत्सवितुर्वरेण्यं| भर्गो देवस्य धीमहि| धियो यो न: प्रचोदयात||"
उपरोक्त मन्त्र का अर्थ तो सभी को ज्ञात है अतः उस पर चर्चा नहीं करेंगे|
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गायत्री की महिमा अनंत है|
गायत्र्येव परो विष्णुर्गायत्र्येव पर: शिव:। गायत्र्येव परो ब्रह्म गायत्र्येव त्रयी तत:॥ —स्कन्द पुराण काशीखण्ड ४/९/५८, वृहत्सन्ध्या भाष्य
ब्रह्म गायत्रीति- ब्रह्म वै गायत्री। —शतपथ ब्राह्मण ८/५/३/७ -ऐतरेय ब्रा० अ० १७ खं० ५
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योग साधना में गायत्री मन्त्र का जाप ----
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गुरु प्रदत्त विधि से सूक्ष्म शरीरस्थ सुषुम्ना नाड़ी में होता है| गुरु कृपा से ही सुषुम्ना नाड़ी का द्वार खुलता है जो मूलाधार से आज्ञा चक्र तक है|
उससे भी आगे परा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से भ्रूमध्य तक होकर वहाँ से सहस्त्रार में जाती है| और उत्तरा सुषुम्ना है जो आज्ञाचक्र से सीधे सहस्त्रार में जाती है| उत्तरा सुषुम्ना में प्रवेश तो गुरु की अति विशेष कृपा से ही हो पाता है|
वहाँ जो कूटस्थ ज्योति दिखाई देती है वही सविता देव की भर्गः ज्योति है जिसका ध्यान किया जाता है और जिसकी आराधना होती है| इसका क्रम इस प्रकार मेरुदंड व मस्तिष्क के सूक्ष्म चक्रों पर मानसिक जाप करते हुए है ---
ॐ भू: ------ मूलाधार चक्र,
ॐ भुवः ---- स्वाधिष्ठान चक्र,
ॐ स्वः ----- मणिपुर चक्र,
ॐ महः ---- अनाहत चक्र,
ॐ जनः -- -- विशुद्धि चक्र,
ॐ तपः ------ आज्ञा चक्र,
ॐ सत्यम् --- सहस्त्रार ||
फिर आज्ञाचक्र और सहस्त्रार के मध्य में या सहस्त्रार के ऊपर एक विराट ज्योति दिखाई देती है जिस पर ध्यान किया जाता है| जब चित्त में थोड़ी स्थिरता आती है तब फिर प्रार्थना और जप किया जाता है ----
ॐ "तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गोदेवस्य धीमहि, धियो योन: प्रचोदयात् |"
यह त्रिपदा गायत्री है| इसमें चौबीस अक्षर हैं|
यह एक जप है| जप से पूर्व संकल्प करना पड़ता है कि आप कितने जप करेंगे| जितनों का संकल्प लिया है उतने तो करने ही पड़ेंगे|
फिर जप के पश्चात् उस ज्योति का ध्यान करते रहो और ॐ के साथ साथ ईश्वर की सर्वव्यापकता में मानसिक अजपा-जप करते रहो| ईश्वर की सर्वव्यापकता आप स्वयं ही हैं|
(पूरी विधि किसी शक्तिपात संपन्न सद्गुरु से सीखनी चाहिए)
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समापन --
ॐ "आपो ज्योति" मानसिक रूप से बोलते हुए दायें हाथ की तीन अँगुलियों से बाईँ आँख का स्पर्श करें,
"रसोsमृतं" से दायीं आँख का,
और "ब्रह्मभूर्भुवःस्वरोम्" से भ्रूमध्य का स्पर्श करें|
फिर लम्बे समय तक अपने आसन पर बैठे और सर्वस्व के कल्याण की कामना करो| प्रभु को अपना सम्पूर्ण परम प्रेम अर्पित करो और आप स्वयं ही वह परम प्रेम बन जाओ|
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मुझे एक संत ने बताया था कि ऋग्वेद में एक मंत्र है जिस में "गायत्री" शब्द आता है और उस मन्त्र के दर्शन बिश्वामित्र से बहुत पूर्व शव्याश्व्य ऋषि को हुए थे|
प्रचलित गायत्री मन्त्र के दृष्टा विश्वामित्र ऋषि थे| इस के चौबीस अक्षर हैं और तीन पद हैं| अतः यह त्रिपदा चौबीस अक्षरी गायत्री मन्त्र कहलाता है| बाद में अन्य महान ऋषियों ने गायत्री मंत्र से पहले "भू", भुवः, और "स्वः" ये तीन व्याह्रतियाँ भी जोड़ दीं| अतः पूरा मन्त्र अपने प्रचलित वर्त्तमान स्वरुप में आ गया|
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यह सप्त व्याह्रातियुक्त गायत्री साधना की विधि बहुत अधिक शक्तिशाली है और समाधी के लिए बहुत प्रभावी है|
इस साधना में यम नियमों का पालन, व भक्ति अनिवार्य है, अन्यथा कोई लाभ नहीं होगा|
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आप सब में हृदयस्थ प्रभु को नमन |
ॐ तत्सत्| ॐ नमः शिवाय| ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
२६ मई २०१५

अनुसरण किसका करें ? ....

अनुसरण किसका करें ? ....
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महाभारत में एक यक्षप्रश्न के उत्तर में महाराज युधिष्ठिर कहते है ......
"तर्को प्रतिष्ठः श्रुतया विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम् |
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः स पन्थाः ||"
अर्थात् .... तर्कों से कुछ भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है, श्रुति के अलग अलग अर्थ कहे जा सकते हैं, कोई एक ऐसा मुनि नहीं जिनका वचन प्रमाण माना जा सके| धर्म का तत्त्व तो मानो निविड़ गुफाओं में छिपा है (गूढ है), इस लिए महापुरुष जिस मार्ग से गये हों, वही मार्ग जाने योग्य है |
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अब प्रश्न यह उठता है कि ऐसे कौन से महापुरुष हैं जिनका अनुसरण किया जाए|
हर व्यक्ति अपनी अपनी चेतना के अनुसार पृथक पृथक उत्तर देगा|
मेरी जहाँ तक समझ है, तीन ही ऐसे महापुरुष हैं जिनका मैं अनुसरण कर सकता हूँ, यानि जिनको मैं पूर्णतः समर्पित हो सकता हूँ|
वे हैं ..... भगवान श्रीराम, भगवान श्रीकृष्ण और श्री हनुमान जी |
ये ही मेरे परम आदर्श हैं, और इनके जीवन का प्रत्येक अंश मेरे लिए परम आदर्श है| इनका स्थान अन्य कोई नहीं ले सकता|
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महाभारत में आता है कि सरोवर में जल लेने गये महाराज युधिष्ठिर को उस सरोवर में रहनेवाले यक्ष ने चार प्रश्न किये, और कहा कि उन चार प्रश्नों के उत्तर देने पर ही वह सरोवर का जल ले सकते हैं, अन्यथा नहीं| यक्ष के प्रश्नों के उत्तर न देने पर अन्य चारों पांडव मूर्छित हो चुके थे|
यक्ष ने पूछा ......
का वार्ता, किमाश्चर्यं, कः पन्था, कश्च मोदते ?
इति मे चतुरः प्रश्नान् पूरयित्वा जलं पिब ....
अर्थात् ...
(1) कौतुक करने जैसी क्या बात है ?
(2) आश्चर्य क्या है ?
(3) कौन सा मार्ग है ?
(4) कौन आनंदित रहता है ?
मेरे इन चार प्रश्नों के उत्तर देने के पश्चात् ही पानी पी सकते हो|
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महाराज युधिष्ठिर ने उत्तर दिया .....
 

(1) मासर्तुवर्षा परिवर्तनेन सूर्याग्निना रात्रि दिवेन्धनेन |
अस्मिन् महामोहमये कराले भूतानि कालः पचतीति वार्ता ||
अर्थात् ....
इस कराल मोह में, महिने, वर्ष इत्यादि के परिवर्तन से, सूर्यरुप अग्नि के इंधन से काल रात-दिन प्राणियों को पकाता है; यह कौतुक करने की बात है |
 

(2) अहन्यहनि भूतानि गच्छन्ति यममन्दिरम् |
शेषा जीवितुमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम् ||
अर्थात् ....
प्रतिदिन कितने हि प्राणी यम मंदिर जाते हैं (मर जाते हैं), यह देखने के पश्चात भी शेष मनुष्य सदा जीवित रहना चाहते हैं| यह सबसे बड़ा आश्चर्य है|
 

(3) "तर्को प्रतिष्ठः श्रुतया विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं प्रमाणम्
धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम् महाजनो येन गतः स पन्थाः |"
अर्थात् ....
तर्कों से कुछ भी प्रतिष्ठित किया जा सकता है, श्रुति के अलग अलग अर्थ कहे जा सकते हैं, कोई एक ऐसा मुनि नहीं केवल जिनका वचन प्रमाण माना जा सके; धर्म का तत्त्व तो मानो निविड़ गुफाओं में छिपा है (गूढ है), इस लिए महापुरुष जिस मार्ग से गये हों, वही मार्ग जाने योग्य है |
 

(4) दिवसस्याष्टमे भागे शाकं पचति गेहिनी |
अनृणी चाप्रवासी च स वारिचर मोदते ||
अर्थात् .......
हे जलचर ! दिन के आठवें भाग में (सुबह-शाम रसोई के वक्त) जिसकी गृहिणी खाना पकाती हो, जिसके सर पे कोई ऋण न हो, जिसे (अति) प्रवास न करना पड़ता हो, वह मनुष्य (घर) सदा आनंदित होता है ।
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ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२८ मई २०१६

क्या करें और क्या न करें ? ......

क्या करें और क्या न करें ? ......
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आज के जीवन की भागदौड़ में, अनेक प्रकार के दबावों और आकर्षणों के मध्य, कोई भी सान्सारिक व्यक्ति विचलित हुए बिना नहीं रह सकता|
क्या करें और क्या न करें ? यह प्रश्न सदा विचलित करता रहता है|
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सर्वश्रेष्ठ समाधान है ..... हम परमात्मा को जीवन का केंद्रबिंदु और कर्ता बनाकर उसे स्वयं में प्रवाहित होने दें| जब तक कर्ताभाव है तब तक शास्त्रोक्त कर्म करें|
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एक गृहस्थ को जीवन में कम से कम इतना तो धन संचय करना चाहिए कि किसी के आगे हाथ न फैलाना पड़े| आज कि दुनिया में वह व्यक्ति भाग्यशाली है जिस पर कोई ऋण यानि उधार न हो, जिसे आजीविका के लिए परदेशों में भटकना ना पड़ता हो, और जिसे घर में प्रेम से बनाया हुआ भोजन मिलता हो|
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जीवन में जो भी सर्वश्रेष्ठ है अपने ह्रदय से पूछकर वो ही कार्य करें|


ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
२६ मई २०१६

जितनी हम सोचते हैं, उससे कहीं अधिक शक्ति हमारे विचारों में है .....



जितनी हम सोचते हैं, उससे कहीं अधिक शक्ति हमारे विचारों में है .....
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जैसा हम सोचते हैं वैसा ही प्रभा-मंडल हमारे चारों और बन जाता है और वह प्रभा-मंडल वैसी ही परिस्थितियों को हमारी और आकर्षित करता रहता है| सफलता के विचार सफलता लाते हैं, असफलता के विचार असफलता लाते हैं, और जो हम सोचते हैं वही हम बन जाते हैं| हम यदि सोचते हैं कि हमारा कार्य कठिन है तो वह वास्तव में कठिन हो जाएगा, यदि हम उसे आसान सोचेंगे तो वह सचमुच आसान हो जाएगा| हम अपनी मंजिल को दूर मानेंगे तो मंजिल दूर चली जायेगी, मंजिल को पास मानेंगे तो मंजिल पास ही आ जायेगी|
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ये ही नियम आध्यात्म में लागू होते हैं| यदि हम सोचते हैं कि भगवान मेरे से दूर है तो भगवान वास्तव में दूर हैं, और यदि हम सोचते हैं कि भगवान हमारे ह्रदय में है तो वास्तव में वे हमारे ह्रदय में ही होते हैं|
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सारी आध्यात्मिक साधनाओं का यही रहस्य है| अब और क्या लिखूं ? सार की बात लिख दी है| जो समझने वाले हैं वे समझ जायेंगे और जो नहीं समझ सकते वे कभी नहीं समझेंगे| हम भजन, जप, तप, ध्यान आदि करते हैं, निरंतर परमात्मा का चिंतन करते हैं, उसका प्रयोजन यही है|
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सफलता का रहस्य प्रयास की गहनता और निरंतरता में है| हम भगवान का ध्यान जितना अधिक करेंगे उतनी ही अधिक और भी हमारी इच्छा ध्यान करने की होगी| जितना कम ध्यान करेंगे उतनी ही परमात्मा को पाने की प्यास कम होती चली जाती है|
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आत्मा की प्यास और तड़प यानि अभीप्सा तो परमात्मा के प्रति ही होती है| आत्मा को संतुष्टि परमात्मा से ही मिलती है| मन इन्द्रीय सुखों की पूर्ती हेतु संसार में भटकाता है पर संसार में किसी को कहीं भी संतुष्टि नहीं मिलती है क्योंकि जो आत्म-तत्व है वह तो परमात्मा को ही पाना चाहता है| हम इस बात को समझें या न समझें यह दूसरी बात है, पर यह सत्य है कि हमारा आत्म-तत्व परमात्मा को ही पाना चाहता है, उसकी अभीप्सा परमात्मा के ही प्रति है, वह अन्य कहीं संतुष्ट नहीं हो सकता| इन्द्रिय सुखों के प्रति प्रबल आकर्षण विखंडित व्यक्तित्व को जन्म देता है| यही हमारे असंतोष का कारण है|
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जो हम बनना चाहते हैं वह तो हम पहले से ही हैं| जिसे हम ढूँढ रहे हैं, वह भी हम स्वयं ही हैं| सुख, शान्ति, संतुष्टि, आनंद और पूर्णता हम स्वयं ही हैं| परमात्मा का ह्रदय ही हमारा स्वाभाविक घर है जहाँ हमें पहुँचना है| पर हम तो वहाँ पहले से ही हैं| जो हम प्राप्त करना चाहते हैं, वह हम स्वयं हैं| पूर्ण प्रेम से निरंतर इसी भाव में प्रयासपूर्वक रहो| एक दिन हम स्वयं को अपने गंतव्य पर ही पायेंगे|
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
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कृपा शंकर
२७ मई २०१७

भारत में ब्राह्मणों की दुर्दशा ......

