वितृष्णा और वैराग्य .....
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वितृष्णा और वैराग्य .... इन दोनों में बहुत अंतर है|
हम वितृष्णा को वैराग्य मान बैठते हैं जो एक भटकाव है| संसार में दुःखों के अनुभव से वितृष्णा उत्पन्न होती है| उसमें मनुष्य संसार को निःसार मानकर संसार से दूर जाने का यत्न करता है| यह एक अस्थायी स्थिति है| दुःखों का कारण दूर होते ही पुनश्चः राग हो जाता है| अतः यह वैराग्य नहीं है|
वैराग्य तो विवेक का फल है| विवेक के द्वारा राग से अलग होना वैराग्य है| आत्मतत्व में बापस लौटना वैराग्य है|
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वितृष्णा और वैराग्य .... इन दोनों में बहुत अंतर है|
हम वितृष्णा को वैराग्य मान बैठते हैं जो एक भटकाव है| संसार में दुःखों के अनुभव से वितृष्णा उत्पन्न होती है| उसमें मनुष्य संसार को निःसार मानकर संसार से दूर जाने का यत्न करता है| यह एक अस्थायी स्थिति है| दुःखों का कारण दूर होते ही पुनश्चः राग हो जाता है| अतः यह वैराग्य नहीं है|
वैराग्य तो विवेक का फल है| विवेक के द्वारा राग से अलग होना वैराग्य है| आत्मतत्व में बापस लौटना वैराग्य है|
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