"मैं" और "मेरा" --- इन दो शब्दों ने मेरा सारा काम गड़बड़ कर रखा है। इन शब्दों का प्रयोग केवल परमात्मा के लिए ही होना चाहिए, न कि इस शरीर महाराज के लिए। जब तक मैं स्वयं को यह शरीर महाराज समझता हूँ, मेरी स्थिति स्थायी रूप से परमात्मा मे स्थिर नहीं रह सकती। इस शरीर की चेतना से स्थायी मुक्ति आवश्यक है। सिर्फ ध्यान साधना के समय ही मेरी चेतना इस देह से बाहर कूटस्थ में रहती है। बाद में फिर इस देह में लौट आती है। अब हर समय चेतना का इस देह से बाहर कूटस्थ में रहना आवश्यक है। यह शरीर एक साधन मात्र है, मैं नहीं।
(प्रश्न): इस संसार में मैंने जन्म क्यों लिया था?
(उत्तर): केवल ईश्वर की प्राप्ति के लिए, न की सांसारिक यश और इंद्रीय सुख के लिए। हर कदम पर भटकाव है। साधु, सावधान !!
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गीता में भगवान कहते है --
"मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥१३:११॥"
अर्थात् -- अनन्य-योग के द्वारा मुझ में अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त स्थान में रहने का स्वभाव और (असंस्कृत) जनों के समुदाय में अरुचि॥
भावार्थ --
"अनन्य-योग", यानि "एकत्व-रूप समाधि-योग" से, अव्यभिचारिणी भक्ति का तात्पर्य यही हो सकता है कि -- भगवान् वासुदेव से अन्य कुछ भी नहीं है। वे ही हमारी परम गति हैं। इस भाव से युक्त होकर की गई उपासना ही अव्यभिचारिणी भक्ति है। भगवान के अतिरिक्त अन्य कोई भी कामना नहीं होनी चाहिए। भगवान हम से हमारा शत-प्रतिशत प्रेम मांगते हैं, ९९.९९% भी नहीं चलेगा। भगवान के अतिरिक्त की गई अन्य किसी भी कामना को भगवान ने व्यभिचार की संज्ञा दी है।
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इसके अतिरिक्त एकान्त पवित्र देश में रहने, और विनयभाव-रहित संस्कार-शून्य मनुष्यों के समुदाय को भी त्यागने का निर्देश भगवान ने दिया है। भगवान की सृष्टि में पूर्णता है, अपूर्णता केवल हमारे मन में है। अनन्य भक्ति होगी तो उसके पुत्र ज्ञान और वैराग्य को भी आना ही पड़ेगा। अन्य कुछ भी नहीं चाहिए।
ॐ तत्सत् !! ॐ ॐ ॐ !!
कृपा शंकर
१ अगस्त २०२४
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