भारत में ब्राह्मणों की दुर्दशा  ......
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भारत में इस समय सबसे अधिक दुर्दशा ब्राह्मणों की है| ब्राह्मणों की स्थिति तथाकथित दलितों से भी खराब है| वास्तव में इस समय देश में कोई दलित वर्ग है तो वह ब्राह्मणों का है| आरक्षण व्यवस्था ने ब्राह्मणों की आर्थिक और सामाजिक रूप से कमर तोड़ दी है| अब ब्राह्मणों को यदि जीवित रहना है तो संगठित होना पड़ेगा| आरक्षण के समर्थक सभी दल ऊंची ऊंची बातें ही करते हैं पर सामाजिक समरसता के शत्रु हैं| ब्राह्मणों के साथ साथ राजपूतों जैसी अन्य अनारक्षित सामान्य वर्ग की जातियों का भी यही हांल है| किसी भी तरह का आरक्षण न हो| हर कदम पर आरक्षण का विरोध करें|
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ब्राह्मणों ने कभी किसी पर अत्याचार नहीं किये| ब्राह्मणों के विरुद्ध समस्त झूठा प्रचार अंग्रेजों ने किया| सन १८५८ ई. में अंग्रेजों ने ब्राह्मणों द्वारा चलाये जा रहे सारे गुरुकुलों को आग लगाकर नष्ट कर दिया| उन का धन छीन कर उन्हें निर्वासित कर दिया| उनकी पुस्तकें जला दी गईं| उन का उद्देश्य था ब्राह्मण व्यवस्था को नष्ट करना| आज जितने भी धर्म ग्रन्थ उपलब्ध हैं वे सिर्फ इसीलिए उपलब्ध है कि ब्राम्हणों ने उन्हें रट रट कर सुरक्षित रखा| ब्राह्मण शासक वर्ग नहीं था| दलितोद्धार का आरम्भ ब्राह्मणों ने ही किया| जिन्हें आप दलित कहते हैं वे उच्च कोटि के क्षत्रिय ठाकुर थे| चूंकि उन्होंने इस्लाम कबूल नहीं किया इसलिए मुस्लिम शासकों ने उन्हें मल उठाने को बाध्य किया| उन्होंने अपनी मर्यादा भंग की पर धर्म नहीं छोड़ा इसलिए मुस्लिम शासकों ने उन्हें भंगी कह्ना शुरू किया| कई शताब्दियों तक उन्होंने विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध संघर्ष किया| दलितों में भी अनेक जातियां हैं| आरक्षण का लाभ उनकी एक जाति विशेष को ही मिला है| ब्राह्मणों के विरुद्ध सारा प्रचार धर्मनिरपेक्षतावादियों और मार्क्सवादियों का है जो वर्ग-संघर्ष में आस्था रखते हैं| सनातन धर्म में वर्ग संघर्ष का कोई स्थान नहीं है| ब्राह्मणों का जीवन त्याग तपस्या से पूर्ण रहा है| सब से अधिक त्याग और तपस्या किसी जाति ने की है तो वह है ब्राह्मण जाति| जाति प्रथा का विरोध भी किसी ने किया है तो सिर्फ ब्राह्मण जाति ने| दलितोद्धार का वर्त्तमान युग में सबसे बड़ा कार्य किया स्वामी दयानंद सरस्वती और वीर सावरकर जैसे लोगों ने जो स्वयं ब्राह्मण थे|
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वर्ण व्यवस्था को जन्म आधारित किसने व कब किया यह तो निष्पक्ष शोध का विषय है| यहाँ मैं कुछ ऐसे विद्यालयों व् गुरुओं की बात बताना चाहता हूँ जिन्हें मैंने बचपन में अंतिम सांसें लेते हुए देखा है| आज कोई उनकी कल्पना भी नहीं कर सकता| मैंने अपनी आँखों से ऐसे गुरुओं को देखा है जो विद्यादान के बदले में कोई शुल्क नहीं लेते थे| नि:शुल्क विद्यार्थियों को पढ़ाते थे| वर्ष में एक बार गुरूजी चौकी पर बैठते थे और विद्यार्थी एक एक कर के क्षमतानुसार कुछ वस्त्र या अन्न या कुछ राशी उन्हें गुरु-दक्षिणा के रूप में देते जिनसे वे पूरे वर्ष भर काम चलाते|जो विद्यार्थी कुछ भी देने में असमर्थ होता गुरूजी उसके घर वर्ष में सिर्फ एक बार भोजन कर आते| बस इसी स्कूल फीस के बदले गुरूजी वर्ष भर बच्चों को अपना धर्म मान कर पढ़ाते| यह भारत के ब्राह्मणों का धर्म था जो आज की अंग्रेजी स्कूलों की चकाचोंध में खो गया है|

ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२७ मई २०१३

आत्मनिवेदन यानि नरमेध यज्ञ .......


आत्मनिवेदन यानि नरमेध यज्ञ .......
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योगियों के अनुसार कुण्डलिनी जागरण ................ गोमेध यज्ञ है,
मणिपुर चक्र का भेदन ...................................... अश्वमेध यज्ञ है,
अनाहत चक्र का भेदन ...................................... वाजपेय यज्ञ है,
आज्ञा चक्र का भेदन .......................................... सोम यज्ञ है,
और अपने आप को हवि रूप में
परमात्मा रुपी अग्नि में पूर्ण समर्पण ........................ नरमेध यज्ञ है|
यह आत्मनिवेदनात्मक भक्ति रुपी यज्ञ है|
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कोई भी प्राणी पवित्रता और शुद्ध भाव से अपने आपको शाकल्य मानकर और भगवान को अग्नि समझकर उन प्रभु को अपने आप को निरंतर समर्पित करता है, तो यह नरमेध यज्ञ उसे भगवान् की प्राप्ति करा देता है|

हवि डालते समय ओम् या किसी भगवन्नाम या मन्त्र का उच्चारण हम कर सकते हैं| यह सामग्रीनिरपेक्ष सात्विक यज्ञ है जिसे शरणागति या आत्मनिवेदन भक्ति भी कह सकते हैं| इस परम सात्विक नरमेध यज्ञ यानि आत्मनिवेदन रूपी भक्ति यज्ञ का आश्रय हम सब ले सकते हैं|

ॐ आत्मतत्वं समर्पयामी नम: स्वाहा । इदम् नरमेध यज्ञे आत्म कल्याणार्थाय इदम् न मम ।।
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
२७ मई २०१५

नाद और बिंदु से संसार की उत्पत्ति ......

नाद और बिंदु से संसार की उत्पत्ति ......
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जब ब्रह्मांड नहीं था, सिर्फ अंधकार था, तब अचानक ही एक बिंदु की उत्पत्ति हुई, और वह बिंदु मचलने लगा| तब उसके अंदर भयानक परिवर्तन और विस्फोट होने लगे| शिव पुराण के अनुसार नाद और बिंदु के संयोग से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है| नाद अर्थात ध्वनि और बिंदु अर्थात प्रकाश| इसे ही अनाहत नाद या अनहद की ध्वनि कहते हैं जो शाश्वत और सनातन है| इसी ध्वनि को हिंदुओं ने "ॐ" के रूप में व्यक्त किया है और यह ॐ ही परम ब्रह्म है जो स्वयं प्रकाशित है| ध्यान में सुनने और दिखाई देने वाली इसी ज्योतिर्मय अक्षर परम ब्रह्म की सतत् चेतना को योगी लोग कूटस्थ चैतन्य कहते हैं|
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ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ है .... निरंतर 'बढ़ना' या 'फूट पड़ना'| ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं| विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म ही है| जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है, उसको स्थित भी रखता है, और बापस अपने में समेट भी लेता है| नृत्यकार और नृत्य में कोई अंतर नहीं है| जब तक नृत्यकार का नृत्य चलेगा, तभी तक नृत्य का अस्तित्व है| यह सृष्टि भी परमात्मा यानि परम ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है|
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ॐ तत्सत् |ॐ ॐ ॐ ||
२६ मई २०१३

हम जिस आनंद को खोज रहे हैं, वह आनंद हम स्वयं ही हैं .....

हम जिस आनंद को खोज रहे हैं, वह आनंद  हम स्वयं ही हैं .....
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हम इस संसार में जिस खजाने को ढूँढ रहे हैं, वह खज़ाना तो हम स्वयं ही हैं|
हम जिस आनंद को खोज रहे हैं, वह आनंद भी हम स्वयं ही हैं|

हमारे धर्म-ग्रन्थ कहते हैं .....
त्वं हि ब्रह्मैव साक्षात् परमुरुमहिमन्नक्षराणामकार-
स्तारो मन्त्रेषु राज्ञां मनुरसि मुनिषु त्वं भृगुर्नारदोऽपि ।
प्रह्लादो दानवानां पशुषु च सुरभि: पक्षिणां वैनतेयो
नागानामस्यनन्तस्सुरसरिदपि च स्रोतसां विश्वमूर्ते ॥

हे महान महिमाशाली! निस्सन्देह आप ही साक्षात परम ब्रह्म हैं। अक्षरों में आप ही 'अ' कार हैं, मन्त्रों में 'ऊं' कार, राजाओं में मनु, ब्रह्मर्षियों में भृगु और देवर्षियों में नारद हैं। हे विश्वमूर्ते! असुरों में आप ही प्रह्लाद हैं, पशुओं में सुरभि गाय, पक्षियों में गरुड, नागों में अनन्त, और नदियों में गङ्गा हैं।
अब इसके बाद कुछ भी कहने की क्या आवश्यकता है ? ॐ ॐ ॐ ||
May 26, 2015 at 11:40am ·

सृष्टि का एक रहस्य .....

सृष्टि का एक रहस्य .....
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सृष्टि का एक रहस्य है कि समृद्धि के चिंतन से समृद्धि आती है, प्रचूरता के चिंतन से प्रचूरता आती है, अभावों के चिंतन से अभाव आते हैं, दरिद्रता के चिंतन से दरिद्रता आती है, दु:खों के चिंतन से दु:ख आते हैं, पाप के चिंतन से पाप आते हैं, और हम वैसे ही बन जाते हैं जैसा हम सोचते हैं| जिस भी भाव का चिंतन हम निरंतर करते हैं, प्रकृति वैसा ही रूप लेकर हमारे पास आ जाती है और हमारे चारों ओर की सृष्टि वैसी ही बन जाती है| ये विचार, ये भाव ही हमारे "कर्म" हैं जिनका फल भोगने को हम बाध्य हैं| पूरी सृष्टि में जो कुछ भी हो रहा है वह हम सब मनुष्यों के सामुहिक विचारों का ही घनीभूत रूप है| इसमें भगवान का कोई दोष नहीं है| हब सब भगवान के ही अंश हैं, हम सब ही भगवान में एक हैं, पृथक पृथक नहीं, हम ही भगवान हैं, यह देह नहीं|
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जब भी हम किसी से मिलते हैं या कोई हम से मिलता है तो आपस में एक दूसरे पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता| किसी के विचारों का प्रभाव अधिक शक्तिशाली होता है किसी का कम| इसीलिये साधक एकांत में रहना अधिक पसंद करते हैं| किसी महान संत ने ठीक ही कहा है कि ईश्वर से संपर्क करने के लिए एकांतवास की कीमत चुकानी पडती है| एक विद्यार्थी जो डॉक्टर बनना चाहता है उसे अपनी ही सोच के विद्यार्थियों के साथ रहना होगा| जो जैसा बनना चाहता है उसे वैसी ही अनुकूलता में रहना होता है|
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इसी तरह संसार की जटिलताओं में रहते हुए ईश्वर पर ध्यान करना अति मानवीय कार्य है जिसे हर कोई नहीं कर सकता है| इसे कोई लाखों में से एक ही कर सकता है| लोग उस लाखों में से एक का ही उदाहरण देते हुए दूसरों को निरुत्साहित करते हैं| जो ईश्वर को प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें हर प्रतिकूलता पर प्रहार करना होगा| सबसे महत्वपूर्ण है अपने विचारों पर नियंत्रण| इसके लिए अपने अनुकूल वातावरण निर्मित करना पड़ता है|
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स्वामी रामतीर्थ स्वयं को बादशाह राम कहते थे| उनके लिए पूरी सृष्टि उनका परिवार थी, समस्त ब्रह्माण्ड उनका घर, और पूरा भारत ही उनकी देह थी|| बिना रुपये पैसे के पूरे विश्व का भ्रमण कर लिया, विदेशों में खूब प्रवचन दिए और जिस भी वस्तु की उन्हें आवश्यकता होती, प्रकृति उन्हें उस वस्तु की व्यवस्था कैसे भी स्वयं कर देती| अगर हमारे संकल्प में गहनता है तो इस सृष्टि में कुछ भी हमारे लिए अप्राप्य नहीं है| तपस्वी संत महात्मा एकांत में रहते है| भगवन उनकी व्यवस्था स्वयं कर देते हैं क्योंकि वे निरंतर भगवान का ही चिंतन करते है|
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अपने ह्रदय और मन को शांत रखो| जो कुछ भी परमात्मा का है वह सब हमारा ही है| यह समस्त सृष्टि हमारी ही है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहां तक के हम ही सम्राट हैं| सृष्टि के सारे सद्गुण हमारे ही हैं| अपने आप को परमात्मा को सौंप दो| परमात्मा का सब कुछ हमारा ही है| स्वयं परमात्मा ही हमारे हैं| जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी क्या बचा रह गया है ???. हमें आभारी होना चाहिए कि भगवान ने हमें स्वस्थ देह दी है, अपना चिंतन दिया है, अहैतुकी प्रेम दिया है, हमारे सिर पर एक छत दी है, अच्छा पौष्टिक भोजन मिल रहा है, स्वच्छ जल और हवा मिल रही है, पूरे विश्व में हमारे शुभचिंतक मित्र है जो हम से प्रेम करते हैं, और हमारे गुरु महाराज हैं जो निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं|
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जिस आसन पर बैठ कर हम भगवान का ध्यान करते हैं वह हमारा सिंहासन है| जहाँ तक हमारी कल्पना जाती है वहाँ तक के हम सम्राट हैं| हम स्वयं ही वह सब हैं| पूरी सृष्टि हमारा परिवार है, समस्त ब्रह्मांड हमारा घर है, हम परमात्मा की दिव्य संतान हैं| जो कुछ भी भगवान का वैभव है उस पर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है| वह सब हम स्वयं ही हैं| हम स्वयं ही परम ब्रह्म हैं| हम और हमारे परम पिता परमात्मा एक हैं| जब भगवान ही हमारे हो गए तो और पाने के लिए बाकी कुछ भी नहीं रह गया है| सब कुछ तो प्राप्त कर लिया है| मैं और मेरे प्रभु एक हैं, अब उन में और मुझ में कोई भेद नहीं रह गया है|

