
मान-सम्मान पाने की कामना, माया का बड़ा भयंकर जाल है, जिसमें धोखा ही धोखा है। "समत्व" ही गीता का मुख्य उपदेश है। समत्व की उपलब्धि ही ज्ञान है, और समत्व में स्थित व्यक्ति ही ज्ञानी है। अहंकार से प्रेरित इच्छाओं और ममत्व के कारण हमारा व्यक्तित्व विखंडित भी हो सकता है। भगवान श्रीकृष्ण के अनुसार हमारे समस्त दुःखों का कारण -- अहंकार, ममत्व, स्वार्थ और कामनायें हैं। इन का त्याग -- स्थितप्रज्ञता है। स्थितप्रज्ञ व्यक्ति ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

मान-सम्मान पाने की कामना एक
स्पृहा है जो हमारे मन को अशांत करती है। गीता में भगवान हमें निःस्पृह होने का उपदेश देते हैं --
"विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शांतिमधिगच्छति ॥२:७१॥"
अर्थात् जो पुरुष सब कामनाओं को त्यागकर स्पृहारहित, ममभाव रहित, और निरहंकार हुआ विचरण करता है? वह शान्ति प्राप्त करता है॥
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मेरी आत्मा ही सब की आत्मा है - इस भाव का अनंत विस्तार ही - "अहं ब्रह्मास्मि" है। समत्व में स्थिति ही ब्रह्मपद है, जिसमें स्थितप्रज्ञ होकर हम न तो प्रशंसा से प्रसन्न होते हैं, और न ही निन्दा से खिन्न।

इसके लिए हमें भगवान की उपासना करनी होगी। मात्र संकल्प से यह सिद्धि नहीं हो सकती। भगवान हम सब की रक्षा करें। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
५ फरवरी २०२३
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