Tuesday 27 August 2024

अपनी असीम अनंतता में सच्चिदानंद परमशिव की आराधना ---

आज पवित्र श्रावण मास का चौथा सोमवार है। पूरे श्रावण मास का व्रत कर रखा है। दिन में मध्याह्न में सिर्फ एक बार अल्प मात्रा में भोजन, और प्रातः-सायं थोड़ा थोड़ा देसी नस्ल की गौमाता का दूध ग्रहण करता हूँ। हर समय संकल्प तो करता हूँ कि सारे समय भगवान शिव के ध्यान में रहूँ, लेकिन कोई भी संकल्प कभी पूर्ण नहीं होता। हर संकल्प के साथ एक विकल्प भी तत्क्षण जन्म ले लेता है। कुछ भी साधना नहीं होती। अतः सब कुछ भगवान शिव के ऊपर ही छोड़ दिया है कि अपनी साधना स्वयं ही करो, मेरे वश में कुछ भी नहीं है।

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जो मैं कहने जा रहा हूँ, उससे पूर्व एक निवेदन है। हमारे जो लौकिक शत्रु हैं, वे अपनी सारी प्रेरणा अपनी पुस्तक से लेते हैं, तो हम अपनी प्रेरणा अपनी पुस्तक से क्यों नहीं ले सकते? रामायण और महाभारत (भगवद्गीता भी महाभारत का ही भाग है) हमारी पुस्तकें हैं। इनमें सारा आध्यात्मिक ज्ञान है। हमें अनिवार्य रूप से इनका स्वाध्याय कर अपनी सारी प्रेरणा इन्हीं से लेनी चाहिये। अपनी पुस्तकों यानि धर्मग्रंथों का तो हम स्वाध्याय करते नहीं हैं, और बातें धर्म-निरपेक्ष मार्क्सवादियों की सी करते हैं, तो हमारे विचारों का विखंडन होगा ही। हम अपने स्वभाव के विरुद्ध जा रहे हैं। अधर्मियों ने हमारे शास्त्रों में जो भाग प्रक्षिप्त किये हैं, उन प्रक्षिप्तताओं के बिना उनका स्वाध्याय हमें करना चाहिए।
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हमारा समाज वर्ण-आश्रम विहीन हो गया है, यह भी हमारे भ्रमित होने का एक कारण है। वर्णों का निर्माण भगवान ने किया था, न कि मनुष्य ने। जाति व्यवस्था भी आवश्यक है, इसी ने हमारे समाज की रक्षा की है। जातिवाद खराब है, लेकिन जाति-व्यवस्था स्वभाविक है।
हम सौ हाथ से कमाएँ तो हज़ार हाथ से बाँटें। मैं योग और उत्तर-मीमांसा यानि वेदान्त की बातें करता हूँ, लेकिन बैठा गृहस्थ में हूँ। यह गलत है। बहुत पहिले ही मुझे विरक्त हो जाना चाहिए था। लेकिन इसका साहस नहीं जुटा पाया। परमप्रेम (भक्ति) और समर्पण -- मेरा स्वभाव होने के कारण मेरा स्वधर्म है। अतः चर्चा मैं वह ही करूंगा जो मेरा स्वधर्म है। मेरे लिए वेदान्त एक अनुभूति है, न कि कोई विषय।
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सच्चिदानंद भगवान शिव की अनुभूति ---
मुझे यह सब लिखने की आंतरिक अनुमति है इसीलिए लिख रहा हूँ। जिन बातों की अनुमति नहीं है वह नहीं लिखूंगा। आज दिन में कुछ देर विश्राम किया, फिर आँखें बंद कर के बैठा ही था कि बंद आँखों के अंधकार के पीछे एक हल्की सी ज्योति के दर्शन हुए। फिर बहुत तेजी से वह ज्योति सारे ब्रह्मांड, सारी सृष्ट में फैल गयी। सारी सृष्टि में वह प्रखर ज्योति, और उस प्रखर ज्योति में ही सारी सृष्टि थी। उस ज्योतिपुञ्ज और उसके साथ उत्पन्न हुये नाद के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। उसका केंद्र सर्वत्र था लेकिन परिधि कहीं भी नहीं। मेरी देह भी कहीं नहीं थी। वह भी उस ज्योति में ही विलीन हो गयी थी। इस अनुभूति को मैं परमशिव या ज्योतिर्मय-ब्रह्म की अनुभूति कहता हूँ। यही मेरी स्वभाविक साधना है, यही मेरा स्वभाविक ध्यान है, और यही मेरा सच्चिदानंद है। अन्य जो लौकिक साधनाएं हैं उनकी चर्चा नहीं करूंगा, क्योंकि उनकी चर्चा की अनुमति नहीं है।
एक बार (प्रथम और अंतिम बार) देखने का प्रयास किया कि कौन किसका ध्यान कर रहा है, तो अनुभूति हुई कि शांभवी मुद्रा में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपना ध्यान कर रहे हैं। फिर कभी साहस नहीं हुआ, यह अनुभूत करने का।
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गीता में भगवान कहते हैं --
"यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥६:३०॥"
भावार्थ - सर्वात्म भाव से जो मुझे सर्वत्र देखता है और सब को मुझमें देखता है, उसके लिए मैं नष्ट नहीं होता (अर्थात् उसके लिए मैं दूर नहीं होता) और वह मुझसे वियुक्त नहीं होता॥
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"बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः॥७:१९॥"
भावार्थ -- बहुत जन्मों के अन्त में (किसी एक जन्म विशेष में) ज्ञान को प्राप्त होकर कि अंतर्रात्म और सर्वात्म रूप "यह सब वासुदेव है", ज्ञानी भक्त मुझे प्राप्त होता है; ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है॥
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"ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्॥१५:१॥"
भावार्थ -- श्री भगवान् ने कहा -- (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है॥
(यह ज्ञान हरिःकृपाजन्य अनुभूति से ही प्राप्त होता है, बुद्धि से नहीं)
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"सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥१८:६६॥"
भावार्थ -- सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो॥
(यह गीता का चरम श्लोक है।, इसका ज्ञान भी हरिःकृपा से ही होता है)
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और कुछ भी इस समय यहाँ पर लिखने योग्य नहीं है। आप सब में मैं भगवान परमशिव को नमन करता हूँ। ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
१२ अगस्त २०२४

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