हम जब दूसरों में भगवान को ढूँढते हैं, तो धोखा ही धोखा खाते हैं। दूसरों के पीछे पीछे भागना स्वयं को धोखा देना है। भगवान की सत्ता कहीं बाहर नहीं, स्वयं की कूटस्थ चेतना में ही है। स्वयं की चेतना का विस्तार करेंगे तो हम पायेंगे कि हमारे से अन्य कुछ भी और कोई भी नहीं है। किसी अन्य का साथ नहीं, भगवान का ही साथ ढूँढो। वर्तमान विश्व में बाहर धोखा ही धोखा है। सब से बड़ा धोखा भगवान के नाम से है।
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प्रातः काल के उगते हुए सूर्य को देख रहा हूँ। लेकिन एक सूर्य मेरे अंतर्चैतन्य में भी है जिसे गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने "कूटस्थ" कहा है। वह कूटस्थ ही ब्रह्म है। उसका भी एक मण्डल है, जिसमें पुरुषोत्तम स्वयं बिराजे हुए हैं। उन के अतिरिक्त कहीं अन्य ध्यान देने की मैं सोच भी नहीं सकता। उनका आलोक ही मेरा आलोक है। वे ही मेरे भुवन-भास्कर और आदित्य हैं। वे ही एकमात्र सत्य हैं, उनसे अन्य सब धोखा है। मैं उनके साथ एक हूँ। यही मेरी साधना/उपासना है। मेरे से अन्य कोई भी या कुछ भी नहीं है।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
२६ नवंबर २०२३
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