एक बहुत भयानक तमोगुण नामक असुर मेरे अवचेतन मन में छिपा हुआ बैठा है। वह असुर अमर है, उसे कोई नहीं मार सकता।वही मेरे सब दुःखों का कारण है। उससे मुक्ति केवल भगवान परमशिव ही दिला सकते हैं। भगवान मुझे तीनों गुणों से मुक्त कर निस्त्रेगुण्य (त्रिगुणातीत), वीतराग, और स्थितप्रज्ञ बनायें। स्थितप्रज्ञता के लिए त्रिगुणातीत और वीतराग होना आवश्यक है। मेरी प्रज्ञा परमात्मा में स्थित रहे। परमात्मा के हृदय में ही मेरा स्थायी निवास हो। यही मेरी अभीप्सा है। परमशिव के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई आश्रय नहीं है। परमात्मा के कृपा सिंधु में अति गहरी डुबकी लगाने का समय आ गया है। अनमोल मोती मिल रहे हैं, अन्यथा पछताना पड़ेगा। भक्त या साधक होने का भाव एक अहंकार है। हम निमित्त मात्र ही हो सकते हैं, कर्ता और भोक्ता केवल परमात्मा हैं।
Tuesday, 27 August 2024
परमशिव के अतिरिक्त मेरा अन्य कोई आश्रय नहीं है ---
गीता में भगवान कहते है --
"तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व, जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
भावार्थ -- इसलिए तुम उठ खड़े हो जाओ और यश को प्राप्त करो; शत्रुओं को जीतकर समृद्ध राज्य को भोगो। ये सब पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं। हे सव्यसाचिन्! तुम केवल निमित्त ही बनो॥ (बायें हाथसे भी बाण चलानेका अभ्यास होनेके कारण अर्जुन सव्यसाची कहलाता है।)
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मेरे पाठकों में सब प्रबुद्ध विद्वान मनीषी हैं जो वेदान्त-दर्शन और भक्ति को अच्छी तरह समझते हैं। अतः मुझे कुछ और कहने की आवश्यकता नहीं है।
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