Wednesday, 22 January 2025

क्या बताएँ? किसको बताएँ? कोई अन्य है ही नहीं, यह स्वयं का संवाद स्वयं से ही है ---

 क्या बताएँ? किसको बताएँ? कोई अन्य है ही नहीं, यह स्वयं का संवाद स्वयं से ही है ---

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इसे आकांक्षा कहें या अभीप्सा? कुछ समझ में नहीं आ रहा है। जो कुछ भी अब तक समझ लिया है वह पर्याप्त है। अब और कुछ नया जानने, समझने व पाने की इच्छा भी नहीं रही है। सार्थकता सिर्फ भगवान को जानने में है। भगवान तो अनंत हैं, उनको जितना जान लिया है, जितना समझ लिया है, उसी में रमण करते रहें, उतना ही पर्याप्त है। इससे अधिक और कुछ नहीं चाहिए। किसी अन्य से कोई संवाद भी नहीं करना है, कोई अन्य है भी नहीं। घूम फिर कर हम स्वयं -- स्वयं से ही मिलते और बात करते रहते हैं।
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भगवान की आराधना क्या है? स्वयं के अहंकार की सीमितता यानि पृथकता के बोध को -- परमप्रेममय होकर स्वयं की सर्वव्यापक अनंतता में समर्पण ही भगवान की आराधना है। यह मेरी समझ है।
लगभग ग्यारह वर्ष पूर्व आचार्य सियारामदास नैयायिक वैष्णवाचार्य ने विष्णु-पुराण और अनेक उपनिषदों व ग्रन्थों से उद्धृत कर एक बहुत विस्तृत लेख लिखा था, जिसमें "भगवान" शब्द के अर्थ को समझाया गया था। यदि उनका लिखा वह लेख कहीं से मिल जाये तो उसे अवश्य पढ़ें।
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व्यवहारिक दृष्टि से भगवान की कृपा से ही हम भगवान को जान सकते हैं। सारी साधनाएँ व तपस्या आदि भी हम भगवान की कृपा से ही कर सकते हैं। अतः भगवान की कृपा कैसे हो? इसी विषय पर विचार करें। मेरा अनुभव मेरा है जो भगवान की कृपा से मुझे प्राप्त हुआ है, वह दूसरों के किसी काम का नहीं है। अतः जैसा भी आपके समझ में आता है उसी के अनुसार भगवान की आराधना करें।
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लेकिन यह याद रखें की दूसरों को ठग कर, दूसरों के गले काट कर, दूसरों को हानि पहुंचा कर, और झूठ बोलकर हम भगवान की कृपा को नहीं पा सकते। भगवान को समझने के लिए वीतराग और स्थितप्रज्ञ होना होगा।
उन सभी महान आत्माओं को नमन जिन्हें भगवान से प्रेम है। प्रेम में कोई मांग नहीं, सिर्फ समर्पण होता है। मांग में व्यापार होता है, कोई भक्ति नहीं।
ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२३ जनवरी २०२४

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