वेदान्त की अधिष्ठात्री माँ छिन्नमस्ता का विग्रह अनुपम है। उन की साधना में कोई मांग नहीं है, सिर्फ समर्पण है। माँ ने कामदेव और उसकी पत्नी रति को अपने पैरों के नीचे पटक रखा है। यह संकेत है कि मेरा साधक एक ब्रह्मचारी ही हो सकता है। दशों दिशाएँ उनके वस्त्र हैं। माँ ने एक हाथ में कटार लिए अपने स्वयं के सिर को काट कर दूसरे हाथ की हथेली में ले रखा है, और सुषुम्ना नाड़ी से निकल रही रक्त की धारा का पान कर रही है। इसके दो अर्थ हैं। पहला अर्थ तो यह है कि साधक को अहंकार-शून्य होना होगा। दूसरा अर्थ है कि सुषुम्ना में ही परम गति है। सुषुम्ना के भीतर ही क्रमशः वज्रा, चित्रा और ब्राह्मी नाड़ियाँ हैं। भगवती की कृपा से कुंडलिनी महाशक्ति जागृत होकर वज्रा और चित्रा से होती हुई ब्रह्मनाड़ी में प्रवेश करती है और विचरण करती हुई परमशिव से जा मिलती हैं। इस प्रक्रिया में साधक भी परमशिव के साथ एक हो कर स्वयं परमशिव हो जाता है।
इड़ा नाड़ी से निकल रही रक्त की धारा का पान डाकिनी महाशक्ति कर रही है। डाकिनी कृष्ण वर्ण की है और बहुत अधिक शक्तिशाली है। सारी तामसिक शक्तियाँ उसके आधीन हैं। पिंगला नाड़ी से निकल रही रक्त की धारा का पान वर्णिनी महाशक्ति कर रही हैं। वे गौर वर्ण की हैं और सारी राजसिक शक्तियों की स्वामिनी हैं। सारी सात्विक शक्तियाँ माँ के आधीन हैं, लेकिन माँ त्रिगुणातीत यानि निःस्त्रेगुण्य हैं। वे इन सब सिद्धियों से परे हैं। अपने भक्त को वे सारी सिद्धियाँ प्रदान करती हैं, लेकिन उसका परम वैराग्य भी जागृत कर देती है। वह उन सिद्धियों की ओर देखता भी नहीं है। साधक का एक ही लक्ष्य -- "परमशिव" रह जाता है। माँ का साधक एक अवधूत श्रेणी का महात्मा हो जाता है।
माँ के दो ही मंदिर हैं, एक हिमाचल में चिंत्यपूर्णी में है, और दूसरा झारखंड में राजरप्पा में है। तिब्बत का वज्रयान मत माँ की ही साधना पर आधारित है। उनके मंत्र "ॐ मणिपद्मे हूँ" का अर्थ है कि मैं मणिपुर चक्र में स्थित पद्म में "हुं" यानि भगवती छिन्नमस्ता को नमन करता हूँ।
माँ छिन्नमस्ता का निवास मणिपुर चक्र के पद्म में है। उनका बीजमंत्र "हुं" है। उनका मंत्र -- "ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं वज्र वैरोचनीए हुं हुं फट् स्वाहा" है। इसकी साधना किसी परमहंस अवधूत श्रेणी के महात्मा से दीक्षा लेकर ही करनी चाहिए। अन्यथा साधना निष्फल भी हो सकती है।
हरेक दस महाविद्या विष्णु के किसी न किसी अवतार से जुड़ी होती है। भगवती छिन्नमस्ता -- विष्णु के अवतार भगवान नृसिंह से जुड़ी हुई हैं। ये भगवान नृसिंह की शक्ति हैं। दोनों के बीजमंत्र एक ही हैं।
माँ भगवती छिन्नमस्ता को नमन। मैं समर्पित होकर उनसे सिर्फ "परम वैराग्य" और "अनन्य भक्ति" मांग रहा हूँ। वे हमारी माता हैं, जिनसे मांगना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। ये तो उन्हें देने ही होंगे। और मुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरी वेदान्त-वासना तो उन्होने जागृत कर ही रखी है। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१ अगस्त २०२४
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पुनश्च: -- माँ छिन्नमस्ता के उपासकों में गुरु गोरखनाथ हुए हैं। उन्हें सारी सिद्धियाँ माँ छिन्नमस्ता से मिली थीं। उन्होने माँ छिन्नमस्ता का बहुत सुंदर स्तोत्र लिखा है। इस विद्या का प्राचीन वैदिक नाम कुछ और था। अभी स्मृति में नहीं है।
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