शिवमस्तु ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ मई २०१३

हिन्दुओं में जातिवाद .......


 हिन्दुओं में जातिवाद .......
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हिन्दुओं में जाती प्रथा (जातिवाद) अब तक समाप्त हो जाती पर भारत के संविधान और सरकारी नीतियों ने इसे जीवित बना रखा है| सरकारी कागजों में जाती का उल्लेख प्रतिबंधित करने मात्र से ही जाती प्रथा समाप्त हो जायेगी| सबके साथ समान व्यवहार हो और किसी भी तरह का भेदभाव नहीं हो तो जाती प्रथा नहीं रहेगी| इसे राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के लिए जीवित बना रखा है|
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हिन्दू धर्मावलम्बी वैसे ही संगठित नहीं है, पर उनमें से ब्राह्मण जाती के लोग तो सर्वाधिक असंगठित हैं| यही उनके पतन का सबसे बड़ा कारण है| जब तक ब्राह्मणों में उप जाती भेद है तब तक ब्राह्मण एकता कभी भी नहीं हो सकती|
ब्राह्मण ब्राह्मण है, उन्हें अपनी सभी उपजातियों को विसर्जित कर देना चाहिए| उनकी कई उप जातियाँ हैं जैसे .... गौड़, सारस्वत, कान्यकुब्ज, शाकद्वीपीय, मैथिली, सरयुपारीन, सनाढ्य, त्यागी, पुष्करणा, दाधीच, श्रीमाली, भूमिहार, खंडेलवाल, महियाल, चित्तपावन, देशस्थ, कोंकणी, अयंगार, अय्यर, नम्बूदरी, नियोगी आदि आदि आदि| इन सब को विसर्जित कर देने का समय आ गया है|

हाथी के दांत खाने के और, और दिखाने के और ....

हाथी के दांत खाने के और, और दिखाने के और ....
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भारत में कई लोग अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के बारे में धारणा रखते थे कि ये इस्लामिक आतंकवाद के विरोधी हैं और आतंकवादियों का नाश कर के ही छोड़ेंगे, उन्हें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का विचित्र शीर्षासन देखकर निराशा हुई होगी| अमेरिका के लिए अपने आर्थिक हित सर्वोपरी हैं| अमेरिका एक कारोबारी देश है जिसका भगवान सिर्फ पैसा है| और ट्रम्प महोदय तो स्वयं एक सफल कारोबारी हैं| कोई कारोबार करना सीखे तो उनसे सीखे|
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राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के लिए उन्होंने अमेरिका का इस्लाम विरोधी मानस भाँप कर इस्लाम और आतंकवाद को एक ही सिक्के के दो पहलू बता दिया था| अमेरिका के मध्यम और निम्न वर्ग के लोगों को उन्होंने सम्मोहित कर लिया| सात मुस्लिम देशों के नागरिकों के अमेरिका प्रवेश पर प्रतिबंध लगा कर अपनी छवि एक इस्लाम विरुद्ध नेता के रूप में बनाई|
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लेकिन उनकी सऊदी यात्रा ने उनकी पोल खोल दी| सऊदी अरब में वे इस्लामी आतंकियों को धमकाते धमकाते गए थे जहाँ विश्व के सुन्नी बहुमत वाले ५५ देशीं के राष्ट्राध्यक्ष उपस्थित थे| वहाँ उन्होंने अपने व्यापारिक हित को अधिक महत्व दिया और सउदी अरब के साथ 350 अरब डॉलर के रक्षा-समझौते और 200 बिलियन डॉलर के अन्य व्यापारिक समझौते कर के, करोड़ों डॉलर कमा कर, अमेरिकी अर्थव्यवस्था में एक नई जान फूँक दी| इसे कहते हैं असली कारोबारी|
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वहाँ उन्होंने एक नंगी तलवार हाथ में लेकर अरबी संगीत पर नृत्य भी किया, सऊदी अरब की खूब तेल मालिश की और आतंकवाद का सारा दोष अकारण शिया देश ईरान पर डाल दिया| उन्होंने पाकिस्तान को घास इसलिए नहीं डाली क्योंकि भिखारी पकिस्तान के साथ अमेरिका की दोस्ती सदा एक घाटे का सौदा रही है| अमेरिका ने पाकिस्तान का उपयोग सिर्फ भारत को डराने धमकाने के लिए ही किया है|
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दुनिया में फैले इस्लामी आतंकवाद को धन देने वाला सबसे बड़ा देश सऊदी अरब ही है| सबसे अधिक हिंसक और आक्रामक वहाबी इस्लाम सऊदी अरब का फैलाया हुआ है| ट्रंप ने सउदी अरब में दुनिया के सुन्नी बहुल 55 मुस्लिम देशों के नेताओं को संबोधित किया| मुझे लगता है कि राष्ट्रपति ट्रम्प निकट भविष्य में सुन्नी सउदी अरब और शिया ईरान में युद्ध आरम्भ करवा कर ही अमेरिकी हित साधेंगे, वैसे ही जैसे पूर्व में अमेरिका ने ही ईरान और इराक में आपस का युद्ध करवाया था| उन्होंने अपने रोगी (अरब देशों) के सही मर्ज का तो पता लगा लिया पर एक गलत दवाई दी जिससे रोग सदा बना रहे और अमेरिकी हित सधता रहे|
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राष्ट्रपति ट्रम्प के ही साथ गए एक सैन्य अधिकारी तो इस्लामी देशों के नेताओं को "द इस्लामिस्ट माफिया" कहते हुए सुने गए| अमेरिका को तानाशाहों द्वारा शासित या बादशाहों द्वारा शासित सऊदी अरब जैसे देश ही पसंद है जो अमेरिका से बिना किसी आवश्यकता के अनाप सनाप खूब हथियार खरीद सकते हैं, क्योंकि वहाँ उनको कोई प्रश्न नहों कर सकता| सऊदी अरब में वहाँ के बादशाह के किसी निर्णय का विरोध करने वाले का तो सिर सार्वजनिक रूप से काट दिया जाता है| अतः वहां किसी का सहस नहीं होता कि वह सरकार का विरोध करे|
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सऊदी अरब सरकार द्वारा अरबों डॉलर से खरीदे हुए टैंकों और युद्धक विमानों का प्रयोग भारत के विरुद्ध हो सकता है क्योंकि सऊदी अरब और पाकिस्तान में एक रक्षा समझौता है| भारत में होने वाली सारी आतंकी गतिविधियों के लिए धन पकिस्तान के माध्यम से सऊदी अरब से ही आता है| सऊदी अरब को किसी भी देश से कोई खतरा नहीं है, वह इतने सारे हथियारों का करेगा क्या? उसके पास तो सेना बनाने के लिए आदमी ही नहीं है अतः वह निश्चित रूप से भाड़े पर पाकिस्तानियों को भर्ती करेगा| अभी भी उसने ५५ देशों के सुन्नी मुसलमानों की एक इस्लामी सेना बना रखी है जिसके सेनापती पाकिस्तान के पूर्व स्थल सेना प्रमुख जनरल राहिल शरीफ हैं|
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अतः मेरे प्यारे भारत वासियों अपनी रक्षा के लिए स्वयं सशक्त बनो| अमेरिका आदि देशों और पश्चिमी देशों पर निर्भर मत रहो| भारत में हुई आतंकी घटनाओं पर इन देशों ने कभी भारत का साथ नहीं दिया|
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हर देश की विदेश निति भावुकता से नहीं, अपने राष्ट्रीय और आर्थिक हितों को दृष्टी में रखकर बनती है| हम स्वयं सशक्त और राष्ट्रवादी होंगे तो ही दुनिया हमारा साथ देगी, अन्यथा नहीं|
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वन्दे मातरम् | भारत माता की जय | ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||
 कृपा शंकर
२५ मई २०१७

जन्म और मृत्यु .....

जन्म और मृत्यु .....

 प्राणी का जन्म मृत्यु के लिए ही होता है, .... यह सनातन सत्य है| जन्म और मृत्यु के मध्य का समय ही जीवन है| विचारणीय विषय यह है कि इसकी सार्थकता यानि सर्वश्रेष्ठ उपयोग क्या हो सकता हैै? प्रत्येक प्राणी जो इस संसार में जन्म लेता है वह क्या बनेगा इसका उसे कोई ज्ञान नहीं होता| पर इतना तो उसे बोध होता ही है कि वह मृत्यु को एक न एक दिन अवश्य प्राप्त होगा| यही परम सत्य है|
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"जीवन और मृत्यु" क्या हमारे वश में है? पता नहीं कितनी बार हम जन्में और मरे हैं| कब तक यह चक्र चलता रहेगा? कुछ भी नहीं कह सकते| शास्त्र कहते हैं कि कर्म फल भोगने के लिए हम जन्म लेते हैं| पर एक कर्म फल भोगने के चक्कर में हज़ारों कर्मफल संचित कर लेते हैं| इस मायावी चक्र से कैसे मुक्ति पाएँ?
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श्रीमद्भागवत की कथा में राजा परीक्षित को जब यह ज्ञान हुआ कि आत्मा अजर-अमर है, तो उसका मृत्यु का भय समाप्त हो गया| मुक्ति की परिकल्पना ही एक असत्य है| आत्मा तो नित्य मुक्त है| अहंकार और मोह ही बंधन के कारण हैं| इनसे मुक्त होना ही मुक्ति है| अहं का पूर्ण समर्पण ही मुक्ति है| मन में कोई शुभ विचार आए तो उसे उसी दिन उसी समय पूर्ण करने का प्रयास करना चाहिए| कल पर टालना ही मृत्यु है|
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जो हमारे वश में ही नहीं है, उस पर हम हम क्या कर सकते है? पर जो हमारे वश में है वह तो इसी क्षण कर सकते हैं| सबसे बड़ी सेवा और सबसे महान कार्य जो हम जीवन में कर सकते हैं वह है ..... "परमात्मा को पूर्ण समर्पण और निज जीवन में उसे व्यक्त करने का प्रयास" ..... जो हमें निरंतर करना चाहिए|
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हे जगन्माता, तुम्हीं परमब्रह्म हो, तुम्ही परमशिव हो, तुम्ही विष्णु हो, तुम्हीं नारायण हो| मैं तुम्हें नहीं जानता, पर तुम मेरे ह्रदय में प्रेमरूप में स्थित हो, तुम मेरे ह्रदय का परम प्रेम हो| प्रेम रूप में तुम सदा मेरे साथ हो|
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मैं मेरे सारे बुरे-अच्छे कर्म और उनके फल, मेरी सारी बुराइयाँ और अच्छाइयाँ ..... सब तुम्हें समर्पित करता हूँ| मुझे कोई मुक्ति नहीं चाहिए| चाहिए तो बस तुम्हारे ह्रदय का सम्पूर्ण प्रेम| उससे कम कुछ भी नहीं| मैं सदा तुम्हारे ह्रदय में रहूँ| फिर चाहे कितने भी ज्न्म और मृत्यु हो मुझे उससे कोई मतलब नहीं है|
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ॐ तत्सत ! ॐ शिव ! ॐ ॐ ॐ ||

कृपाशंकर
25 May 2015

आनंद की झलक :----

आनंद की झलक :----
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मनुष्य मौज-मस्ती करता है सुख की खोज में| यह सुख की खोज, अचेतन मन में छिपी आनंद की ही चाह है| सांसारिक सुख की खोज कभी संतुष्टि नहीं देती, अपने पीछे एक पीड़ा की लकीर छोड़ जाती है|
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आनंद की अनुभूतियाँ होती हैं सिर्फ ..... परमात्मा के ध्यान में| परमात्मा ही आनंद है, परम प्रेम जिसका द्वार है|
प्राण ऊर्जा का घनीभूत होकर मेरुदंड की सुषुम्ना नाड़ी के छः चक्रों में ऊर्ध्वगमन, कूटस्थ में अप्रतिम ब्रह्मज्योति के दर्शन और ओंकार का नाद, सहस्त्रार में व उससे भी आगे सर्वव्यापी भगवान परमशिव की अनुभूतियाँ जो शाश्वत आनंद देती हैं, वह भौतिक जगत में असम्भव है|
 .
 एक ध्वनी ऐसी भी है जो किसी शब्द का प्रयोग नहीं करती | उस निःशब्द ध्वनी में तन्मय हो जाना उच्चतम साधनाओं में से एक है | ॐ ॐ ॐ ||

ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

अहंकार यानि ईश्वर से पृथकता मनुष्य की समस्त पीडाओं का एकमात्र कारण है ....

