Tuesday, 27 August 2024

भारत कभी किसी भी कालखंड में किसी का गुलाम नहीं था ---

 भारत कभी किसी भी कालखंड में किसी का गुलाम नहीं था। जिन विदेशियों ने भारत में शासन किया वह कुछ भारतियों के सहयोग से ही किया। कुछ अदूरदर्शी व स्वार्थी भारतीयों के सहयोग के बिना कोई भी विदेशी सत्ता भारत में नहीं रह सकती थी। भारतीयों ने कभी भी पराधीनता स्वीकार नहीं की और सर्वदा अपने स्वाभिमान के लिए संघर्ष करते रहे। भारत में अंग्रेजों का शासन भी कुछ भारतीय जमींदार, स्वार्थी शासक वर्ग, और कुछ ढोंगी राजनेताओं के कारण ही था, जिन्होने लोभवश या किसी विवशता में अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार की और बड़ी क्रूरता से जनभावनाओं को दबाकर रखा।

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सन १८५७ ई. के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय अंग्रेजों ने एक योजना बनाई थी कि भारत से सारे भारतीयों की हत्या कर दी जाये और सिर्फ गोरी चमड़ी वाले यूरोपीय लोगों को ही यहाँ रहने दिया जाये, और कुछ भारतीयों को गोरों के गुलाम के रूप में जीवित रखा जाये। वे ऐसा काम दोनों अमेरिकी महाद्वीपों और ऑस्ट्रेलिया में कर चुके थे।
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१८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के समय इसी नरसंहार के लिए अंग्रेजों ने जनरल जेम्स जॉर्ज स्मिथ नील (General James George Smith Neill), जनरल सर हेनरी हेवलॉक (General Sir Henry Havelock), और फील्ड मार्शल हेनरी हयूग रोज़ (Field Marshal Henry Hugh Rose) को ज़िम्मेदारी सौंपी थी। ये तीनों ही नरपिशाच हत्यारे थे। अंग्रेजों ने इन नरपिशाच हत्यारों की स्मृति में अंडमान द्वीप समूह में तीन द्वीपों के नाम रखे।
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इन नराधम हत्यारे अंग्रेज़ सेनापतियों ने १८५७ में भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम को निर्दयता से कुचला और करोड़ों भारतीयों का नरसंहार किया। इन राक्षसों ने १८५७ के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम का बदला लेने के लिए व्यापक नर-संहार किया था जो विश्व के इतिहास में सबसे बड़ा नरसंहार था। एक करोड से अधिक निर्दोष भारतीयों की पेड़ों से लटका कर या गोली मार कर हत्याएँ की गयी थीं। दो माह के भीतर भीतर इतना बड़ा नर-संहार विश्व इतिहास में कहीं भी नहीं हुआ है|
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नील के नेतृत्व में अंग्रेज़ सेनाएँ इलाहाबाद से कानपुर की ओर चल पड़ीं। इलाहाबाद से कानपुर तक के मार्ग में नील ने हर गाँव में सार्वजनिक नर-संहार किया, और लाखों निरीह भारतीयों की हत्या की। उसे मार्ग में जो भी भारतीय मिलता उसे वह निकटतम पेड़ पर फांसी दे देता। इलाहाबाद से कानपुर तक के मार्ग में पड़ने वाले हरेक गाँव को जला दिया गया, ऐसा कोई भी पेड़ नहीं था जिस पर किसी असहाय भारतीय को फांसी पर नहीं लटकाया गया हो। बाद में नरसंहार के लिए वह लखनऊ गया जहाँ भारतीय वीरों ने उसे मार डाला। उस नर-पिशाच की स्मृति में अंग्रेजों ने अंडमान में एक द्वीप का नाम Neil Island रखा। उस नर-पिशाच का नाम वर्तमान भाजपा सरकार ने सत्ता में आने के बाद ही हटवाया। इस नर-पिशाच ने बिहार में भी लाखों भारतीयों की हत्या की थी। बिहार में कुंवर सिंह के क्षेत्र में आरा और गंगा नदी के बीच के एक गाँव में इस राक्षस ने वहाँ के सभी ३५०० लोगों की हत्याएँ की। फिर बनारस के निकट के एक गाँव में जाकर वहाँ के सभी ५५०० लोगों की हत्याएँ करवाई। यह जहाँ भी जाता, गाँव के सभी लोगों को एकत्र कर उन्हें गोलियों से भुनवा देता।
हेवलॉक के नेतृत्व में अँगरेज़ सेना ने झाँसी की रानी को भागने को बाध्य किया और उनकी ह्त्या की। इस राक्षस ने झांसी के आसपास के क्षेत्रों में लाखों भारतीयों की हत्याएँ करवाई थीं।
रोज ने कानपुर की ३ लाख की जनसंख्या में से लगभग दो लाख सत्तर हज़ार नागरिकों की ह्त्या करवा कर कानपुर नगर को श्मसान बना दिया था। यह एक भयानक हत्यारा था। कानपुर के पास के एक गाँव कालपी की तो पूरी आबादी को ही क़त्ल कर दिया गया। वहाँ किसी पशु-पक्षी तक को भी जीवित नहीं छोड़ा गया।
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उपरोक्त तीनों अँगरेज़ सेनाधिकारियों में से हरेक ने अपनी सेवा काल में लाखों भारतीयों की हत्याएँ की, इसलिए उन्हें अंग्रेज सरकार ने खूब सम्मानित किया।
केंद्र में वर्तमान सरकार ने रोज द्वीप का नाम नेताजी सुभाष चंद्र बोस द्वीप, नील द्वीप का नाम शहीद द्वीप और हैवलॉक द्वीप का नाम स्वराज द्वीप रख दिया है।
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नेताजी सुभाषचंद्र बोस भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। ३० दिसंबर १९४३ को नेताजी ने पोर्ट ब्लेयर के जिमखाना मैदान में राष्ट्रीय ध्वज फहराया था और भारत की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। अनेक देशों ने उनकी सरकार को मान्यता भी दे दी थी। पर द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की पराजय के कारण उन्हें भारत छोड़कर ताईवान और मंचूरिया होते हुए रूस भागना पडा जहाँ शायद उन की ह्त्या कर दी गयी। उन की ह्त्या के पीछे स्वतंत्र हो चुके भारत की सरकार की भी सहमति थी। ताईवान में वायुयान दुर्घटना में उनकी मृत्यु की झूठी कहानी रची गयी। आज़ाद हिन्द फौज का खजाना जवाहार लाल नेहरू ने अपने अधिकार में ले लिया था। वह कहाँ गया उसे वे ही जानें।
ॐ तत्सत् ! ॐ नमो भगवते वासुदेवाय !
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२३

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