साक्षी भाव .....
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परमात्मा ही समस्याओं के रूप में आते हैं और वे ही समाधान हैं|
किसी भी व्यक्ति के सामने उतनी ही समस्याएँ आती हैं जिनका भार वह वहन कर सके, उससे अधिक नहीं|
विकट से विकट संकट का समाधान है ..... "सदा साक्षी भाव"|
स्वयं साक्षी बनकर परमात्मा को कर्ता बनाओ| अपना जीवन उसे सौंप दो|
उसे जीवन का केंद्र बिंदु ही नहीं समस्त जीवन का आश्रय बनाओ|
सब समस्याएं तिरोहित होने लगेंगी|
***
पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, जप-तप सभी बाहरी उपक्रम हैं, लेकिन 'साक्षी भाव' दुनिया की सबसे सटीक और कारगर विधि है जो पदार्थ, भाव और विचार से व्यक्ति का तादात्म्य समाप्त कर देती है| साक्षी भाव अध्यात्म का राजपथ तो है ही साथ ही यह जीवन के सुख-दुःख में भी काम आता है|
***
साक्षीभाव ही आध्यात्म का प्रवेशद्वार है|
***
साक्षी भाव की एक और कड़ी है .... गृहस्थ सन्यासी की तरह रहना| श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय गृहस्थ थे, सामान्य धोती कुर्ता पहनते थे व नौकरी करते थे| एक बार वे एक बहुत बड़े आध्यात्मिक पुरूष त्रेलंग स्वामी से मिलने गए| स्वामी जी अपने सैंकड़ों शिष्यों के साथ बैठे थे| उनको आता देखकर स्वामी जी उठ खड़े हुए, गले लगाया और सम्मान पूर्वक बैठाया| शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के प्रति इतना सम्मान क्यों? स्वामी जी ने बताया कि जिसको पाने के लिए मुझे वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी, रोटी और लंगोटी तक का भी त्याग करना पड़ा, ये महाशय गृहस्थ रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं है|
***
साक्षी भाव का अभ्यास अजपा-जप और प्रणव के ध्यान द्वारा करें| ध्यान साधना को जीवन का अंग बनायें|
***
साक्षी भाव का मूल है ...... कर्मों में निर्लिप्तता ......
हम हर पल कुछ न कुछ कर्म करते है और एक किया गया कर्म दूसरे कर्म का कारण होता है| दूसरा कर्म तीसरे का कारण है और इस प्रकार ये कार्य कारण की अनन्त श्रंखला चलती ही रहती है, और इस श्रंखला के कारण मनुष्य बार बार जन्म लेता है| अब प्रश्न ये है कि इस से बाहर निकले का उपाय क्या है?
क्यों कि कर्म तो हम चाहे या न चाहे वो तो हमसे होते ही रहेंगे, कर्महीन होना असंभव है|
इस का उत्तर सिर्फ गीता में ही है और कही भी नही है| गीता में भगबान श्री कृष्ण कहते है कि .....
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ||
कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम
शान्ति पाता है। लेकिन जो ऐसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये
कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बन्ध जाता है|
भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कह रहे है की कर्म करो, फल की इच्छा मत करो| जिसने ऐसा न किया वह निश्चित ही अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म किया है उस का दायीत्व स्वयं लेकर उस का फल भोगने को तैयार है| सारे दुःख का कारण अपेक्षा है| साक्षी भाव का मूल है कर्मो में निर्लिप्तता|
जब हम कोई कर्म करे तो अपने ही साक्षी हो कर ये देखे कि .... ये कौन है जो यह कर रहा है| जब हम स्वाद ले, क्रोध या काम में, अन्य विविध कर्मो में कर्म करने वाला अर्थात वह स्वयं क्या अनुभव कर रहा है साक्षी हो कर| ये अनुभव करते वक्त आप अपने को (द्रष्टा ) अपने अस्तित्व से अलग रक्खे|
मेरी ये बात शायद कुछ लोगो को समझ में न आये पर मनन कीजिये आप स्वयं समझ जायेंगे। ये ठीक उसी प्रकार है जैसे आप कोई अपनी ही फिल्म देख रहे हो और वो भी लाइव.... इसका विचार शुन्यता से गहरा नाता है| इस के चमत्कारिक प्रभाव और उपयोगिता की चर्चा अंतहीन है।