May 24, 2013

अहंकार यानि ईश्वर से पृथकता मनुष्य की समस्त पीडाओं का एकमात्र कारण है|

सब दू:खों, कष्टों और पीडाओं का स्थाई समाधान है --- शरणागति, यानि पूर्ण समर्पण|
प्रभु को इतना प्रेम करो, इतना प्रेम करो कि निरंतर उनका ही चिंतन रहे| फिर आपकी समस्त चिंताओं का भार वे स्वयं अपने ऊपर ले लेंगे|
 

जो भगवान का सदैव ध्यान करता है उसका काम स्वयं भगवान ही करते हैं|

संसार में सबसे बड़ी और सबसे अच्छी सेवा जो आप किसी के लिए कर सकते हो वह है -- परमात्मा की प्राप्ति|
तब आपका अस्तित्व ही दूसरों के लिए वरदान बन जाता है|

तब आप इस धरा को पवित्र करते हैं, पृथ्वी पर चलते फिरते भगवान बन जाते हैं, आपके पितृगण आनंदित होते हैं, देवता नृत्य करते हैं और यह पृथ्वी सनाथ हो जाती है|

भारतवर्ष ....

भारतवर्ष ........
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सनातन धर्म ही भारतवर्ष है, और भारतवर्ष ही सनातन धर्म है| भारतवर्ष ऊर्ध्वमुखी चेतना के ऐसे लोगों का समूह है जो निरंतर विभा में रत हैं| सनातन धर्म ही भारतवर्ष की राजनीति है|
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मुझे गर्व है ऐसे भारत पर जहाँ गंगा, यमुना, सरस्वती, सिन्धु, गोमती, गोदावरी, नर्मदा, कृष्णा और कावेरी जैसी अनेक पवित्र नदियाँ हैं, जहाँ हिमालय की गुफाएँ हैं और ऐसे महान भक्त, त्यागी-तपस्वी, विरक्त संत हैं जो दिन-रात निरंतर परमात्मा का चिंतन करते हैं|
>
यह संत-महात्माओं, त्यागी-तपस्वियों, सिद्ध-योगियों, भक्तों, दानियों और शूरवीरों का देश सदा अज्ञान और अन्धकार में नहीं रह सकता|
>
परमात्मा की सबसे अधिक अभिव्यक्ति कहीं हुई है तो बस इसी देश में|
हजारों वर्षों के कालखंड में पिछले एक हज़ार वर्षों का समय अज्ञानान्धकार का था जो व्यतीत हो चुका है| अब आगे आने वाला समय प्रकाश ही प्रकाश का है| भारत का भविष्य सनातन धर्म है और इस पृथ्वी का भविष्य भारतवर्ष है| परमात्मा के प्रति पूर्ण प्रेम की अभिव्यक्ति और पूर्ण समर्पण ही जीवन का ध्येय है|
>
एक प्रचंड प्रबल आध्यात्मिक ब्रह्मतेज का प्राकट्य इस राष्ट्र में होने वाला है जो सब तरह की दुर्बलताओं का विनाश कर एक नए भारत को साकार रूप देगा|
भारत माँ अपने द्वीगुणित परम वैभव के साथ अखंडता के सिंहासन पर विराजमान होगी|
सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा समस्त विश्व में होगी|
इसे कोई नहीं रोक सकता क्योंकि यही ईश्वर की इच्छा है जिसको क्रियान्वित करने के लिए समस्त प्रकृति बाध्य है|
असत्य और अन्धकार की शक्तियों का पूर्ण विनाश निश्चित है|
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ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
२४ मई २०१५.

अब मेरी कभी भी कोई भी इच्छा नहीं हो .....

 अब मेरी कभी भी कोई भी इच्छा नहीं हो .....
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मैं समान विचार और समान साधना पद्धति के लोगों का एक समूह बनाना चाहता था जो सप्ताह में कम से कम एक दिन एक निश्चित समय और निश्चित स्थान पर आकर मिले और कम से कम दो घंटे तक सामूहिक ध्यान करे जिसमें कुछ समय प्रार्थना, भजन और स्वाध्याय का भी हो|
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पर मैं मेरे इस उद्देश्य में विफल रहा| मैं इस बारे में मैं कोई बहाना नहीं बनाना चाहता| यह मेरे प्रयासों या मेरी क्षमता में कमी और मेरी विफलता ही थी|
बड़े नगरों में तो निष्ठावान साधकों के इस तरह के कई समूह हैं, पर छोटे स्थानों पर यह एक कठिन कार्य है| संभवतः यह मेरी नियती ही थी|
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कुछ साधकों को मैंने तैयार भी किया पर अपने व्यवसाय और नौकरी आदि के लिए वे दूर चले गए|
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एकांतवास, निःसंगत्व, वैराग्य आदि मेरे प्रारब्ध में नहीं थे| मन बड़ा बेचैन और अशांत रहने लगा| फिर एक विचार ने बड़ी शान्ति, स्थिरता और दृढ़ता प्रदान की| वह विचार था कि एकमात्र अस्तित्व परमात्मा का है, अन्य कोई तो है ही नहीं| जल की एक बूँद जैसे महासागर में मिलकर स्वयं महासागर बन जाती है, वैसे ही इस परिछिन्न आत्मा को अपरिछिन्न परमात्मा में समर्पित हो जाना चाहिए|
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यह संसार अपने नियमों से चलता है, न कि मेरी कामनाओं और अपेक्षाओं से| मेरा कुछ कामना करना ही गलत था| मैं कुछ नहीं करता, सब कुछ तो भगवान ही कर रहे हैं| जैसी भी उनकी इच्छा हो वह पूर्ण हो| इस विचार ने ही मुझे जीवित रखा है|
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हे प्रभु, अब मेरी कभी भी कोई भी इच्छा नहीं हो| कभी मेरी कोई इच्छा पूरी भी मत करना| कोई इच्छा जागृत ही न हो|
हे प्रभु, तुम महासागर हो, और मैं जल की एक बूँद हूँ जो तुम्हारे साथ एक है|
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ॐ तत्सत | ॐ ॐ ॐ ||

गायत्री मन्त्र की अनिवार्यता ....

गायत्री मन्त्र की अनिवार्यता ....
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जिन का भी यज्ञोपवीत संस्कार हुआ है उन्हें तो हर परिस्थिती में गायत्री मन्त्र का नियमित जाप करना अनिवार्य है| इसके बिना वह व्यक्ति द्विजत्व से च्युत हो जाता है, उसकी अन्य कोई भी साधना सफल नहीं होती|

कुछ आचार्यों के अनुसार गायत्री मन्त्र की कम से कम दस माला तो नित्य जपनी ही चाहिए| एक माला तो कम से कम किसी भी परिस्थिति में अनिवार्य है|

योग मार्ग के साधक सप्त व्याहृतियों के साथ षटचक्रों में एक गुरु प्रदत्त गुप्त विधि से गायत्री मन्त्र का जप करते हैं जो बड़ी प्रभावी है|

कुछ आचार्यों के अनुसार जिन पुरुषों का यज्ञोपवीत संस्कार हो चुका है उनकी पत्नियाँ भी गायत्री मन्त्र के जाप की अधिकारिणी हैं|

इस विषय पर किसी भी विवाद में न पड़कर अपनी अपनी गुरु परम्परानुसार गायत्री की उपासना करनी चाहिए|

कोई संदेह हो तो किसी ब्रह्मनिष्ठ श्रौत्रीय आचार्य से मार्गदर्शन लें| पर साधना करें अवश्य| ॐ ॐ ॐ ||

भगवान शिव के माथे पर सदा गंगाजी क्यों विराजमान हैं ----------

भगवान शिव के माथे पर सदा गंगाजी क्यों विराजमान हैं .......
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गंगा का अर्थ है .....ज्ञान | हमारे पंचकोषात्मक (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय) देह के मस्तिष्क में ज्ञान गंगा नित्य विराजमान है| भगवान शिव तो परम चैतन्य के प्रतीक ही नहीं स्वयं परम चैतन्य हैं| समस्त सृष्टि के सर्जन-विसर्जन की क्रिया उनका नृत्य है| परमात्मा की ऊँची से ऊँची विराट से विराट परिकल्पना जो मनुष्य का मस्तिष्क परमात्मा की कृपा से ही कर सकता है वह भगवान शिव का स्वरुप है| उनके माथे पर चन्द्रमा कूटस्थ चैतन्य, गले में सर्प कुण्डलिनी महाशक्ति, उनकी दिगंबरता सर्वव्यापकता, और देह पर भभूत वैराग्य के प्रतीक हैं| ऐसे ही उनके माथे पर गंगा जी समस्त ज्ञान का प्रतीक है जो निरंतर प्रवाहित हो रही है| जिस तरह मनुष्य के मस्तिष्क में ज्ञान और बुद्धिमता का भंडार भरा पड़ा है वैसे ही सर्व व्यापक भगवान शिव के माथे पर सम्यक चैतन्य की आधार माँ गंगाजी नित्य विराजमान हैं|
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भगवान शिव का स्वरुप पूर्णता का प्रतीक है| स्वर्णिम लहराती जटा उनकी व्यापकता की सूचक है जिसमें उन्होंने सारे संसार का भार उठा रखा है| गले में लिपटा सर्प काल स्वरुप है जिस पर वश करने के कारण ही वे मृत्युंजय हैं| यदि वे विष को अपने कंठ में धारण नहीं करते, तो देवताओं को अमृत कभी नहीं मिल पाता| वही अमृत हमें कुम्भ के मेलों में मिल रहा है| सारी सृष्टि के हलाहल का उन्होंने पान कर लिया, पर स्वयं अमृतमय होने के कारण वह हलाहल नीचे नहीं उतर रहा है अतः वे नीलकंठ हैं| त्रिशुल त्रिगुणात्मक शक्तियों और तीन प्रकार के कष्टों के विनाश का सूचक है| व्याघ्र चर्म मन की चंचलता के दमन का सूचक है| नन्दी रुपी धर्म पर भस्म लपेटे हुये पूर्ण निर्लिप्तता के साथ वे सारी सृष्टि में विचरण करते हैं| माँ भगवती पार्वती, गणेश और कार्तिकेय ..... सब की पृथक पृथक उपासना भी महा फलदायी है, पर एक शिव की उपासना में ही सभी का फल मिल जाता है| उनकी महिमा अनंत है|
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ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ नमः शिवाय ! ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मई २०१३

मंदिरों का चढ़ावा सिर्फ उनकी सुव्यवस्था और धर्म-प्रचार में ही खर्च हो ---

मंदिरों का चढ़ावा सिर्फ उनकी सुव्यवस्था और धर्म-प्रचार में ही खर्च हो ---
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प्राचीन काल से ही यह परम्परा थी कि मंदिरों का उपयोग एक साधना स्थल के रूप में ही होता था| मंदिरों की वास्तु शैली और दिनचर्या ऐसी होती थी साधकों की साधना के दिव्य स्पंदन वहाँ सुरक्षित रहते और वहाँ आने वाले श्रद्धालुओं के हृदयों को दिव्य भावों और पवित्रता से भर देते|
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मंदिरों के साथ एक गौशाला, पाठशाला, अन्नक्षेत्र और सदावर्त भी होते थे| मंदिरों का धन सिर्फ वहाँ की सुव्यवस्था और धर्मप्रचार के लिए ही होता था| गौशाला में गौसंवर्धन का कार्य होता| भारत की अर्थव्यवस्था कृषि आधारित व गायों पर निर्भर थी| पाठशाला में बच्चों को आरम्भिक रूप से लौकिक, नैतिक और धार्मिक शिक्षा दी जाती थी| वहाँ से पढ़े विद्द्यार्थी बड़े चरित्रवान होते थे| अन्नक्षेत्र से ब्रह्मचारी विद्यार्थियों को अन्नदान दिया जाता था| सदावर्त से साधू सन्यासियों को उनकी आवश्यकता के सामान की पूर्ती की जाती थी|
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कालांतर में विदेशी आक्रमणों के कारण यह व्यवस्था नष्ट हो गयी| मंदिर भी वे ही बचे जिन्हें प्रत्यक्ष रूप से हिन्दू शासकों का संरक्षण प्राप्त था| हिन्दू शासकों व हिन्दू सेठ साहूकारों द्वारा संचालित मन्दिर ही सुव्यवस्थित रहे| पर राजा महाराजाओं का राज्य समाप्त होने पर हिन्दू मंदिरों की लूट खसोट आरम्भ हो गयी| अधिकांश मंदिर भारत की धर्मनिरपेक्ष (अधर्मसापेक्ष) सरकार ने अपने अधिकार में कर लिए| उनके धन का दुरुपयोग अपने स्वार्थ के लिए करना शुरू कर दिया|
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इस धर्मनिरपेक्ष सरकार ने किसी दरगाह, मस्जिद या चर्च को अपने अधिकार में नहीं लिया, सिर्फ मंदिरों को ही लिया कयोंकि इसकी योजना धीरे धीरे हिन्दू धर्म को नष्ट करने की थी| बाकि बचे मंदिरों पर जिनकी चली उन्होंने अपना निजी अधिकार कर लिया और घर बना लिए|
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भोले भाले हिन्दू, मंदिरों में रूपया चढाते रहे यही सोचकर कि वे भगवान को चढ़ा रहे हैं, पर आज तक क्या किसी ने भगवान को या किसी देवी-देवता को रुपया उठाते या स्वीकार करते हुए देखा है क्या? उनका क्या उपयोग होता है यह कोई नहीं सोचता| पैसा वहीं चढ़ाना चाहिए जहाँ उसका सदुपयोग होता हो|
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अब समय आ गया है कि हिन्दू मंदिरों को हिन्दू धर्माचार्यों द्वारा निर्मित/संचालित ट्रस्टों को सशर्त सौंप दिया जाए कि वे उनका निर्धारित सदुपयोग ही करेंगे| इस विषय पर सभी हिन्दुओं को विचार करना चाहिए और कुछ निर्णायक कदम उठाने चाहियें| धन्यवाद|
ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ मई २०१४

Sunday, 21 May 2017

मनुष्य जीवन की एकमात्र समस्या और एकमात्र समाधान :--

May 22. 2013.

