Saturday, 30 November 2024

अपने आवरण को हटाइये, मैं प्रतीक्षारत हूँ ---

 हे भगवन, हे परमात्मा, हे पुरुषोत्तम, आपको नमन !! आप के कूटस्थ सूर्यमण्डल का आवरण बहुत अधिक ज्योतिर्मय है, जिसका भेदन करने में मैं असमर्थ हूँ। आपके स्वरूप का बोध मुझ अकिंचन को नहीं हो रहा है। आप अपना दर्शन भी दो। मेरी अंतर्दृष्टि आपके ज्योतिर्मय आवरण का भेदन करने में असमर्थ है। मेरा चिंतन, मनन, निदिध्यासन और ध्यान इस समय कुछ भी काम नहीं आ रहा है। हे सत्यस्वरूप, अपने आवरण को हटाइये, मैं प्रतीक्षारत हूँ। ॐ ॐ ॐ !!

कृपा शंकर
१ दिसंबर २०२४

"ॐ नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः। अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्॥" ---

 "ॐ नमस्तुभ्यं नमो मह्यं तुभ्यं मह्यं नमोनमः। अहं त्वं त्वमहं सर्वं जगदेतच्चराचरम्॥"

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हे परमात्मा, हे प्रभु, हे ईश्वर, -- मैं किस को नमन करूँ? तुम को नमन करूँ, या स्वयं को नमन करूँ? जो तुम हो वही मैं हूँ, और जो मैं हूँ वह ही तुम हो। मैं तुम्हें भी और स्वयं को भी, दोनों को ही नमन करता हूँ। दोनों में कोई भेद नहीं है।
ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति और आत्म-साक्षात्कार का यही मार्ग परमात्मा ने मुझे दिखाया है। यही उच्चतम ब्रह्मविद्या है, यही भूमा-विद्या है, और यही वेदान्त की पराकाष्ठा है।
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उपरोक्त स्तुति बड़ी ही विलक्षण है। यह स्तुति स्कन्दपुराण के दूसरे खण्ड (वैष्णवखण्ड, पुरुषोत्तमजगन्नाथमाहात्म्य) के सताइसवें अध्याय के पंद्रहवें श्लोक से आरंभ होती है। ब्रह्माजी यहाँ भगवान विष्णु की स्तुति कर रहे हैं। विष्णु के साथ साथ स्वयं को भी नमन कर रहे हैं, और यह भी कह रहे है कि जो तुम हो, वही मैं हूँ; जो मैं हूँ, वही तुम हो। अतः दोनों को नमन।
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मुमुक्षुगण के साथ, भविष्य में चर्चा केवल ब्रह्मज्ञान, ब्रह्मविद्या और वेदान्त की ही करेंगे, नहीं तो परमशिव की ही उपासना करेंगे। जिनकी ब्रह्मविद्या और ब्रह्मज्ञान में रुचि है वे ही मेरे साथ रहें।
हे अपारपारभूताय ब्रह्मरूप आपको नमन॥ ॐ तत्सत्॥
कृपा शंकर
३० नवंबर २०२४

जन्म के साथ ही पूर्ण ज्ञान, पूर्ण भक्ति और पूर्ण वैराग्य हो ---

 जन्म के साथ ही पूर्ण ज्ञान, पूर्ण भक्ति और पूर्ण वैराग्य हो ---

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आध्यात्मिक सफलता के लिए ज्ञान, भक्ति और वैराग्य -- इन तीनों का होना बहुत आवश्यक है। इनमें से एक की भी कमी हो तो ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। ज्ञान और भक्ति पर तो मैंने बहुत कुछ लिखा है, अब और लिखने की इच्छा नहीं है। जिस विषय पर इस समय लिखना चाहता हूँ, उसी पर लिख कर अपनी लेखनी को विराम देना चाहता हूँ।
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बिना प्रबल साहस के वैराग्य कभी सफल नहीं हो सकता। विरक्त होने के लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति और अडिग साहस होना चाहिए। राग यानि मोह तो बिलकुल भी नहीं हो। हरेक व्यक्ति में कुछ न कुछ कमियाँ होती है, जिन्हें स्वीकार करने में संकोच नहीं करना चाहिए। मैं अपने अवगुण और गुण सभी को बहुत अच्छी तरह से समझता हूँ। अपनी सभी कमियों और अच्छाइयों का मुझे पता है, और उन्हें स्वीकार भी करता हूँ। इसी जन्म में ईश्वर और गुरु की कृपा से अपनी कमियों से मुक्ति भी पा लूँगा, इतना आत्म-विश्वास है।
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सन् १९८० से १९८५ ई. तक मुझे बहुत गहरा वैराग्य हुआ था, लेकिन निम्न तीन कारणों से वैराग्य पूर्णतः फलीभूत नहीं हो सका, और सफलता नहीं मिली ---
(१) जितना साहस चाहिए था, उतना साहस मैं नहीं जुटा सका।
(२) मोह से जितनी मुक्ति चाहिये थी, वह भी कभी नहीं मिली।
(३) जिह्वा के स्वाद और नींद पर कभी विजय न पा सका।
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संभवतः पूर्वजन्मों में उतने अच्छे कर्म नहीं किए, जितने करने चाहिये थे। इसी लिए ये कमियाँ रहीं। भगवान से प्रार्थना है कि यदि वे मुझे फिर कभी मनुष्य योनि में जन्म दें (जो बहुत दुर्लभ है) तो जन्म के साथ ही पूर्ण ज्ञान, पूर्ण भक्ति और पूर्ण वैराग्य हो। गुरुकृपा पूर्णत: फलीभूत हो।
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इस जन्म में भगवान की कृपा से मुझमें एक ही गुण था, जिससे मुझे सबसे अधिक लाभ हुआ। वह गुण था -- "अभीप्सा", यानि भगवान को पाने की एक अति अति प्रबल प्यास और तड़प। इसके अतिरिक्त अन्य कोई गुण मुझमें नहीं था। इस गुण का यह लाभ हुआ कि मैंने अनगिनत बहुत सारे ग्रन्थों का स्वाध्याय किया जिससे बौद्धिक स्तर पर किसी भी तरह की कोई शंका नहीं रही। ईश्वर की बहुत अधिक कृपा मुझ अकिंचन पर रही, जिस के कारण अनेक महान आत्माओं से सत्संग लाभ हुआ जो मनुष्य जीवन में अति दुर्लभ है।
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अब और कुछ लिखने को नहीं है। मैं अपने विचारों पर बहुत दृढ़ हूँ, जो बदल नहीं सकते। जैसे काली कंबल पर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ सकता वैसे ही मुझ पर भी कोई दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता। मुझे सुधारने के लिए वीडियो आदि न भेजें, और न ही किन्हीं समूहों में सम्मिलत होने का आग्रह करें। मैं व्यक्तिगत रूप से हर किसी से नहीं मिलता। मैं उन्हीं से मिलता हूँ जिनके हृदय में भगवान को पाने की अभीप्सा यानि एक प्रबल प्यास और तड़प है।
मेरी परिचित और अपरिचित सभी महान आत्माओं को मैं नमन करता हूँ। मैं आप सब के साथ एक हूँ। आपमें और मुझमें कोई भेद नहीं है।
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ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !! ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ दिसंबर २०२३

