Tuesday, 4 February 2025

उपासना/समर्पण ---

 उपासना/समर्पण ---

.
एकमात्र अस्तित्व भगवान का है। प्रेमवश उनको समर्पित होने के पश्चात जो वे हैं, वह ही मैं हूँ। पूरी सृष्टि में मेरे से अन्य कोई नहीं है। मैं ही सारी सृष्टि में सभी रूपों में व्याप्त हूँ। वे जो वासुदेव (सर्वत्र समान रूप से व्याप्त) हैं, वे ही परमशिव (परम कल्याणकारक) हैं, और वे ही विष्णु (विश्वं विष्णु:) हैं। उन से अन्य कुछ भी नहीं है। जो वे हैं, वह ही मैं हूँ। मैं यह शरीर नहीं, सर्वव्यापी सच्चिदानंद परमशिव हूँ।
ॐ ॐ ॐ !!
वर्तमान क्षण, आने वाले सारे क्षण, और यह सारा अवशिष्ट जीवन भगवान को समर्पित है। वे स्वयं ही यह जीवन जी रहे हैं। यह भौतिक, सूक्ष्म और कारण शरीर, इन के साथ जुड़ा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार), सारी कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेंद्रियाँ व उनकी तन्मात्राएँ, पृथकता का बोध, और सम्पूर्ण अस्तित्व -- भगवान को समर्पित है। वे ही पुरुषोत्तम हैं, वे ही वासुदेव हैं, और वे ही श्रीहरिः हैं। सारे नाम-रूप और सारी महिमा उन्हीं की है। इस देह से सांसें भी वे ही ले रहे हैं, इन आँखों से वे ही देख रहे हैं, और इस हृदय में भी वे ही धडक रहे हैं।
"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥" गीता)
.
श्रीमद्भगवद्गीता का सम्पूर्ण सार उपासना की दृष्टि से निम्न मंत्रों में छिपा है --
"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके॥१५:२॥
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥१५:३॥
ततः पदं तत्परिमार्गितव्य यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी॥१५:४॥
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्॥१५:५॥
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम॥१५:६॥"
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥१५:१५॥"
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते॥१५:१६॥"
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥१५:१८॥"
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥१५:१९॥"
.
श्रुति भगवती यह बात बार-बार अनेक अनेक स्थानों पर कहती है --
"प्रणवो धनु: शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत॥"
भावार्थ -- प्रणव धनुष है, आत्मा बाण है और ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। उसका सावधानी पूर्वक वेधन करना चाहिए और बाण के समान तन्मय हो जाना चाहिए।
.
सारी महिमा परमात्मा की है। 'परमशिव' -- गहन ध्यान में होने वाली अनुभूति है जो बुद्धि का विषय नहीं है। अपनी आत्मा में रमण ही परमात्मा का ध्यान है। भक्ति का जन्म पहले होता है। फिर सारा ज्ञान अपने आप ही प्रकट होकर भक्ति के पीछे पीछे चलता है। इसी तरह परा-भक्ति के साथ साथ जब सत्यनिष्ठा हो, तब भगवान का ध्यान अपने आप ही होने लगता है। जब भगवान का ध्यान होने लगता है, तब सारे यम-नियम -- भक्त के पीछे-पीछे चलते हैं। भक्त को यम-नियमों के पीछे भागने की आवश्यकता नहीं है। यम-नियम ही भगवान के भक्त से जुड़कर धन्य हो जाते हैं।
.
अब तक पता नहीं कितने जन्मों में मैंने कितनों से प्यार किया, और कितनों ने मुझ से प्यार किया? कितने ही मेरे माँ-बाप, स्त्री, पुत्र-पुत्रियाँ, मित्र, और सगे-संबंधी थे। वे सब अब कहाँ हैं? इस जन्म के भी लगभग सभी मित्र काल-कवलित हो गए हैं। कोई एक या दो मित्र ही जीवित बचे हैं। अब कोई कामना नहीं है। भगवान की जो मर्जी आए सो वे करें। वे मुझसे दूर नहीं रह सकते, इसलिए अपने हृदय में स्थान दे दिया है। यह उनकी परम कृपा है।
.
किसको नमन करूँ? सर्वत्र तो मैं ही मैं हूँ। जहाँ मैं हूँ, वहीं भगवान हैं। जहाँ भगवान हैं, वहाँ सब कुछ है॥ ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
५ फरवरी २०२३

No comments:

Post a Comment