मनुष्य जीवन की एकमात्र समस्या और एकमात्र समाधान :--
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यह सृष्टि परमात्मा की रचना है जिसे चलाने में वह सक्षम है| उसे हमारे सुझावों की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम स्वयं भी उसी की रचना हैं|
हरेक कार्य विधिवत रूप से कुछ नियमों के अंतर्गत होता है, जिन्हें न जानना ही हमारी अज्ञानता है|
किसी नियम का उल्लंघन करने पर दंड तो हमें भुगतना ही पड़ता है| हमारा यह तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता कि हमें नियमों का ज्ञान नहीं था|
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कहीं न कहीं किसी आध्यात्मिक नियम का उल्लंघन करने से कष्ट और पीड़ा का सामना करना ही पड़ता है| यहीं से सभी तथाकथित समस्याएँ उत्पन्न होती हैं|
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वास्तव में ये समस्याएँ हमारी नहीं बल्कि सृष्टिकर्ता परमात्मा की हैं| वही तो सब कुछ कर रहा है| जब हम कुछ करेंगे ही नहीं तो हम कैसे उत्तरदायी हो सकते हैं ? हम ने तो कहा नहीं था कि हमें पृथक जीवन दो| जिसने यह जीवन दिया है और जो सब कुछ कर रहा है वही अपने कर्मफलों का भोगी है, हम नहीं| हम अहंकारवश स्वयं को कर्ता बना देते हैं बस यहीं से सब दु:ख, कष्ट और पीडाएं आरम्भ होती हैं|
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मनुष्य के सब दु:खों, कष्टों और पीडाओं का एकमात्र कारण है ----- परमात्मा से पृथकता|
अन्य कोई कारण नहीं है|
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इसी तरह मनुष्य की एकमात्र समस्या है ---- परमात्मा को उपलब्ध/समर्पित होना| अन्य कोई समस्या नहीं है| हम परमात्मा को कैसे उपलब्ध हों यही तो सनातन धर्म सिखाता है|
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हमें धर्म-निरपेक्ष से धर्म-सापेक्ष बनना होगा|
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अपना ध्यान निरंतर कूटस्थ पर रखो और परमात्मा के उपकरण बन जाओ| वह जब इस अनंत अन्धकार से घिरे घोर भवसागर में हमारा ध्रुव तारा ही नहीं बल्कि कर्णधार भी बन जाएगा तब हम भटकेंगे नहीं| प्रकृति की प्रत्येक शक्ति हमारे अनुकूल बन जायेगी| बस उसे और सिर्फ उसे अपनी जीवन नौका का कर्णधार बना लो|
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ॐ तत्सत्| इति| ॐ ॐ ॐ ||

कृपा शंकर
May 22, 2013.

क्या जीवन में परमात्मा की कोई आवश्यकता है? .....


May 22, 2015

क्या जीवन में परमात्मा की कोई आवश्यकता है? .....
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अधिकांश लोग कहते हैं की हमारे पास परमात्मा पर ध्यान के लिए, साधना के लिए, भजन के लिए समय नहीं है| कुछ लाभ होता है या घर में उससे चार पैसे आते हैं तो कुछ सोचें भी अन्यथा क्यों समय नष्ट करें| यह तो निठल्ले लोगों का काम है|
दूसरे कुछ लोग कहते हैं कि जब तक हाथ पैर चलते हैं तब तक खूब पैसे कमाओ, अपना और अपने परिवार व बच्चों का जीवन सुखी करो| जब खाट पकड़ लेंगे तब भगवान को याद करेंगे|
तीसरी तरह के लोग होते हैं कि अभी हमारा समय नहीं आया है| जब समय आयेगा तब देखेंगे|
चौथी प्रकार के लोग हैं जो कहते हैं कि अभी जिंदगी में कुछ मजा, मौज-मस्ती की ही नहीं है| मौज मस्ती से दिल भरने के बाद सोचेंगे|
पांचवीं तरह के लोग हैं जो कहते हैं कि जैसा हम विश्वास करते या सोचते हैं, वह ही सही है, बाकि सब गलत| हमारी बात ना मानो तो तुम जीने लायक ही नहीं हो|
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उपरोक्त सभी को सादर नमन|
दुनिया अपने हिसाब से अपने नियमों से चल रही है, और चलती रहेगी| कौन क्या सोचता है और क्या कहता है क्या इसका कोई प्रभाव पड़ता है?
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जीवन में एक ही पाठ निरंतर पढ़ाया जा रहा है, वह पाठ शाश्वत है| जो नहीं सीखते हैं, वे प्रकृति द्वारा सीखने को बाध्य कर दिए जाते हैं|
भगवान हो या ना हो, विश्वास करो या मत करो कोई अंतर नहीं पड़ता|
किसी से प्रभावित हुए बिना अपना कार्य करते रहो| प्रकृति सब कुछ सिखा देगी|

ॐ नमः शिवाय | ॐ ॐ ॐ ||

May 22, 2015

"श्री" शब्द का महत्व .....

May 22, 2015.

भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण के नाम के साथ हम "श्री" शब्द का प्रयोग करते हैं| बिना "श्री" के तो लगता है मैं ईश निंदा ही कर रहा हूँ| सिर्फ अभिवादन करने के लिए हम "राम राम" या "जय राम जी की" कहते हैं| पर उनकी स्तुति के लिए सदा "श्रीराम" ही कहते हैं| श्रीकृष्ण को तो मैं श्री विहीन सोच ही नहीं सकता|
जयश्रीराम ! जयश्रीकृष्ण !
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भारत में श्री, श्रीमान और श्रीमती शब्दों का सामाजिक शिष्टाचार में बड़ा महत्व है। आमतौर श्री, श्रीमान शब्द पुरुषों के साथ लगाया जाता है और श्रीमती महिलाओं के साथ। इसमें पेच यह है कि श्री और श्रीमान जैसे विशेषण तो वयस्क किन्तु अविवाहित पुरुषों के साथ भी प्रयोग कर लिए जाते हैं, किंतु श्रीमती शब्द सिर्फ विवाहिता स्त्रियों के साथ ही इस्तेमाल करने की परम्परा है। अविवाहिता के साथ सुश्री शब्द लगाने का प्रचलन है। यहां परम्परा शब्द का इस्तेमाल हमने इसलिए किया है क्योंकि श्रीमती शब्द में कहीं से भी यह संकेत नहीं है कि विवाहिता ही श्रीमती है। संस्कृत के “श्री” शब्द की विराटता में सबकुछ समाया हुआ है मगर पुरुषवादी समाज ने श्रीमती का न सिर्फ आविष्कार किया बल्कि विवाहिता स्त्रियों पर लाद कर उन्हें “श्रीहीन”कर दिया। संस्कृत के “श्री” शब्द का अर्थ होता है लक्ष्मी, समृद्धि, सम्पत्ति, धन, ऐश्वर्य आदि। सत्ता, राज्य, सम्मान, गौरव, महिमा, सद्गुण, श्रेष्ठता, बुद्धि आदि भाव भी इसमें समाहित हैं। धर्म, अर्थ, काम भी इसमें शामिल हैं। वनस्पति जगत, जीव जगत इसमें वास करते हैं। अर्थात समूचा परिवेश श्रीमय है। भगवान विष्णु को श्रीमान या श्रीमत् की सज्ञा भी दी जाती है। गौरतलब है कि “श्री” स्त्रीवाची शब्द है। उपरोक्त जितने भी गुणों की महिमा “श्री” में है, उससे जाहिर है कि सारा संसार “श्री” में ही आश्रय लेता है। अर्थात समस्त संसार को आश्रय प्रदान करनेवाली “श्री” के साथ रहने के कारण भगवान विष्णु को श्रीमान कहा गया है। इसलिए वे श्रीपति हुए। इसीलिए श्रीमत् हुए। भावार्थ यही है कि भगवान विष्णु तो कण-कण में व्याप्त हैं, वही राम भी हैं, वही तो कृष्ण भी हैं।
प्रश्न तो यह है कि जब “श्री” के होने से भगवान विष्णु श्रीमान या श्रीमत हुए तो फिर श्रीमती की क्या ज़रूरत है? “श्री” से बने श्रीमत् का अर्थ हुआ ऐश्वर्यवान, धनवान, प्रतिष्ठित, सुंदर, विष्णु, कुबेर, शिव आदि। यह सब इनके पास पत्नी के होने से है। पुरुषवादी समाज ने श्रीमत् का स्त्रीवाची भी बना डाला और श्रीमान प्रथम स्थान पर विराजमान हो गए और श्रीमती पिछड़ गईं। समाज यह भूल गया कि “श्री” की वजह से ही विष्णु श्रीमत हुए। संस्कृत में एक प्रत्यय है वत् जिसमें स्वामित्व का भाव है। इसमें अक्सर अनुस्वार लगाय जाता ...क्या किसी वयस्क के नाम के साथ श्रीमान, श्री, श्रीमंत या श्रीयुत लगाने से यह साफ हो जाता है कि उसकी वैवाहिक स्थिति क्या है... है जैसे बलवंत। इसी तरह श्रीमत् भी श्रीमंत हो जाता है। हिन्दी में यह वंत स्वामित्व के भाव में वान बनकर सामने आता है जैसे बलवान, शीलवान आदि। स्पष्ट है कि विष्णु श्रीवान हैं इसलिए श्रीमान हैं।  

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श्री तो स्वयंभू है। “श्री” का जन्म संस्कृत की श्रि धातु से हुआ है जिसमें धारण करना और शरण लेना जैसे भाव हैं। जाहिर है समूची सृष्टि के मूल में स्त्री शक्ति ही है जो सबकुछ धारण करती है। इसीलिए उसे “श्री” कहा गया अर्थात जिसमें सब आश्रय पाए, ... किसी भी स्त्री को श्री नहीं कहा जा सकता। अब ऐसी “श्री” के सहचर श्रीमान कहलाएं तो समझ में आता है मगर जिस “श्री” की वजह से वे श्रीमान हैं, वह स्वयं श्रीमती बन जाए, यह बात समझ नहीं आती। तुर्रा यह की बाद में पुरुष ने “श्री” विशेषण पर भी अधिकार जमा लिया। अक्लमंद सफाई देते हैं कि यह तो श्रीमान का संक्षिप्त रूप है। तब श्रीमती का संक्षिप्त रूप भी “श्री” ही हुआ। ऐसे में स्त्रियों को भी अपने नाम के साथ “श्री” लगाना शुरु करना चाहिए, क्योंकि वे ही इसकी अधिकारिणी हैं क्योंकि श्री ही स्त्री है और इसलिए उसे लक्ष्मी कहा जाता है। पत्नी या भार्या के रूप में तो वह गृहलक्ष्मी बाद में बनती है, पहले कन्यारूप में भी वह लक्ष्मी ही है। संस्कृत व्याकरण के मुताबिक 'श्री' शब्द के तीन अर्थ होते हैं: शोभा, लक्ष्मी और कांति। तीनों ही प्रसंग और संदर्भ के मुताबिक अलग-अलग अर्थों में इस्तेमाल होते हैं। श्री शब्द का सबसे पहले ऋग्वेद में उल्लेख मिलता है। तमाम किताबों में लिखा गया है कि 'श्री' शक्ति है। जिस व्यक्ति में विकास करने की और खोज की शक्ति होती है, वह श्री युक्त माना जाता है। ईश्वर, महापुरुषों, वैज्ञानिकों, तत्ववेत्ताओं, धन्नासेठों, शब्द शिल्पियों और ऋषि-मुनियों के नाम के आगे 'श्री' शब्द का अमूमन इस्तेमाल करने की परंपरा रही है। राम को जब श्रीराम कहा जाता है, तब राम शब्द में ईश्वरत्व का बोध होता है। इसी तरह श्रीकृष्ण, श्रीलक्ष्मी और श्रीविष्णु तथा श्रीअरविंद के नाम में 'श्री' शब्द उनके व्यक्तित्व, कार्य, महानता और अलौकिकता को प्रकट करता है। मौजूदा वक्त में अपने बड़ों के नाम के आगे 'श्री' लगाना एक सामान्य शिष्टाचार है। लेकिन 'श्री' शब्द इतना संकीर्ण नहीं है कि प्रत्येक नाम के आगे उसे लगाया जाए। असल में तो 'श्री' पूरे ब्रह्मांड की प्राण-शक्ति है। ईश्वर ने सृष्टि रचना इसलिए की, क्योंकि ईश्वर श्री से ओतप्रोत है। परमात्मा को वेद में अनंत श्री वाला कहा गया है। मनुष्य अनंत-धर्मा नहीं है, इसलिए वह असंख्य श्री वाला तो नहीं हो सकता है, लेकिन पुरुषार्थ से ऐश्वर्य हासिल करके वह श्रीमान बन सकता है। सच तो यह है कि जो पुरुषार्थ नहीं करता, वह श्रीमान कहलाने का अधिकारी नहीं है।
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"श्री" सम्पूर्ण ब्रह्मांड की प्राणशक्ति हैं| परमात्मा अनन्तश्री हैं| भगवान श्रीकृष्ण ने परमात्मा की उच्चतम अभिव्यक्ति की इसलिए वे श्री कृष्ण हैं| "श्री" के बिना भगवान साकार रूप ले ही नहीं सकते|
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ॐ ॐ ॐ

सबके लिए एक ही मार्ग नहीं हो सकता .....

