Tuesday 27 August 2024

सत्य की खोज मनुष्य की एक शाश्वत जिज्ञासा है ---

विकल्प -- अनेकता में होता है, एकता में नहीं। परमात्मा में पूर्ण समर्पण को ही -- निर्विकल्प कहते हैं। निर्विकल्प में कोई अन्य नहीं होता। समभाव से परमात्मा में पूर्ण रूप से समर्पित अधिष्ठान -- निर्विकल्प समाधि है। पृथकता के बोध की समाप्ति का होना -- निर्विकल्प में प्रतिष्ठित होना है। निर्विकल्प समाधि में ही हम कह सकते है -- "शिवोहं शिवोहं अहं ब्रह्मास्मि", क्योंकि तब कल्याणकारी ब्रह्म से अन्य कोई नहीं है। परमात्मा की अनंतता, व उससे भी परे की अनुभूति, और पूर्ण समर्पण -- निर्विकल्प समाधि है। . हमारा पुनर्जन्म भगवान की इच्छा से नहीं, हमारी स्वयं की इच्छा से होता है। हमारे मन में छिपी कामनाएँ ही हमारे पूनर्जन्म का कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा। यह शत-प्रतिशत सत्य है। आत्मा की शाश्वतता, कर्मफलों की प्राप्ति, और पुनर्जन्म -- ये तीनों ही शाश्वत सत्य हैं -- जिन पर हमारा सनातन धर्म आधारित है। चूंकि हमारा सनातन धर्म -- सत्य पर आधारित है, इसीलिए वह कभी नष्ट नहीं हो सकता। संसार मे यदि सभी हिंदुओं की हत्या कर भी दी जाये तो भी सनातन धर्म नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि जिन अपरिवर्तनीय सत्य शाश्वत सिद्धांतों पर यह खड़ा है उनको फिर कोई मनीषी अनावृत कर देगा। संसार में यदि कहीं कोई सुख-शांति है तो वह इन मूलभूत सत्य सिद्धांतों के कारण ही है। जहाँ पर इन सत्य सिद्धांतों की मान्यता नहीं है, वहाँ अशांति ही अशांति है। राग-द्वेष व अहंकार से मुक्ति -- वीतरागता कहलाती है। यह वीतरागता और सत्यनिष्ठा ही मोक्ष का हेतु है। एकमात्र सत्य -- भगवान हैं। भगवान से परमप्रेम और समर्पण -- सत्यनिष्ठा कहलाते है। .

सत्य की खोज -- मनुष्य की एक शाश्वत जिज्ञासा है, वह शाश्वत जिज्ञासा ही इन सत्य सनातन सिद्धांतों को पुनः अनावृत कर देगी। भौतिक देह की मृत्यु के समय जैसे विचार हमारे अवचेतन मन में होते हैं, वैसा ही हमारा पुनर्जन्म होता है। हमारे पुनर्जन्म का कारण हमारे अवचेतन में छिपी हुई सुप्त कामनाएँ हैं, न कि भगवान की इच्छा।
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हम अपनी भक्ति के कारण ही कहते हैं कि यह सृष्टि भगवान की है, अन्य कोई कारण नहीं है। हम भगवान के अंश हैं अतः भगवान ने हमें भी अपनी सृष्टि रचित करने की छूट दी है। भगवान की सृष्टि में कोई कमी नहीं है। कमी यदि कहीं है तो वह अपनी स्वयं की सृष्टि में है। ये चाँद-तारे, ग्रह-नक्षत्र, और प्रकृति -- भगवान की सृष्टि है, और हमारे चारों ओर का घटनाक्रम -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(१) हमारे सामूहिक विचार ही घनीभूत होकर हमारे चारों ओर सृष्ट हो रहे हैं। जिन व्यक्तियों की चेतना जितनी अधिक उन्नत है, उनके विचार उतने ही अधिक प्रभावी होते हैं। अतः हमारे चारों ओर की सृष्टि -- हमारी स्वयं की सृष्टि है, भगवान की नहीं।
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(२) हम जो कुछ भी हैं, वह अपने स्वयं के ही अनेक पूर्व जन्मों के विचारों और भावों के कारण हैं, न कि भगवान की इच्छा से। हमारे विचार और भाव ही हमारे कर्म हैं, जिनका फल निश्चित रूप से मिलता है। इन कर्मफलों से हम मुक्त भी हो सकते हैं, जिसकी एकमात्र विधि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बताई है। अन्य कोई विधि नहीं है।
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(३) प्रकृति के नियमों के अनसार कुछ भी निःशुल्क नहीं है। हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है। बिना कीमत चुकाये मुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता। कुछ भी प्राप्त करने के लिए निष्ठा पूर्वक परिश्रम करना पड़ता है। हमारी निष्ठा और परिश्रम ही वह कीमत है। भगवान को प्राप्त करने के लिए भी भक्ति, समर्पण, श्रद्धा-विश्वास, लगन, और निष्ठा रूपी कीमत चुकानी होती है। मुफ्त में भगवान भी नहीं मिलते।
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कभी मैं भिखारियों की भीड़ देखता हूँ तो उनमें मुझे कई तो पूर्व जन्मों के बड़े-बड़े हाकिम (प्रशासक) दिखाई देते हैं, जिनसे कभी दुनियाँ डरती थी। उनकी मांगने की आदत नहीं गई तो भगवान ने इस जन्म में उनकी नियुक्ति (duty) यहाँ लगा दी। जो जितने बड़े घूसखोर, कामचोर, ठग, छल-कपट करने वाले, दूसरों का अधिकार छीनने वाले, और पाप-कर्म में रत रहने वाले अत्याचारी हैं -- उन को ब्याज सहित सब कुछ बापस चुकाना पड़ेगा। प्रकृति उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगी। नर्क की भयानक यातनाओं के रूप में उनसे उनके पापकर्म की कीमत बसूली जाएगी।
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आप सब के हृदय में प्रतिष्ठित परमात्मा को मैं नमन करता हूँ। वे ही मेरे प्राण और अस्तित्व हैं। ॐ स्वस्ति !! ॐ तत्सत् !!
कृपा शंकर
२८ अगस्त २०२१
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पुनश्च :--- "कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहि सो तस फल चाखा।"
इसमें ईश्वर मात्र दृष्टा हैं। करुणानिधान होने के कारण मनुष्य को सही मार्ग दिखाने का प्रयास करते हैं लेकिन हस्तक्षेप नहीं करते। कर्मफल में उनकी कोई भूमिका नहीं होती है।

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