***
जीवन में आनन्द के आगे सारी कामनाएँ ठहर जाती हैं| इसके बाद कुछ रहता ही नहीं है चाहने को| नन्द का अर्थ है ... समृद्धि| आनन्द का अर्थ है चहुंमुखी, पूर्ण समृद्धि| समृद्धि का अर्थ है ...... सम्+रिद्धि| रिद्धि का अर्थ है, जो निरन्तर सम्यक् रूप से बढता जाए| यह है लौकिक आनन्द| एक और आनन्द है .... पारलौकिक| इसके पर्याय हैं कृष्ण| जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि का विस्तार शुरू होता है| जहाँ जाकर सृष्टि का विस्तार ठहर जाता है| कृष्ण कहते हैं कि मैं अव्यय पुरूष हूं| उस अव्यय पुरूष की प्रथम कला ही आनन्द है| सम्पूर्ण सृष्टि इसी अव्यय पुरूष से आगे बढती है| अत: यह सिद्धान्त बन गया है कि आनन्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती| आनन्द के मूल में रहता है साक्षी भाव| जब व्यक्ति को ज्ञान के सहारे विज्ञानधारा समझ में आ जाती है, तब आनन्द की ओर गति होती है| साक्षी भाव प्रकट होता है| साक्षी होने का अर्थ है ..... अनासक्तभाव| न कोई आसक्ति, न कोई विरक्ति| न कुछ अच्छा है, न ही कुछ बुरा है। जो है, बस है|
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वर्षों पहिले एक कहानी पढी थी, संभवतः यह कहानी ओशो के किसी लेख में थी| बहुत सुन्दर कहानी है ....
एक बार एक नदी के किनारे दो सन्यासी अपनी पूजा पाठ में लगे हुए थे| उन सन्यासी में से एक ने गृहस्थ जीवन के बाद सन्यास ग्रहण किया था जबकि दूसरा बाल्य अवस्था से ही सन्यासी था| उन्होंने देखा की एक स्त्री नदी में स्नान कर रही हैं और नदी का स्तर लगातार बढ़ रहा हैं| उनमें से एक सन्यासी बोला अगर यह स्त्री डूबने लगेगी तो हम इसे बचा भी नहीं पाएंगे क्योंकि स्त्री का स्पर्श भी हमारे लिए वर्जित हैं| अचानक बचाओ बचाओ की आवाज आई तब वह सन्यासी जिसने गृहस्थ जीवन के बाद सन्यास ग्रहण किया था, उठ कर गया और उस स्त्री को निकाल कर किनारे ले आया और फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया| इस पर दूसरा सन्यासी बोला यह तुमने अच्छा नहीं किया, स्त्री का स्पर्श भी हमारे लिए अपराध है, तुमने सन्यासी धर्म का उल्लंघन किया है, तुम्हें इसका दंड मिलना चाहिए| तब दुसरे सन्यासी ने संयत स्वर में पूछा कि तुम किस स्त्री की बात कर रहे हो? उसने क्रोधित हो कर कहा जिस स्त्री को तुमने अभी अभी पानी से निकाला है| इस पर पहले वाले ने उत्तर दिया कि उस घटना को तो बहुत समय बीत गया है लेकिन तुम्हारे दिमाग से वह स्त्री अभी तक नही निकली है| मै तो उस घटना को भूल ही गया था| यह कह कर वह फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया|
साक्षीभाव तो यही है|
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हम सिर्फ साक्षी हैं, यह साक्षीभाव ही हमारा स्वभाव है| न हम कर्ता हैं और न विचारक| यह हमारा स्वरुप है| साक्षीभाव से ही "भूमा" तत्व की अनुभूति होती है| साक्षीभाव ही निष्काम कर्म है और साक्षीभाव ही संन्यास भी है|
संन्यास का अर्थ संसार को छोड़ देना नहीं है| संन्यास का अर्थ है : असार, व्यर्थ जो हम पकड़े हुए हैं, उसका छूट जाना| छोड़ना नहीं, छूट जाना| भेद स्पष्ट है|
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साक्षीभाव से वैराग्य जागृत होता है| हमारे देश में सन्यास तथा वैराग्य को लेकर भारी भ्रम प्रचलित है| विषयों में अनासक्ति का अर्थ यह माना जाता है कि मनुष्य कोई कर्म ही नहीं करे| संसार के अन्य जीवों से कटकर कहीं वन में जाकर रहने को ही सन्यास माना जाता है| कर्म और सन्यास की जो व्याख्या गीता में की गयी है उसे समझने में हम असमर्थ रहे हैं| कर्म करना और उसके फल में आकांक्षा न होना ही सन्यास है| श्रीमद्भागवत गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य अपनी देह के रहते बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता| वह तत्वज्ञान को जानने के बाद भी विषयों से पृथक नहीं होता बल्कि उसमें आसक्ति का त्याग कर देता है|
योग दर्शन के अनुसार ....