सबके लिए एक ही मार्ग नहीं हो सकता .....
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सारे मार्ग और सिद्धांत हमारे लिए हैं, हम उनके लिए नहीं| हम सिर्फ और सिर्फ परमात्मा के लिए हैं| सब सिद्धांतों और मार्गों से ऊपर उठना ही पड़ेगा| परमात्मा हमारे कूटस्थ में सर्वदा विराजमान हैं| हमें कूटस्थ का अनुशरण करने और कूटस्थ चैतन्य में ही स्थिर रहने का निरंतर प्रयास करना चाहिए जहाँ भगवान की निरंतर अनुभूति होती है|
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यदि कोई मुझ से पूछे कि ध्रुवतारा कहाँ है तो मैं अपनी अंगुली से दिखाऊँगा कि ध्रुव तारा वहाँ है| एक बार ध्रुवतारे को देखने के पश्चात न तो मेरी अंगुली का कोई महत्व है और न ही मुझ बताने वाले का|
किसी मार्गदर्शिका को देखते हुए मैं अपने गंतव्य पर जाता हूँ| जब एक बार गंतव्य दिखाई दे जाता है तो मार्गदर्शिका की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि गंतव्य मेरे सामने है|
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वैसे ही एक बार परमात्मा की एक झलक मिल जाए तो इधर उधर देखना ही भटकाव है| पागल की तरह उनके पीछे पड़ जाओ| हमारे लक्ष्य परमात्मा हमारे समक्ष सर्वदा हैं| उन्हें छोड़कर इधर उधर कहीं भी नहीं देखना चाहिए|
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ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

साक्षी भाव .....

साक्षी भाव .....
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परमात्मा ही समस्याओं के रूप में आते हैं और वे ही समाधान हैं|
किसी भी व्यक्ति के सामने उतनी ही समस्याएँ आती हैं जिनका भार वह वहन कर सके, उससे अधिक नहीं|
विकट से विकट संकट का समाधान है ..... "सदा साक्षी भाव"|
स्वयं साक्षी बनकर परमात्मा को कर्ता बनाओ| अपना जीवन उसे सौंप दो|
उसे जीवन का केंद्र बिंदु ही नहीं समस्त जीवन का आश्रय बनाओ|
सब समस्याएं तिरोहित होने लगेंगी|
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पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, जप-तप सभी बाहरी उपक्रम हैं, लेकिन 'साक्षी भाव' दुनिया की सबसे सटीक और कारगर विधि है जो पदार्थ, भाव और विचार से व्यक्ति का तादात्म्य समाप्त कर देती है| साक्षी भाव अध्‍यात्म का राजपथ तो है ही साथ ही यह जीवन के सुख-दुःख में भी काम आता है|
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साक्षीभाव ही आध्यात्म का प्रवेशद्वार है|
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साक्षी भाव की एक और कड़ी है .... गृहस्थ सन्यासी की तरह रहना| श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय गृहस्थ थे, सामान्य धोती कुर्ता पहनते थे व नौकरी करते थे| एक बार वे एक बहुत बड़े आध्यात्मिक पुरूष त्रेलंग स्वामी से मिलने गए| स्वामी जी अपने सैंकड़ों शिष्यों के साथ बैठे थे| उनको आता देखकर स्वामी जी उठ खड़े हुए, गले लगाया और सम्मान पूर्वक बैठाया| शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के प्रति इतना सम्मान क्यों? स्वामी जी ने बताया कि जिसको पाने के लिए मुझे वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी, रोटी और लंगोटी तक का भी त्याग करना पड़ा, ये महाशय गृहस्थ रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं है|
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साक्षी भाव का अभ्यास अजपा-जप और प्रणव के ध्यान द्वारा करें| ध्यान साधना को जीवन का अंग बनायें|
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साक्षी भाव का मूल है ...... कर्मों में निर्लिप्तता ......
हम हर पल कुछ न कुछ कर्म करते है और एक किया गया कर्म दूसरे कर्म का कारण होता है| दूसरा कर्म तीसरे का कारण है और इस प्रकार ये कार्य कारण की अनन्त श्रंखला चलती ही रहती है, और इस श्रंखला के कारण मनुष्य बार बार जन्म लेता है| अब प्रश्न ये है कि इस से बाहर निकले का उपाय क्या है?
क्यों कि कर्म तो हम चाहे या न चाहे वो तो हमसे होते ही रहेंगे, कर्महीन होना असंभव है|
इस का उत्तर सिर्फ गीता में ही है और कही भी नही है| गीता में भगबान श्री कृष्ण कहते है कि .....
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ||
कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम
शान्ति पाता है। लेकिन जो ऐसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये
कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बन्ध जाता है|
भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कह रहे है की कर्म करो, फल की इच्छा मत करो| जिसने ऐसा न किया वह निश्चित ही अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म किया है उस का दायीत्व स्वयं लेकर उस का फल भोगने को तैयार है| सारे दुःख का कारण अपेक्षा है| साक्षी भाव का मूल है कर्मो में निर्लिप्तता|
जब हम कोई कर्म करे तो अपने ही साक्षी हो कर ये देखे कि .... ये कौन है जो यह कर रहा है| जब हम स्वाद ले, क्रोध या काम में, अन्य विविध कर्मो में कर्म करने वाला अर्थात वह स्वयं क्या अनुभव कर रहा है साक्षी हो कर| ये अनुभव करते वक्त आप अपने को (द्रष्टा ) अपने अस्तित्व से अलग रक्खे|
मेरी ये बात शायद कुछ लोगो को समझ में न आये पर मनन कीजिये आप स्वयं समझ जायेंगे। ये ठीक उसी प्रकार है जैसे आप कोई अपनी ही फिल्म देख रहे हो और वो भी लाइव.... इसका विचार शुन्यता से गहरा नाता है| इस के चमत्कारिक प्रभाव और उपयोगिता की चर्चा अंतहीन है।
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जीवन में आनन्द के आगे सारी कामनाएँ ठहर जाती हैं| इसके बाद कुछ रहता ही नहीं है चाहने को| नन्द का अर्थ है ... समृद्धि| आनन्द का अर्थ है चहुंमुखी, पूर्ण समृद्धि| समृद्धि का अर्थ है ...... सम्+रिद्धि| रिद्धि का अर्थ है, जो निरन्तर सम्यक् रूप से बढता जाए| यह है लौकिक आनन्द| एक और आनन्द है .... पारलौकिक| इसके पर्याय हैं कृष्ण| जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि का विस्तार शुरू होता है| जहाँ जाकर सृष्टि का विस्तार ठहर जाता है| कृष्ण कहते हैं कि मैं अव्यय पुरूष हूं| उस अव्यय पुरूष की प्रथम कला ही आनन्द है| सम्पूर्ण सृष्टि इसी अव्यय पुरूष से आगे बढती है| अत: यह सिद्धान्त बन गया है कि आनन्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती| आनन्द के मूल में रहता है साक्षी भाव| जब व्यक्ति को ज्ञान के सहारे विज्ञानधारा समझ में आ जाती है, तब आनन्द की ओर गति होती है| साक्षी भाव प्रकट होता है| साक्षी होने का अर्थ है ..... अनासक्तभाव| न कोई आसक्ति, न कोई विरक्ति| न कुछ अच्छा है, न ही कुछ बुरा है। जो है, बस है|
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वर्षों पहिले एक कहानी पढी थी, संभवतः यह कहानी ओशो के किसी लेख में थी| बहुत सुन्दर कहानी है ....
एक बार एक नदी के किनारे दो सन्यासी अपनी पूजा पाठ में लगे हुए थे| उन सन्यासी में से एक ने गृहस्थ जीवन के बाद सन्यास ग्रहण किया था जबकि दूसरा बाल्य अवस्था से ही सन्यासी था| उन्होंने देखा की एक स्त्री नदी में स्नान कर रही हैं और नदी का स्तर लगातार बढ़ रहा हैं| उनमें से एक सन्यासी बोला अगर यह स्त्री डूबने लगेगी तो हम इसे बचा भी नहीं पाएंगे क्योंकि स्त्री का स्पर्श भी हमारे लिए वर्जित हैं| अचानक बचाओ बचाओ की आवाज आई तब वह सन्यासी जिसने गृहस्थ जीवन के बाद सन्यास ग्रहण किया था, उठ कर गया और उस स्त्री को निकाल कर किनारे ले आया और फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया| इस पर दूसरा सन्यासी बोला यह तुमने अच्छा नहीं किया, स्त्री का स्पर्श भी हमारे लिए अपराध है, तुमने सन्यासी धर्म का उल्लंघन किया है, तुम्हें इसका दंड मिलना चाहिए| तब दुसरे सन्यासी ने संयत स्वर में पूछा कि तुम किस स्त्री की बात कर रहे हो? उसने क्रोधित हो कर कहा जिस स्त्री को तुमने अभी अभी पानी से निकाला है| इस पर पहले वाले ने उत्तर दिया कि उस घटना को तो बहुत समय बीत गया है लेकिन तुम्हारे दिमाग से वह स्त्री अभी तक नही निकली है| मै तो उस घटना को भूल ही गया था| यह कह कर वह फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया|
साक्षीभाव तो यही है|
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हम सिर्फ साक्षी हैं, यह साक्षीभाव ही हमारा स्वभाव है| न हम कर्ता हैं और न विचारक| यह हमारा स्वरुप है| साक्षीभाव से ही "भूमा" तत्व की अनुभूति होती है| साक्षीभाव ही निष्काम कर्म है और साक्षीभाव ही संन्यास भी है|
संन्यास का अर्थ संसार को छोड़ देना नहीं है| संन्यास का अर्थ है : असार, व्यर्थ जो हम पकड़े हुए हैं, उसका छूट जाना| छोड़ना नहीं, छूट जाना| भेद स्पष्ट है|
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साक्षीभाव से वैराग्य जागृत होता है| हमारे देश में सन्यास तथा वैराग्य को लेकर भारी भ्रम प्रचलित है| विषयों में अनासक्ति का अर्थ यह माना जाता है कि मनुष्य कोई कर्म ही नहीं करे| संसार के अन्य जीवों से कटकर कहीं वन में जाकर रहने को ही सन्यास माना जाता है| कर्म और सन्यास की जो व्याख्या गीता में की गयी है उसे समझने में हम असमर्थ रहे हैं| कर्म करना और उसके फल में आकांक्षा न होना ही सन्यास है| श्रीमद्भागवत गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य अपनी देह के रहते बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता| वह तत्वज्ञान को जानने के बाद भी विषयों से पृथक नहीं होता बल्कि उसमें आसक्ति का त्याग कर देता है|
योग दर्शन के अनुसार ....
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम |
दिखने व सुनने वाले विषयों से सर्वथा तृष्णारहित चित्त की अवस्था ही वैराग्य है|
तत्परं पुरुषरव्यातेर्गुणवतृष्ण्यम् |
ज्ञान से प्रकृति के गुणों में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना ही परम वैराग्य है|
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साँसों के आवागमन को देखना, विचारों के आने-जाने को देखना, सुख और दुःख के भाव को देखना और इस देखने वाले को भी देखना ...... यह ऐसी प्रक्रिया है जैसे समुद्र की उथल-पुथल अचानक रुकने लगे और फिर धीरे-धीरे कंकर, पत्थर और कचरा नीचे तल में जाने लगे| जैसे-जैसे साक्षी भाव गहराता है मानो जल पूर्णत: साफ और स्वच्छ होने लगता है|
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जीवन सफल चुनौतियों से ही होता है| विकट से विकट चुनौती का समाधान बड़ा सरल है|
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ॐ ॐ ॐ ||

" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति " .....


" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति " ।

भूमा तत्व में यानि व्यापकता, विराटता में सुख है, अल्पता में सुख नहीं है| जो भूमा है, व्यापक है वह सुख है| कम में सुख नहीं है|
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ब्रह्मविद्या के आचार्य भगवान सनत्कुमार से उनके शिष्य देवर्षि नारद ने पूछा ..
" सुखं भगवो विजिज्ञास इति " |

जिसका उत्तर भगवान् श्री सनत्कुमार जी का प्रसिद्ध वाक्य है .....
" यो वै भूमा तत् सुखं नाल्पे सुखमस्ति " |


( यो वै भूमा तत् सुखम्, नाल्पे सुखमस्ति,भूमैव सुखं-छान्दोग्य उप. (७/२३/१) | )
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ॐ नमो भगवते सनत्कुमाराय | ॐ ॐ ॐ ||

नाथ सम्प्रदाय के १२ उप सम्प्रदायों में "मन्नाथी" सम्प्रदाय के "टाँई" गाँव (जिला झुंझुनूं, राजस्थान) स्थित प्राचीनतम प्रमुख मठ का भ्रमण .....

May 20, 2017.

