अपने अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) का परमात्मा को पूर्ण समर्पण ही आध्यात्मिक साधना है। यही समत्व है, यही अनन्य-योग है, और यही पराभक्ति है। इसका अभ्यास करते करते हमारी प्रज्ञा परमात्मा में स्थिर हो जाती है, और ब्राह्मी-स्थिति प्राप्त होती है। हम स्वयं स्थितप्रज्ञ होकर ब्रह्ममय हो जाते हैं। यही परमात्मा की प्राप्ति यानि भगवत्-प्राप्ति है। भगवान कोई ऊपर आकाश से उतर कर आने वाली चीज नहीं है। वे हमारे से पृथक नहीं हैं। अपनी चेतना का ब्रह्ममय हो जाना ही आत्म-साक्षात्कार और भगवान की प्राप्ति है।
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दूसरों के पीछे मत भागें। The other person is the hell. हम दूसरों में नहीं, स्वयं में और सर्वत्र भगवान को देखें। दूसरों के पीछे पीछे भागना अपने समय को नष्ट करना है। हमारे जीवन की हरेक क्रिया के कर्ता भगवान स्वयं हैं। हम प्रातःकाल सोकर उठते हैं, तब भगवान स्वयं ही हमारे माध्यम से सोकर उठते हैं। रात्रि को सोते हैं तब भगवान स्वयं ही हमारे माध्यम से शयन करते हैं। वे ही हमारी नासिकाओं से सांसें लेते हैं, वे ही हमारी आँखों से देखते हैं, हमारे कानों से वे ही सुनते हैं, हाथों से वे ही सारा काम करते हैं, और वे ही इन पैरों से चलते हैं। निरंतर परमात्मा की चेतना में रहें।
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प्रातःकाल ब्रह्ममुहूर्त के जिस क्षण भगवान स्वयं हमारे माध्यम से सोकर उठते हैं, वह क्षण हमारे जीवन का सर्वश्रेष्ठ क्षण होता है। उठते ही सब शंकाओं से निवृत होकर अपने आसन पर पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह कर के बैठ जाइये, और ध्यान साधना कीजिये।
(आध्यात्मिक दृष्टि से भ्रूमध्य पूर्व दिशा होता है, और सहस्त्रार उत्तर दिशा होता है)
मेरुदण्ड यानि कमर सीधी और ठुड्डी भूमि के समानांतर हो। जीभ को ऊपर की ओर मोड़कर पीछे तालू से सटाकर रखने को अर्ध-खेचरी कहते हैं, और पूरी तरह अंदर पलटने को पूर्ण-खेचरी कहते हैं। यदि खेचरी-मुद्रा का अभ्यास है तो खेचरी, अन्यथा अर्ध-खेचरी मुद्रा रखें। तालू के ऊपर से खोपड़ी तक के भाग को मूर्धा कहते हैं।
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अब असली योग-साधना का आरंभ होता है। जो साधना के मार्ग पर बिलकुल नये हैं, आरंभ में उन्हें किन्हीं श्रौत्रीय (जिन्हें श्रुतियों यानि वेदों और वेदांगों का ज्ञान हो), ब्रहमनिष्ठ सिद्ध आचार्य से मार्गदर्शन प्राप्त करना अनिवार्य है। यदि किसी के हृदय में अभीप्सा और सत्यनिष्ठा हो तो भगवान इसकी व्यवस्था स्वयं कर देते हैं।
जो पहिले से ही साधना के मार्ग पर हैं, उन्हें किसी मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है। भगवान से परमप्रेम (भक्ति) और अभीप्सा, मोटर गाड़ी में पेट्रोल की तरह है, जिनके बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते।
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इस लेख को संशोधित कर यहीं इसका समापन कर रहा हूँ। मेरे पाठकों में सभी उच्च शिक्षित प्रबुद्ध मनीषी हैं, जो सब बातों को समझते हैं। उन्हें कुछ भी बताने या याद कराने की आवश्यकता नहीं है। वे अपने विवेक के प्रकाश में अपने सभी कार्य संपादित करें।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२४
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