Tuesday, 4 February 2025

अपनी आत्मा में रमण ही परमात्मा का ध्यान है ---

 अपनी आत्मा में रमण ही परमात्मा का ध्यान है ---

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मैं न तो कोई साधक हूँ, और न कोई भक्त। साधना/उपासना करने का मेरा भाव एक मिथ्या भ्रम है। मैं कुछ भी नहीं हूँ। यहाँ तो स्वयं भगवान वासुदेव शांभवी-मुद्रा में बैठे हुए अपने परमशिव (परम कल्याणकारक) रूप का ध्यान स्वयं कर रहे हैं। वे ही एकमात्र कर्ता हैं। मैं तो एक साक्षी या निमित्त मात्र हूँ, कोई साधक नहीं।
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सूक्ष्म जगत में सहस्त्रारचक्र से ऊपर अब कोई आवरण नहीं है। उससे ऊर्ध्व में ज्योतिर्मय अनंताकाश है, जिससे भी परे ऊर्ध्व में एक परम ज्योतिर्मय श्वेत महासागर है जिसका रंग खीर के रंग का सा है। लगता है यही क्षीरसागर है, जिसे जानने या जिससे पार जाने का एकमात्र उपाय -- स्वयं के अस्तित्व, यानि पृथकता के बोध को परमात्मा में पूर्णतः विलीन करना है। अन्य कोई उपाय नहीं है।
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कुछ भी जानने या पाने की इच्छा अब नहीं है। एकमात्र अभीप्सा समर्पित होने यानि स्वयं की पृथकता के बोध को परमात्मा में अर्पित करना है।
नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥"
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भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --
"मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२:२॥"
"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२"४॥"
"ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्पराः।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥१२:६॥"
"तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥१२:७॥"
अर्थात् -- मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥
परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥
इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
परन्तु जो भक्तजन मुझे ही परम लक्ष्य समझते हुए सब कर्मों को मुझे अर्पण करके अनन्ययोग के द्वारा मेरा (सगुण का) ही ध्यान करते हैं॥
हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ॥
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भगवान को कौन प्रिय है? इसका उत्तर उन्होंने गीता के १२वें अध्याय में दे दिया है। उसका स्वाध्याय कर के हम तदानुरूप ही बनें।
हे प्रभु, आपने बड़ी देर कर दी है। बहुत अधिक विलंब कर दिया है। आपको इतना अधिक विलंब नहीं करना चाहिये था। अपना सम्पूर्ण अस्तित्व आपको समर्पित करता हूँ। कोई कामना नहीं है। जैसी आपकी इच्छा॥
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
४ फरवरी २०२५

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