नाथ सम्प्रदाय के १२ उप सम्प्रदायों में "मन्नाथी" सम्प्रदाय के "टाँई" गाँव (जिला झुंझुनूं, राजस्थान) स्थित प्राचीनतम प्रमुख मठ का भ्रमण .....
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राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र की मरुभूमि में झुंझुनू जिले के बिसाऊ कसबे के पास "टाँई" गाँव में मन्नाथी सम्प्रदाय का प्राचीनतम प्रमुख मठ है| यह मठ बहुत विशाल और जागृत स्थान है| इस सम्प्रदाय में अनेक सिद्ध संत हुए हैं और अभी भी हैं| यहाँ की परम्परा के संतों के झुंझुनू, फतेहपुर (सीकर जिला) और लक्ष्मणगढ़ (सीकर जिला) सहित भारत के अनेक स्थानों पर आश्रम हैं|

आज प्रातः साढ़े तीन बजे सपरिवार हमारे घर से लगभग ३२ किलोमीटर दूर इस आश्रम के लिए कार द्वारा चलकर ठीक चार बजे वहाँ पहुँच गया| बड़ा सुरम्य वातावरण था| वहाँ सूर्योदय से पूर्व ही शनिवार और मंगलवार को दूर दूर से अनेक श्रद्धालू आते हैं, जिनके असाध्य रोग नाथ जी महाराज की कृपा और आशीर्वाद से ठीक हो जाते हैं| ब्रह्ममुहूर्त में वहाँ जाना और भगवान का स्मरण करना अपने आप में एक अच्छा अनुभव था|

प्राचीन काल में स्यालकोट (वर्तमान में पाकिस्तान में) में शंखभाटी नाम के एक राजा थे जिनके पूर्णमल और रिसालु नाम के दो पुत्र थे| ये दोनों भाई श्री गोरक्षनाथ जी के प्रत्यक्ष शिष्य बने और क्रमशः योगी चोरंगी नाथ और योगी मन्नाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए| भ्रमण करते करते योगी मन्नाथ जी इस मरुभूमि में आये और यहीं रह कर घोर तपस्या कर के परम अवधूत सिद्ध संत कहलाये| उनकी ही परम्परा में यह मन्नाथी सम्प्रदाय बना और यह स्थान "टाँई" नामक गाँव के रूप में प्रसिद्ध हुआ|

यहीं पर योगी मन्नाथ जी ने अपनी देह त्यागी, जहाँ उनका समाधी मंदिर है| इस आश्रम के अंतर्गत प्राचीन काल से ही २००० बीघा कृषि भूमि है| इसमें उनके शिष्यों की भी समाधियाँ हैं| दीर्घकाल तक यहाँ बहुत अच्छे अच्छे सिद्ध संत रहे हैं, अतः यह स्थान बहुत जागृत है|

मुझे ऐसे स्थानों पर जाना बहुत अच्छा लगता है| मरुभूमि का यह पूरा क्षेत्र वास्तव में हर सम्प्रदाय के साधू संतों के दिव्य स्पंदनों से भरा पडा है|

ॐ ॐ ॐ ||

May 20, 2017.

वैवाहिक जीवन के ४४ वर्ष ---

May 19, 2017.

वैवाहिक जीवन के ४४ वर्ष ---
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ग्रेगोरियन पंचांगानुसार १९ मई १९७३ को एक गठबंधन में बंधकर गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया था| आज परमेष्ठी गुरु रूप परम शिव परमात्मा की परम कृपा से पूरे ४४ वर्ष हो गए हैं| आप सब परमात्मा की पूर्ण अभिव्यक्तियाँ यानी परमात्मा के साकार रूप हैं| आप सब में व्यक्त परमात्मा को नमन करता हुआ आपके आशीर्वाद की प्रार्थना करता हूँ|
सांसारिक जीवन के बहुत सारे उतार-चढ़ाव और परस्पर विरोधी व अनुकूल विचारधाराओं के संघर्ष, तालमेल एवं समझौतों को ही वैवाहिक जीवन कह सकते हैं| दूसरे शब्दों में कभी शांति, कभी गोलीबारी, कभी युद्धविराम और फिर शांति .... यही वैवाहिक जीवन है|
पाश्चात्य दृष्टिकोण से यह एक आश्चर्य और उपलब्धि है कि कोई विवाह इतने लम्बे समय तक निभ जाए| भारतीय दृष्टिकोण से तो अब से बहुत पहिले ही वानप्रस्थ आश्रम का आरम्भ हो जाना चाहिए था जो नहीं हो पाया|
एक आदर्श आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी है पर उसके आसपास पहुँचना भी अति कठिन है| सारे आदर्श आदर्श ही रह जाते हैं| जिस तरह पृथ्वी चन्द्रमा को साथ लेकर सूर्य की परिक्रमा करती है वैसा ही एक गृहस्थ का आदर्श है| वर्णाश्रम धर्म तो वर्तमान में एक आदर्श और अतीत का विषय ही होकर रह गया है| कई बाते हैं जो हृदय की हृदय में ही रह जाती हैं, कभी उन्हें अभिव्यक्ति नहीं मिलती|
यह सृष्टि और उसका संचालन जगन्माता का कार्य है| जैसी उनकी इच्छा हो वह पूर्ण हो|
हे प्रभु, हे जगन्माता, हमारा समर्पण पूर्ण हो, किसी प्रकार की कोई कामना, मोह और अहंकार का अवशेष ना रहे| हमारा अच्छा-बुरा जो भी है वह संपूर्ण आपको समर्पित है| हमारा समर्पण स्वीकार करो|
आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासो अपरितासउद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे॥
दवानां भद्रा सुमतिर्ऋजूयतां देवाना ग्वँग् रातिरभि नो निवर्तताम्।
देवाना ग्वँग् सख्यमुपसेदिमा वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तुजीवसे॥
तान् पूर्वया निविदाहूमहे वयं भगं मित्रमदितिं दक्षमस्रिधम्।
अर्यमणं वरुण ग्वँग् सोममश्विना शृणुतंधिष्ण्या युवम्॥
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमसे हूसहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये॥
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्वेवेदाः।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु॥
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वे नो देवा अवसागमन्निह॥
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं फश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरै रङ्गैस्तुष्टुवा ग्वँग् सस्तनू भिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः॥
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः॥
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता म पिता स पुत्रः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्॥
द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष ग्वँग् शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः सर्व ग्वँग् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि॥
यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु। शन्नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः॥ सुशान्तिर्भवतु॥
ॐ विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव यद् भद्रं तन्न आ सुव॥
ॐ तत्सत् | ॐ ॐ ॐ ||

May 19, 2017.

म्लेच्छ कौन है ? ....

म्लेच्छ कौन है ? ....
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म्लेच्छ शब्द पुल्लिंग है जिसका अर्थ है .... अनार्य, दुराचारी व्यक्ति|
जहाँ प्राणी निर्भय होकर नहीं घूम सकें वह म्लेच्छ देश है|
मनुस्मृति के अनुसार ...... कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः| सज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छ देशस्त्वतः परः|| (मनुस्मृति २/२३)
जहाँ कृष्ण मृग यानी काले हिरण जैसे पशु भी निर्भय होकर घूम सकें वह यज्ञीय देश हैं| जहाँ आतंक और हिंसा का वातावरण है वह म्लेच्छ देश हैं|
अब हम अनुमान लगा सकते हैं कि कौन म्लेच्छ है, कौन कौन से क्षेत्र म्लेच्छ क्षेत्र है, और कौन कौन से देश म्लेच्छ देश हैं|
ॐ ॐ ॐ ||

मंगोलिया महान योद्धाओं का देश था या दुर्दांत लुटेरों का ?.....

May 17, 2015.
मंगोलिया महान योद्धाओं का देश था या दुर्दांत लुटेरों का ?.....
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आजकल भारत के प्रधान मंत्री मंगोलिया की यात्रा पर हैं, इसलिए उपरोक्त प्रश्न का उठना स्वाभाविक है| मंगोलिया का इतिहास योरोपियन लोगों द्वारा लिखा गया है| योरोपियन लोगों ने अपने से अतिरिक्त अन्य सब की अत्यधिक कपोल कल्पित बुराइयाँ ही की हैं| योरोपियन लोग इतिहास के सबसे बड़े लुटेरे थे अतः उन्होंने अपने से अलावा सबको लुटेरा ही बताया है| भारत में आया पहला योरोपीय व्यक्ति वास्को-डी-गामा था जो एक नर पिशाच समुद्री डाकू था| भारत में जो अँग्रेज़ सबसे पहिले आये वे सब लुटेरे समुद्री डाकू थे| भारत पर जिन अंग्रेजों ने अधिकार किया वे सारे अंग्रेज़ .... चोर, लुटेरे डाकू, धूर्त, और बदमाश किस्म के सजा पाए हुए लोग थे जिन्हें सजा के तौर पर यहाँ भेजा गया था|
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योरोपियन इतिहासकारों ने सिकंदर को महान योद्धा और चंगेज़ खान को लुटेरा सिद्ध किया है| निष्पक्ष दृष्टी से देखने पर मुझे चंगेज़ खान की उपलब्धियाँ सिकंदर से बहुत अधिक लगती हैं|
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मंगोलिया कभी विभिन्न घूमंतू जातियों द्वारा शासित था| चंगेज़ खान ने मंगोलियाई साम्राज्य की स्थापना की थी| वह किसी कबीलाई धर्म को मानता था| पश्चिमी एशिया में इस्लाम के अनुयायियों का मंगोलों ने बहुत बड़ा नरसंहार किया था| बग़दाद का खलीफा जो इस्लामी जगत का मुखिया था, एक नौका में बैठकर टाइग्रस नदी में भाग गया था जिसे चंगेज़ खान की मंगोल सेना नदी के मध्य से पकड लाई और एक गलीचे में लपेट कर लाठियों से पीट पीट कर मार डाला| कालांतर में पश्चिमी एशिया में बचे खुचे मंगोलों ने इस्लाम अपना लिया| पर इस्लाम मंगोलिया तक कभी नहीं पहुँच पाया|
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चंगेज़ खान के भय से ही आतंकित होकर मध्य एशिया के कुछ मुसलमान कश्मीर में शरणार्थी होकर आये और आगे जाकर छल-कपट से कश्मीर के शासक बन गए और हिन्दुओं पर बहुत अधिक अत्याचार किये| इसका वर्णन "राजतरंगिनी" में दिया है|
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"खान" शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के "कान्ह" शब्द से हुई है जो भगवान श्रीकृष्ण का ही एक नाम था| भगवान श्रीकृष्ण के देवलोक गमन के बाद भी सैंकड़ों वर्षों तक पूरे विश्व में उनकी उपासना की जाती थी| प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस शिव भक्त "किरात" जाति का उल्लेख है, वह "मंगोल" जाति ही है| उन में "कान्ह" शब्द बहुत सामान्य था जो अपभ्रंस होकर "हान" हो गया| चीन के बड़े बड़े सामंत स्वयं के नाम के साथ "हान" की उपाधी लगाते थे| यही "हान" शब्द और भी अपभ्रंस होकर "खान" हो गया| प्रसिद्ध इतिहासकार श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक का यही मत था|
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चंगेज़ खान का राज्य इतने विशाल क्षेत्र पर था कि आज के समय उसकी कल्पना करना भी असम्भव है| मंगोलिया के इस महा नायक चंगेज़ खान का वास्तविक नाम मंगोल भाषा में "गंगेश हान" था| गंगेश शब्द संस्कृत भाषा का है| वह किसी देवी का उपासक था| बाद में उसके पोते कुबलई खान ने बौद्ध मत स्वीकार किया और बौद्ध मत का प्रचार किया| वहाँ के प्राचीन साहित्य में मंगोलों के लिए किरात शब्द का प्रयोग हुआ है|
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चंगेज़ खान को सूक्ष्म जगत की किसी आसुरी शक्ति का संरक्षण प्राप्त था जो उसे यह आभास करा देती थी कि कहाँ कहाँ पर और किस किस प्रकार से आक्रमण करना है| वह कभी कोई युद्ध नहीं हारा| उसका अधिकाँश समय घोड़े की पीठ पर ही व्यतीत होता था| घोड़े की पीठ पर चलते चलते ही वह सो भी लेता था| चंगेज खान के समय ही घोड़े पर बैठने की आधुनिक काठी व काठी के नीचे पैर रखने के लोहे के मजबूत पायदान का आविष्कार हुआ था| बहुत तेजी से भागते हुए घोड़े की पीठ पर से तीर चलाकर अचूक निशाना लगाने का उसे पक्का अभ्यास था जो प्रायः उसके सभी अश्वारोहियों को भी था| जो उसके सामने समर्पण कर देता था उसे तो वह छोड़ देता था बाकि सब का वह बड़ी निर्दयता से वध करा देता था|
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एक और प्रश्न उठता है यदि चंगेज़ खान मात्र लुटेरा था तो उसका पोता कुबलई ख़ान (मंगोल भाषा में Хубилай хаан; चीनी में 忽必烈; २३ सितम्बर १२१५ – १८ फ़रवरी १२९४) चीन का सबसे महान शासक कैसे हुआ?
कुबलई खान मंगोल साम्राज्य का का सबसे महान शासक था| वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था| उसका राज्य उत्तर में साइबेरिया के इर्कुत्स्क स्थित बाइकाल झील (विश्व में मीठे पानी की सबसे गहरी झील) से दक्षिण में विएतनाम तक, और पूर्व में कोरिया से पश्चिम में कश्यप सागर तक था, जो विश्व का 20% भाग है| उसके समय में पूरे मंगोलिया ने बौद्ध धर्म को अपना लिया था| चीनी लिपि का आविष्कार भी उसी के समय हुआ और मार्को पोलो भी उसी के समय ही चीन गया था| तिब्बत के प्रथम दलाई लामा की नियुक्ति भी उसी ने की थी| उसने १२६० से १२९४ तक शासन किया| कुबलई ख़ान चंगेज़ ख़ान के सबसे छोटे बेटे तोलुइ ख़ान का बेटा था|
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उसकी इच्छा जापान को जीतने की थी| उसने दो बहुत बड़े बड़े बेड़े बनवाए जिनमे हजारों नौकाएँ थीं| जापान पर आक्रमण करने के लिए उसका एक बेड़ा कोरिया से और एक बेड़ा चीन की मुख्य भूमि से जापान की ओर चला| इन बेड़ों में उसके लगभग चार लाख सैनिक और हजारों घोड़े थे| वह जापान पहुंचता इससे पहिले ही जापान सागर में एक भयानक तूफ़ान आया और उसकी सारी फौज डूब कर मर गयी| यहीं से मंगोल साम्राज्य का पतन आरम्भ हुआ| तभी से किसी को शाप देने के लिए हिंदी में यह कहावत शुरू हुई -- "तेरा बेड़ा गर्क हो"|
("कुबलई" शब्द संस्कृत के "कैवल्य" शब्द का अपभ्रंस हैै). रूसी भाषा में चीन को "किताई" कहते हैं, और वहाँ के प्राचीन साहित्य में मंगोलों के लिए किरात शब्द का प्रयोग हुआ है|
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मंगोलों से एक समय पूरा योरोप और एशिया काँपती थी| पर वे उस समय के दुर्दांत लुटेरे थे या योद्धा? यह इतिहास को दुबारा निर्णय देना होगा|

कृपाशंकर
May 17, 2015
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पुनश्चः :---  प्राचीन संस्कृत साहित्य में जिस किरात जाति का उल्लेख है, वह किरात जाति मंगोल जाति ही है|

परम प्रेम ही अनंत का द्वार है जो सदा खुला है ..........