Friday, 29 November 2024

हे श्रीकृष्ण, हे गोविंद, हे नारायण, हे वासुदेव, तुम्हीं मेरे जीवन हो ---

 हे श्रीकृष्ण, हे गोविंद, हे नारायण, हे वासुदेव, तुम्हीं मेरे जीवन हो ---

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"ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः॥"
"वंशीविभूषितकरान्नवनीरदाभात्। पीताम्बरादरुणबिम्बफलाधरोष्ठात्।
पूर्णेन्दुसुन्दरमुखादरविन्दनेत्रात्। कृष्णात्परं किमपि तत्त्वमहं न जाने॥"
"वसुदेव सुतं देवं कंस चाणूर मर्दनं, देवकी परमानन्दं कृष्णम वन्दे जगतगुरुम्॥"
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भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से विश्व को जो संदेश दिया है, उससे लाखों करोड़ों व्यक्ति जन्म-मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो चुके हैं। हमारे जीवन का लक्ष्य है आत्म-साक्षात्कार यानि भगवान पुरुषोत्तम जिन्हें हम परमब्रह्म, परमशिव, श्रीहरिः, व परमात्त्मा भी कहते हैं, के साथ साक्षात्कार/अभेद।
जो भी हमारे इस लक्ष्य में बाधक बने और हमारे अहंकार व लोभ को उद्दीप्त कर के हमें भटकाये, वह कभी हमारा मित्र नहीं हो सकता। हमें स्वयं को ही स्वयं का मित्र बनाना पड़ेगा क्योंकि हम स्वयं ही स्वयं के शत्रु भी हैं। भगवान कहते हैं --
"उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥६:५॥"
अर्थात् -- मनुष्य को अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये और अपना अध:पतन नहीं करना चाहिये; क्योंकि आत्मा ही आत्मा का मित्र है और आत्मा (मनुष्य स्वयं) ही आत्मा का (अपना) शत्रु है॥
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गीता में भगवान का एक बड़े से बड़ा आश्वासन है --
"अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः॥९:३०॥"
अर्थात् -- यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है, वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है॥
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एक बहुत बड़ी बात कही है भगवान ने --
"यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥१८:१७॥"
अर्थात् -- जिस पुरुष में अहंकार का भाव नहीं है और बुद्धि किसी (गुण दोष) से लिप्त नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न मरता है और न (पाप से) बँधता है।।
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इसी भाव में स्थित होकर हम अपने शत्रुओं का नाश करें। कोई पाप हमें छू भी नहीं सकता। भगवान कहते हैं --
"मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहङ्कारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥१८:५८॥"
अर्थात् - मच्चित्त होकर तुम मेरी कृपा से समस्त कठिनाइयों (सर्वदुर्गाणि) को पार कर जाओगे; और यदि अहंकारवश (इस उपदेश को) नहीं सुनोगे, तो तुम नष्ट हो जाओगे॥
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आज अभी इतना ही बहुत है। भगवान की वाणी पढ़कर और सुनकर मैं और मेरा जीवन धन्य हुआ। जिधर भी देखता हूँ, उधर ही मेरे उपास्य ही उपास्य देव है। सब ओर वे ही वे हैं। मन-मयूर प्रसन्न होकर नृत्य कर रहा है। हे सच्चिदानंद, आपकी जय हो।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० नवंबर २०२२

हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) में भगवान स्वयं हैं ---

 हमारे अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) में भगवान स्वयं हैं। वे कभी हमसे दूर हो ही नहीं सकते। हमारा लोभ और अहंकार ही हमें भगवान से दूर करता है। अहंकार के भी दो रूप होते हैं। एक हमें भगवान से दूर करता है, दूसरा हमें भगवान से जोड़ता है।

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ईश्वर की कृपा सभी पर हर समय समान रूप से है। हमारे कर्म यानि हमारी सोच ही हमें ईश्वर से दूर करती है। हम यदि सोचते हैं कि भगवान दूर हैं, तो वास्तव में भगवान दूर होते हैं। जब हम सोचते हैं कि भगवान बिल्कुल पास में हैं, तो भगवान सचमुच ही हमारे पास होते हैं। कहने को तो बहुत सारी बातें विद्वान मनीषियों द्वारा लिखी हुई हैं, लेकिन जो स्वयं के अनुभव हैं, स्वयं की अनुभूतियाँ हैं वे ही सत्य होती हैं।
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मनुष्य की प्राकृतिक मृत्यु अपनी स्वयं की इच्छा से होती है, किन्हीं अन्य कारणों से नहीं। जब मनुष्य अपनी वृद्धावस्था, बीमारी, दरिद्रता, या कष्टों से दुखी होकर स्वयं से कहता है कि बस बहुत हो गया, अब और जीने की इच्छा नहीं है, तब वह अपनी मृत्यु को स्वयं निमंत्रण दे रहा होता है। उसी समय से उसकी मृत्यु की प्रक्रिया भी आरंभ हो जाती है। जब वह स्वयं को भगवान से जोड़कर सोचता है कि मृत्यु इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकती तो वास्तव में मृत्यु उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती।
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जो हमारे हाथ में है वह ही विधि के हाथ में है। भगवान हमारे से पृथक नहीं, हमारे साथ एक हैं। भगवान वही सोचते हैं, जो हम सोचते हैं। हमारा लोभ और अहंकार ही हमें भगवान से दूर करता है, अन्यथा हम भगवान के साथ एक हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
३० नवंबर २०२३

निज जीवन में पूर्णता को प्राप्त किए बिना तृप्ति और संतुष्टि नहीं मिलती। लेकिन पूर्णता को हम कैसे प्राप्त हों? ---