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम |
दिखने व सुनने वाले विषयों से सर्वथा तृष्णारहित चित्त की अवस्था ही वैराग्य है|
तत्परं पुरुषरव्यातेर्गुणवतृष्ण्यम् |
ज्ञान से प्रकृति के गुणों में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना ही परम वैराग्य है|
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साँसों के आवागमन को देखना, विचारों के आने-जाने को देखना, सुख और दुःख के भाव को देखना और इस देखने वाले को भी देखना ...... यह ऐसी प्रक्रिया है जैसे समुद्र की उथल-पुथल अचानक रुकने लगे और फिर धीरे-धीरे कंकर, पत्थर और कचरा नीचे तल में जाने लगे| जैसे-जैसे साक्षी भाव गहराता है मानो जल पूर्णत: साफ और स्वच्छ होने लगता है|
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जीवन सफल चुनौतियों से ही होता है| विकट से विकट चुनौती का समाधान बड़ा सरल है|
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ॐ ॐ ॐ ||
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परमात्मा ही समस्याओं के रूप में आते हैं और वे ही समाधान हैं|
किसी भी व्यक्ति के सामने उतनी ही समस्याएँ आती हैं जिनका भार वह वहन कर सके, उससे अधिक नहीं|
विकट से विकट संकट का समाधान है ..... "सदा साक्षी भाव"|
स्वयं साक्षी बनकर परमात्मा को कर्ता बनाओ| अपना जीवन उसे सौंप दो|
उसे जीवन का केंद्र बिंदु ही नहीं समस्त जीवन का आश्रय बनाओ|
सब समस्याएं तिरोहित होने लगेंगी|
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पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, जप-तप सभी बाहरी उपक्रम हैं, लेकिन 'साक्षी भाव' दुनिया की सबसे सटीक और कारगर विधि है जो पदार्थ, भाव और विचार से व्यक्ति का तादात्म्य समाप्त कर देती है| साक्षी भाव अध्यात्म का राजपथ तो है ही साथ ही यह जीवन के सुख-दुःख में भी काम आता है|
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साक्षीभाव ही आध्यात्म का प्रवेशद्वार है|
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साक्षी भाव की एक और कड़ी है .... गृहस्थ सन्यासी की तरह रहना| श्री श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय गृहस्थ थे, सामान्य धोती कुर्ता पहनते थे व नौकरी करते थे| एक बार वे एक बहुत बड़े आध्यात्मिक पुरूष त्रेलंग स्वामी से मिलने गए| स्वामी जी अपने सैंकड़ों शिष्यों के साथ बैठे थे| उनको आता देखकर स्वामी जी उठ खड़े हुए, गले लगाया और सम्मान पूर्वक बैठाया| शिष्यों को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस गृहस्थ के प्रति इतना सम्मान क्यों? स्वामी जी ने बताया कि जिसको पाने के लिए मुझे वर्षो तक कठिन साधना करनी पड़ी, रोटी और लंगोटी तक का भी त्याग करना पड़ा, ये महाशय गृहस्थ रहते हुए भी उसी परम पद पर प्रतिष्ठित हैं मुझमें व इनमें कोई भेद नहीं है|
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साक्षी भाव का अभ्यास अजपा-जप और प्रणव के ध्यान द्वारा करें| ध्यान साधना को जीवन का अंग बनायें|
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साक्षी भाव का मूल है ...... कर्मों में निर्लिप्तता ......