परम प्रेम ही अनंत का द्वार है जो सदा खुला है ..........
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बिना परम प्रेम के कुछ भी नहीं मिलने वाला है चाहे कितने भी ग्रन्थ पढ़ लो, कितना भी जप तप कर लो| अनंत का द्वार सदा खुला था, है, और सदा ही खुला रहेगा| वे लोग धन्य हैं जो इसे समझते हैं| समस्त शिक्षाएँ प्रेरणा मात्र देती हैं| ह्रदय का द्वार तो स्वयं को ही खोलना होगा| एकमात्र उपहार जो हम अनंत को दे सकते हैं वह है हमारा परम प्रेम| बाकि सब कुछ तो उसी का है| परम प्रेम का दूसरा नाम ही भक्ति है|
ॐ ॐ ॐ ||
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आज के इस युग की और निजी जीवन की विकट परिस्थितियों का सदुपयोग कैसे किया जाए यह एक यक्ष प्रश्न और चुनौती है| हम स्वयं परमात्मा की दृष्टी में क्या हैं, महत्व सिर्फ इसी का है| जिस क्षण में हम जी रहे हैं, यह क्षण जीवन का सर्वश्रेष्ठ समय है |
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जो मान्यताएँ भगवान से डरने की शिक्षा देती हैं वे कुशिक्षा दे रही हैं|
मैं इस भय की अवधारणा का विरोध करता हूँ| भगवान तो परम प्रेम हैं, भय नहीं| भगवान से प्रेम किया जाता है, भय नहीं| भगवान के पास सब कुछ पर एक ही चीज नहीं है जो सिर्फ हम ही दे सकते हैं, और वह है हमारा अहैतुकी परम प्रेम|
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 हे प्रभु, आप ही मेरे प्राण हैं, आप ही यह मैं बन गए हैं| आप सम्पूर्ण अस्तित्व हैं|
अब यह पीड़ा और सहन नहीं हो रही है |
(इस पीड़ा को एक पीड़ित ही समझ सकता है)
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 परमात्मा के साथ कोई औपचारिकता नहीं हो सकती ......
भगवान तो प्रियतम मित्र, प्रियतम सम्बन्धी, और सबसे प्यारे शाश्वत मित्र हैं| उन प्रियतम शाश्वत मित्र के साथ कैसी औपचारिकता ????? वे निकटतम से भी अधिक निकट, और प्रियतम से भी अधिक प्रिय है| उनसे अब कोई औपचारिकता नहीं है| वे तो निरंतर हृदय में हैं, कभी एक क्षण के लिए भी साथ नहीं छोड़ते, उनसे इतना अधिक प्रेम हो गया है कि बस उनके अतिरिक्त अब अन्य कुछ रहा ही नहीं है|
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ॐ ॐ ॐ ||

Friday, 12 May 2017

अक्षय तृतीया .....

अक्षय तृतीया .....
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वैसे तो सभी बारह महीनों की शुक्ल पक्षीय तृतीया शुभ होती है, किंतु वैशाख माह की तिथि स्वयंसिद्ध मुहूर्तो में मानी गई है। भविष्य पुराण के अनुसार इस तिथि की युगादि तिथियों में गणना होती है, सतयुग और त्रेता युग का प्रारंभ इसी तिथि से हुआ है। भगवान विष्णु ने नर-नारायण, हयग्रीव और परशुराम जी का अवतरण भी इसी तिथि को हुआ था। ब्रह्माजी के पुत्र अक्षय कुमार का आविर्भाव भी इसी दिन हुआ था। इस दिन श्री बद्रीनाथ जी की प्रतिमा स्थापित कर पूजा की जाती है और श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन किए जाते हैं। प्रसिद्ध तीर्थ स्थल बद्रीनारायण के कपाट भी इसी तिथि से ही पुनः खुलते हैं। वृंदावन स्थित श्री बांके बिहारी जी मन्दिर में भी केवल इसी दिन श्री विग्रह के चरण दर्शन होते हैं, अन्यथा वे पूरे वर्ष वस्त्रों से ढके रहते हैं। इसी दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ था और द्वापर युग का समापन भी इसी दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि इस दिन से प्रारम्भ किए गए कार्य अथवा इस दिन को किए गए दान का कभी भी क्षय नहीं होता। मदनरत्न के अनुसार:
अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥

अक्षय तृतीया का सर्वसिद्ध मुहूर्त के रूप में भी विशेष महत्व है। मान्यता है कि इस दिन बिना कोई पंचांग देखे कोई भी शुभ व मांगलिक कार्य जैसे विवाह, गृह-प्रवेश, वस्त्र-आभूषणों की खरीददारी या घर, भूखंड, वाहन आदि की खरीददारी से संबंधित कार्य किए जा सकते हैं। नवीन वस्त्र, आभूषण आदि धारण करने और नई संस्था, समाज आदि की स्थापना या उदघाटन का कार्य श्रेष्ठ माना जाता है।

पुराणों में लिखा है कि इस दिन पितरों को किया गया तर्पण तथा पिन्डदान अथवा किसी और प्रकार का दान, अक्षय फल प्रदान करता है। इस दिन गंगा स्नान करने से तथा भगवत पूजन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि इस दिन किया गया जप, तप, हवन, स्वाध्याय और दान भी अक्षय हो जाता है। यह तिथि यदि सोमवार तथा रोहिणी नक्षत्र के दिन आए तो इस दिन किए गए दान, जप-तप का फल बहुत अधिक बढ़ जाता हैं। इसके अतिरिक्त यदि यह तृतीया मध्याह्न से पहले शुरू होकर प्रदोष काल तक रहे तो बहुत ही श्रेष्ठ मानी जाती है। यह भी माना जाता है कि आज के दिन मनुष्य अपने या स्वजनों द्वारा किए गए जाने-अनजाने अपराधों की सच्चे मन से ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करे तो भगवान उसके अपराधों को क्षमा कर देते हैं और उसे सदगुण प्रदान करते हैं, अतः आज के दिन अपने दुर्गुणों को भगवान के चरणों में सदा के लिए अर्पित कर उनसे सदगुणों का वरदान माँगने की परंपरा भी है।

हम भारतीयों का ऐसा मानना है कि इस शुभ दिन हम जो भी कार्य करते हैं, उसका फल हमें सदा मिलता रहता है। इसलिए हम लोग इस दिन अपने खजाने को भरते हैं अर्थार्थ ऐसी विधि है कि लोग इस दिन कुछ स्वर्ण कि वस्तु खरीद लेते हैं, क्योंकि उनका ऐसा विश्वास है कि इस दिन खरीदा गया सोना कभी साथ नहीं छोड़ेगा। मुझे इस विचार से कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु बंधुओ ज़रा सोचिये कि इस संसार में ऐसी कौनसी चीज़ है जो हमारा साथ कभी नहीं छोडेगी। यदि वह वस्तु हमसे अलग नहीं होगी तो एक दिन हमें उस वस्तु का त्याग करना होगा, क्योंकि इस संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है। यदि कोई ऐसी चीज़ है जो हमेशा हमारे साथ रहेगी, वह जैसा की माननीय कृपा शंकर जी ने बताया, नारायण का नाम। इसलिए हमें कोशिश करनी चाहिए कि हम इस दिन अपनी तिजोरी को तो भरें पर अपने प्रभु को भी याद कर लें क्यूंकि वास्तविकता में अक्षय तो वही हैं। केवल प्रभु की कृपा ही है, केवल हमारे गुरुजनों का आशीर्वाद ही है और केवल हमारे माता-पिता का प्यार ही है जो हमारा साथ कभी नहीं छोड़ता। इसलिए 'ॐ नमो भगवते वसुदेवाय' मंत्र का अधिकाधिक जप कीजिये।
बोलो नारायण नारायण हरि हरि..... श्रीमन्नारायण नारायण नारायण.....

बंधुओ, इस अक्षय तृतीया पर लौकिक नहीं अलौकिक को पाने का प्रयत्न करिये। प्रभु का प्रसाद पाइए जो नश्वर नहीं है। हमारा इतिहास हमें दान करना सिखाता है, किसी ज़रूरतमंद को दान दीजिए और उसकी दुआ लीजिए क्यूंकि बुरे वक़्त में पैसा या रिश्ते काम नहीं आते, बुरे वक्त में तो केवल दुआ ही काम आती है...... ॐ नमो भगवते वसुदेवाय ......

यह जैन धर्मावलम्बियों का भी महान धार्मिक पर्व है। इसी दिन जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगवान ने एक वर्ष की पूर्ण तपस्या करने के पश्चात इक्षु शोरडी(गन्ने का रस) से पारायण किया था।

(मिथिलेश द्विवेदी)

विकास के परिचायक क्या हैं ? .....

ऊँचे चमचमाते भवन, भव्य साफ-सुथरी सड़कें, और स्वच्छ सुन्दर कपड़े पहिने मनुष्य ही ..... विकास के परिचायक नहीं हो सकते |

वास्तविक विकास के परिचायक हैं ..... उच्च चरित्रवान, स्वाभिमानी, राष्ट्रप्रेमी, परोपकारी, धर्मपरायण और सत्यनिष्ठ नागरिक | जब ये होंगे तब अन्य सब अपने आप ही हो जाएगा |

वर्षों पहिले एक-दो बार हांगकांग गया था जहाँ की भव्य सड़कें, चमचमाती इमारतें और बाहरी वैभव देखकर बड़ा प्रभावित हुआ था| पर वहाँ के लोगों का जीवन और सोच देखकर निराशा ही हुई| यही अनुभूति मुझे अमेरिका के न्यूयॉर्क नगर के डाउन टाउन मैनहट्टन में हुई|

वैदिक काल का भारतवर्ष कितना वैभवशाली रहा होगा, इसकी मैं सिर्फ कल्पना ही कर सकता हूँ| उस कल्पना से ही लगता है कि भारत कितना महान था| उस परम वैभव को हम फिर से निश्चित रूप से प्राप्त करेंगे|

ॐ ॐ ॐ ||

समय बहुत अल्प है ......

समय बहुत अल्प है ......
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जब तक यह ज्ञान होता है कि समय बहुत अल्प है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है| करने के लिए इतने सारे काम और दुनियाँ भर के दायित्व, कर्तव्य, साध्य और साधन ! इस प्रपंच भरी उथल-पुथल में इतने अल्प समय में क्या करें और क्या ना करें ? यह एक यक्ष प्रश्न है|

जिसने यह सृष्टि बनाई है वह अपनी कृति के लिए स्वयं सक्षम और जिम्मेदार है| उसे किसी के परामर्श या सहयोग की आवश्यकता नहीं है| प्रकृति अपने नियमों के आधीन चल रही है| हमारे किन्तु-परन्तु करने से कोई अंतर नहीं पड़ने वाला|

इतने अल्प समय में सर्वश्रेष्ठ क्या किया जा सकता है?
इसका उत्तर स्वयं ढूँढ रहा हूँ| किसी अन्य के उत्तर से संतुष्टि नहीं मिल रही|
अब तक प्रभु की इतनी कृपा रही है कि हर इच्छा पूर्ण हुई है| जीवन में जिस भी चीज की कामना की वह अनायास स्वतः ही प्राप्त हो गयी| अब कोई इच्छा बची ही नहीं है| फिर भी प्राणों में एक गहन अभीप्सा और तड़प है| आगे का पथ भी दिखाई देने लगा है, जिसके साथ अब और कोई समझौता नहीं हो सकता|

जीवन में इतने सारे साथी मिले जिनसे इतना प्रेम और प्रोत्साहन मिला, उन सब के प्रति मैं कृतज्ञ हूँ| पर असली कृतज्ञता तो उस के प्रति है जो सब साथियों और सम्बन्धियों के रूप में आया|

करने को बहुत कुछ है पर समय बहुत कम बचा है| इस दीपक का तेल निरंतर कम होता जा रहा है|
समय बहुत अल्प है|

आप सब निजात्मगण को सादर साभार नमन ! ॐ ॐ ॐ ||
कृपा शंकर
११ मई २०१४