 "ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते।

पूर्णश्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥ ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥"
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(प्रश्न) : निज जीवन में पूर्णता को प्राप्त किए बिना तृप्ति और संतुष्टि नहीं मिलती। लेकिन पूर्णता को हम कैसे प्राप्त हों?
(उत्तर) : हमारी अंतर्रात्मा कहती है कि जिन का कभी जन्म भी नहीं हुआ, और मृत्यु भी नहीं हुई, उनके साथ जुड़ कर ही हम पूर्ण हो सकते हैं।
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(प्रश्न) : लेकिन वे हैं कौन?
(उत्तर) : जिनकी हमें हर समय अनुभूति होती है, वे परमब्रह्म परमशिव परमात्मा ही पूर्ण हो सकते हैं। उन को उपलब्ध होने के लिए ही हमने जन्म लिया है। जब तक उनमें हम समर्पित नहीं होते, तब तक यह अपूर्णता रहेगी॥
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(प्रश्न) : उन्हें हम समर्पित कैसे हों ?
(उत्तर) : एकमात्र मार्ग है -- परमप्रेम, पवित्रता और उन्हें पाने की एक गहन अभीप्सा। अन्य कोई मार्ग नहीं है। जब इस मार्ग पर चलते हैं, तब परमप्रेमवश वे निरंतर हमारा मार्गदर्शन करते हैं। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२९/११/२०२४

Thursday, 28 November 2024

ईश्वर से कुछ मांगना क्या उनका अपमान नहीं है ---

ईश्वर से कुछ मांगना क्या उनका अपमान नहीं है? हम तो यहाँ उनका दिया हुआ सामान उनको बापस लौटाना चाहते हैं। उनका दिया हुआ सबसे बड़ा सामान है -- हमारा अन्तःकरण। यदि वे हमारा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार) स्वीकार कर लें तो उसी क्षण हम उन्हें उपलब्ध हो जाते हैं। यह समर्पण का मार्ग ही सर्वश्रेष्ठ है। बाकी तो व्यापार है कि हम तुम्हारी यह साधना करेंगे, वह साधना करेंगे, और तुम हमें वह सामान दोगे।

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वे हमारे हृदय में बिराजमान हैं, क्या उन्हें पता नहीं है कि हमें क्या चाहिये? उन्हें सब पता है। वे बिना किसी शर्त के हमारा सिर्फ प्यार मांगते हैं, जो हम उन्हें देना नहीं चाहते। इस समय यह संसार अपने लोभ, लालच और अहंकार रूपी तमोगुण से चल रहा है। यहाँ तो स्वयं को गोपनीय रखो और चुपचाप उनसे प्रेम करो। अपने हृदय की बात कहना लोगों से दुश्मनी लेना है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवम्बर २०२४

साधु, सावधान !! भटक रहे हो, अभी भी समय है, स्वयं को सुधार लो, अन्यथा पछताना पड़ेगा ---

साधु, सावधान !! भटक रहे हो, अभी भी समय है, स्वयं को सुधार लो, अन्यथा पछताना पड़ेगा ---

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स्थितप्रज्ञता -- एक बहुत बड़ा गुण और आवश्यकता है जिसमें प्रज्ञा परमात्मा में निरंतर स्थिर रहती है। स्थितप्रज्ञता और ब्राह्मीस्थिति दोनों लगभग एक ही हैं। स्थितप्रज्ञता के लिए वीतरागता यानि राग-द्वेष और अहंकार से मुक्त होना आवश्यक है। गीता के दूसरे अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने स्थितप्रज्ञता पर बहुत ज़ोर दिया है। नित्य नियमित ध्यान-साधना से एक साधक स्वतः ही वीतराग हो जाता है। वीतराग होना प्रथम उपलब्धि है। यदि हम अभी भी राग-द्वेष और अहंकार से ग्रस्त हैं, तो हमने आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में कोई प्रगति नहीं की है।
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(प्रश्न) : जब भगवान स्वयं ही कर्ता और भोक्ता हैं, और हम एक निमित्त मात्र हैं, तो एक निमित्त द्वारा यह ऊहापोह क्यों?
(उत्तर) : माया के बंधन और आकर्षण बड़े प्रबल हैं। भगवान हमारी रक्षा निश्चित रूप से करेंगे। अपनी चेतना अपने लक्ष्य कूटस्थ की ओर ही रखो, उसी का आश्रय लो, उसी के चैतन्य में रहो, और उसी को अपना सर्वस्व समर्पित कर दो। इधर-उधर अन्य कुछ भी मत देखो। उनमें बड़ी गहराई से स्थित होकर ही हम निमित्त बन सकते हैं।
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अतः साधू, सावधान !! भटको मत। निरंतर शिव भाव में रहो। इस मानवी चेतना से स्वयं को मुक्त कर लो। अन्यथा बाद में पछताना पड़ेगा॥
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२४

हमारा पीड़ित, दुःखी और बेचैन होना एक बहुत ही अच्छा और शुभ लक्षण है ---

 हमारा पीड़ित, दुःखी और बेचैन होना एक बहुत ही अच्छा और शुभ लक्षण है ---

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अपनी पीड़ा, दुःख और बेचैनी से मुक्त होने की कामना -- भगवान की भक्ति का आरंभ है। जीवन में जो भी अभाव हैं उनकी पूर्ति सिर्फ भगवान की उपस्थिति ही कर सकती है। "संतोष" और "आनंद" दोनों ही हमारे स्वभाव हैं जिनकी प्राप्ति "परम प्रेम" (भक्ति) से ही हो सकती है। हमारे दुःख, पीडाएं और बेचैनी ही हमें भगवान की ओर जाने को बाध्य करते हैं। अगर ये नहीं होंगे तो हमें भगवान कभी भी नहीं मिलेंगे। अतः दुनिया वालो, दुःखी ना हों। भगवान से खूब प्रेम करो, प्रेम करो और पूर्ण प्रेम करो। सारे दुःख दूर हो जाएंगे। हम को सब कुछ मिल जायेगा, स्वयं प्रेममय बन जाओ। अपना दुःख-सुख, अपयश-यश , हानि -लाभ, पाप-पुण्य, विफलता-सफलता, बुराई-अच्छाई, जीवन-मरण यहाँ तक कि अपना अस्तित्व भी सृष्टिकर्ता को बापस सौंप दो। आगे आनंद ही आनंद है।
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जिस नारकीय जीवन को तुम जी रहे हो, उस से तो अच्छा है कि अपने सारे अभाव, दुःख और पीड़ाएं -- बापस भगवान को सौंप दो। "प्रेम" ही भगवान का स्वभाव है। हम एक ही चीज भगवान को दे सकते हैं और वह है हमारा "प्रेम"। भगवान को प्रेम करने में कंजूसी क्यों?
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२२