हम हर पल कुछ न कुछ कर्म करते है और एक किया गया कर्म दूसरे कर्म का कारण होता है| दूसरा कर्म तीसरे का कारण है और इस प्रकार ये कार्य कारण की अनन्त श्रंखला चलती ही रहती है, और इस श्रंखला के कारण मनुष्य बार बार जन्म लेता है| अब प्रश्न ये है कि इस से बाहर निकले का उपाय क्या है?
क्यों कि कर्म तो हम चाहे या न चाहे वो तो हमसे होते ही रहेंगे, कर्महीन होना असंभव है|
इस का उत्तर सिर्फ गीता में ही है और कही भी नही है| गीता में भगबान श्री कृष्ण कहते है कि .....
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ||
कर्म के फल का त्याग करने की भावना से युक्त होकर, योगी परम
शान्ति पाता है। लेकिन जो ऐसे युक्त नहीं है, इच्छा पूर्ति के लिये
कर्म के फल से जुड़े होने के कारण वो बन्ध जाता है|
भगवान श्री कृष्ण स्पष्ट रूप से कह रहे है की कर्म करो, फल की इच्छा मत करो| जिसने ऐसा न किया वह निश्चित ही अच्छा या बुरा जैसा भी कर्म किया है उस का दायीत्व स्वयं लेकर उस का फल भोगने को तैयार है| सारे दुःख का कारण अपेक्षा है| साक्षी भाव का मूल है कर्मो में निर्लिप्तता|
जब हम कोई कर्म करे तो अपने ही साक्षी हो कर ये देखे कि .... ये कौन है जो यह कर रहा है| जब हम स्वाद ले, क्रोध या काम में, अन्य विविध कर्मो में कर्म करने वाला अर्थात वह स्वयं क्या अनुभव कर रहा है साक्षी हो कर| ये अनुभव करते वक्त आप अपने को (द्रष्टा ) अपने अस्तित्व से अलग रक्खे|
मेरी ये बात शायद कुछ लोगो को समझ में न आये पर मनन कीजिये आप स्वयं समझ जायेंगे। ये ठीक उसी प्रकार है जैसे आप कोई अपनी ही फिल्म देख रहे हो और वो भी लाइव.... इसका विचार शुन्यता से गहरा नाता है| इस के चमत्कारिक प्रभाव और उपयोगिता की चर्चा अंतहीन है।
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जीवन में आनन्द के आगे सारी कामनाएँ ठहर जाती हैं| इसके बाद कुछ रहता ही नहीं है चाहने को| नन्द का अर्थ है ... समृद्धि| आनन्द का अर्थ है चहुंमुखी, पूर्ण समृद्धि| समृद्धि का अर्थ है ...... सम्+रिद्धि| रिद्धि का अर्थ है, जो निरन्तर सम्यक् रूप से बढता जाए| यह है लौकिक आनन्द| एक और आनन्द है .... पारलौकिक| इसके पर्याय हैं कृष्ण| जहाँ से सम्पूर्ण सृष्टि का विस्तार शुरू होता है| जहाँ जाकर सृष्टि का विस्तार ठहर जाता है| कृष्ण कहते हैं कि मैं अव्यय पुरूष हूं| उस अव्यय पुरूष की प्रथम कला ही आनन्द है| सम्पूर्ण सृष्टि इसी अव्यय पुरूष से आगे बढती है| अत: यह सिद्धान्त बन गया है कि आनन्द के बिना सृष्टि नहीं हो सकती| आनन्द के मूल में रहता है साक्षी भाव| जब व्यक्ति को ज्ञान के सहारे विज्ञानधारा समझ में आ जाती है, तब आनन्द की ओर गति होती है| साक्षी भाव प्रकट होता है| साक्षी होने का अर्थ है ..... अनासक्तभाव| न कोई आसक्ति, न कोई विरक्ति| न कुछ अच्छा है, न ही कुछ बुरा है। जो है, बस है|
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वर्षों पहिले एक कहानी पढी थी, संभवतः यह कहानी ओशो के किसी लेख में थी| बहुत सुन्दर कहानी है ....
