Tuesday, 27 August 2024

दूसरों से अपेक्षा और आशा -- जीवन में निराशा और दुःख को जन्म देती हैं। इनसे ऊपर कैसे उठें?

 यह प्रश्न बार-बार मन में उठता है। अंततः इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि ये सब फालतू बातें हैं। ऐसी फालतू बातें दिमाग में आनी ही नहीं चाहिये। मन को परमात्मा में लगाकर रखो, और अन्य कुछ भी चिंतन मत करो। परमात्मा के भी अनेक रूप हैं, उनमें से किसका चिंतन करें? इसका उत्तर है कि जो भी रूप हमारा प्रियतम है उसी का चिंतन करो। मैं अब मेरे प्रियतम रूप का ही चिंतन करूंगा। यही सुखी रहने का मार्ग है। भगवान कहते हैं ---

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"मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः॥१२:२॥"
अर्थात् -- मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं॥
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"ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥१२:३॥"
अर्थात् -- परन्तु जो भक्त अक्षर ,अनिर्देश्य, अव्यक्त, सर्वगत, अचिन्त्य, कूटस्थ, अचल और ध्रुव की उपासना करते हैं॥
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"संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रताः॥१२:४॥"
अर्थात् -- इन्द्रिय समुदाय को सम्यक् प्रकार से नियमित करके, सर्वत्र समभाव वाले, भूतमात्र के हित में रत वे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं॥
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आज की उलझन समाप्त हो गई है। विश्व में घट रही कुछ घटनाएँ मन को व्यथित करती हैं। लेकिन भगवान के न्याय और उनकी व्यवस्था में मेरी आस्था है। मेरी व्यथा का कारण ही मन का भटकाव है। अब और मन नहीं भटके।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१० अगस्त २०२४

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