Wednesday, 27 November 2024

आज की दुनियाँ में किसी भी व्यक्ति को बहुत सीधा-साधा और सत्य/धर्मनिष्ठ नहीं दिखना चाहिए ---

आज की दुनियाँ में किसी भी व्यक्ति को बहुत सीधा-साधा और सत्य/धर्मनिष्ठ नहीं दिखना चाहिए। भीतर से सीधे-साधे और सत्य/धर्मनिष्ठ रहो, लेकिन अपनी सत्य/धर्मनिष्ठा को छिपा कर रखो। बाहर से ऐसे रहो कि देखने वाला आपको एक बहुत खतरनाक और जहरीला इंसान समझे। आज की दुनियाँ और समाज ही ऐसे हैं। सीधे-साधे और धर्मनिष्ठ व्यक्ति को सबसे अधिक छला, ठगा और परेशान किया जाता है। सीधे वृक्ष और सीधे व्यक्ति पहले काटे जाते हैं। वर्तमान समाज में यदि जीवित रहना है तो दुष्ट और कुटिल होने का झूठा दिखावा करना ही होगा।

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हर कार्य बहुत अच्छी तरह सोच-समझ कर करो। यदि आप के पास धन है तो धार्मिक होने का दिखावा कर के ठग लोग ही आपके पास आप को छलने आएंगे। वे महिलाएं भी हो सकती हैं और पुरुष भी। उनको पहिचानो। विपरीत सेक्स से दूरी रखो और सावधान रहो। भगवान ने हमें विवेक दिया है, उसके प्रकाश में सारे कार्य करो। यह मैं बहुत जिम्मेदारी और अपने अनुभव से लिख रहा हूँ।
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जिन्होंने मेरे साथ छल और विश्वासघात किया है, उन्होने वह भगवान के साथ ही किया है। मेरे साथ जिन्होंने उपकार किया है, वह भी भगवान के साथ ही किया है। मेरे साथ बहुत अधिक छल हुआ है। मैं नहीं चाहता कि और भी कोई छला जाये।
ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२२

जीवन का हर पल आनंद है, पूरा जीवन एक उत्सव है ---

जीवन का हर पल आनंद है। पूरा जीवन एक उत्सव है। इस उत्सव को भगवान में स्थित होकर मनाओ। भगवान हमारे से पृथक नहीं, हमारे साथ एक हैं। भगवान सत्यनारायण हैं।

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सत्य-सनातन-धर्म की रक्षा स्वयं भगवान करेंगे। वे वचनबद्ध हैं। हम तो धर्म का पालन करें, धर्म हमारी रक्षा करेगा। धर्म का पालन ही धर्म की रक्षा है। पूरा मार्गदर्शन -- रामायण, महाभारत, उपनिषदों और पुराणों में है। इनका स्वाध्याय तो हमें ही करना होगा।
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भगवान से जुड़ कर ही हम दूसरों का और स्वयं का कल्याण कर सकते हैं। यह सबसे बड़ी सेवा है। निज जीवन में भगवान को व्यक्त करो। हमारा निवास भगवान के हृदय में है, और भगवान का निवास हमारे हृदय में है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२३ . पुनश्च: आज सायंकाल में भगवान ने एक बहुत बड़ी सुषुप्ति से बचा दिया। जैसे किसी को बहुत ज़ोर से पिछवाड़े पर डंडा मारकर चेताते हैं, वैसे ही चेता दिया। कल तक जागृति आ ही जाएगी।
भगवान ने सीधे ही पूछ लिया कि तुम होते कौन हो?
प्रत्युत्पन्नमति से कोई उत्तर नहीं आया।
भगवान ने ही कहा कि तुम न तो कर्ता हो, और न भोक्ता। एक साक्षी और निमित्त मात्र हो। वही रहो।
भगवान का आदेश स्वीकार है। मैं एक साक्षी निमित्तमात्र ही हूँ, वही रहूँगा।
भटक गया था।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२२

आत्मा को ही उपलब्ध होने की एक अभीप्सा/उत्कंठा है ---

आध्यात्म में मेरी बौद्धिक भूख-प्यास तो अब तक पूरी तरह तृप्त हो चुकी है। बौद्धिक स्तर पर किसी भी तरह का कोई संशय, या समझने/जानने योग्य कुछ भी नहीं बचा है। महत्वहीन विषयों में मेरी कोई रुचि नहीं है। सिर्फ आत्मा को ही उपलब्ध होने की एक अभीप्सा/उत्कंठा है, जो आत्मा की साधना/उपासना से ही तृप्त होगी। अन्य बौद्धिक विषयों में रुचि समाप्त हो गई है, विहंगावलोकन की भी कोई अभिलाषा नहीं है।

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गंतव्य सामने है, दृष्टि वहीं पर स्थिर है, और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। मेरे साथ क्या होता है, अब इसका कोई महत्व नहीं है। उन अनुभवों से मैं क्या बनता हूँ, सिर्फ उसी का महत्व है। मुझे आप सदा अपने हृदय में पाओगे। भगवान से मेरी एक ही प्रार्थना है कि वे मुझे अनावश्यक गतिविधियों में न उलझाएं, और मुझे सदा अपने हृदय में रखें।
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२८ नवंबर २०२३

लगता है ३० मार्च २०२५ के पश्चात नव-निर्माण की एक नयी व्यवस्था का जन्म होगा। उससे पूर्व ही महाविनाश पूर्ण हो चुका होगा ---

लगता है ३० मार्च २०२५ के पश्चात नव-निर्माण की एक नयी व्यवस्था का जन्म होगा। उससे पूर्व ही महाविनाश पूर्ण हो चुका होगा ---

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XXX बहुत अधिक नशे के सेवन से मनुष्य का विवेक नष्ट हो गया है। इस समय इस पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध पर महा विनाश के बादल छाये हुए हैं। स्थिति बहुत विकट है। अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन अपने कार्यकाल 20 जनवरी 2025 तक से पहिले पहिले पृथ्वी की आधी से अधिक जनसंख्या को नष्ट करने पर आमादा हैं। वे Deep State के गुलाम, जिद्दी और महा अहंकारी व्यक्ति हैं। उन का Remote Control बरकत हुसैन ओबामा और कमाला हैरिस के हाथ में है।
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समाचार आ रहे हैं कि अमेरिका और ब्रिटेन -- यूक्रेन को अणुबम दे सकते हैं। यूक्रेनी राष्ट्रपति झेलोन्स्की रूस पर अणुबम से तुरंत हमला कर देगा। उससे पहिले ही रूस -- अमेरिका व ब्रिटेन पर आणविक आक्रमण कर सकता है। अमेरिका ने अपने अणुबमवर्षक रूस की सीमा पर तैनात कर दिये हैं। आणविक युद्ध हुआ तो पृथ्वी के उत्तरी गोलार्ध की आधी से अधिक जनसंख्या नष्ट हो जायेगी। और भी अनेक खतरनाक technical issues हैं। आणविक युद्ध हुआ तो इस पृथ्वी पर आधे से अधिक लोग मारे जायेंगे।
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यह सृष्टि महामाया के आधीन है। वे बड़े बड़े ज्ञानियों को भी महामोह में डाल देती हैं। यदि यह महामाया की ही इच्छा है तो आने वाले इस महाविनाश को कोई नहीं रोक सकता। भगवान ही हमारी रक्षा कर सकते हैं।
"ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥"
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ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२४