एक बार एक नदी के किनारे दो सन्यासी अपनी पूजा पाठ में लगे हुए थे| उन सन्यासी में से एक ने गृहस्थ जीवन के बाद सन्यास ग्रहण किया था जबकि दूसरा बाल्य अवस्था से ही सन्यासी था| उन्होंने देखा की एक स्त्री नदी में स्नान कर रही हैं और नदी का स्तर लगातार बढ़ रहा हैं| उनमें से एक सन्यासी बोला अगर यह स्त्री डूबने लगेगी तो हम इसे बचा भी नहीं पाएंगे क्योंकि स्त्री का स्पर्श भी हमारे लिए वर्जित हैं| अचानक बचाओ बचाओ की आवाज आई तब वह सन्यासी जिसने गृहस्थ जीवन के बाद सन्यास ग्रहण किया था, उठ कर गया और उस स्त्री को निकाल कर किनारे ले आया और फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया| इस पर दूसरा सन्यासी बोला यह तुमने अच्छा नहीं किया, स्त्री का स्पर्श भी हमारे लिए अपराध है, तुमने सन्यासी धर्म का उल्लंघन किया है, तुम्हें इसका दंड मिलना चाहिए| तब दुसरे सन्यासी ने संयत स्वर में पूछा कि तुम किस स्त्री की बात कर रहे हो? उसने क्रोधित हो कर कहा जिस स्त्री को तुमने अभी अभी पानी से निकाला है| इस पर पहले वाले ने उत्तर दिया कि उस घटना को तो बहुत समय बीत गया है लेकिन तुम्हारे दिमाग से वह स्त्री अभी तक नही निकली है| मै तो उस घटना को भूल ही गया था| यह कह कर वह फिर अपनी पूजा पाठ में लग गया|
साक्षीभाव तो यही है|
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हम सिर्फ साक्षी हैं, यह साक्षीभाव ही हमारा स्वभाव है| न हम कर्ता हैं और न विचारक| यह हमारा स्वरुप है| साक्षीभाव से ही "भूमा" तत्व की अनुभूति होती है| साक्षीभाव ही निष्काम कर्म है और साक्षीभाव ही संन्यास भी है|
संन्यास का अर्थ संसार को छोड़ देना नहीं है| संन्यास का अर्थ है : असार, व्यर्थ जो हम पकड़े हुए हैं, उसका छूट जाना| छोड़ना नहीं, छूट जाना| भेद स्पष्ट है|
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साक्षीभाव से वैराग्य जागृत होता है| हमारे देश में सन्यास तथा वैराग्य को लेकर भारी भ्रम प्रचलित है| विषयों में अनासक्ति का अर्थ यह माना जाता है कि मनुष्य कोई कर्म ही नहीं करे| संसार के अन्य जीवों से कटकर कहीं वन में जाकर रहने को ही सन्यास माना जाता है| कर्म और सन्यास की जो व्याख्या गीता में की गयी है उसे समझने में हम असमर्थ रहे हैं| कर्म करना और उसके फल में आकांक्षा न होना ही सन्यास है| श्रीमद्भागवत गीता में यह स्पष्ट किया गया है कि मनुष्य अपनी देह के रहते बिना कर्म किये रह ही नहीं सकता| वह तत्वज्ञान को जानने के बाद भी विषयों से पृथक नहीं होता बल्कि उसमें आसक्ति का त्याग कर देता है|
योग दर्शन के अनुसार ....
दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम |
दिखने व सुनने वाले विषयों से सर्वथा तृष्णारहित चित्त की अवस्था ही वैराग्य है|
तत्परं पुरुषरव्यातेर्गुणवतृष्ण्यम् |
ज्ञान से प्रकृति के गुणों में तृष्णा का सर्वथा अभाव हो जाना ही परम वैराग्य है|
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साँसों के आवागमन को देखना, विचारों के आने-जाने को देखना, सुख और दुःख के भाव को देखना और इस देखने वाले को भी देखना ...... यह ऐसी प्रक्रिया है जैसे समुद्र की उथल-पुथल अचानक रुकने लगे और फिर धीरे-धीरे कंकर, पत्थर और कचरा नीचे तल में जाने लगे| जैसे-जैसे साक्षी भाव गहराता है मानो जल पूर्णत: साफ और स्वच्छ होने लगता है|
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जीवन सफल चुनौतियों से ही होता है| विकट से विकट चुनौती का समाधान बड़ा सरल है|
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ॐ ॐ ॐ ||
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