Wednesday, 22 January 2025

परमात्मा की ओर उठी दृष्टि अब उठी ही रहे, नीचे न आने पाये ---

 परमात्मा की ओर उठी दृष्टि अब उठी ही रहे, नीचे न आने पाये ---

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भगवान से एक बार प्रेम कर लो, फिर सब कुछ वे ही करेंगे, कभी छोड़ेंगे नहीं; जकड़ कर सदा साथ रखेंगे। यह मेरा पक्का वादा है। हम एक निमित्त मात्र हैं, कर्ता नहीं। हम केवल उस यजमान की तरह हैं जो यज्ञ को संपन्न होते हुए देखता है, जिस की उपस्थिति यज्ञ की प्रत्येक क्रिया के लिये आवश्यक है। सारी क्रियाएँ तो जगन्माता स्वयं सम्पन्न कर के यज्ञरूप में परमात्मा को अर्पित करती है। कर्ताभाव और पृथकता का बोध, एक भ्रम है। परमशिव ही सर्वस्व हैं।
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वेद और वेदांगों को समझना मेरी बौद्धिक क्षमता से परे है। ब्रह्मसूत्र जैसे ग्रंथ भी मुझे समझ में नहीं आते। अब तो उनको समझने का प्रयास करना भी छोड़ दिया है, क्योंकि सारे प्रश्न तिरोहित हो गये हैं; कोई शंका या संदेह नहीं है। कोई जिज्ञासा भी अब नहीं रही है, यह सीमित मन अब शांत है। कोई पीड़ा या व्याकुलता नहीं रही है, जीवन में पूर्ण संतुष्टि है।
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प्रकृति में कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज का शुल्क देना पड़ता है, यानि मूल्य चुकाना पड़ता है। भगवान की कृपा भी मुफ्त में नहीं मिलती, उसकी भी कीमत चुकानी पड़ती है। वह कीमत है -- "हमारे ह्रदय का पूर्ण प्रेम, और हमारे आचार-विचार में पवित्रता"।
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ह्रदय के सिंहासन पर परम प्रिय स्वयं बिराजमान हैं, अन्य कोई आकर्षण नहीं रहा है। उनका मनोहारी रूप इतना आकर्षक है, जिसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। बस, वे सदा बिराजमान रहें, और कुछ भी नहीं चाहिये। ॐ तत्सत् ! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०२५

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