(प्रश्न) : भगवान के ध्यान से हमें क्या मिलेगा? (उत्तर) : जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब कुछ छीन लिया जाएगा।

 (प्रश्न) : भगवान के ध्यान से हमें क्या मिलेगा?

(उत्तर) : जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब कुछ छीन लिया जाएगा।
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बाकी रह जायेगी केवल एक अनंत सर्वव्यापी सच्चिदानंद की अनुभूति। वे ही कर्ता और भोक्ता हैं। उनके श्रीचरणों में आश्रय मिल जायेगा तो आगे के सारे द्वार अपने आप ही खुलने लगेंगे। सारे दीप भी अपने आप ही प्रज्ज्वलित हो उठेंगे। सारा अंधकार दूर हो जाएगा।
तब आप परमात्मा की वह ज्योति बन जाओगे जो कभी बुझाई नहीं जा सकती। वह ज्योति, उसका अनंत विस्तार, और उसमें से निःसृत हो रहे नाद की ध्वनि आप स्वयं हैं। परमप्रेममय होकर उसी का ध्यान कीजिये। आपका मौन और एकाग्रता -- परमात्मा का सिंहासन बन जाएगा। आप यह मनुष्य देह नहीं, स्वयं साक्षात सर्वव्यापी परमब्रह्म हैं।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२४

Tuesday, 26 November 2024

आजकल देरी से विवाह के कारण अनेक सामाजिक समस्याओं का जन्म हो रहा है ---

आजकल देरी से विवाह के कारण अनेक सामाजिक समस्याओं का जन्म हो रहा है। विवाह योग्य लड़के भी नहीं मिलते और लड़कियाँ भी नहीं मिलतीं। बहुत देरी से विवाह होते हैं, जिसके कारण अनेक समस्याएँ जन्म ले रही हैं। दोनों ही ओर से महत्वाकांक्षाएँ बहुत अधिक बढ़ गई हैं।

किसी भी परिस्थिति में लड़कों का विवाह २५ वर्ष की आयु से पूर्व हो जाना चाहिए, और लड़कियों का विवाह २२ वर्ष की आयु तक हो जाना चाहिए। विवाह के बाद भी उन्हें अपनी पढ़ाई-लिखाई चालू रखने का अवसर मिलना चाहिए।
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भारत के हिन्दू समाज में विदेशी अधर्मी आक्रांताओं के आतंक और अत्याचार के कारण बाल-विवाह की कुप्रथा सामाजिक विवशताओं के कारण आरंभ हुई थी। ये विदेशी अधर्मी आक्रांता भारत में बालिकाओं का अपहरण कर के ले जाते, और उनके परिवार के बड़े-बूढ़ों की हत्या कर देते थे। अब तो स्वतंत्र भारत में बाल-विवाह की प्रथा समाप्त हो गई है।
रात्री में विवाह की कुप्रथा (जो दुर्भाग्य से अभी भी चल रही है) भी विदेशी अधर्मी आक्रांताओं के आतंक के कारण आरंभ हुई थी। विदेशी आक्रमणों से पूर्व विवाह संस्कार दिन में ही होते थे। दिन में विवाह होने से विवाह का बहुत अधिक अनावश्यक खर्च बच जाता है।
कृपा शंकर
27 नवंबर 2022

दुनियाँ कुछ भी कहे कोई फर्क नहीं पड़ता, हम अपना कर्मयोग करते रहेंगे ---

 दुनियाँ कुछ भी कहे कोई फर्क नहीं पड़ता, हम अपना कर्मयोग करते रहेंगे ---

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आलोचना करने वाले आलोचना करते रहेंगे, हमारा कर्मयोग है --परमात्मा के प्रकाश में उपासना द्वारा निरंतर वृद्धि। ध्यान साधना में आने वाली आवरण और विक्षेप रूपी बाधाओं का एकमात्र समाधान है -- सत्संग, सत्संग और निरंतर सत्संग। अन्य कोई समाधान नहीं है। बाधादायक किसी भी परिस्थिति को तुरंत नकार दो, सात्विक जीवन जीओ और आध्यात्मिक रूप से उन्नत लोगों के साथ ही रहो। अपने ह्रदय में पूर्ण अहैतुकी परमप्रेम को जागृत करो और अपने अस्तित्व को गुरु व परमात्मा के प्रति समर्पित करने का निरंतर अभ्यास करते रहो। गुरु के प्रति समर्पण का अर्थ है -- जिस आध्यात्मिक धरातल पर गुरु महाराज हैं, उसी धरातल पर उन के साथ एक होने की निरंतर साधना। परमात्मा को समर्पण का अर्थ भी है -- परमात्मा के साथ एक होने की साधना।
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जीभ को सदा ऊपर की ओर मोड़ कर रखने का प्रयास करते रहो। खेचरी मुद्रा का खूब अभ्यास करो। खेचरी मुद्रा सिद्ध होने पर ध्यान खेचरी मुद्रा में ही करो। खेचरी मुद्रा के इतने लाभ हैं कि यहाँ उन्हें बताने के लिए स्थान कम पड़ जाएगा।
ऊनी कम्बल के आसन पर पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर बैठो। समय हो तो ध्यान से पूर्व कुछ देर हठयोग के हल्के व्यायाम जैसे सूर्य नमस्कार और कुछ आसन कर लो जिससे कमर सीधी रहे। "शिव-संहिता" में महामुद्रा का अभ्यास बताया गया है। ध्यान से पूर्व महामुद्रा का अभ्यास नियमित रूप से नित्य करने से कमर सीधी रहती है और कभी नहीं झुकती। नींद की झपकियाँ आने लगे तब पुनश्चः तीन चार बार महामुद्रा का अभ्यास कर लो। कमर सीधी कर के बैठो इससे नींद नहीं आएगी। शिव-संहिता में बताई गई महामुद्रा का अभ्यास तभी सिद्ध होगा जब हठयोग के पश्चिमोत्तानासन का भी अभ्यास होगा। घेरण्ड-संहिता में बताए गये त्रिबंधों का अभ्यास ब्रह्मचर्य में सहायक होगा।
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ध्यान करने से पहले अपने गुरु और परमात्मा से उनके अनुग्रह के लिए प्रार्थना अवश्य करें। गुरु की आज्ञा से भ्रूमध्य पर ध्यान करें। आगे का मार्गदर्शन गुरु महाराज करेंगे।
अपने अहं यानि अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का समर्पण गुरु तत्व में करना ही साधना है और उनके श्रीचरणों में आश्रय मिलना ही सबसे बड़ी सिद्धि है|
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आप सब में मैं गुरु रूप ब्रह्म को नमन करता हूँ। ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२२

भगवान ही एकमात्र सत्य है, बाकी सब मिथ्या है ---

 भगवान ही एकमात्र सत्य है, बाकी सब मिथ्या है ---

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जब से यह अनुभूति हुई है कि भगवान स्वयं ही यह सारी सृष्टि बन गए है, कुछ भी लिखने योग्य विषय नहीं बचा है। भगवान ने कुछ भी नहीं बनाया है, जो कुछ भी है, वह सब वे स्वयं हैं। जब तक समर्पित होकर हम उनके साथ एक नहीं होते, तब तक यह पुनर्जन्म, जन्म-मृत्यु और सुख-दुःख का चक्र चलता रहेगा।
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हम कूटस्थ में उनकी ज्योति का निरंतर दर्शन करें, उनके नाद को निरंतर सुनें, और उनके प्रति अनन्य-अहैतुकी भक्ति को विकसित करें। मुक्ति का यही एकमात्र मार्ग है। द्वैत भाव का एकमात्र उद्देश्य है -- परमप्रेम यानि भक्ति की सिद्धि। फिर वही भक्ति अद्वैत में व्यक्त हो। भगवान ही एकमात्र सत्य है, बाकी सब मिथ्या है।
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आप सब में मैं स्वयं को नमन करता हूँ।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२३

हम भगवान से क्या माँगें?

 हम भगवान से क्या माँगें?

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भगवान से कुछ माँगना, भगवान का अपमान है। हम तो भगवान को अपना अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) और सर्वस्व अर्पित कर समर्पण करना चाहते हैं, अतः उनसे कुछ माँगना उन का अपमान करना है। हम भगवान को अपना सब कुछ दे रहे हैं, उनसे कुछ ले नहीं रहे।
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हे प्रभु, हमारा समर्पण स्वीकार करो। आपका दिया हुआ जो भी सामान है वह बापस ले लो। आपकी दी हुई हर वस्तु का उपभोग आप ही कर रहे हो, हम नहीं। हमें माध्यम बनाकर आप ही सब कुछ भोग रहे हो। जो कुछ भी है वह आपका ही है, और आप ही भोक्ता हो। हमारा कुछ भी नहीं है। आप स्वयं ही यह सब बन गए हो।
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मैं आपका अनिर्वचनीय परमप्रेम, आपकी सर्वव्यापक अनंतता और आपकी पूर्णता हूँ। मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए। जो आप हैं, वह ही मैं हूँ। मेरी कोई पृथकता नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२७ नवंबर २०२३
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पुनश्च: :--- भगवान कुछ मांगने को कहें तो उनसे इतनी ही प्रार्थना करें कि वे अपना सारा सामान बापस लेने की कृपा करें। उनका सारा सामान उनको बापस कर दो।

Monday, 25 November 2024

आध्यात्मिक साधना, समत्व, अनन्य-योग और पराभक्ति ---

अपने अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही आध्यात्मिक साधना है। यही समत्व है, यही अनन्य-योग है, और यही पराभक्ति है। इसका अभ्यास करते करते हमारी प्रज्ञा परमात्मा में स्थिर हो जाती है, और ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त होती है। हम स्वयं स्थितप्रज्ञ होकर ब्रह्ममय हो जाते हैं। यही परमात्मा की प्राप्ति यानि भगवत्-प्राप्ति है। भगवान कोई ऊपर आकाश से उतर कर आने वाली चीज नहीं है​। वे हमारे से पृथक नहीं हैं। अपनी चेतना का ब्रह्ममय हो जाना ही आत्म-साक्षात्कार और भगवान की प्राप्ति है।

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दूसरों के पीछे मत भागें। The other person is the hell. हम दूसरों में नहीं, स्वयं में और सर्वत्र भगवान को देखें। दूसरों के पीछे पीछे भागना अपने समय को नष्ट करना है। हमारे जीवन की हरेक क्रिया के कर्ता भगवान स्वयं हैं। हम प्रातःकाल सोकर उठते हैं, तब भगवान स्वयं ही हमारे माध्यम से सोकर उठते हैं। रात्रि को सोते हैं तब भगवान स्वयं ही हमारे माध्यम से शयन करते हैं। वे ही हमारी नासिकाओं से सांसें लेते हैं, वे ही हमारी आँखों से देखते हैं, हमारे कानों से वे ही सुनते हैं, हाथों से वे ही सारा काम करते हैं, और वे ही इन पैरों से चलते हैं। निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें।
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प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त के जिस क्षण भगवान स्वयं हमारे माध्यम से सोकर उठते हैं, वह क्षण हमारे जीवन का सर्वश्रेष्ठ क्षण होता है। उठते ही सब शंकाओं से निवृत होकर अपने आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह कर के बैठ जाइये, और ध्यान साधना कीजिये।
(आध्यात्मिक दृष्टि से भ्रूमध्य पूर्व दिशा होता है, और सहस्त्रार उत्तर दिशा होता है)
मेरुदण्ड यानि कमर सीधी और ठुड्डी भूमि के समानांतर हो। जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर पीछे तालू से सटाकर रखने को अर्ध-खेचरी कहते हैं, और पूरी तरह अंदर पलटने को पूर्ण-खेचरी कहते हैं। यदि खेचरी-मुद्रा का अभ्यास है तो खेचरी, अन्यथा अर्ध-खेचरी मुद्रा रखें। तालू के ऊपर से खोपड़ी तक के भाग को मूर्धा कहते हैं।
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अब असली योग-साधना का आरंभ होता है। जो साधना के मार्ग पर बिलकुल नये हैं, आरंभ में उन्हें किन्हीं श्रौत्रीय (जिन्हें श्रुतियों यानि वेदों और वेदांगों का ज्ञान हो), ब्रहमनिष्ठ सिद्ध आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करना अनिवार्य है। यदि किसी के हृदय में अभीप्सा और सत्यनिष्ठा हो तो भगवान इसकी व्यवस्था स्वयं कर देते हैं। जो पहिले से ही साधना के मार्ग पर हैं, उन्हें किसी मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है। भगवान से परमप्रेम (भक्ति) और अभीप्सा, मोटर गाड़ी में पेट्रोल की तरह है, जिनके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते।
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इस लेख को संशोधित कर यहीं इसका समापन कर रहा हूँ। मेरे पाठकों में सभी उच्च शिक्षित प्रबुद्ध मनीषी हैं, जो सब बातों को समझते हैं। उन्हें कुछ भी बताने या याद कराने की आवश्यकता नहीं है। वे अपने विवेक के प्रकाश में अपने सभी कार्य संपादित करें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२४

पूरी सृष्टि मेरे साथ एक होकर भगवान की ही उपासना कर रही है ---

पूरी सृष्टि मेरे साथ एक होकर भगवान की ही उपासना कर रही है। मैं सांस लेता हूँ तब पूरी सृष्टि मेरे साथ एक होकर सांस लेती हैं। मैं भगवान का ध्यान करता हूँ तब पूरी सृष्टि भगवान का ही ध्यान करती है। भगवान मेरे माध्यम से कुछ कर रहे है तो वे आप सब के माध्यम से ही कुछ कर रहे हैं।
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जो मैं हूँ, वही आप हैं। मैं ही आकाश-तत्व (पुरुष) हूँ, और मैं ही प्राण-तत्व (प्रकृति)। प्रकृति सारे कार्य संपादित कर के पुरुष को अर्पित कर रही है। दूसरे शब्दों में महाकाली ही सारे कार्य कर के श्रीकृष्ण को अर्पित कर रही हैं। हम सब तो निमित्त मात्र हैं।
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मैं कूटस्थ सूर्यमण्डल में भगवान पुरुषोत्तम का ध्यान करता हूँ। यही मेरी साधना है। आप सब भी मेरे साथ एक होकर स्वतः ही पुरुषोत्तम का ध्यान कर रहे हो। जो पुरुषोत्तम हैं, वे ही परमशिव हैं, वे ही श्रीहरिः है और वे ही परमब्रह्म परमात्मा हैं।
प्रार्थना --
"त्वमादिदेवः पुरुषः पुराण स्त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥११:३८॥"
"वायुर्यमोऽग्निर्वरुणः शशाङ्कः प्रजापतिस्त्वं प्रपितामहश्च।
नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्वः पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥११;३९॥"
"नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः॥११:४०॥" (श्रीमद्भगवद्गीता)
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मैं फेसबुक का आभारी हूँ कि उसने मुझे स्वयं के भावों और विचारों को व्यक्त करने का अवसर दिया। स्वयं को व्यक्त करने के चक्कर में मैंने अनेक सही-गलत जैसे भी भाव आए वैसे ही बहुत सारे छोटे-मोटे लेख लिख डाले। ज्ञान भी बढ़ा और मित्रता व परिचय क्षेत्र भी बढ़ा।
पुनश्च: -- परमशिव पुरुषोत्तम श्रीहरिः परमब्रह्म परमात्मा को नमन !!
परमात्मरूप आप सब को भी नमन !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२२

हम जब दूसरों में भगवान को ढूँढते हैं, तो धोखा ही धोखा खाते हैं ---

 हम जब दूसरों में भगवान को ढूँढते हैं, तो धोखा ही धोखा खाते हैं। दूसरों के पीछे पीछे भागना स्वयं को धोखा देना है। भगवान की सत्ता कहीं बाहर नहीं, स्वयं की कूटस्थ चेतना में ही है। स्वयं की चेतना का विस्तार करेंगे तो हम पायेंगे कि हमारे से अन्य कुछ भी और कोई भी नहीं है। किसी अन्य का साथ नहीं, भगवान का ही साथ ढूँढो। वर्तमान विश्व में बाहर धोखा ही धोखा है। सब से बड़ा धोखा भगवान के नाम से है।

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प्रातः काल के उगते हुए सूर्य को देख रहा हूँ। लेकिन एक सूर्य मेरे अंतर्चैतन्य में भी है जिसे गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने "कूटस्थ" कहा है। वह कूटस्थ ही ब्रह्म है। उसका भी एक मण्डल है, जिसमें पुरुषोत्तम स्वयं बिराजे हुए हैं। उन के अतिरिक्त कहीं अन्य ध्यान देने की मैं सोच भी नहीं सकता। उनका आलोक ही मेरा आलोक है। वे ही मेरे भुवन-भास्कर और आदित्य हैं। वे ही एकमात्र सत्य हैं, उनसे अन्य सब धोखा है। मैं उनके साथ एक हूँ। यही मेरी साधना/उपासना है। मेरे से अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२३

विश्व की वर्तमान सभ्यता कभी भी नष्ट की जा सकती है ---

विश्व की वर्तमान सभ्यता कभी भी नष्ट की जा सकती है ---
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इस समय पूरे विश्व की संचार व्यवस्था (Communication), और नौकानयन (Navigation) (वायुयानों, जलयानों व भूमि-वाहनों का) उपग्रहों के माध्यम से संचालित हैं। यदि युद्ध की स्थिति में इन उपग्रहों को नष्ट कर दिया जाये तो पूरे विश्व में हमारी वर्तमान सभ्यता एक बार तो पूरी तरह विफल हो जाएगी। गुप्तचरी (जासूसी) के लिए भी इन उपग्रहों का उपयोग होता है। बिना उपग्रहों की सहायता के इस समय कोई भी युद्ध नहीं लड़ा जा सकता।
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वर्तमान में विश्व की जो विषम स्थिति है उसका कारण पश्चिमी जगत में ड्रग्स के नशे का बहुत अधिक प्रचलन है। कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर पूरा अमेरिका और यूरोप नशे और सेक्स का आदि हो चुका है। इस कारण उनमें विवेक नहीं रहा है। अमेरिका का वर्तमान राष्ट्रपति लगता है "गहन राज्य" (Deep State) का दास हो चुका है, जिसकी डोर पूर्व राष्ट्रपति बरकत हुसैन ओबामा, वर्तमान उपराष्ट्रपति कमाला हैरिस और उद्योगपति जॉर्ज सौरेस के हाथ में है। "गहन राज्य" एक गोपनीय आसुरी व्यवस्था है जो पूरे विश्व को अपने नियंत्रण में रखना चाहती है है। अमेरिका में ऐसी कम से कम कम छह परम गुप्त संस्थाएं हैं जो पूरे विश्व को अपने नियंत्रण में लेना चाहती हैं। पहले गहन-राज्य का संचालन वेटिकन, लंदन और वाशिंगटन डी.सी. से होता था। इस समय वाशिंगटन डी.सी. से हो रहा है। वर्तमान राष्ट्रपति बाइडेन का बड़ा बेटा हंटर बाइडेन पूरी दुनिया के अफीम और कोकीन के तस्करों का बादशाह है। बाइडेन का छोटा बेटा तो नौसेना में अधिकारी था जो अधिक कोकीन खाने से मर गया। बड़ा बेटा भी कोकीन का अभ्यस्त है।
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यूक्रेन और रूस के मध्य जो युद्ध चल रहा है, उसके पीछे हंटर बाइडेन का कुटिल दिमाग है। इन का उद्देश्य रूस के संसाधनों की लूट था (अगला निशाना भारत था)। पहले इन्होंने तुर्की के माध्यम से यूक्रेन में बहुत अधिक नशीले पदार्थों की तस्करी की, और अति विशिष्ट लोगों के एक समूह को नशे का आदि बनाया। फिर फिल्मों के माध्यम से एक विदूषक झेलेंस्की में भावी नेता की छवि बनाई गयी। फिर पैसों के ज़ोर से ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की गयी कि वहाँ की चुनी हुई सरकार के राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को देश छोड़कर भागकर रूस में शरण लेनी पड़ी, अन्यथा उसकी हत्या हो जाती। फिर अमेरिका और ब्रिटेन की सहायता से "ओजोव बटालियन" नामक एक जातिवादी संगठन बनाकर रूसी भाषी लोगों की हत्या की जाने लगी। ऐसे जैविक अस्त्रों का निर्माण करने के लिए प्रयोग शालाएँ बनाई गईं कि पूरे रूसी भाषी लोगों को नष्ट किया जा सके। रूस को फिर बाध्य होकर यह युद्ध आरंभ करना पड़ा।
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अब संक्षेप में अंतिम बात क्रीमिया प्रायदीप की करता हूँ। वहाँ अनेक देशों का शासन रहा लेकिन अंत में मंगोल मूल के तातार मुसलमानों के तुर्क कबीलों ने उस पर अधिकार कर बाकी सब को मार दिया या भगा दिया। ये तातार मुसलमान सल्तनत-ए-उस्मानिया (Ottoman Empire) के आधीन थे। रूसी तानाशाह स्टालिन (जो वास्तव में रूसी नहीं, जोरजियन था) ने पूरे क्रीमिया पर अधिकार कर उसे रूस में मिला लिया। इसके विरोध में तुर्की, ब्रिटेन और फ्रांस ने मिल कर क्रीमिया पर आक्रमण भी किया लेकिन रूस को हरा नहीं पाये। क्रीमिया का युद्ध व्यर्थ में ही लड़ा गया था। स्टालिन ने लगभग सारे तातार मुसलमानों को क्रीमिया से हटाकर रूस की मुख्य भूमि में बसा दिया और उनको तातारिस्तान नाम का एक पृथक गणराज्य भी दे दिया। यूक्रेन के दो-तीन विद्वान तातार मुसलमान परिवारों से मेरी मित्रता भी थी। उन्होंने ही वहाँ का और पूरे मध्य एशिया का इतिहास मुझे बताया था।
क्रीमिया में लगभग 90% आबादी रूसी भाषी लोग हैं, 6% यूक्रेनी हैं, और 4% तातार मुसलमान हैं। सोवियत संघ के समय वहाँ के राष्ट्रपति खृश्चेव यूक्रेनी थे जिन्होंने क्रीमिया यूक्रेन को दे दिया था। जब रूसी लोगों की हत्याएँ की जाने लगीं तब क्रीमिया की संसद ने एक प्रस्ताव पास कर स्वयं को रूस का भाग घोषित कर दिया।
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अब राष्ट्रपति बाइडेन का शासन 20 जनवरी 2025 तक का है। वे पृथ्वी के पूरे उत्तरी गोलार्ध को युद्ध की आग में झोंकना चाहते हैं। भारत में भी पंजाब के मार्ग से बहुत अधिक अफीम की तस्करी कर भारत को भी नष्ट करना चाहते थे। लेकिन भगवान की कृपा से भारत की रक्षा हो गई।
देखिये क्या होता है। पता नहीं परमात्मा की क्या इच्छा है?
ॐ तत्सत् !!

25 नवंबर 2024 

Sunday, 24 November 2024

जो करना चाहता हूँ, वैसी सामर्थ्य नहीं है ---

“The spirit is willing but the flesh is weak”. मैं कहीं भी जाऊँ, कहीं भी रहूँ, कुछ भी करूँ, घूम फिर कर मेरे विचार परमात्मा पर ही आकर केंद्रित हो जाते हैं। परमात्मा के सिवाय और कुछ मुझे आता-जाता भी नहीं है। परमात्मा ने दिमाग और बुद्धि तो मुझे दी ही नहीं है। वे ही मेरे दिमाग हैं और वे ही मेरी बुद्धि हैं। करने योग्य कुछ भी काम मुझे नहीं आता है। जो कुछ भी करना है, वह सब वे ही करते हैं। मैं तो उनका एक उपकरण मात्र हूँ।
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एक कार्य तो अवश्य वे मुझे निमित्त बनाकर कर रहे हैं -- हर आती-जाती सांस पर अपना स्मरण। सांस रुक भी जाती है तब भी वे उस अवधि में और हर समय ज्योति और नाद के रूप में अपना स्मरण कराते रहते हैं। एक मात्र कर्ता वे ही हैं। उनकी इच्छा ही मेरी इच्छा है। जो कुछ भी करना है, उसे वे ही करते हैं, मेरे में कोई कार्य-कुशलता नहीं है। वे जगन्माता भी हैं, और जगत्पिता भी। दोनों के रूप में वे निरंतर अनुभूत होते हैं।
मेरी एकमात्र और सबसे बड़ी कमी व कमजोरी है -- “The spirit is willing but the flesh is weak.”
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वैसे तो उनके कृपा-सिंधु में मेरी हिमालय से भी बड़ी बड़ी भूलें, छोटे-मोटे कंकर-पत्थरों सी ही लगती हैं। मेरी उनसे प्रथम, अंतिम, और एकमात्र प्रार्थना है कि वे मुझे हर समय अपने हृदय में रखें और अपना पूर्ण प्रेम दें। और कुछ भी नहीं चाहिए।
हरिः ॐ तत्सत् !! ॐ स्वस्ति !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२४ नवंबर २०२४